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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

बारहवाँ बयान


भूतनाथ ने खोह के बाहर निकल चश्मे के पानी से हाथ-मुँह धोया और तब जमानिया की तरफ रवाना हुआ।

पिछली रात की बातें एक-एक कर उसकी आँखों के सामने आ रही थीं और जब कभी उसे उस तस्वीर का ध्यान आ जाता था जो उसने वहां देखी थी तब तो वह काँप उठता था।क्योंकि वह इस बात को बखूबी समझ रहा था कि यह उसका गुप्त भेद प्रकट करने का बड़ा भारी जरिया होगी और उसकी बदनामी का, जिसको दूर करने के खयाल में वह इतने दुष्कर्म कर चुका और कर रहा था, और भी प्रकट करने के लिए एक झण्डा बन जायगी।

तरह-तरह की बातें सोचता हुआ वह धीरे-धीरे चला जा रहा था कि यकायक उसके कानों में घोड़ों के टापों की आवाज सुनाई दी। उसने फिर कर देखा और दो औरतों को घोड़ों पर सवार अपनी तरफ आते देख सड़क से नीचे उतर एक पेड़ की आड़ में हो गया। इसी बीच में वे औरतें भी जो तेजी के साथ घोड़ा दौड़ाती चली आ रही थीं पास पहुँच गईं और भूतनाथ ने देखते ही पहिचान लिया कि ये दोनों जमना और सरस्वती हैं।

हम नहीं कह सकते कि जिस तरह भूतनाथ ने इन दोनों को देखा और पहिचाना उसी तरह इन दोनों ने भी भूतनाथ को देखा और पहिचाना या नहीं, पर यहाँ पहुँच कर इन दोनों ने अपने घोड़ों की चाल कम अवश्य कर दी और आपस में कुछ बातें करती हुई जाने लगीं।

आधे घण्टे तक इसी तरह जाने के बाद जमना और सरस्वती ऐसी जगह पहुँची जहाँ एक नाला सड़क को काटता हुआ बह रहा था। नाले के ऊपर एक छोटा पुराने जमाने का पुल बना हुआ था जिसके चारों कोनों पर चार नीम के पेड़ इतने बड़े लगे थे कि उनकी डालियाँ आपस में बिल्कुल गुँथ गई थीं और पुल उनके साये में हो गया था। उन पेड़ों के कारण पुल पर कुछ अंधकार भी हो गया था मगर इतना नहीं कि दस-पांच हाथ की दूरी से पहिचानने में कठिनता हो।

जमना और सरस्वती जब पुल के पास पहुँची तो उनकी निगाह एक आदमी पर पड़ी जो पुल पर सड़क के बीचों-बीच में पड़ा हुआ था न-जाने किस तकलीफ से करवटें बदल रहा था। उन दोनों ने पास पहुँच अपने घोड़े रोके, जमना घोड़े से उतर उस आदमी के पास गई जो इस समय बेहोश हो गया था पर बीच-बीच में उसके मुँह से कुछ टूटे-फूटे शब्द निकल रहे थे जिनकी तरफ जमना का ध्यान गया। वे शब्द ये थे, ‘‘हाय... प्रभाकरसिंह... इन्द्रदेव के... प्यारी जान।इसके बाद और भी कुछ कहा मगर इतने धीरे से कि कुछ समझ में न आया। जमना ने पहिचानने की नीयत से गौर से उसकी सूरत देखी मगर आज से पहिले उसने इस आदमी को कभी देखा न था।

जमना ने सरस्वती को अपने पास बुलाया और उसके आने पर उस आदमी के मुँह से सुने शब्द उससे कहकर बोली, ‘‘मालूम होता है यह बेहोश हो गया है, इसे होश में लाया जाय तो शायद अपने मतलब की कोई बात मालूम हो। इसे उठा कर पुल के नीचे ले चलो और होश में लाने की कोशिश करो।’’

जमना और सरस्वती ने मिल कर उस आदमी को उठाया। उसके कपड़े इतने मैले और बदबूदार थे कि उठाते ही बदबू से उन दोनों का दिमाग खराब हो गया। मगर किसी तरह वे दोनों उसे पुल के नीचे लाईं और जमीन पर डाल दिया। जमना उसके पास बैठकर होश में लाने की कोशिश करने लगी मगर सरस्वती उसके कपड़ों और बदन से निकलती बदबू से घबड़ा कर कुछ दूर खड़ी हो गई।

जमना की तरकीब से कुछ देर बाद उस आदमी को जरा-जरा होश आने लगा। यह देख सरस्वती भी पास आ गई और जमना की मदद करने लगी। कुछ ही देर बाद वह आदमी पूरी तरह से होश में आकर उठ बैठा और अपने चारों तरफ देखकर ताज्जुब से बोला, ‘‘मैं कहाँ हूँ और तुम दोनों कौन हो?’’

जमना : तुम ऊपर पुल पर बेहोश पड़े हुए थे, हम दोनों तुम्हें यहाँ उठा लाईं और तुम्हारा हाल सुनना चाहती हैं।

आदमी : तुम दोनों का नाम क्या है?

जमना : मेरा नाम धनदेई है और (सरस्वती की तरफ बता कर) इसका नाम जयदेई।

आदमी : शायद ऐसा ही हो।

जमना : इसका क्या मतलब?

आदमी : मेरी समझ में तो तुम लोगों का यह नाम असली नहीं बल्कि बनावटी जान पड़ता है।

जमना : (कुछ रुकावट के साथ) खैर हम लोगों का नाम चाहे कुछ भी हो तुम अपना नाम बताओ।

आदमी : (खड़ा होकर) मेरा नाम गदाधरसिंह है।

इतना कहकरउस आदमी ने नकली बाल जो वह लगाए हुए था दूर कर दिये और गदाधरसिंह की सूरत झलकने लगी।गदाधरसिंह को देखते ही जमना-सरस्वती चौंक कर पीछे को हटीं मगर भूतनाथ ने हँस कर कहा, ‘‘भला गदाधरसिंह के सामने से भाग कर कोई आदमी बच सकता है? तुम दोनों ऐसा इरादा न करो और इस बात को अच्छी तरह समझ रक्खो कि तुम्हें कुछ ही देर तक इस दुनिया में रहना है क्योंकि बेहोशी की दवा का असर जो मेरे कपड़ों में लगी हुई थी, तुम दोनों पर पूरी तरह से हो चुका है और तुम दोनों को बिना मारे न छोड़ूँगा।’’

अब जमना को मालूम हुआ कि उसने बहुत बड़ा धोखा खाया और भूतनाथ के कपड़े की वह बू बेहोशी की किसी दवा के कारण थी जिस पर उसने ध्यान नहीं दिया था। वह अच्छी तरह समझ गई कि अब गदाधरसिंह के फन्दे से छूट नहीं सकती पर तो भी हिम्मत बाँध बोली, ‘‘भला हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है जो तुम हमारी जान लेने पर तुल गए हो?’’

भूत० : तुमने मेरा बड़ा नुकसान किया है बल्कि यों कहना चाहिए कि मेरा बदनामी का सबसे बड़ा कारण तुम्हीं दोनों हो। तुम्हारे सबब से इन्द्रदेव मुझसे विरुद्ध हो गए, तुम्हारे ही सबब से प्रभाकरसिंह मेरे दुश्मन बने, और तुम्हारे ही सबब से भैयाराजा ने मुझसे शत्रुता की। तुम लोगों के कारण सुख की नींद सोना मेरे लिए हराम हो गया है। अस्तु अब मैं यही चाहता हूँ कि तुम दोनों को मार कर एकदम बखेड़ा तय करूँ। हां। एक तरह पर तुम्हारी जान कदाचित् बच सकती है।

जमना : सो कैसे?

भूत० : तुम्हारे मकान में मैंने लाल पर्दे से ढकी हुई एक तस्वीर देखी थी।

जमना : बेशक देखी होगी और अगर तुमने उसका पर्दा हटाया होगा तो तुम यह भी जान गए होगे कि उस तस्वीर में क्या था!

भूत० : खैर इससे कोई मतलब नहीं, लेकिन अगर तुम वह तस्वीर मुझे दिला दो तो मैं तुम्हें छोड़ दूँ।

जमना : तुम्हारी बात का भला क्या विश्वास!

भूत० : सो क्यों? क्या मैं अपना वादा पूरा नहीं करूँगा?

जमना : बेशक मुझे यही डर है, और फिर बिना अपने घर गए मैं उसे ला ही क्योंकर सकती हूँ।

भूत० : मगर मैं तुमको घर जाने की इजाजत कैसे दे सकता हूँ, कौन ताज्जुब तुम वहाँ जाकर बैठ रहो! फिर मैं क्या करूँगा।

जमना : तो फिर मैं यहाँ से क्या कर सकती हूँ!

भूत० : अच्छा तुम यही बता दो कि उस तस्वीर का बनाने वाला कौन है!

जमना : यह मैं नहीं बता सकती।

भूत० : तुम्हें बताना पड़ेगा।

जमना : नहीं कदापि नहीं, क्या मैं इस बात को नहीं जानती कि मेरी तरह तू उसका भी दुश्मन बन बैठेगा और उसे जान से मारने की कोशिश करेगा!

भूत० : नहीं-नहीं ऐसा नहीं होगा, मैं वादा करता हूँ कि उसका नाम बता देने पर तुम दोनों को छोड़ दूँगा!

जमना : मैं तेरी बात पर विश्वास नहीं करती और तेरे वादे पर थूकती हूँ। अपने किसी मेहरबान को तेरे कब्जे में देने की बनिस्बत खुद जान से हाथ धोना मैं ज्यादा पसन्द करूँगी।

भूतनाथ ने उसे बहुत समझाया, डराया और धमकाया मगर जमना ने एक न सुनी और बराबर उसे जली-कटी सुनाती ही गई। आखिर भूतनाथ झल्ला उठा और आगे बढ़कर उसने एक लात ऐसी मारी कि वह जमीन पर गिर पड़ी। दवा का असर तो हो ही चुका था, गिरते ही बेहोश हो गई।

अब भूतनाथ सरस्वती की तरफ घूमा जो बेहोशी के नशे में झूम रही थी। उससे भी कुछ पूछना चाहा मगर मौका न मिला क्योंकि वह भी बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ी। भूतनाथ अब उसी जगह जमीन पर बैठ गया और सिर पर हाथ रखकर कुछ सोचने लगा।

आखिर बहुत देर के बाद भूतनाथ यह कहता हुआ उठा, ‘‘खैर चाहे जो कुछ भी हो मगर इन दोनों को तो मैं बिना जान से मारे छोड़ता नहीं! इन्द्रदेव को भला क्या पता लग सकता है कि जमना-सरस्वती को किसने मार डाला। इनको समाप्त कर फिर मैं उस आदमी की खोज करूँगा जिसने वह तस्वीर बनाई है।’’

बड़ी बेदर्दी के साथ भूतनाथ ने बेहोश जमना और सरस्वती का सिर काट डाला और तब उनकी लाशों को एक गड्ढे में डाल ऊपर से पत्तियाँ और मिट्टी डाल कर छिपाने के बाद यह कहता हुआ वहाँ से चला—‘‘इन दोनों ने भी बड़ा ही अन्धेर मचा रक्खा था। इनके मारे सुख की नींद सोना मेरे लिए हराम हो गया था। चलो इधर से तो फुरसत मिली।’’

गदाधरसिंह कुछ ही दूर गया होगा कि पीछे से किसी ने कहा, ‘‘भला गदाधरसिंह, कोई हर्ज नहीं! अगर मैं जीता रहा तो बिना इसका बदला लिए कभी न छोड़ूँगा!’’

भूतनाथ यह आवाज सुनते ही पीछे घूमा और चारों तरफ गौर से देखने लगा मगर कहीं भी कोई आदमी न दिखाई पड़ा। आखिर सुस्त और उदास उसने जमानिया का रास्ता लिया।

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