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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

ग्यारहवाँ बयान


पाठक, जिन औरतों की बातचीत दारोगा और जैपाल ने सुनी थी वे दोनों असली जमना और सरस्वती थीं। जिस जगह दारोगा खड़ा था उसके पीछे ही एक दूसरी कोठरी पड़ती थी जिसमें अपनी स्त्रियों को बैठा कर मेघराज भूतनाथ से बातें करने गये थे जिसकी कार्रवाइयों का पता उन्हें पूरी तरह से लग गया था और वे जान गये थे कि वह नकली जमना और सरस्वती को बेहोश करके कहीं डाल आया है।

जब मेघराज को दारोगा ने गिरफ्तार कर लिया तो जमना और सरस्वती एक गुप्त राह से उस कमरे में पहुँची जिसमें मेघराज थे। उस कमरे में मेघराज को न देख जमना दरवाजे की तरफ बढ़ीं जिधर दारोगा और जैपाल थे और वहाँ जाकर उनके कब्जे में पड़ गईं। सरस्वती ने थोड़ी देर तक तो जमना के लौटने की राह देखी पर जब वह न लौटी तो वह होशियार औरत तुरन्त समझ गई की कुछ-न-कुछ दाल में काला अवश्य है। सरस्वती ने दरवाजे के अन्दर जाना मुनासिब न समझा और उसने कोई ऐसा खटका दबाया जिससे दीवार में एक छोटा-सा छेद इस लायक दिखाई देने लगा जिसमें आँख लगा कर दूसरी तरफ का हाल देखा जा सकता था। दरवाजे की राह आने वाली रोशनी की मदद से सरस्वती ने यह देखा कि उस तरफ दो आदमी मौजूद हैं और सामने ही जमीन पर जमना तथा मेघराज बेहोश पड़े हुए हैं।

सरस्वती को तुरन्त एक फिक्र पैदा हुई कि किसी तरह दोनों आदमियों को गिरफ्तार करना तथा अपनी बहिन और पति को उनके पंजे से छुड़ाना चाहिए, मगर इसके साथ ही भूतनाथ के विषय में भी कुछ प्रबन्ध करना जरूरी था जिसका यहाँ से चला जाना ही वह इस समय मुनासिब समझती थी।

कुछ सोच-विचार कर सरस्वती ने किसी ढंग से उस कमरे का दरवाजा बन्द कर दिया जिसके अन्दर दारोगा इत्यादि थे। बन्द होने पर दरवाजा अगल-बगल की दीवार के साथ ऐसा मिल जाता था कि बहुत गौर करने पर भी उसका निशान तक दिखाई नहीं पड़ता था कि यहाँ कोई रास्ता है।

यह दरवाजा बन्द कर सरस्वती कुछ देर के लिए वहाँ से कहीं चली गई। उसके जाने के थोड़ी देर बाद भूतनाथ इस जगह आया और अद्भुत तस्वीर को देख बदहवासी की हालत में एक सिंहासन पर बैठ गया। सिंहासन पर बैठते ही जिस प्रकार वह जमीन में धँस गया और भूतनाथ बेहोश हो गया यह हम ऊपर लिख आए हैं पर यह लिखना आवश्यक है कि यह कार्रवाई सरस्वती की थी जो कहीं से छिप कर भूतनाथ की इस बदहवासी को अच्छी तरह देख रही थी।

भूतनाथ को कहीं ठिकाने पहुँचाकर वह सिंहासन पुनः ज्यों-का-त्यों अपनी जगह आकर बैठ गया और इसी समय सरस्वती भी उस कमरे में आ मौजूद हुई। इस समय वह एक मजबूत और खूबसूरत जालों वाला कवच पहिने हुए थी जो वास्तव में वही था जो इन्द्रदेव ने मेघराज को दिया था और जिसके अद्भुत गुण से दारोगा इतना डरता था। इस कवच के अलावे सरस्वती ने एक नकाब भी चेहरे पर डाली हुई थी और हाथ में उसके तिलिस्मी खंजर मौजूद था।

अब सरस्वती को किसी से डरने की आवश्यकता न थी अस्तु उसने बेखटके वह दरवाजा खोला जिसके दूसरी तरफ दारोगा और जैपाल आदि थे मगर जो पहिले ही गायब हो चुके थे। सरस्वती इस बात के लिए तैयार थी और समझती थी कि वे दोनों दुष्ट अवश्य भागने की चेष्टा करेंगे अस्तु व फुर्ती के साथ तिलिस्मी खंजर की रोशनी करती हुई सीढ़ियाँ उतर कर नीचे वाले उस कमरे में पहुँची जहाँ बहुत–से कल-पुर्जे लगे हुए थे। इस समय तिलिस्मी खंजर की रोशनी के कारण उस बड़े कमरे का कोना-कोना साफ दिखाई दे रहा था। कमरे के बीच में तो बहुत से कल–पुर्जे लगे हुए थे। कमरे के बीच में तो बहुत–से-कल-पुर्जे थे पर चारों तरफ की दीवारों में हर तरफ तीन-तीन दरवाजे दिखाई पड़ रहे थे जो सब बन्द थे। सरस्वती एक-एक करके इन दरवाजों को गौर से देखने लगी।

ये बारहों दरवाजे एक ही किस्म के और लम्बाई-चौड़ाई में भी बराबर थे। हर एक दरवाजे के ऊपर की तरफ ताक (आला) था जिसमें सफेद पत्थर का छोटा हाथी रक्खा हुआ था। ऊँचाई में ये हाथी हाथ-भर से कम थे पर इतनी कारीगरी और सफाई के साथ बने हुए थे कि देखने में बड़े ही सुन्दर मालूम होते थे, हर एक हाथी की सूंड नीचे जमीन की तरफ झुकी हुई थी पर जब सब दरवाजों में देखती हुई सरस्वती उस दरवाजे के पास पहुँची जिसमें दारोगा और जैपाल गए थे तो उसके ऊपर वाले हाथी की सूँड़ मामूल के खिलाफ ऊपर की तरफ उठी देखी। यह देखते ही वह उसी जगह रुक गई और धीरे-से बोली, ‘‘बेशक वे लोग इसी दरवाजे की राह गए हैं, मगर यह तो तिलिस्म में जाने का रास्ता है। तो क्या वे सब तिलिस्म के अन्दर चले गए?’’

इसी समय सरस्वती को अपने पीछे की आहट मालूम पड़ी और घूमकर देखने पर उसकी निगाह दोनों लड़कियों पर पड़ी जो जमना और सरस्वती बनी हुई थीं और जिन्हें बेहोश करके भूतनाथ झा़ड़ी में छोड़ आया था। हम ऊपर लिख आये हैं कि इन्द्रदेव ने इन्दुमति तथा जमना और सरस्वती की सूरतें बदल कर उनका नाम राधा, बीरो और भानो रख दिया था तथा तीन विश्वासपात्र लड़कियों को उनकी सूरत का बना दिया था। अस्तु इस जगह से जिसमें भ्रम न हो इस ख्याल से हम सरस्वती को उसके बनावटी नाम भानो से ही पुकारेंगे और उन दोनों लड़कियों को जमना और सरस्वती कहेंगे।

जमना और सरस्वती को देख भानो उनके पास पहँची और इधर जो कुछ हुआ था उसे मुख्तसर में बयान किया। जमना और सरस्वती ने भी अपना हाल अर्थात् भूतनाथ ने किस तरह की बातें करने बाद उन्हें बेहोश किया था कह सुनाया और तीनों में सलाह होने लगी कि क्या करना चाहिए। ज्यादा तरद्दुद की बात तो यह थी कि अब इन बेचारियों की मदद करने और सलाह देने वाला कोई मर्द भी वहाँ मौजूद न था। इन्द्रदेव जमानिया जा चुके थे, प्रभाकरसिंह भूतनाथ के कब्जे में पड़े हुए थे और मेघराज को दारोगा पकड़ ले गया था।

जमना-सरस्वती का हाल सुन भानो ने कहा, ‘‘मैंने उन आदमियों की भागने से रोकने के लिए उन दोनों रास्तों को भी बन्द कर दिया था जिनकी राह हम लोग इस घाटी के बाहर जाते हैं क्योंकि मेरा ख्याल था कि उनके भी बन्द हो जाने पर फिर वे लोग कमरे के आगे जा न सकेंगे मगर यह ख्याल गलत निकला।

हमारा दुश्मन (चाहे वह कोई हो) यहाँ का हाल बखूबी जानता है क्योंकि वह सुरंग की राह बाहर जाने की कोशिश न कर तिलिस्म के अन्दर चला गया है जहाँ उसे खोजना या पकड़ना कठिन है फिर भी मेरी इच्छा है कि एक बार उसका पीछा अवश्य करूँ फिर जो होगा देखा जायगा।’’

कुछ देर तक इस विषय पर बहस होती रही और अन्त में भानो की बात जमना सरस्वती को माननी पड़ी, हाँ इतना अवश्य हुआ कि भानो ने जमना सरस्वती को अपने साथ रखना मंजूर किया।

किसी गुप्त रीति से भानो ने वह दरवाजा खोला। अन्दर जाकर लगभग दस-बारह कदम के लम्बी एक सुरंग और तब एक दूसरा दरवाजा मिला। इसे भी भानो ने खोला और उस कोठरी में पहुँची जिसमें की दीवारों और जमीन पर धातु के पत्र चढ़े हुए थे अथवा जहाँ से दरवाजा पैदा कर दारोगा और जैपाल मेघराज तथा असली जमना को ले गए थे।

जिस तरह खूँटियाँ उमेठ दारोगा ने दरवाजा निकाला था उसी तरह भानो (असली सरस्वती) ने भी खोला और तीनों औरतें उसके अन्दर चली गईं। उनके जाते ही वह दरवाजा बन्द हो गया और तीनों ने अपने को एक दालान में पाया जिसके सामने की तरफ एक छोटा-सा बाग था।

यह बाग नाम ही मात्र का बाग था, फलों के पेड़ उसमें कोई भी दिखाई न देते थे और न फूलों के पौधे ही बहुत थे, हाँ जगह-जगह जंगली पौधे और झाड़ियाँ बहुत थीं जिनके कारण यह एक छोटा-मोटा जंगल-सा मालूम पड़ता था, पर यहाँ उस चश्में के कारण तरावट जरूर बहुत थी जो पूरब की तरफ से बहता हुआ आकर पश्चिम को कहीं निकल जाता था। भानो इसी चश्मे के किनारे-किनारे पूरब तरफ जाने लगी और नकली जमना-सरस्वती भी उसके साथ हुईं। पौ फटा ही चाहती थी और पूरब तरफ आकाश पर लालिमा दिखाई दे रही थी।

भानो कुछ ही दूर आगे गई होगी कि उसकी निगाह दारोगा और जैपाल पर पड़ी जो मेघराज और जमना को कहीं रख कर अब इधर ही को आ रहे थे। यद्यपि उन दोनों के चेहरे नकाब से ढके थे जिससे वह उन्हें पहिचान न सकी पर इतना अवश्य समझ गई कि ये वे ही हैं जो उनके पति और बहिन को गिरफ्तार कर चुके हैं। हाथ में तिलिस्मी खंजर लिए वह उनकी तरफ लपकी और साथ ही खंजर का कब्जा इस नीयत से दबाया कि उसकी तेज रोशनी से उन दोनों की आँखें बन्द हो जायँ।

दारोगा और जैपाल जिस जगह खड़े थे उनके पास ही एक छोटा चबूतरा था। खंजर की तेज रोशनी से घबड़ा कर उन दोनों ने अपनी आँखें बन्द कर लीं और उस चबूतरे पर चढ़ गए। उनके पीछे लपकती हुई भानो भी पहुँची और चबूतरें पर चढ़ फुर्ती के साथ खंजर बदन से लगा उन्हें बेहोश कर दिया, मगर अभी मुश्किल से उसने इस काम से छुट्टी पायी थी कि वह चबूतरा जिस पर वह थी एक बार काँपा और तब इस तेजी से जमीन के अन्दर धँस गया कि भानो को चबूतरे से कूदने का भी समय न मिला और न उसकी दोनों साथिनों को ही उसकी मदद करने का कोई मौका मिला जो यद्यपि चबूतरे के पास पहुँच चुकी थीं पर अभी उसके नीचे ही थीं।

थोड़ी देर बाद वह चबूतरा पुनः अपनी जगह पर आ गया पर इस समय उस पर कोई भी न था, न तो दारोगा या जैपाल दिखाई देते थे और न भानो (असली सरस्वती) ही।

जमना ने सरस्वती की तरफ देखा और तब धीरे-से गरदन हिला कर कहा, ‘‘ऐसा तो होना ही था, भला तिलिस्मी कामों में भी किसी का जोर चल सकता है!

सरस्वती : अब लौटना चाहिए, यहाँ रहने से ताज्जुब नहीं कि हम लोग भी, किसी मुसीबत में पड़ जायँ, यदि इन्द्रदेवजी हो तो चल कर उन्हें खबर दी जाय।

जमना : इन्द्रदेव यहाँ तो होंगे नहीं, हाँ, जमानिया जाने से जरूर मिल जाएँगे

सर० : तो कोई आदमी वहाँ भेजना चाहिए।

जमना : आदमी की क्या जरूरत, क्यों न हम लोग स्वयं चले चलें? रास्ते में यदि गदाधरसिंह कहीं मिल जायगा तो उससे भी कुछ छेड़खानी करते चलेंगे, मुमकिन है कि अभी तक उसकी बेहोशी दूर न हुई होगी और वह सुरंग ही में पड़ा हो।

सर० : अच्छी बात है चलो, मगर यह बैठे-बिठाये की मुसीबत बुरी आ पड़ी, न-जाने वे दोनों कम्बख्त कौन थे जो इतनी आफत बर्पा कर गए? यह तो प्रकट ही है कि उन्हें यहां के सब भेद बखूबी मालूम हैं नहीं तो वे ऐसी जगह आकर इस तरह की कार्रवाई कर नहीं सकते थे।

जमना : खैर वे सब चाहे कोई भी हों मगर इसमें कोई शक नहीं कि हम लोगों की मुसीबत की घड़ी अभी बीती नहीं है। अच्छा चलो लौटो, देर करना व्यर्थ है।

जिस राह से आई थीं उसी राह से लौटती हुई दोनों औरतें पुनः अपने ठिकाने आईं और कुछ सामान लेने और बन्दोबस्त करने बाद उसी समय घाटी के बाहर निकल गईं।

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