मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 4 भूतनाथ - खण्ड 4देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण
तेरहवाँ बयान
आज जमानिया में कुंअर गोपालसिंह के गायब हो जाने के कारण बड़ी ही बेचैनी और हलचल मची हुई है। कल रात ही से वे गायब हैं और यद्यपि इस समय तक सैकड़ों ही आदमी उनकी खोज में जा चुके हैं मगर उनका कहीं भी पता नहीं लगता।
सूधे और दिल के कमजोर गिरधरसिंह की परेशानी की हद्द नहीं है। दामोदरसिंह की मौत ने पहिले ही उन्हें दु:खी कर रक्खा था, अब अपने बेटे के गायब हो जाने से बिलकुल ही बदहवास हो गए और उन्हें अपनी जान की भी उम्मीद जाती रही, केवल अपने एकान्त कमरे में अकेले बैठे आँसू गिरा रहे और लम्बी साँसे ले रहे हैं।
कुछ देर बाद ऊँची साँस ले महाराज ने आप कहा- ‘‘इन्द्रदेव को बुलाना चाहिए।’’ और तब सोने की छोटी घण्टी उठाकर बजाई जो सामने ही एक संगमर्मर की चौकी पर रक्खी हुई थी। बजाते ही हाथ बाँधे हुए चोबदार हाजिर हुआ और महाराज ने इन्द्रदेव को बुला लाने का हुक्म दिया।
चोबदार ‘‘जो हुक्म’’ कहकर चला गया और महाराज पुन: उसी तरह बैठे रहे। इन्द्रदेव का डेरा बहुत दूर न था अस्तु थोड़ी देर बाद वे आ पहुँचे और महाराज को प्रणाम करने के बाद इशारा पा अदब से सामने बैठ गए ।
महाराज ने अपनी आँखें पोंछी और इन्द्रदेव की तरफ देखकर कहा, ‘‘इस नई मुसीबत का हाल तुमने सुना ही होगा!’’
इन्द्र० : (हाथ जोड़कर) जी हाँ महाराज बल्कि कहना होगा कि सबसे पहले मुझी को इस बात का विश्वास करना पड़ा कि कुँअर साहब का कहीं पता नहीं लगता।
महा० : हाँ मुझे मालूम है कि उसने तुम्हें बुलाया था मगर फिर तुम्हारे आने के पहिले ही कहीं चला गया और बस इसके बाद फिर उसका कहीं पता नहीं।
इन्द्र० : उस समय से मैं स्वयं उनकी खोज में परेशान हूँ मगर अभी तक कुछ पता नहीं चला।
महा० : (लम्बी साँस लेकर) देखो इस थोड़े ही जमाने में मेरे ऊपर कैसी-कैसी मुसीबतें आईं। भैयाराजा चले गए, बहुरानी गायब हो गईं, मेरी स्त्री मरी, दामोदरसिंह मारे गए, और अब गोपालसिंह लापता है।
इन्द्र० : जी हाँ, यह तो ठीक है, पर बुद्धिमानों का कथन है कि मुसीबतों से कभी भी घबड़ाना या भागना नहीं चाहिए, अस्तु इस समय आपको अपना दिल कमजोर करना कदापि उचित नहीं, आपको राय देने की जुर्रत तो नहीं कर सकता मगर इतना निवेदन किए बिना भी न रहूँगा कि ऐसे मौके पर आप अगर किसी तरह अपना दिल छोटा करेंगे तो रिआया पर इसका बहुत बुरा असर पड़ेगा।
महा० : हाँ यह मैं भी समझता हूँ मगर मैं अपने दिल को सम्भालूँ तो क्यों कर! जैसी-जैसी आफतें इधर मुझे झेलनी पड़ी हैं उनसे मेरा दिल एकदम टूट गया है, मैंने तो यह निश्चय कर लिया था कि अब यह राज्य गोपालसिंह के हाथ में दे मैं इस झगड़े से अलग हो जाऊँगा मगर अब तो उसी का पता नहीं। न जाने वह कहाँ गया या किस मुसीबत में पड़ गया। न जाने अब उसका कभी पता लगेगा भी या नहीं या उसके बारे में कैसी खबर सुनने में आवेगी!
इतना कहते-कहते महाराज की आँखों से पुन: आँसू गिरने लगे, इन्द्रदेव ने उन्हें बहुत कुछ दम दिलासा देकर शान्त किया, और अन्त में उनके कहने पर कि ‘मैं इस बात का वादा करता हूँ कि अड़तालीस घंटे के भीतर उनकी खबर महाराज को दूँगा, वे कुछ चैतन्य होकर बोले, ‘‘मुझे तो अब तुम्हारा ही भरोसा है। गोपाल तुम्हारा दिली दोस्त था और तुमसे मुहब्बत करता था अस्तु उसके विषय में मेरा तुमसे कुछ कहना बिल्कुल व्यर्थ है। अब तुम्हीं जिस तरह से हो सके उसका पता लगाओ और उसे खोजो।
मेरे सब मुलाजिम और नौकर तुम्हारे ही हैं, जिस काम पर चाहो भेज सकते हो। मुझे अब तुम किसी मसरफ का न समझो। बिहारी और हरनाम तो गोपाल की आज्ञानुसार किसी काम पर मुस्तैद हैं मगर मेरे बाकी ऐयारों से तुम काम लो और समझ रखो कि गोपाल के बिना मेरा खाना-पीना सब बन्द है!
इन्द्रदेव देर तक महाराज को समझता-बुझाते रहे और कई तरह से कह-सुन और दम दिलासा देकर उन्हें कुछ शान्त किया, इसके बाद उनकी आज्ञा ले अपने घर लौटे। महाराज उसी तरह गद्दी पर पड़े आँसू की धारें गिराते रहे।
वह दिन बीता, रात बीती, और दूसरा दिन भी बीत गया मगर गोपालसिंह का कुछ पता न लगा। महाराज की घबराहट और परेशानी की कोई हद्द न रही और वे बिल्कुल ही बदहवास हो गए।
कुँअर साहब के गायब होने के चौथे दिन बहुत ही सुबह के समय महाराज अपने सोने के कमरे में पलंग पर अधलेटे-से पड़े हुए थे। इस समय इस कमरे में और कोई न था क्योंकि महाराज का हुक्म ही ऐसा था, और पहरेदार भी इस कमरे के बाहर का एक और दूसरा कमरा भी छोड़कर उसके बाद वाले एक लम्बे-चौड़े दालान में थे जहाँ से यहाँ भीतर का हाल देखा नहीं जा सकता था।
महाराज की निद्रा भंग हुए बहुत समय हो गया था बल्कि कहना चाहिए कि अपने बेटे के गम में उन्हें रात को नींद आई ही न थी। वे तकिये के सहारे लेटे हुए कुछ सोच रहे थे कि बाहर से घण्टी बजने की आवाज आई जिससे जाहिर हुआ कि कोई नौकर या पहरेदार कुछ कहना चाहता है। महाराज के सिरहाने की तरफ ऊँची चन्दन की चौकी पर जल, कुछ और जरूरी सामान तथा एक घण्टी पड़ी हुई थी जिसे उठाकर उन्होंने बजाया।
घण्टी बजाते ही महाराज का एक खास खिदमतगार कमरे के दरवाजे पर आ खड़ा हुआ। महाराज के इशारे पर यह पूछने से कि ‘क्या है’ उसने एक चीठी जो उसके हाथ में दी थी दिखाकर अर्ज किया, ‘‘कल रात को एक सवार चीठी महल के दरवाजे पर पहरेदारों को दे गया था कि हुजूर ही के हाथ में दी जाए। पहरेदारों ने यह चीठी मुझे पेश करने को दी पर महाराज आराम कर रहे थे इस कारण उस समय हाजिर न कर सका। चीठी देने वाले ने इसके बारे में सख्त ताकीद की थी इसलिए बेमौका होने पर भी इसी समय लाया हूँ।’’
महाराज ने हाथ बढ़ाया और खिदमतगार ने आगे बढ़कर चीठी उन्हें दे दी तब पुन: दरवाजे के पास इस इन्तजार में खड़ा हो गया कि कदाचित महाराज कोई हुक्म दें।
चीठी मोटे मोमजामे के अन्दर बहुत मजबूती के साथ बन्द की हुई थी और जोड़ पर लाल रंग की मुहर लगी हुई थी, महाराज ने मुहर तोड़ मोमजामा हटाया। अन्दर से एक लिफाफा निकाला, उसे भी खोला। इस लिफाफे के अन्दर से एक चीठी और एक पन्ने की एक अंगूठी निकली जिसकी बनावट कुछ विचित्र प्रकार की थी।
अंगूठी देखते ही महाराज चौंक पड़े। कुछ देर तक बड़े गौर के साथ उसे देखते रहे और एक लम्बी साँस के साथ यह कहकर कि ‘बेशक वही है’ उसे रख चीठी उठाकर देखने लगे।
टेढ़े-मेढ़े अजीब कुढंगे अक्षरों से मामूली बातों के बाद यह लिखा हुआ था :-
‘‘बड़े ही अफसोस की बात है कि तिलिस्म के राजा और असाधारण ताकत रखने पर भी अपने दोस्त और दुश्मन के पहिचानने में भूल करते हैं। बड़े ही दु:ख की बात है कि महाराज ही के नौकर-चाकर और गुलाम महाराज ही के साथ दगा करें और साफ बच जाएँ!
‘‘इस समय आप कुँअर साहब के गायब होने के कारण परेशान हैं मगर खूब खयाल रखिए कि वे इस समय भी आप ही के राज्य और आप ही की हुकूमत के अन्दर हैं मगर फिर भी आप ही उनका पता नहीं लगा सकते! अफसोस की बात है!
‘‘अगर अब भी आप अपने तिलिस्म के अन्दर, उस मकान में जो लोहगढ़ी के नाम से पुकारा जाता है अथवा अयाजबघर में जिसे दारोगा साहब पा गए हैं, तलाश करेंगे तो कई कैदियों को वहाँ देखेंगे और ऐसी बातें जानेंगे कि ताज्जुब होगा।’’
बस यही चीठी का मजमून था और इसके नीचे किसी का नाम या दस्तखत न था।
हम नहीं कह सकते कि महाराज पर इस चीठी का असर ज्यादे पड़ा या उस अंगूठी का जो इसके साथ में थी। इतना अवश्य हुआ कि कुछ देर के लिए वे और ऐसी गहरी चिन्ता में पड़ गए कि तन-बदन की सुध न रही। घड़ी भर से ऊपर बीत जाने पर महाराज ने सिर उठाया। उन्होंने एक बार पुन: उस अंगूठी को देखा, वह चीठी पढ़ी, और तब आप ही आप कहा, ‘‘मैं अभी तिलिस्म के अन्दर जाऊँगा।
महाराज पलंग पर से उतर पड़े और खूटी से लटकती हुई तिलिस्मी तलवार उतार ली और चोबदार की तरफ देखकर बोले, ‘‘मैं तिलिस्म के अन्दर जाता हूँ, कोई बहुत जरूरी काम है। ठीक नहीं कह सकता कि कब तक लौटूँगा।’’ पास ही में एक छोटा दरवाजा था जिसके अन्दर वे चले गए और दरवाजा बन्द कर लिया।
मगर अफसोस! महाराज बड़ी भारी भूल कर गए। वह अंगूठी और चीठी उन्होंने उसी जगह छोड़ दी जिसे उनके जाते ही चोबदार ने आगे बढ़कर उठा लिया और तब अपने कपड़ों में छिपा कमरे से बाहर निकल गया।
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