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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

नौवाँ बयान


दुश्मनों को भैयाराजा के पीछे जाते देख दत्त बहुत खुश हुआ और मुस्कुरा कर अपने साथी दारोगा अर्थात् प्रभाकरसिंह से बोला—

दत्त : देखो उन लोगों ने कैसा धोखा खाया!

प्रभा० : निःसन्देह आपने दोहरी चालाकी की।

दत्त : (मुस्कराकर) सो क्या?

प्रभा० : एक तो दुश्मनों से मैदान खाली हो गया, दूसरे भैयाराजा जी और भूतनाथ उधर ही से जमानिया जाकर जमना और सरस्वती की टोह भी लगा सकेंगे।

भीम : (जो कि वास्तव में मेघराज थे, दत्त से) तो क्या आपका यह मतलब था कि भैयाराजा उधर ही से जमानिया चले जाएँ और...

दत्त : हाँ मेरा यही मतलब था और यही मैंने उनसे कहा भी है। लेकिन इस पर शायद तुम यह कहोगे कि यदि ऐसा ही था तो आपने मुझे भैयाराजा के साथ क्यों नहीं भेजा?

मेघ० : जी हाँ, क्योंकि भूतनाथ उन दोनों का दिली दुश्मन है और उसकी वर्तमान दोस्ती कब तक कायम रहेगी इसका भी कोई निश्चय नहीं है।

दत्त : मैंने भी पहले यही सोचा था परन्तु फिर मुझे यह विचार आया कि भूतनाथ जमानिया के सब स्थानों और दारोगा के भूलभुलैया वाले मकान से भी वाकिफ है और उसके जाने से ज्यादा लाभ की आशा है, फिर मुझे यह भी विश्वास है कि भैयाराजा के रहते वह कोई बेजा कार्रवाई न कर सकेगा। यदि जरूरत आ पड़ने पर तुम दोनों को अलग-अलग काम करना होता तो ऐसी अवस्था में तुम क्या करते या भैयाराजा ही तुम्हें कहाँ लिए फिरते। तुम सुन ही चुके हो कि भैयाराजा स्वयम् दारोगा के मकान में जाकर बेबस हो गए थे और बहुत उद्योग करने पर भी बाहर न निकल सके थे।

इत्यादि बहुत-सी बातें समझा कर दत्त ने मेघराज को शान्त किया और उन्हंम विश्वास करा दिया कि भूतनाथ का जाना उनसे ज्यादा फलदायक होगा। मेघराज चुप हो गए मगर मन-ही-मन तरह-तरह की बातें सोचने लगे, सच तो यह है कि जमना और सरस्वती के यकायक इस तरह गायब हो जाने से उन्हें बड़ा ही रंज हुआ और दुनिया उनके लिए अँधेरी हो गई।

इस वक्त सुबह की सफेदी चारों तरफ फैल चुकी थी और पुरवाई हवा के हलके थपेड़ों ने दरख्तों तथा पौधों से हाथापाई करना शुरू कर दिया था। चिड़ियां अपनी सुरीली बोली में चहक रही थीं और जिधर देखिए उधर ही एक अपूर्व छटा आँखों के सामने नजर आती थी। यह विचित्र समा उदासीनता को पास नहीं आने देता था मगर बेचारे मेघराज अर्थात् दयाराम पर इस जादू का कुछ भी असर नहीं हो रहा था, उनका दिल बैठा ही जाता था और चेहरे की रंगत क्षण-क्षण में बदलती ही जा रही थी जिसको दत्त ने बड़े गौर से देखा और मेघराज की अवस्था पर अफसोस करते हुए कहा—

दत्त : (मेघराज का हाथ पकड़कर) मेरे प्यारे दयाराम, तुम अपने दिल को सम्हालो और हताश न हो। तुम्हारे ऐसे बुद्धिमान के लिए यह उचित नहीं है। भैयाराजा भूतनाथ को लेकर उन दोनों की खोज में गए हैं, मुझे पूरी आशा है कि वे अवश्य कृतकार्य होंगे और आज किसी-न-किसी समय जमना, सरस्वती को लेकर जरूर लौटेंगे। फिर भी मुझे तुम्हारी अवस्था देखकर रंज होता है और दिल यही चाहता है कि जिस तरह हो अभी उनकी तलाश में जाऊँ और जहाँ कहीं वे मिलें उनको खोज निकालने का उद्योग करूँ, मगर क्या करूँ इन कैदियों को भी तो यहाँ से ले चलना जरूरी है। अफसोस, मैं तो यह समझे हुए था कि आज हम लोग इस काम से छुट्टी पा हर तरह से निश्चिंत हो जाएँगे और केवल सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने के सिवाय पुनः इस संसार में हमें कुछ करना बाकी न रह जाएगा। परन्तु नहीं, अब मालूम हुआ कि हम लोगों को कुछ और भुगतना है और हमारी बदकिस्मती ने अभी हमारा पीछा नहीं छोड़ा।

इसी प्रकार की बहुत-सी बातें करते-करते दत्त का गला भर आया और वह चुप हो गया मगर कुछ देर बाद जब पुनः उसने मेघराज की तरफ ध्यान दिया तो देखा कि उनकी आँखों से आँसू की धार बह रही है।

दत्त जो वास्तव में इन्द्रदेव थे और जो बड़े संकट के समय में भी बहुत कुछ करने का साहस रखते थे इस समय मेघराज की यह अवस्था देख न-जाने क्यों इतना घबड़ा गए कि कोई अच्छी बात नहीं सोच सके। वह यह भी नहीं कह सकते कि इस समय जमना और सरस्वती के लिए क्या प्रबन्ध करना उचित होगा। आज पहला दिन है कि हम लोग इन्द्रदेव को ऐसी अवस्था में देखते हैं। वह कठिन-से-कठिन समय में भी हताश न होकर गम्भीरता और बुद्धिमानी से काम करते थे। कदाचित इस समय उनकी घबराहट का कारण यह हो कि वह मेघराज को बहुत प्यार करते हैं और उनके दुःखी होने से उनके दिल पर गहरी चोट पड़ती है।

जो हो मगर इन्द्रदेव की यह अवस्था देर तक न रही। उन्होंने बहुत जल्दी अपने दिल को सम्हाल कर उदास और चिन्ता-निमग्न मेघराज को ढाढ़स दिया और कहा, ‘‘तुम मेरी बातों पर विश्वास करो और जिस तरह हो सके अपने दिल को ढाढ़स दो। (कैदियों को दिखलाकर) इन लोगों को उचित स्थान पर रख कर मैं तुरन्त लौटूँगा और जमना, सरस्वती की तलाश में जाऊँगा तथा ईश्वर ने चाहा तो सूर्य अस्त होने के पहले उनको साथ लिए तुम्हारे पास आ पहुँचूँगा।’’

मेघराज इन्द्रदेव की प्रकृति को खूब जानते थे इस कारण उन्हें विश्वास हो गया कि इन्द्रदेव स्वयं जमना इत्यादि की खोज में जाएँगे तो निःसन्देह कुछ पता लगा ही लेंगे क्योंकि ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ वे सहज में न जा सकते हों। वह थोड़े ही परिश्रम में बड़े-बड़े ऐसे काम कर सकते हैं जिनको दूसरा बहुत उद्योग करने पर भी शीघ्र नहीं कर सकता, अस्तु उनके लिए जमना, सरस्वती का छुड़ाना कोई कठिन काम नहीं है।

इस विचार के आते ही मेघराज के चेहरे का रंग बदल गया और उनका कुम्हलाया हुआ उदास चेहरा आशारूपी वर्षा से हरित हो गया। इन्द्रदेव के तीन घोड़े जो पास ही किसी पेड़ में बँधे हुए थे मँगवाए गए जिनमें से दो पर इन्द्रदेव और मेघराज बैठ गए और तीसरे पर प्रभाकरसिंह अपने बेहोश पिता को लेकर सवार हुए। बचे हुए कैदियों को उठा लिया और सब कोई धीरे-धीरे आगे बढ़े। लगभग दो घण्टा सफर करने के बाद ये लोग एक पहाड़ी के पास पहुँचे जहाँ इन्द्रदेव के कहने से सब लोग रुक गए और घोड़ों से उतर पड़े।

यह स्थान जहाँ ये लोग इस समय पहुँचे थे एक रमणीक पहाड़ी के समीप था। यद्यपि यहाँ कोई ऐसी इमारत नहीं थी जहाँ दस-बीस आदमी सुखपूर्वक दो-एक दिन रह सकें तथापि नजदीक की पहाड़ियों में सुन्दर सुहावनी कन्दराओं तथा गुफाओं की कमी भी नहीं थी। उन्हीं में से एक साफ और सुथरी गुफा देख कर सभों ने डेरा डाल दिया और घोड़ों की लम्बी बागडोरों के सहारे बाँधने के बाद कैदियों को आराम के सहित रखने तथा होश में लाने की फिक्र करने लगे।


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