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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

तेरहवाँ बयान


प्रभाकरसिंह और उस औरत के पीछे-पीछे चल कर इन्द्रदेव और दलीपशाह भी उस पिण्डी के पास पहुँचे मगर वहाँ कोई भी दिखाई न पड़ा। दोनों आदमियों ने इधर-उधर घूम-फिर कर बहुत खोजा मगर जब कुछ पता न लगा तो इन्द्रदेव बोले, ‘‘बेशक वे दोनों तिलिस्म में चले गए!’’

दलीपशाह : तो अब क्या करना चाहिए! आप तो तिलिस्म के भीतर जाकर भी उनका पीछा कर सकते हैं?

इन्द्रदेव : हाँ कर सकता हूं मगर ऐसा करना इस समय ठीक नहीं जान पड़ता, इसमें बहुत समय लग जाएगा और आज-कल मौका ऐसा है कि मैं अपने घर से ज्यादा देर तक अलग नहीं रह सकता।

दलीप० : बेशक इस समय आप पर बड़ा भारी तरद्दुद आ पड़ा है और खास कर जमना-सरस्वती का मारा जाना...

इन्द्र० : खैर उस बात की तो मुझे इतनी चिन्ता नहीं है पर...

दलीप० : चिन्ता नहीं है! क्या जमना-सरस्वती के मारे जाने का आपको गम नहीं है?

इन्द्र० : नहीं, क्योंकि वे मारी नहीं गईं मगर गायब जरूर हो गई हैं।

दलीप० : (खुश होकर) तो क्या वे दोनों कोई दूसरी ही थीं जिनके मरने का हाल हम लोगों ने सुना था?

इन्द्र० : वे दोनों लौंडियाँ थीं जिन्हें मैंने जमना-सरस्वती की सूरत में बना रक्खा था।

इतना कह इन्द्रदेव ने जमना इत्यादि के विषय में जो कुछ चालाकी की थी वह दलीपशाह से कह सुनायी पर दयाराम का जिक्र न किया।सब हाल सुन दलीपशाह बोले, ‘‘खैर उन दोनों के मारे जाने का गम तो जाता रहा पर यह तरद्दुद बना ही रहा कि उस घाटी में से वे दोनों कहाँ गायब हो गईं।’’

इन्द्र० : बस यही तरद्दुद असली है, कुछ मालूम नहीं होता कि वे कहाँ चली गईं।

दलीप० : क्या इस बात का पता लगा कि उन नकली जमना-सरस्वती को किसने मारा?

इन्द्र० : वह काम तो गदाधरसिंह का था, मेरे एक शागिर्द ने अपनी आँखों उसे ऐसा करते देखा।

दलीप० : यह दुष्ट किसी तरह भी राह पर आता दिखाई नहीं पड़ता। ज्यों-ज्यों आप तरह देते जाते हैं त्यों-त्यों यह और सिर चढ़ता जाता है। मैं आपकी यह चाल बिल्कुल पसन्द नहीं करता। मुझे विश्वास है कि यदि आप ऐसा ही करके जायँगे तो किसी-न-किसी दिन वह आप पर भी अवश्य वार करेगा क्योंकि इस बात को तो वह अच्छी तरह जान ही गया है कि आप जमना-सरस्वती की मदद पर हैं।

इन्द्र० : मुझ पर तो वार वह कदाचित् न करेगा, पर कुछ ठीक भी नहीं, उसका स्वभाव बड़ा ही विचित्र है, जो न कर जाय सो थोड़ा। अच्छा चलो अब यहाँ ठहरना वृथा है।

दलीप० : हाँ चलिए मगर इस जगह पर ध्यान अवश्य रक्खें बल्कि अगर मौका मिले तो कभी तिलिस्म के अन्दर जाकर भी इन दोनों को खोजें। मैं भी अपने शागिर्दों को यहाँ तैनात करूँगा।

दोनों आदमी धीरे-धीरे बातें करते हुए उधर ही को लौटे जिधर से आए थे। इस समय रात आधी के करीब जा चुकी थी पर शुक्ल पक्ष होने के कारण इन दोनों को उस बेढंगे रास्ते पर चलने में ज्यादा कठिनाई नहीं हो सकती थी।

टीले पर से उतरने के बाद ये दोनों बहुत दूर नहीं गये होंगे कि पगडण्डी के बगल ही से एक विचित्र ढंग की सीटी बजने की हल्की आवाज आई जिसके सुनते ही दलीपशाह ने भी ही सीटी बजाकर जवाब दिया। पुनः आवाज आई और तब एक आदमी इन दोनों के सामने आ सलाम कर खड़ा हो गया। इन्द्रदेव ने इसे पहचाना, यह दलीपशाह का प्यारा शागिर्द गिरिजाकुमार था।

दलीप० : (गिरिजाकुमार से) क्या हाल हैं? कुछ पता लगा?

गिरिजा० : जी हाँ बहुत कुछ! आपका खयाल ठीक था, वह गौहर ही थी।

दलीप० : किस नीयत से यहाँ आई थी?

गिरिजा० : पूरा-पूरा तो पता नहीं लगा मगर शायद उसका इरादा भूतनाथ के विषय में कुछ जानने का था, लेकिन भूतनाथ ने उसे कैद कर लिया।

दलीप० : कैद कर लिया ! सो कब?

गिरिजा० : बस उसी दिन जिस दिन उसे आपने देखा था। गदाधरसिंह ने भी किसी तरह उसे देख लिया और पीछा कर पकड़ लिया। पर गदाधरसिंह ने उसे लामाघाटी में ही कैद कर दिया है और वहाँ ही आज-कल उसकी रामदेई भी है।

दलीप० : लामाघाटी में रक्खा है! तब तो... खैर और कुछ मालूम हुआ?

गिरिजा० : हाँ और भी कई बातें मालूम हुई हैं मगर वे सब निश्चिन्ती में सुनने लायक हैं। आप ऊपर टीले पर गए थे, क्या कुछ पता लगा?

दलीप० : प्रभाकरसिंह दिखाई पड़े मगर तुरन्त ही कहीं गायब हो गए। उस स्थान का भी तिलिस्म से कुछ सम्बन्ध है और ऐसा खयाल होता है कि वे शायद तिलिस्म में ही चले गए हैं। उनके साथ एक औरत भी थी।

गिरिजा० : वही होगी जिसे कई दफे हम लोग देख चुके हैं।

दलीप० : हाँ, वही है।

गिरिजा० : तो प्रभाकरसिंह से इसका साथ क्यों और कैसे हुआ?

दलीप ० : इसका पता लगाने का काम मैं तुम्हारे सुपुर्द किया चाहता हूँ तुम यहाँ मौजूद रहकर इस टोह में लगो कि वह कौन है तथा यदि प्रभाकरसिंह दिखाई पड़ें तो या तो उन्हें कब्जे में करो और नहीं तो फिर मुझे या (इन्द्रदेव की तरफ बता कर) इन्हें, जिसको मुनासिब समझो खबर दो।

गिरिजा० : बहुत अच्छा।

इन्द्र० : तुम्हारे और भी साथी यहाँ होंगे?

गिरिजा० : जी हाँ, कई हैं, कोई नई बात होने से आपको तुरन्त खबर दे दी जाएगी।

इन्द्र०: बस ठीक है (दलीपशाह से) तो चलिए इन्हें यहाँ छोड़ दीजिए बहुत रात गुजर गई।

दलीप० : (गिरिजाकुमार से) मेरा घोड़ा कहाँ है?

गिरिजा० : पास ही में, अभी लाया।

इतना कह गिरिजाकुमार चला गया और थोड़ी ही देर में दलीपशाह का घोड़ा लिए हुए आ पहुँचा, इस बीच में इन्द्रदेव ने भी अपना घोड़ा खोल लिया जो पास ही में बँधा हुआ था और दोनों आदमी घोड़ों पर सवार हो जंगल के बाहर की तरफ चले।

इन्द्र० : वह गौहर कौन है, जिसके बारे में तुम बातें कर रहे थे?

दलीप० : पटने वाले शेरआलीखाँ की लड़की।

इन्द्र० : शेरअली तो बड़ा जबर्दस्त आदमी है! उसकी लड़की इस तरह खुलेआम घूमती फिरती है!

दलीप० : मैं नहीं कह सकता कि क्या बात है। तब फिर यह जरूर है कि शिवदत्त और शेरअली में आजकल दोस्ती हो रही है और शिवदत्त ही के सबब से आपके दारोगा साहब भी शेरअली के मित्र बन गए।

इन्द्र० : ठीक है, मुझे उड़ती हुई खबर लगी थी।

दलीप० : मगर एक बात का पता आपको न लगा होगा।

इन्द्र० : सो क्या?

दलीप० : शिवदत्त ने अब हाथ-पाँव फैलाना शुरू किया है। प्रभाकरसिंह, इन्दुमति और दिवाकरसिंह इत्यादि को पकड़ने के लिए उसने कई ऐयार भेजे हैं तथा दारोगा से भी इस विषय में मदद माँगी है। आजकल उसके ऐयार यहाँ चारों तरफ फैले हुए हैं।

इन्द्र० : क्या वास्तव में?

दलीप० : बेशक।

इन्द्र० : तो क्या ताज्जुब कि यह सब कार्रवाई उन्हीं लोगों की हो और वह औरत भी जो प्रभाकरसिंह के साथ थी, शिवदत्त ही का कोई ऐयार हो। तुम्हें इस बात का पता क्योंकर लगा?

दलीप : मैंने स्वयं उन ऐयारों को देखा और उनकी बातें सुनीं मगर अभी उनका पूरा हाल मुझे मालूम नहीं हुआ है। मैं उनकी टोह में लगा हुआ हूँ और पूर-पूरा पता लगते ही आपसे कहूँगा।

इन्द्र० : जरूर।

अब ये दोनों आम सड़क पर आ पहुँचे जहाँ से अलग हो इन्द्रदेव अपने मकान की तरफ रवाना हुए और दलीपशाह ने जमानिया का रास्ता पकड़ा। हम इस समय दलीपशाह के साथ चलते और देखते हैं कि वे क्या करते हैं।

बाकी रात और करीब दो घण्टे दिन तक दलीपशाह बराबर चले गए, इसके बाद एक पहाड़ी चश्में के किनारे पहुँच उन्होंने घोड़ा रोका और उतर पड़े।घोड़े को बागडोर से एक पेड़ के साथ बाँध दिया और उसका साज वगैरह उतार अपने भी कपड़े उतारे और चश्में के पानी से हाथ-मुँह धोने के बाद जरूरी कामों से छुट्टी पाने की फिक्र में लगे।

घण्टे-भर के भीतर ही दलीपशाह ने स्नान-सन्ध्या आदि से छुट्टी पा ली और अपने ऐयारी के बटुए में से कुछ मेवा निकाल कर जलपान किया।

इसके बाद एक शीशी सामने रख बटुए में से सामान निकाल उन्होंने सूरत बदलना शुरू किया।

दलीपशाह ने अपनी सूरत एक देहाती किसान की बनाई और बटुए को होशियारी के साथ कमर से बाँधने के बाद कपड़े तथा अन्य सामान को भी छिपा दिया। तब इधर-उधर देखते हुए पश्चिम की तरफ चल पड़े जिधर छोटी पहाड़ियाँ और ऊँचे टीले नजर आ रहे थे।

काफी दूर निकल जाने के बाद दूर ही से दलीपशाह की निगाह दो पहाड़ियों के बीच के एक दर्रे में बैठे और कुछ करते हुए कई आदमियों पर पड़ी जिनमें दो-एक औरतें भी मालूम होती थीं। एक तरफ आग सुलग रही थी जिस पर भोजन का सामान तैयार हो रहा था तथा दूसरी तरफ एक कम्बल बिछा हुआ था जिस पर कोई बैठा न था। ऐसा मालूम होता था कि यहाँ इन आदमियों का डेरा कई दिनों से पड़ा हुआ है, क्योंकि उस जगह आस-पास में कई छोटी-बड़ी गुफाएँ थीं जिनमें से जरूरत की चीजों को वे लोग निकाल लाया करते थे। दलीपशाह एक पेड़ की आड़ में खड़े हो गए और उनकी तरफ बहुत गौर से देखने लगे।

थोड़ी देर बाद गुफा में से सादी पोशाक पहिरे हुए बड़ी-बड़ी दाढ़ी-मूछों वाला आदमी निकला जिसे देखते ही बाहर के सब आदमी उठ खड़े हुए। एक आदमी ने उस कम्बल पर, जो वहाँ पड़ा हुआ था एक सफेद कपड़ा डाल दिया और दूसरे ने गुफा के भीतर से दो-तीन तकिये लाकर रख दिये जिसके सहारे वह उठंग कर बैठ गया। कुछ आदमी अपने काम में लगे रहे और बाकी के उस नए आने वाले के इर्द-गिर्द आकर बैठ गए। इन लोगों में धीरे-धीरे कुछ बातें होने लगीं जो दूर रहने के कारण दलीपशाह बिलकुल नहीं सुन सकते थे।

कुछ देर तक सोच-विचार करने बाद दलीपशाह पेड़ की आड़ से निकले और घबड़ानी-सी सूरत बनाये हुए उन लोगों की तरफ बढ़े। इनको आते देख उन लोगों ने अपनी बात बन्द कर दी और इनकी तरफ देखने लगे।

पास पहुँचकर किसान (दलीपशाह) ने सभों को बड़े अदब से सलाम किया और हाथ जोड़ कर देहाती भाषा में, ‘‘सरकार, मेरी औरत को सांप ने काट लिया है और वह (हाथ से बता कर) उस तरफ बेहोश पड़ी हुई है। आप लोगों को देख मैं यहाँ आ गया, अगर आप में से कोई साँप काटने का इलाज जानता हो तो दया कर मेरे साथ चले, उसे एक जान बचाने का पुण्य होगा!’’

इस बात को देहाती ने इनती गिड़गिड़ाहट के साथ कहा कि सभी को उस पर विश्वास हो गया और सरदार ने उससे पूछा, ‘‘तुम्हारी औरत यहां से कितनी दूर है?’’

किसान : बस यही थोड़ी दूर पर। आप लोगों में से कोई चला चलता तो बड़ी दया होती।

सरदार : साँप का इलाज तो मैं जानता हूँ, अगर अपनी स्त्री को तुम यहाँ ला सको तो कोशिश करूँ, शायद चंगी हो जाय।

किसान : तो सरदार अकेले मुझसे वह उठाई न जायगी, अगर कोई आदमी साथ हो जाय तो उठा लाऊँ।

सरदार ने यह सुन अपने एक साथी की तरफ देख कर कहा, ‘‘अनिरुद्धसिंह, इसके साथ जाओ और उसे उठा लाओ!’’

अनिरुद्धसिंह ‘‘बहुत अच्छा’’ कह कर उठ खड़ा हुआ और किसान से बोला, चलो किधर चलें।

किसान ने अनिरुद्ध को साथ ले दक्खिन का रास्ता लिया। कई टीले तथा ऊँची और नीची जमीन पार करते हुए जब दोनों दूर निकल गये और कहीं उस किसान की औरत का पता न लगा तो अनिरुद्ध ने पूछा, ‘‘तुम्हारी स्त्री आखिर कहां है? इतनी दूर तो निकल आये कहीं दिखाई नहीं पड़ती।’’

किसान ने कुछ जवाब न दे सामने की तरफ बताया और फिर आगे का रास्ता लिया। कुछ दूर तक अनिरुद्ध चला, लेकिन आखिर एक जगह फिर रुक कर उसने पूछा, ‘‘तुम बोलते क्यों नहीं! आखिर तुम्हारी औरत है कहाँ? मैं कितनी दूर तक इस तरह तुम्हारे साथ चलूँगा?

देहाती किसान ने चारों तरफ देख कर कहा, ‘‘यहीं तो रही, कहीं चली गई होगी।

अनि० : जब उसे साँप ने काट लिया तो फिर चली कहाँ गई होगी? तुम्हीं ने तो कहा था कि थोड़ी दूर पर बेहोश पड़ी है!

किसान : हाँ, यह बात भी ठीक है! वह रही तो थोड़ी ही दूर पर!

अनि० : अबे तो अभी तक तेरा थोड़ी दूर पूरा नहीं हुआ! कोस भर चला आया सो क्यों?

किसान : मैं सो अब क्या जानूँ? मैं तो तुम्हारे साथ चला आ रहा हूँ!

अनि० : अबे मैं तेरे साथ आ रहा हूँ या तू मेरे साथ आ रहा है! बता जल्दी वह औरत कहाँ है नहीं तो अभी मैं लौट जाता हूँ!

किसान : अबे-तबे करेगा तो जबान खींच लेंगे, बड़ा आया है, अबे-तबे करने वाला! कहते तो हैं कि कहीं होगी, खोजते हैं, मिलती है तो देते हैं, मगर जल्दी मचाये जाता है बदमाश कहीं का!

अनिरुद्ध को यह सुन गुस्सा आ गया और वह अकड़कर बोला, ‘‘खबरदार! जबान सम्हाल कर बातें कर! गाली-गलौज करेगा तो धुन कर रख देंगे।’’

किसान : वाह क्या तीसमारखाँ आए हैं!

किसान की यह बात सुनते ही अनिरुद्धसिंह क्रोध में आ झपट पड़ा और उससे लिपट उसको जमीन पर गिरा देने की कोशिश करने लगा मगर इस बात को जैसा उसने माना हुआ था वैसा न पाया। उसने इस नकली किसान को अपने से बहुत जबर्दस्त पाया जिसने देखते-देखते उसे उठा कर पटक ही नहीं दिया बल्कि जबर्दस्ती अपने बटुए में से बेहोशी की दवा निकाल और सुँघा बेहोश भी कर दिया।

अनिरुद्ध को बेहोश कर दलीपशाह ने फुर्ती से अपने कपड़े उतार उसके कपड़े पहिन लिए। उसकी कमर से बँधा हुआ दलीपशाह को एक ऐयारी का बटुआ तथा एक खंजर भी मिला।अपने बटुए में से सब चीजें निकाल उन्होंने अनिरुद्ध वाले बटुए में डाल दीं और उसके बटुए की चीजें अपने बटुए में डाल बटुआ उसकी कमर में बांध दिया। इसके बाद शीशा सामने रख अपनी सूरत अनिरुद्ध की-सी बनाने लगे। जब ठीक वैसी हो गई तो उसकी सूरत अपने जैसी बनाई और अपने बटुए में से एक डिबिया निकाली जिसमें किसी प्रकार का मरहम था इसे थोड़ा-सा बेहोश की जुबान पर लगाया और तब डिबिया बन्द कर ठिकाने रखने के बाद सिर हिला कर यह कहकर उठ खड़े हुए, ‘‘अब कोई हर्ज नहीं!’’

थोड़ी दूर गये होंगे कि सामने से एक आदमी आता हुआ दिखाई दिया जिसे देखते ही ये पहिचान गये कि यह उन्हीं आदमियों में से है जिनके पास से वे अभी आए थे। दलीपशाह को देखते ही उस आदमी ने पुकार कर कहा, ‘‘वाह अनिरुद्धसिंह तुमने तो घण्टों लगा दिए! सरकार बिगड़ रहे हैं कि कुछ और काम की भी फिक्र है या नहीं? तुम्हारे साथ वाला देहाती कहाँ गया?’’

दलीपशाह ने जिनको अब हम अनिरुद्धसिंह के नाम से ही पुकारेंगे, आगे बढ़कर कहा, ‘‘यार क्या बतावें, वह कम्बख्त देहाती तो बड़ा दगाबाज निकला! यहाँ तक तो यह कहता चला आया कि थोड़ा और आगे है, कुछ दूर और है, और जब यहाँ पहुँचा तो मुझसे ही बिगड़ खड़ा हुआ और लड़ने लगा। लड़ने के पहिले उसने कई बार सीटी भी बजाई जिससे मैंने समझा कि अपने साथियों को बुला रहा है अस्तु मैंने उसे बेहोश कर दिया। (हाथ से बता कर) वह देखो वह जमीन पर पड़ा है। अब जो तुम कहो सो करें!’’

वह आदमी अनिरुद्ध के साथ बेहोश के पास आया और उसे गौर से देख कर बोला, ‘‘आखिर यह तुमसे क्यों झगड़ गया? कुछ सबब भी मालूम हुआ!’’

अनि० : सो मैं क्या जानूँ कि क्या सबब है, शायद समझा हो कि पैसे वाला है इसे तंग करने से कदाचित कुछ मिल जाय।

नया आदमी : ऐसा तो नहीं मालूम होता, एक देहाती की इतनी हिम्मत नहीं पड़ सकती कि यकायक किसी भले आदमी पर हमला कर दे।

अनि० : बेशक सो तो ठीक है मगर यह देहाती है भी या नही इसका भी तो कोई निश्चय नहीं, शायद कोई ऐयार ही हो! खैर मैं तो कहता हूँ कि इसे उठाये लिए चलो, सरदार आप ही कुछ निश्चय करेंगे कि क्या बात है।

नया आदमी : हाँ, अब तो ऐसा ही करना पड़ेगा। इसे सरदार के पास ले चलना जरूरी हो गया। बाँधो गठरी तो उठा ले चलें, इसी की चादर में इसे बाँधो!

इतना कह उस आदमी ने भी मदद करना शुरू किया और नकली अनिरुद्ध बेहोश देहाती की गठरी बाँधने लगा।

गठरी में उस आदमी को बाँधते-बाँधते दलीपशाह ने यकायक सोचा कि यदि मैं इसे सरदार के पास ले गया और उसने इसकी सूरत धोने का हुक्म दिया तब तो इसकी असली सूरत निकल आवेगी और वे लोग समझ जायँगे कि मैं ऐयार हूँ और अनिरुद्ध की सूरत बना हुआ हूँ। अस्तु ऐसी तर्कीब करनी चाहिए जिसमें इसे वहाँ तक ले जाना न पड़े। कुछ सोच उन्होंने अपने साथी से कहा, ‘‘मगर एक बात की मुश्किल तो रही जायगी!’’

आदमी : सो क्या!

अनिरुद्ध : इस आदमी ने मुझ पर हमला करने के पहिले कई दफे सीटी बजाई थी और एक तरफ से जवाब में हल्की सीटी की आवाज आई थी। मैं समझता हूँ कि इसने अपनी मदद के लिए कुछ आदमियों को बुलाया था और उन्होंने सीटी बजाकर जवाब दिया था। अब हम लोगों को रास्ते में यदि वे आदमी मिल गए तो गठरी उठाए ले जाते देख जरूर शक करेंगे और ताज्जुब नहीं कि हमें रोककर जानना चाहें कि गट्ठर में क्या है?

आदमी : और यदि उन्होंने जान लिया कि इस गट्ठर में उन्हीं का साथी है तब तो जरूर हमें तकलीफ पहुँचावेंगे।

अनिरुद्ध : जरूर ऐसा ही है। अस्तु मैं तो यही मुनासिब समझता हूँ कि हम लोग इसकी गठरी यहीं कहीं छुपा दें और सरदार के पास चल कर हाल कहें, यदि वे कहेंगे तो कई आदमियों को ले आकर इसे उठा ले जायँगे।

आदमी : मगर सरदार हमें डरपोक तो नहीं बनावेंगे कि दो-चार आदमियों के डर से अपने कैदी को छोड़ आए।

अनि० : नहीं, ऐसा भला क्या होगा! क्या वे इतना नहीं समझ सकते कि हम लोग किस ख्याल से इसे यहाँ छोड़ चले हैं!

वह आदमी दलीपशाह की बातों पर कुछ नीमराजी-सा हो गया और दलीपशाह उस गट्ठर को कहीं छिपाने की फिक्र में लगे, मगर पीछे की तरफ निगाह पड़ने पर उन्होंने उसी आदमी को जिसे सरदार के नाम से सम्बोधन किया गया था कई साथियों सहित इसी तरफ तेजी से आते देखा। देखते-ही-देखते वे लोग पास आ पहुँचे और उस सरदार ने इन दोनों के पास पहुँच कर दलीपशाह से कहा, ‘‘क्यों अनिरुद्धसिंह, इतनी देर से तुम यहाँ क्या कर रहे हो! मुझे पक्की खबर लगी है, कि दलीपशाह को जो हमारा सबसे भारी दुश्मन है, हम लोगों के यहाँ छिपने का पता लग चुका है और वह हमारी फिक्र में इसी तरफ आया हुआ भी है! तुम दोनों ने उसे कहीं देखा तो नहीं!’’

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