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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

दसवाँ बयान


अभी संध्या होने में बहुत देर है। दिन यद्यपि लगभग तीन पहर के ढल चुका है तो भी धूप की गर्मी से दरोदीवार तप रहे हैं और गर्म हवा चल रही है।

दारोगा अपने मकान के पीछे वाले नजरबाग में टहलता हुआ कुछ सोच रहा है। उसका उदास चेहरा कहे देता है कि इस समय वह किसी बहुत ही दुःखदायी चिन्ता में निमग्न हो रहा है। साथ ही उसके बार-बार ठंडी साँस लेने तथा घबराहट के साथ इधर-उधर देखने से यह भी विश्वास होता है कि यह किसी बात को सोच-सोच कर भयभीत हो रहा है। केवल इतना ही नहीं, वह कभी-कभी कलेजा थाम कर बैठ जाता है और सर पकड़ कर कुछ सोचता हुआ अपने को सम्हालने का उद्योग करने लगता है।

इस प्रकार कभी टहलते, कभी बैठते, कभी उठते, कभी सोचते हुए दारोगा को काफी समय बीत गया था जब अचानक उसकी नजर बिहारीसिंह और हरनामसिंह पर पड़ी जो तेजी के साथ उसी की तरफ चले आ रहे थे। जब वे नजदीक पहुँचे तो दारोगा ने पूछा। ‘‘कहो कुछ पता चला! तुम्हारे इन्तजार ने मुझे परेशान कर दिया।’’

बिहारी : (अफसोस के साथ) नहीं, न-मालूम जमीन उनको खा गई या वे आसमान में उड़ गए!

दारोगा : अफसोस, मुझे मालूम होता है कि मेरे बुरे कर्म उदय हो गए और मुझे बड़ी ही दुर्दशा से प्राण देना होगा!

बिहारी : नहीं, नहीं, आपको ऐसा निराश न होना...

दारोगा : (बात काट कर) सच तो यह है कि यदि मैं शिवदत्त के साथ दोस्ती न पैदा करता और उसके कैदियों को अपने यहाँ न रखता तो आज यह दिन मुझे कदापि न देखना पड़ता। अफसोस, भैयाराजा के साथ-ही-साथ अब प्रभाकरसिंह भी मेरे खून का प्यासा हो जाएगा। क्या कहूँ मैंने व्यर्थ केवल एक चीठी लिखवाने की लालच में उसके माता-पिता को अब तक जिन्दा रक्खा और जहाँ तक मेरा खयाल है अब कामेश्वर अथवा भुवनमोहिनी वाला भेद भी छिपा न रहेगा।यदि मैं पहले ही उनको मार कर निश्चिन्त हो जाता तो आज...

बिहारी : ठीक है परन्तु होनहार बड़ा प्रबल है, उसके आगे किसी का कोई चारा नहीं चलता और इस विषय में ज्यादा ध्यान देकर अपने चित्त को डाँवाडोल करना अब केवल व्यर्थ ही नहीं बल्कि अपने अनमोल समय को नष्ट करना होगा।

दारोगा : अच्छा तो फिर क्या करना उचित है सो भी तो कुछ बताओ तुम्हारी क्या सलाह है?

बिहारी : भला मैं क्या बताऊँ और क्या सलाह दूँ? इन मामलों में आपसे ज्यादे मैं कब सोच सकता हूँ? मेरे कहने का तो केवल यही तात्पर्य है कि आप शीघ्र ही कुछ करने का निश्चय करें, बीती हुई घटनओं को सोचते रहना या उनमें उलझ कर समय नष्ट करना कुछ भी फलदायक न होगा।

दारोगा : मेरे प्यारे बिहारीसिंह, इस समय मेरी अवस्था ऐसी नहीं है जो मैं कुछ सोच सकूँ या अपनी कोई राय कायम कर सकूँ, यदि तुम दोनों से कुछ बन सके तो करो नहीं तो मुझे अपने उस मौत की अगवानी करने के लिए छोड़ दो जिसका पेशखामा जल्द ही आकर गड़ने वाला है। अफसोस इन कैदियों को जीता छोड़कर मैंने अपने हाथों अपने पैर में कुल्हाड़ी मारी! हाय, यह भेद किसी तरह छिपा नहीं रह सकता।तुम स्वयं विचार कर सकते हो कि दिवाकरसिंह प्रकट होकर क्या-क्या उत्पात नहीं करेगा और महाराज के सामने मेरी कैसी-कैसी दुर्गति नहीं करावेगा? महाराज के साथ उसके कैसे गहरे सम्बन्ध हैं इसको तुम जानते ही हो। मुमकिन है शंकरसिंह या कुँअर साहब उसको न पहिचानते पर महाराज उसको पहिचानने में किसी तरह भी धोखा नहीं खा सकते। अफसोस, जैपाल न हुआ, नहीं तो मेरी यह दशा न होती, ऐसे कठिन समय में भी वह बहुत कुछ कर गुजरता।

उसी समय चोबदार ने आकर खबर दी, ‘‘जयपालसिंह जी बाहर खड़े हैं, मिलना चाहते हैं।’’

यह सुनते ही दारोगा चौंक पड़ा, उसे यह आशा न थी कि जयपाल इस जिन्दगी में फिर उससे मिलेगा। वह चमक कर बोला, ‘‘कौन जयपालसिंह!!’’

चोबदार : जी हाँ।

मैं बैठक में चलता हूँ, उन्हें जल्द वहीं लाओ।’’ कहकर दारोगा उठ खड़ा हुआ और अपने मकान की तरफ बढ़ा मगर जब तक जैपाल वहीं आ पहुँचा और उसके पैरों पर गिर पड़ा। दारोगा जैपाल से मिलकर बहुत खुश हुआ। उसको अपने साथ लेता हुआ कमरे में आकर गद्दी पर बैठ रहा और उसे अपने सामने बैठने का इशारा किया। बिहारी और हरनाम से गले मिलने के बाद जैपाल दारोगा की आज्ञानुसार उसके पास ही गद्दी पर बैठ गया।

दारोगा : वाह जयपालसिंह, तुम भी खूब आए! मैं तुम्हारे न रहने से बड़ा ही दुःखी था और सच तो यह है कि तुमसे मिलने से भी निराश हो चुका था। हाय, तुम्हें क्या खबर होगी कि मुझ पर क्या बीत रही है और मैं किन घटनाओं का शिकार हो रहा हूँ।

जैपाल : सो क्या, क्या इधर कोई नई बात हुई है?

दारोगा : सो नहीं, पहले मैं तुम ही से सुनना चाहता हूँ कि तुम किसके चंगुल में फँस गए थे और अब किस तरह छूटे?

जैपाल : मैं किस तरह फँसा यह तो आपको मालूम ही है परन्तु किसने मुझे फाँसा और मैं कहाँ कैद रहा अथवा वह स्थान जहाँ मैं कैद था किस जगह है और मैं यहाँ क्यों आया यह सब मुझे अब तक भी कुछ मालूम न हुआ।

दारोगा : (आश्चर्य से) वाह, यह भी तुमने खूब कहा!

जैपाल : जी हाँ, जो कुछ मैंने कहा वह बिल्कुल सही है और इसमें एक शब्द भी गलत नहीं है।

दारोगा : अच्छा अपना पूरा-पूरा हाल जितना कुछ तुम्हें मालूम हो कह जाओ।

‘‘सुनिये मैं कहता हूँ ’’ कहकर जैपाल ने यों कहना शुरू किया—

‘‘नागर के मकान पर जब मैं बेहोश हो गया तो पहर दिन चढ़े तक मेरी आँख न खुली।

इसके बाद मैं होश में आया तो अपने को एक ऐसे कैदखाने में पाया जिसके तीन तरफ तो संगीन दीवारें और सामने की तरफ एक मेहराबदार बड़ा दरवाजा था जिसमें लोहे के छड़ लगे हुए थे। मेरे दाने-पानी का वहीं पर प्रबंध था और मुझे अपने ये दिन उसी जगह गुजारने पड़े।जब तक मैं उस कैदखाने में रहा दो औरतें नित्य मेरे पास आतीं और घण्टों तरह-तरह के सवाल करतीं पर मैं उन दोनों को पहिचान न सका क्योंकि इसके पहिले मैंने कभी उनको न देखा था। हाँ इधर दो दिन से उन औरतों को मैंने नहीं देखा, न-मालूम वे मेरे पास क्यों नहीं आईं।खैर, आज सवेरे जब मैं जंगले के पास बैठा तरह-तरह की बातें सोच रहा था उसी समय एक नई औरत वहां आई और जंगला खोल मेरी कोठरी के अन्दर आ सामने खड़ी हो गई। उस औरत के कपड़ों में से एक विचित्र प्रकार की गन्ध आ रही थी जो बात-की-बात में तमाम कमरे में फैल गई, पर जरूर उस खुशबू में तेज बेहोशी का असर था क्योंकि उसे सूँघते ही मैं जमीन पर लेट गया और मुझे तनोबदन की सुध न रही। कई पहर बाद जब पुनः आँख खुली तो अपने को एक पेड़ के नीचे पाया। उस समय सूर्य अस्त हो चुका था मगर अन्धकार ने अपना दखल न जमाया था। मैं यकायक अपने को स्वतंत्र देख चौंक पड़ा और आश्चर्य की निगाह से चारों तरफ देखने लगा। पहिले तो मुझे यह गुमान हुआ कि मैं स्वप्न देख रहा हूँ परन्तु जब निश्चय हो गया कि जाग रहा हूँ और जो कुछ देख रहा हूँ वह स्वप्न नहीं है तो उठ खड़ा हुआ। गौर से चारों तरफ देखने से मालूम हुआ कि मैं जमानिया के पास ही हूँ अस्तु वहाँ से सीधा आपके पास चला आ रहा हूं। ’’

दारोगा : निःसन्देह तुम्हारी कहानी विचित्र है परन्तु सच बात यह है कि मुझे अपनी ऐसा अवस्था में जबकि मैं सख्त परेशानी में हूँ तुम्हें देख कर बड़ी खुशी हुई। लो मैं अपनी रामकहानी संक्षेप में सुना देता हूँ जिसमें तुम मेरी परेशानी का सबब समझ सको।

इतना कह दारोगा ने अपना कुल हाल उस दिन से जब से जैपाल अलग हुआ था आज तक का संक्षेप में बयान किया और तब यह भी कहा कि उन लोगों में से दो औरतें गिरफ्तार हुई हैं जिनकी निस्बत बिहारी और हरनामसिंह का विचार है कि शायद वे जमना और सरस्वती हों।

जैपाल : (चौंक कर) हैं, जमना और सरस्वती? मगर ऐसा तो हो नहीं सकता। मैंने सुना है कि वे दोनों प्रभाकरसिंह के साथ किसी गुप्त स्थान में रहती हैं और उसके बाहर बिल्कुल ही नहीं निकलतीं।

दारोगा : जो हो, मैंने तो अभी उन्हें देथा नहीं अस्तु कुछ ठीक नहीं कह सकता कि वे कौन हैं और कौंन नहीं।

जैपाल : (बिहारीसिंह की तरह देख कर) मगर तुम लोगों ने तो उन्हें बखूबी देखा होगा फिर शक करने की क्या वजह है? क्या उनकी सूरतें...

बिहारी : सूरतें दोंनों की जमना-सरस्वती से बिल्कुल नहीं मिलतीं और इसके अतिरिक्त उनकी पोशाकें भी जनानी नहीं थीं, मगर फिर भी...

जैपाल : तो क्या वे मर्दानी पोशाक में थीं?

बिहारी : जी हाँ।

जैपाल : तब तुम लोगों ने कैसे जाना कि वे जमना और सरस्वती हैं?

बिहारी : वे जमना और सरस्वती जरूर हैं ऐसा तो मैं नहीं कहता मगर यह कहने से भी बाज नहीं आ सकता कि कदाचित् मेरा शक पन्द्रह आना सही है।

जैपाल : पन्द्रह आना क्यों, ईश्वर करे तुम्हारा कहना सोलह आना सही हो, मुझे भी उन्हीं दोनों की खोज है।

बिहारी : उन दोनों की जाँच करने का हमें अब तक मौका न मिला, (दारोगा की तरफ देख कर) शायद आपने उनकी जाँच की हो?

दारोगा : नहीं-नहीं, मुझे तो खुद अपनी ही खबर न थी।

जैपाल : इस कैद में मुझे एक बात नईमालूम हुई है जिससे मुझे एक विचित्र प्रकार का सन्देह हो रहा है और यदि ये दोनों जमना और सरस्वती ही होंगी तो मैं उस सन्देह को सहज ही दूर कर सकूँगा।

दारोगा : वह सन्देह कैसा है? क्या कुछ जमना आदि के ही बारे में है?

जैपाल : जी हाँ, परन्तु उसका ज्यादा सम्बन्ध भूतनाथ से है। यदि उस बात का ठीक-ठीक पता लग जाय तो फिर आप भूतनाथ को बड़े सहज में अपने बस में कर सकेंगे।

दारोगा : यदि ऐसा हो तो फिर क्या बात है! भूतनाथ अगर सच्चे दिल से हम लोगों का साथ देने लग जाय तो हमको अब भी किसी बात की कमी न रहे।

जैपाल : निःसन्देह, मेरा शक दूर होने दीजिए, मैं वह सब हाल आपसे कहूँगा।

बिहारी : थोड़ी देर बाद जब हम लोग खुद चल कर देखेंगे तो सब कुछ ठीक-ठीक मालूम हो जाएगा।

जैपाल : बेशक और इसीलिए मेरी राय है कि सबसे पहिले उन्हीं दोनों की जाँच होनी चाहिए।

इतना कह जैपाल ने दारोगा की तरफ देखा और कहा, ‘‘तो क्यों न पहिले उन्हीं सभों से मिल लिया जाय! सम्भव है कि इन लोगों का सन्देह सही हो और वे जमना, सरस्वती ही हों, और यदि ऐसा हुआ तो हमें दुश्मनों की खोज में बहुत बड़ी मदद मिलेगी।’’

‘‘क्या हर्ज है चलो।’’ कहता हुआ दारोगा उठ खडा हुआ और सबको साथ ले अपने भूलभूलैया जैसे मकान की तरफ रवाना हुआ।

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