लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 3

भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

421 पाठक हैं

भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

दसवाँ बयान


पाठक सोचते होंगे कि जब भूतनाथ इस तरह पर घाटी के बाहर निकल गया और जमना-सरस्वती पर सिवाय उन्हें बेहोश कर देने के अन्य किसी तरह का वार उसने न किया तो फिर क्योंकर उनका मारा जाना मशहूर हुआ, अथवा भूतनाथ ही पर उनके मारने का इल्जाम किस तरह लगा, अस्तु यह हाल भी बता देना मुनासिब है मगर इसको सुनने के पहिले पाठकों को एक दूसरी बात जान लेना जरूरी है।

जब इन्द्रदेव ने जैपाल बनकर जमना-सरस्वती को छुड़ाया और दयाराम वगैरह को इस घाटी में जगह दी उस समय उन्होंने इस बात को सोचा कि चाहे इस समय भूतनाथ भले ही हम लोगों का साथी बना हुआ है पर मुमकिन है कि कुछ दिन बाद वह फिर रंग बदल कर हम लोगों का दुश्मन बन जाय और दयाराम, जमना तथा सरस्वती पर वार करने का इरादा करे, वे इस बात को समझते थे कि दयाराम और प्रभाकरसिंह का भूतनाथ जल्दी कुछ बिगाड़ न सकेगा क्योंकि ये लोग ऐयारी के फन में होशियार हो गए हैं पर ज्यादा डर जमना, सरस्वती और इन्दुमति के विषय में था। इन्द्रदेव को विश्वास था कि भूतनाथ उस घाटी में जिसमें उन्होंने इन सभों को रक्खा था कदापि पहुँच न सकेगा फिर भी हिफाजत के खयाल से उन्होंने जमना, सरस्वती और इन्दुमति की सूरतें ऐसे ढँग से बदल दीं कि बिना एक खास तर्कीब किए असली सूरत निकल ही न सके और मजेदार तो यह कि उन तीनों की सुन्दरता और सुघड़ना में किसी प्रकार का फर्क न पड़े।इसके सिवाय उन्होंने इन तीनों का नाम भी बदल दिया। जमना-सरस्वती का नाम बीरो और भानो रक्खा गया तथा इन्दुमति राधा के नाम से पुकारी जाने लगी, और इन्द्रदेव ने इस बात की सख्त ताकीद कर दी सिवाय इन नामों के असली नामों से वे तीनों कभी बुलाई न जायँ।

इन्द्रदेव ने इतने ही पर सब्र न करके तीन लौंडियों को जो जमना-सरस्वती के साथ बहुत जमाने से थीं और जिन्हें उनके गुप्त भेदों की खबर थी जमना, सरस्वती और इन्दुमति की सूरत बना कर मुकर्रर कर दिया और यह बात भी इतनी गुप्त रक्खी गई कि सिवाय खास आदमियों के मामूली ऐयारों और नौकरों को इस बात का कुछ भी पता न लगा कि जमना, सरस्वती और इन्दुमति के विषय में कहाँ तक उलट-फेर हो गया है, अस्तु अब हमारे पाठक समझ गये होंगे कि भूतनाथ ने जिन जमना-सरस्वती से बातें की थी अथवा जिन्हें बेहोश करके झाड़ी में डाल आया था वे असली न थीं बल्कि नकली थीं।

अब हम लिखते हैं कि जमना-सरस्वती का मरना क्योंकर मशहूर हुआ और दयाराम कहाँ गायब हो गये।

जिस समय दयाराम नकली प्रभाकरसिंह (भूतनाथ) के साथ जमानिया की गुप्त कमेटी से निकल अपने स्थान की तरफ लौटे तो उनको विश्वास था कि कोई उनका पीछा नहीं कर रहा है क्योंकि सभापति ने जिन आदमियों को उनका पीछा करने के लिए भेजा था उन्हें वे धोखा देकर पीछे-छोड़ आये थे परन्तु वास्तव में उनका पिण्ड छूटा न था और दारोगा के दोस्त स्वयं जैपालसिंह उनका पीछा करते हुए बराबर चले आ रहे थे।

उस खोह तक तो जैपाल बराबर पीछे-पीछे चला आया जो घाटी में जाने का बाहरी गरवाजा था पर इसके आगे वह जा न सका क्योंकि खोह के अन्दर घुसते ही दस-बीस कदम जाने के बाद एक गुप्त दरवाजा पड़ता था जिसका खोलना जैपाल की सामर्थ्य के बाहर था, अस्तु वह गुफा के मुहाने पर रुक कर कुछ देर तक तो इस आसरे में रहा कि शायद उन दोनों में से कोई लौटे पर जब कोई न लौटा तो वह समझ गया कि यही इन लोगों का घर है, अस्तु वह लौटा और दारोगा के पास जाकर उसने सब हाल तथा उस खोह का पता-निशान बताया जिसमें दयाराम और प्रभाकरसिंह चले गये थे।

दुष्ट दारोगा को उस घाटी का हाल बखूबी मालूम था क्योंकि उस स्थान का जमानिया तिलिस्म से बहुत कुछ सम्बन्ध था। इन्द्रदेव ने भूतनाथ का तो बन्दोबस्त कर लिया मगर दारोगा की तरफ से बेफिक्र रहे और इस भूल के कारण उन्हें बहुत-कुछ कष्ट उठाना पड़ा जैसा कि आगे चलने पर मालूम होगा।

जैपाल की जबानी सब हाल सुनते ही दारोगा ने दो तेज घोड़े तैयार कराने का हुक्म दिया और जैपाल को साथ ले उसी समय मेघराज के स्थान की तरफ रवाना हुआ। आधी रात जाने के पहिले ही ये दोनों उस गुफा के मुहाने के पास पहुँचे जो घाटी में जाने का रास्ता था। दोनों घोड़े मुनासिब जगह पर लम्बी बागडोर के सहारे बाँध दिये गये और चेहरों पर नकाब डाले दारोगा और जैपाल आहट लेते हुए उस गुफा के अन्दर घुसे।

गुफा के अन्दर घोर अंधकार था मगर अन्दाज से टटोलता हुआ दारोगा लगभग बीस कदम जाकर रुका जहाँ पर घाटी का पहिला दरवाजा था। अंधेरे में इस बात का पता जैपाल को न लगा कि दरवाजा किस तरह खोला गया मगर कुछ देर बाद एक खटके की आवाज आई और दरवाजा जो लोहे का और एक ही पल्ले का था चूहेदानी के पल्ले की तरह सरसराता हुआ गुफा की छत में गायब हो गया। जैपाल का हाथ पकड़े हुए दारोगा आगे बढ़ गया और फिर रुक कर कुछ ऐसी तर्कीब की जिससे वह दरवाजा पुनः पूर्ववत् बन्द हो गया।

अब दारोगा ने अपने पास से रोशनी का सामान निकाला और एक छोटी लालटेन बाली जो अपने साथ लाया था। उसकी रोशनी में जैपाल ने देखा कि वह एक ऐसी जगह है, जिसकी लम्बाई-चौड़ाई दस हाथ से ज्यादा न होगी और जो ऊँचाई में लगभग चार हाथ के होगी। इस स्थान में चारों तरफ पत्थर ही दिखाई पड़ते थे जिससे गुमान होता था कि पहाड़ काट कर बनाया गया है। चारों तरफ की दीवार में चार लोहे के दरवाजे दिखाई पड़ रहे थे जिनकी तरफ देख कर जैपाल ने दारोगा से पूछा। ‘‘ये चारो रास्ते क्या एक ही जगह पहुँचाते हैं? जवाब में दारोगा ने कहा, ‘‘तुम्हारे पीछे जो दरवाजा है यह तो वही है जिसकी राह तुम आये हो और यह सामने तथा बाईं तरफ वाला दरवाजा उसी घाटी में जाने का रास्ता है जहाँ हम इस वक्त जाया चाहते हैं। तथा यह दाहिनी तरफ वाला दरवाजा किसी और जगह का रास्ता है जिसे मैं नहीं जानता।’’

जैपाल : तो अब आप किस तरफ से जाँयगे?

दारोगा : अब मैं इस सामने वाले रास्ते से चलूँगा, सीधा और बेखतर तो यह बाईं तरफ वाला रास्ता है पर उधर से जाने से मुमकिन है कि इस घाटी में से लौटते हुए किसी आदमी से मुलाकात हो जाय। सामने वाले रास्ते में यह डर कम होगा क्योंकि यह बहुत खतरनाक होने के कारण घाटी के रहने वाले इस रास्ते के कदापि आते-जाते न होंगे।

इतना कह दारोगा ने लालटेन बुझा दी और दरवाजा खोलने की कुछ तर्कीब करने लगा। लालटेन को बुझा देना जैपाल को अच्छा न लगा क्योंकि वह समझ गया कि दारोगा ने अंधकार इसलिए कर दिया है जिसमें दरवाजा खोलने का भेद छिपा रहे, पर वह चुप रह गया। इसी समय एक आवाज आने से मालूम हुआ कि दरवाजा खुल गया। अस्तु दारोगा जैपाल के साथ अन्दर चला गया और उनके जाते ही दरवाजा आप से बन्द हो गया।

अब दारोगा ने पुनः अपनी लालटेन बाली। रोशनी होने पर जैपाल ने देखा कि वह एक ऐसी सुरंग में है जिसकी चौड़ाई दो हाथ और ऊँचाई चार हाथ से कुछ ज्यादे होगी। सुरंग की लम्बाई का पता कुछ नहीं लगता था मगर सामने से कुछ ऐसी आवाज आ रही थी जिससे मालूम होता था कि मानों पास ही में कहीं तेजी के साथ पानी बह रहा है।

दारोगा वहाँ भी न ठहरा और जैपाल को पीछे-पीछे आने को कह आगे की तरफ बढ़ा, लगभग सौ कदम जाने के बाद सुरंग दाहिनी तरफ घूमी और साथ ही साथ आगे की तरफ ढालुई भी होने लगी।

ज्यों-ज्यों ये दोनों आगे बढ़ते जाते थे पानी की आवाज स्पष्ट होती जाती थी और आखिरकार घड़ी-भर से ऊपर जाने बाद जैपाल ने देखा कि सामने ही पानी का एक नाला बह रहा है जो चौड़ाई में बीस हाथ के कदापि कम न होगा, पानी बाई तरफ से आता और तेजी के साथ बहता हुआ दाहिनी तरफ जा रहा था पर यह पानी किस राह से आता था इसका पता रोशनी काफी न होने कारण ठीक-ठीक नहीं लगता था। गुफा की छत भी इस जगह मामूली से ज्यादे ऊँची थी और चौड़ाई भी आठ-दस हाथ से कम न होगी।

दारोगा जैपाल को साथ आने का इशारा कर सामने की तरफ बढ़ा और पानी में से होकर चलने लगा। पानी की गहराई ज्यादा नहीं थी मगर बहाव बहुत तेज था और तह में काई लगी रहने के कारण चलना मुश्किल हो रहा था। किसी तरह ये दोनों नाले के पार हुए और अब यह सुरंग ऊँची होने लगी, साथ ही उसकी चौड़ाई और ऊँचाई भी कम होकर पहिले की तरह हो गई। दारोगा ने जैपाल से कहा, ‘‘प्रायः बरसात के समय इस नाले का पानी बढ़ जाया करता है, उस समय इस राह से आना-जाना बहुत ही खतरनाक हो जाता है और जिनको मजबूरन आना ही पड़ता है इस जंजीर को पकड़ कर नाला पार करते हैं।’’

एक मोटा लोहे का सिक्कड़ दीवार के साथ लगा हुआ उस पार तक चला गया था जिसकी तरफ जैपाल ने ध्यान नहीं दिया था। दारोगा की बात सुन कर उसने कहा, ‘‘पानी ज्यादा बढ़ने पर तो सिक्कड़ पानी में डूब जाता होगा?’’

दारोगा : नहीं, इतना ज्यादा पानी कभी नहीं बढ़ता अच्छा देखो अब एक दरवाजा आ पहुँचा इसे खोलना होगा। इस जगह पहुँच कर सुरंग यकायक बन्द हो गई और सरसरी निगाह से देखने पर यही मालूम होता था कि इसके बनाने वाले ने यहीं तक बना कर सुरंग का काम खतम कर दिया है पर वास्तव में ऐसा न था और सामने की दीवार में लोहे का एक मजबूत दरवाजा था जिसका रँग बिल्कुल पत्थर के रँग में मिल गया था।

दारोगा ने हाथ की लालटेन जमीन पर रख दी और दोनों हाथ से एक तरफ की दीवार में एक खास जगह पर जोर से दबाया। एक बालिश्त के करीब एक टुकड़ा पीछे की तरफ हट गया और उसके अन्दर हाथ डालकर दारोगा ने कुछ खटका दबाने या घुमाने बाद हाथ निकाल लिया।

इसके बाद दरवाजे को जोर से धक्का दिया और वह खुल गया। जैपाल को लिये हुए दारोगा अन्दर चला गया और अन्दर पहुँच कर हाथ से दबा कर वह दरवाजा बन्द कर दिया। एक खटके की आवाज के साथ दरवाजा मजबूती के साथ बन्द हो गया साथ ही बाहर वाली वह जगह भी जिसमें हाथ डालकर दरवाजा खोला गया था पहिले की तरह दुरूस्त हो गई।

अब जिस सुरंग में जैपाल ने अपने को पाया वह पहिले की बनिस्बत ज्यादा चौड़ी और ऊँची थी और उसकी जमीन पर काले और सफेद संगमर्मर का फर्श लगा हुआ था। दीवारें भी सफेद संगमर्मर की बनी हुई थीं जिनके बीच में जगह-जगह पर हाथ-भर के चौखूटे ताँबे के टुकड़े लगे हुए थे जो इस प्रकार चमकते थे मानों अभी कोई उन्हें साफ करके गया हो, गुफा की छत से जगह-जगह पर लोहे के भारी गोले लटक रहे थे जिनके कद से मालूम होता था कि हर एक दस-दस सेर से कम का कदापि न होगा।

जैपाल इन सब चीजों की तरफ आश्चर्य से देख रहा था कि दारोगा ने कहा, ‘‘देखो अब इस जगह होशियारी से चलना पड़ेगा। ये जो काले संगमरमर के टुकड़े लगे हुए हैं इन पर चलने वाले का पैर कदापि न पड़ना चाहिए क्योंकि इन पर पैर पड़ते ही छत में लटका हुआ लोहे का गोला नीचे गिर कर उसका काम तमाम कर देगा, देखो हर एक काले टुकड़े के ऊपर एक-एक गोला लटक रहा है, और साथ ही इस दीवार से भी बचे रहना, ये जो ताँबे के टुकड़े लगे हुए हैं इनसे छू जाना जान से हाथ धोना है। अच्छा अब चलना चाहिए।’’

इतना कहकर दारोगा ने आगे का रास्ता लिया और सफेद टुकड़ों पर पैर रखता हुआ बड़ी होशियारी के साथ चलने लगा। जैपाल भी खूब गौर के साथ जमीन की तरफ देखता हुआ उसके पीछे-पीछे चलने लगा।

करीब आधी घड़ी तक इन दोनों को इस सुरंग में चलना पड़ा और इसके बाद पुनः एक दरवाजा मिला जिसे दारोगा ने किसी तरकीब से खोला और दरवाजे के दूसरी तरफ चला ही था कि उसका ध्यान एक विचित्र तरह की आवाज पर गया जो दरवाजे के दूसरी तरफ से आ रही थी। वह ठिठक कर खड़ा हो गया और गौर से सुनने लगा। वह आवाज किसी तरह के कल-पुर्जे की थी और जब दारोगा को विश्वास हो गया कि यह आदमियों की आवाज नहीं है तो वह दरवाजे से दूसरी तरफ गया, जैपाल भी उसके साथ हुआ।

अब ये लोग एक कमरे में थे जो तरह-तरह विचित्र सामानों और ऐसे कल-पुर्जों से भरा हुआ था जिसका हाल लिखना इस जगह व्यर्थ है। दारोगा को इसमें से कई कल-पुर्जे चलते हुए भी दिखाई दिए और इसके साथ ही उस गर्मी की तरफ भी उसका ध्यान गया जो वहाँ बाहर वाली सुरंग की बनिस्बत बहुत ज्यादे थी। यहाँ तक कि कुछ ही समय बाद दारोगा को पसीना आने लगा और मामूली कपड़े भी जो वह पहिरे हुए था गर्म मालूम होने लगे। यह हाल देख दारोगा ने धीरे-से जैपाल से कहा, ‘‘हम लोग अपने ठिकाने आ गये हैं। इस जगह के ऊपर ही वह मकान है जिसमें मैं समझता हूँ कि वे लोग रहते होंगे जिनका पीछा करते हुए हम यहाँ आये हैं, मगर यह गर्मी जो यहाँ पैदा हो रही है स्वभाविक नहीं है बल्कि किसी तर्कीब से पैदा की गई है। मालूम होता है कि इस मकान में रहने वाले इस समय बेफिक्र या सोए हुए नहीं हैं।अस्तु हमें होशियारी से काम लेना चाहिये, अगर कोई देख लेगा अथवा हमारा यहाँ आना जान जायेगा तो लौटना मुश्किल हो जायगा।’’

इतना कह दारोगा ने लालटेन बुझा दी और उस जगह घोर अंधकार छा गया। जैपाल का हाथ पकड़े हुए वह उस कमरे के एक कोने की तरफ गया जहाँ एक दरवाजा था। किसी तरकीब से वह दरवाजा खोल जैपाल के साथ दारोगा अन्दर चला गया और पुनः दरवाजा बन्द कर दिया।

इस जगह भी अंधकार था। मगर जैपाल का हाथ पकड़ दारोगा आगे बढ़ा, दस-बारह कदम चलने के बाद सीढ़ियाँ मिलीं जिन पर वह बेखौफ चढ़ गया। सीढ़ियाँ गिनती में सोलह थीं और उनके दूसरे सिरे पर भी एक दरवाजा था। यह दरवाजा बन्द नहीं था बल्कि जरा-सा खुला हुआ था और अन्दर से रोशनी की एक लकीर आकर सामने की दीवार पर पड़ती हुई उस स्थान को कुछ-कुछ उजाला दे रही थी। दारोगा इस अधखुले दरवाजे की राह से अन्दर वाले कमरे का हाल देखने लगा।

यह वही कमरा था जिसका हाल पाठक ऊपर वाले बयान में पढ़ चुके हैं, जहाँ भूतनाथ ने वह तस्वीर देखी थी या जहाँ से एक सिंहासन पर गिर वह इस स्थान से बाहर हो गया था। इस समय मेघराज इस कमरे में मौजूद थे और दरवाजे के पास खड़े होकर भूतनाथ से बात कर रहे थे जो प्रभाकरसिंह की सूरत में था, मगर जिस जगह दारोगा खड़ा था उस जगह से भूतनाथ पर नजर पड़ नहीं सकती थी।

दारोगा के देखते-देखते अपनी बातें समाप्त कर मेघराज दरवाजे के पास से हटे और कमरे के एक कोने की तरफ चले गये जहाँ दारोगा की निगाह नहीं पड़ती थी। कुछ ही देर में खटके की एक आवाज आई उन कल-पुर्जों का घूमना बन्द हो गया जिन्हें दारोगा नीचे के कमरे में देख आया था। इसके बाद ही मेघराज पुनः दिखाई पड़े जो अब उस तरफ आ रहे थे जिधर दारोगा खड़ा था।

मेघराज को अपनी तरफ आते देख फुर्ती के साथ दारोगा ने अपनी कमर से एक चादर खोली जिसमें तेज बेहोशी का अर्क लगा हुआ था एक तरफ से जैपाल को यह चादर पकड़ा कर दूसरी तरफ से दारोगा ने स्वयं पकड़ ली और जैसे ही मेघराज दरवाजा खोलकर इधर आए उनके मुँह पर डालकर कस दिया। बेहोशी ने इस फुर्ती से अपना काम किया कि मेघराज के मुँह से एक आवाज तक न निकल सकी और वे बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े। दारोगा ने खुशी-भरी आवाज में धीरे-से जैपाल से कहा, ‘‘लो एक दुश्मन तो हमारे कब्जे में आ गया।’’

जैपाल : बेशक, मगर इस समय इसके बदन पर वह विचित्र कवच कदाचित् नहीं है जिसकी तासीर से उस समय यह बचकर निकल आया था नहीं तो आप इसे इतनी आसानी से न पकड़ पाते।

दारोगा : बेशक ऐसा ही है।

इतना कह दारोगा जमीन पर बैठ गया और बेहोश मेघराज की सूरत गौर से देखने लगा क्योंकि इस स्थान पर जहाँ ये लोग खड़े थे कोई रोशनी न थी केवल उस कमरे की रोशनी खुले दरवाजे की राह कुछ आ रही थी जिसमें से मेघराज आये थे।

जैपाल : (दारोगा से) अब आप क्या देख रहे हैं, इस जगह ज्यादा देर करना मुनासिब नहीं है, क्या ताज्जुब कि इसका कोई साथी यहाँ आ जाय!

दारोगा : मैं इसे पहितानने की कोशिश कर रहा हूँ क्योंकि ऐसा मालूम होता है मानों मैंने पहिले कभी देखा हो, उस सभा में भी मुझे इस बात का सन्देह हुआ था।

जैपाल : खैर चाहे यह कोई हो पर इसमें सन्देह नहीं कि यह आपका दुश्मन अथवा दुश्मनों का दोस्त अवश्य है अस्तु अब इसे छोड़ना नहीं चाहिए और न इस जगह व्यर्थ की देर लगाना ही मुनासिब है।

दारोगा : हाँ, तुम्हारा कहना ठीक है और देर करना खतरनाक होगा। अब इसे...

कहते-कहते दारोगा रुक गया क्योंकि उसके कानों में दो औरतों के बोलने की आवाज आई जो बहुत धीमी थी। ऐसा मालूम होता था कि मानों दीवार के दूसरी तरफ दो औरतें आपस में कुछ बातें कर रही हों। दारोगा और जैपाल ने दीवार के साथ कान लगा दिया, आवाज कुछ स्पष्टता से सुनाई देने लगी।

एक : गदाधरसिंह भी सोचता होगा कि बुरी मुसीबत में आ पड़े, ऐसी दुर्दशा कभी न हुई होगी।

दूसरी : एक तो यह मकान ही विचित्र। दूसरे तिलिस्म से इसका गहरा सम्बन्ध है, फिर ऐसी जगह में किसी को फँसा कर तंग करना क्या कठिन है?

एक : गर्मी से घबड़ा कर गदाधरसिंह अवश्य सब बातें बता देगा।

दूसरी : मालूम होता है कि उन्होंने भूतनाथ से बातें कर लीं क्योंकि अब कल-पुरजों के चलने-फिरने की आवाज नहीं आ रही है, चल कर देखना चाहिए कि गदाधरसिंह की अब क्या हालत है?

बातें बन्द हो गईं और कुछ ही देर बाद उस कमरे से जिसके, अन्दर, से मेघराज बाहर निकले थे कुछ ऐसी आहट आई मानों कोई छोटा दरवाजा या आलमारी का पल्ला खोला गया हो। दारोगा को विश्वास हो गया कि वे दोनों औरतें या जो कोई हो सामने वाले कमरे में आ गई हैं। उसने इशारे से जैपाल को होशियार किया और कुछ चिन्ता के साथ इस बात का इन्तजार करने लगा कि देखें अब क्या होता है।

कुछ देर खुले दरवाजे के पास एक औरत दिखाई पड़ी जो इसी तरफ यानी जिधर दारोगा और जैपाल थे देख रही थी। दारोगा या जैपाल पर उसकी निगाह न पड़ी क्योंकि ये लोग, आड़ में हो गए थे मगर बेहोश मेघराज पर उसकी निगाह अवश्य पड़ गई क्योंकि वे सामने ही पड़े हुए थे और दरवाजे की राह आयी हुई कुछ रोशनी उन पर पड़ रही थी।

‘है, ये बेहोश क्योंकर हो गये।’’ कह कर उस औरत ने अन्दर पैर रखा ही था कि जैपाल और दारोगा उस पर झपट पड़े और उसी चादर की मदद से उसे भी बेहोश कर दिया जिससे मेघराज बेहोश किये गये थे।

यह बात इस फुर्ती से की गई कि उस औरत के मुँह से एक चीख भी निकल न सकी दारोगा इस इन्तजार में खड़ा रहा कि शायद वह दूसरी औरत भी, जिसकी बातचीत की आवाज आई थी, वहाँ आवे मगर फिर वहाँ कोई भी न आया और न किसी प्रकार की आहट मालूम हुई। दारोगा ने उस बेहोश औरत की सूरत भी गौर से देखी मगर पहिचान बिल्कुल न सका।

कुछ देर तक सन्नाटा रहा, इसके बाद जैपाल ने कहा, ‘‘अब क्या इरादा है, इन दोनों को लेकर लौटना है या अभी और रुकना है?’’ दारोगा इसका जवाब दिया ही चाहता था कि वह दरवाजा जिसकी राह मेघराज या वह औरत यहाँ आई थी आपसे आप बन्द हो गया और उस जगह घोर अन्धकार छा गया। दारोगा और जैपाल चिहुँक पड़े और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।

कुछ देर सन्नाटा रहा और इस बीच में दारोगा ने अब क्या करना उत्तम होगा यह भी निश्चय कर लिया। दोनों बेहोश एक ही चादर में कस कर बाँधे गये और एक तरफ से दारोगा तथा दूसरी तरफ से जैपाल उन्हें उठाये हुए सीढ़ियाँ उतर नीचे वाले उस कमरे में पहुँचे जिसमें कि बहुत से कल-पुरजे देख गये थे अथवा जिसमें से होकर ये दोनों ऊपर गये थे।

ऐसा मालूम होता था कि मानो दारोगा कई बार इस जगह आ चुका हो अथवा यहाँ का हाल जानता हो क्योंकि अन्धकार में भी अपने को तथा जैपाल को कल पुर्जों से बचाता हुआ वह बेधड़क उस बड़े कमरे के एक कोने में जा पहुँचा और वहाँ किसी ढँग से एक रास्ता पैदा कर जैपाल के साथ अन्दर घुस गया। यद्यपि यहाँ भी घोर अन्धकार था मगर अन्दाज से जैपाल को मालूम हो गया कि यह वह जगह नहीं है जिधर से दारोगा आया था।

यहाँ भी दारोगा न रुका और दरवाजा बन्द करने के बाद आगे बढ़ा। कई ड्योढ़ी के लाँघने की नौबत आई और आखिर एक जगह पहुँच दारोगा ने हाथ का बोझ जमीन पर रख दिया।

इसके बाद रोशनी की और अब जैपाल को मालूम हुआ कि वह एक ऐसी कोठरी में है जिसकी दरोदीवारों और छत यहाँ तक कि जमीन पर भी किसी धातु की चादर चढ़ी हुई है, जो पुरानी हो जाने के कराण काली हो रही थीं। इस स्थान में इस बात का कुछ भी पता नहीं लगता था कि यहाँ आने-जाने का रास्ता कौन या किस तरफ है क्योंकि दरवाजा या दरवाजे का निशान कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता था, हाँ एक तरफ की दीवार में कई खूँटियाँ लगी हुई जरूर दिखाई पड़ रही थीं जो गिनती में बारह थीं। खूँटियाँ भी किसी धातु की ही थीं और इनमें से हर के नीचे एक से बारह तक के अंक बने हुए थे। दारोगा ने दीवार के पास जाकर एक नम्बर की खूँटी उमेठी ही थी कि एक हल्की-सी आवाज आई और खूँटियों के नीचे की दीवार का भाग पीछे की तरफ को खसकता हुआ हट कर गायब हो गया। वहाँ एक इतना बड़ा रास्ता दिखाई देने लगा जिसमें आदमी बखूबी घुस जाय। दारोगा ने मेघराज को और जैपाल ने उस औरत को उठा लिया और दोनों उसी राह के अन्दर चले गये। उनके भीतर जाते ही दरवाजा ज्यों-का-त्यों दुरुस्त हो गया।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book