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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

नौवाँ बयान


जमना की जली-कटी बातें सुन भूतनाथ अपना कोध रोक न सका। उसने जमना को खिड़की के बाहर खींच लिया तथा खज्जर निकाल उसकी छाती पर सवार हो गया।  (१. देखिये भूतनाथ आठवें भाग का अन्त।)

डर के कारण जमना बेहोश हो गई और करीब ही था कि भूतनाथ अपनी सब प्रतिज्ञाओं को भूल उसका सिर काट डाले कि यकायक कुछ सोच कर उसने अपना हाथ रोक लिया।

भूतनाथ के मन में खयाल उठा कि यदि वह इस समय जमना को मार डालेगा तो उसको बड़ी भारी मुसीबत में पड़ना पडे़गा क्योंकि एक तो यह स्थान इन्द्रदेव का है जहाँ वह मनमानी कार्रवाई करके बच नहीं सकता, दूसरे इस जगह से बाहर निकल जाने का रास्ता उसे मालूम नहीं हुआ था क्योंकि वह मेघराज के साथ आया था और वे मामूली ढँग पर गुप्त दरवाजों को खोलते और बन्द करते हुए तेजी के साथ बढ़े चले आये जिनका भेद डर के मारे भूतनाथ उनसे दरियाफ्त नहीं कर सका था। इसके सिवाय भूतनाथ ने यह भी सोचा कि यदि वह इस समय जमना को मार डालेगा तो उसका वह काम जिसके लिए वह यहाँ आया था- अर्थात मेघराज का असली भेद जानना-रह ही जायगा और उसे एक नई मुसीबत में पड़ जाना पड़ेगा। इसके अलावे जमना को मार डालने पर भी कला अर्थात सरस्वती बची ही रह जायगी और इन्द्रदेव, प्रभाकरसिंह आदि उसकी मदद दिल खोल कर करेंगे जिससे जान बचाना मुश्किल हो जायगा।

इन्हीं बातों को भूतनाथ तेजी के साथ सोच गया क्योंकि उसे इस बात का भी डर लगा हुआ था कि जमना की चिल्लाहट से होकर कोई लौंडी इधर आ न जाय। अस्तु सब कुछ सोच-विचार कर उसने इस समय क्रोध को पी जाना ही मुनासिब समझा और जमना की छाती पर से अलग हो गया। उसके पास इस समय भी ऐयारी का बटुआ मौजूद था जिसे उसने होशियारी के साथ अपने कपड़ों में छिपाया हुआ था। उसने बटुए में से बेहोशी की दवा निकाली और जमना को सुँघा कर और भी अच्छी तरह बेहोश कर दिया, इसके बाद उसे उठा कर पास की एक झाड़ी में छिपा आया और तब एक जगह खड़ा होकर सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिये।

कुछ देर बाद वह वहाँ से हटा और अपने को छिपाए हुए मकान के पीछे की तरफ चला। इस तरफ पहुँच कर भूतनाथ ने देखा कि मकान का सदर दरवाजा खुला हुआ है और उसमें से कोई औरत बाहर आ रही है। चन्द्रमा की रोशनी में वह पहिचान गया कि यह सरस्वती है। भूतनाथ ने इसे भी अपने कब्जे में करने का इरादा किया।

दरवाजे के बाहर निकल सरस्वती इधर-उधर देखती हुए धीरे-धीरे उसी तरफ रवाना हुई जिधर से भूतनाथ अभी-अभी आया था और भूतनाथ भी अपने बटुए में से कोई चीज तलाश करता हुआ उसके पीछे-पीछे चल पड़ा।

जब सरस्वती उस खिड़की के पास पहुँची जिसके अन्दर से जमना ने भूतनाथ से बातचीत की थी तो खिड़की खुली हुई पा यकायक रुक गई और बोल उठी, ‘‘है! यह क्या मामला है?’’

इसी समय सरस्वती की निगाह भूतनाथ पर पड़ी जो नकाब से अपना मुँह छिपाए उसी तरफ चला आ रहा था।

उसे देख वह आश्चर्य के साथ कुछ कहना या किसी को पुकारा ही चाहती थी कि भूतनाथ ने उसे चुप रहने का इशारा किया और तब उसे दिखा कर एक लिफाफा जमीन पर रखने और उस झाड़ी की तरफ इशारा करने के बाद जिसमें से निकला था वह एक दूसरे पेड़ की आड़ में जा खड़ा हुआ।अब भूतनाथ आड़ के बाहर निकल आया और नकाब हटा कर एक बार अपनी सूरत सरस्वती को दिखाने के बाद पुनः नकाब डाल ली, सरस्वती प्रभाकरसिंह की सूरत देख चौंकी और बोल उठी, ‘‘क्या आप बाहर गये थे?’’

सरस्वती के इस सवाल का मतलब भूतनाथ समझ न सका और कुछ सोचता हुआ क्षण-भर ही रुका था कि सरस्वती झपट कर उसके पास आई और एक खंजर जो उसकी कमर में छिपा था निकालती हुई बोली, ‘‘सच बता तू कौन है और प्रभाकरसिंह जी का रूप तूने क्यों धर लिया है!’’ मगर इसके आगे वह कुछ कर न सकी क्योंकि जो चीठी भूतनाथ ने उसके सामने रक्खी थी और जो अभी तक भी उसके हाथ में मौजूद थी।

उसमें से एक प्रकार की विचित्र गन्ध निकल रही थी जिसकी तेज बेहोशी का असर इस समय तक सरस्वती पर पूरे तौर से हो गया था। वह बेहोश होकर गिरने लगी मगर भूतनाथ ने उसे सम्हाला और चीठी अपने कब्जे में करने के बाद सरस्वती को उठाये हुए उसी झाड़ी में चला गया जिसमें जमना को रक्खा था, बेहोश सरस्वती भी जमना के बगल में रख दी गई और भूतनाथ झाड़ी के बाहर निकल कर पुनः उस मकान के सदर दरवाजे की तरफ रवाना हुआ।

दरवाजा अभी तक खुला था और मकान के अन्दर से किसी के चलने–फिरने की आहट नहीं आती थी अस्तु होशियारी के साथ अपने चारों तरफ देखता हुआ भूतनाथ उसके अन्दर घुस गया।

भूतनाथ ने अपने को एक कमरे में पाया जो लगभग बीस हाथ के लम्बा और इससे कुछ कम चौड़ा होगा। कमरे में चारों तरफ चार दरवाजे थे जिनमें तीन बन्द थे और चौथा वही था जिसकी राह अभी-अभी वह अन्दर आया था।

कमरे में किसी तरह का कोई सामान यहाँ तक कि जमीन पर कोई फर्श तक भी नहीं था और अगर एक कोने में बलते हुए मद्धिम चिराग को चन्द्रमा की उस रोशनी की मदद न मिलती जो खुले हुए दरवाजे की राह टेढ़ी होकर आ रही थी तो कदाचित भूतनाथ बाकी के उन तीनों दरवाजे को देख भी न सकता।

आखिर कुछ देर बाद हिम्मत करके भूतनाथ आगे बढ़ा और दाहिनी तरफ वाले दरवाजे के पास जा उसे धीरे-से एक धक्का दिया।दरवाजा तुरन्त खुल गया और भूतनाथ ने देखा कि यह भी एक छोटा कमरा है जो बहुत खूबसूरती के साथ सजा हुआ है तथा दीवारों पर लगी हुई कई दीवारगीरों में रोशनी भी हो रही है। पहिले कमरे की तरह इस कमरे में भी यद्यपि कोई आदमी तो दिखाई नहीं देता था तथापि यहाँ सामने की तरफ एक दूसरा दरवाजा जरूर नजर आ रहा था जो खुला हुआ था और जिसके अन्दर से कुछ आवाज आ रही थी।

कुछ देर तक तो भूतनाथ दरवाजे के पास खड़ा रहा मगर कोई शक की बात न पाकर वह इस कमरे के अन्दर चला गया बल्कि इसे पार कर उस दरवाजे के पास पहुँचा जिसके अन्दर से आवाज आ रही थी। एक ही नजर में भूतनाथ को मालूम हो गया कि यह वही कमरा है जिसके अन्दर खड़ी जमना से उसकी बातें हुई थीं क्योंकि पुतली आदि वह सब समान इसमें दिखाई पड़ रहा था और उसी तरह की रोशनी भी हो रही थी। पुतली के पीछे वाला वह खुला हुआ दरवाजा भी जिसकी राह जमना उस कोठरी में आई थी दिखाई दे रहा था और उसके अन्दर से एक प्रकार की विचित्र आवाज और कुछ गर्म हवा आ रही थी।

कुछ आश्चर्य और कुछ डर के साथ जो जमना की बातों से उसके दिल में पैदा हो गया था भूतनाथ उस पुतली की तरफ देखने लगा। यकायक पिछले कमरे में से जिससे होकर वह अभी यहाँ आया था किसी की आहट आई और घूम कर देखने में भूतनाथ को ऐसा मालूम हुआ मानों कोई आदमी दरवाजे के एक बगल से दूसरी तरफ चला गया हो। ‘‘यदि वह सचमुच कोई आदमी है और मुझे धोखा नहीं हुआ है तो उसने जरूर मुझे देख लिया होगा!’’ यह खयाल भूतनाथ के दिल में दौड़ गया तथा और भी डर गया क्योंकि एक तो स्वयम् चोरों की तरह दूसरे के घर में घुसा हुआ था दूसरे एक ऐसी जगह में था जिसका कुछ भी हाल वह नहीं जानता था। फिर भी न-जाने क्या सोच कर भूतनाथ आगे बढ़ा और उस कमरे के अन्दर हो रहा।

इसी पुतली वाले कमरे में घुसते ही यकायक वह दरवाजा जिसकी राह भूतनाथ इस कमरे में घुसा था आप-से-आप बन्द हो गया, वह खिड़की भी जो खुली हुई थी और जिसमें से भूतनाथ ने जमना को बाहर खींच लिया था बन्द हो गई और सिर्फ पुतली के पीछे वाला एक वही दरवाजा खुला रह गया जिसकी राह जमना वहाँ पहुँची थी।

भूतनाथ के ताज्जुब का कोई ठिकाना न रहा और खासकर यह देख कर तो वह और भी घबराया कि दरवाजा और खिड़की बन्द होने के साथ ही उस कोठरी की जमीन गर्म होने लगी और शीघ्र ही यहाँ तक गर्म हो गई कि उस पर खड़ा रहना तकलीफदेह मालूम होने लगा।

भूतनाथ कोठरी में चारों तरफ इस खयाल से घूमने लगा कि शायद कहाँ कोई जगह गर्म न हुई हो, पर कोठरी-भर का वही हाल था यहाँ तक कि अब धीरे-धीरे दीवारें गर्म होने लगी थीं और कुछ देर बाद हवा भी गर्म मालूम पड़ने लगी। भूतनाथ बड़ा घबड़ाया और सोचने लगा कि यह तो बड़ी दुर्दशा में आन पड़ा और इस गर्म कोठरी में व्यर्थ जान जाया चाहती है।

यह सोच कर कि शायद वह दरवाजा जिस राह जमना वहाँ आई थी किसी ठण्डी जगह में पहुँचने का रास्ता हो भूतनाथ कई दफे उसके पास गया पर जब-जब वह उसके पास जाता दरवाजा आप-से-आप बन्द हो जाता और जब वह दूर हट जाता तो पुनः खुल जाता था। भूतनाथ घबड़ा गया और उसे निश्चय हो गया कि अब उसकी जान कभी नहीं बचेगी क्योंकि कोठरी की गर्मी पल-पल में बढ़ती ही जाती है।

बड़ी बेचैनी और घबराहट की हालत में भूतनाथ इधर-उधर घूम बल्कि दौड़ रहा था कि यकायक उस खुले हुए दरवाजे में उसे किसी की सूरत दिखाई पड़ी वह रुक कर उधर ही देखने लगा और साथ ही उसकी निगाह मेघराज पर पड़ी जो मुस्कराते हुए आकर उस खुले हुए दरवाजे के पास खड़े हो गये थे।

मेघराज कुछ सायत तक भूतनाथ की तरफ देखकर बोले, ‘‘कहिए प्रभाकरसिंह जी, आज आप इस कोठरी में क्योंकर फँस गये और अब तक इस गर्म जगह में खड़े क्या कर रहे हैं! इधर मेरे पास क्यों नहीं आते?’’

भूतनाथ यह सुन बिना जवाब दिये मेघराज की तरफ बढ़ा मगर दो ही चार कदम गया होगा कि दरवाजा पहिले की तरह फिर बन्द हो गया। लाचार वह पुनः पीछे हटा, दरवाजा खुल गया और मेघराज दिखाई पड़ने लगे जो भूतनाथ की तरफ देख खिलखिला कर हँस पड़े और बोले, ‘‘वाह गदाधारसिंह तुम तो बड़े भारी ऐयार और चालाक कहलाते हो, फिर भी एक खुले हुए दरवाजे के बाहर नहीं हो सकते!’’

भूतनाथ : मेरी ऐयारी और चालाकी का तो आप तब इम्तिहान ले सकते थे जब खुले मैदान हम और आप हो, इस तरह एक तिलिस्मी कोठरी में किसी को बन्द कर और उसे कष्ट में डाल ताना मारना मर्दानगी नहीं है।

मेघ० :मैंने तुम्हें यहाँ बन्द नहीं किया तुम स्वयं आये और चोरों की तरह कोने-कोने की तलाशी लेते हुए यहाँ फँस गये तो इसमें मेरा क्या दोष?

भूत० : मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं यहाँ किसी बुरी नीयत से नहीं आया था! आप इस कम्बख्त गर्मी को दूर कीजिये जो इस कोठरी में पैदा हो रही है तो मैं आप से बात करने लायक बनूं।

मेघ० : हाँ हाँ शीघ्र ही मैं ऐसा कर दूँगा पर पहिले तुम्हें मेरे दो-चार सवालों का जवाब देना होगा।

भूत० : आप पूछें, मैं वादा करता हूँ कि ठीक उत्तर दूँगा।

मेघ० : पहिली बात तो यह कि तुम यहाँ क्यों आए? हमारे तुम्हारे बीच अब तो कोई दुश्मनी नहीं रह गई थी बल्कि आखिरी दफे तुम्हारी ही मदद से प्रभाकरसिंह जी अपने माता-पिता को और भैयाराजा जी ने अपनी स्त्री को पाया था और उस समय तुम दोस्ती जाहिर करते हुए हमारे उन साथियों से बिदा हुए थे, फिर क्या सबब है कि इतनी जल्दी अपनी प्रतिज्ञा भूल गए और हम लोगों का पीछा करने लगे? जहाँ तक मेरा खयाल है तुम नागर के मकान के पास से मेरा पीछा शुरू करके इस समय तक प्रभाकरसिंह की सूरत में मौजूद हो, और मुझे इस बात का भी सन्देह होता है कि हो-न-हो प्रभाकरसिंह तुम्हारे कब्जे में आ गये हैं। खैर यह सब बात तो पीछे होगी पहिले तुम बताओ कि इस घर में किस नीयत से आए हो?

भूत० :मैं आपसे सच कहता हूँ कि यहाँ मेरा आना किसी बुरी नियत से नहीं हुआ, नागर के मकान से निकलता देख मेरी इच्छा हुई कि किसी ढंग से आपका परिचय लूं। क्योंकि इतने समय तक साथ रहने पर भी मैं आपको बिल्कुल पहिचान नहीं सका। बस इसी इच्छा से मैं आपसे साथ लगा और लाचारी से अब तक यहाँ हूँ, आप विश्वास रक्खें कि केवल आपका परिचय जानना ही मेरा अभीष्ट है और था, किसी तरह का बुरा खयाल मेरे दिल में जरा भी नहीं है।

मेघ० : और प्रभाकरसिंह अब कहाँ हैं?

भूत० : उन्हें मेरे शागिर्दों ने गिरफ्तार कर लिया था, मैं नहीं कह सकता कि अब वे कहाँ हैं पर इस बात का वादा करता हूँ कि यहाँ से जाते ही उन्हें छोड़ दूँगा और यदि दूसरे के कब्जे में पड़ गए होंगे तो छुड़ा दूँगा!

मेघ० : खैर उसकी कोई चिंता नहीं है, अगर तुम उन्हें छोड़ दो तो अच्छा ही है नहीं तो हम लोग स्वयम् छुड़ा लेंगे?

भूत० : नहीं-नहीं, आपको कष्ट करने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ेगी, मगर अब आप इस कम्बख्त कोठरी से मुझे छुटकारा दें क्योंकि भट्टी की तरह गर्म इस जगह में खड़ा होना मुश्किल हो रहा है।

मेघ० : सिर्फ एक बात का जवाब और दे लो, इसी मकान में जमना और सरस्वती भी रहती थीं जो मेरी रक्षा में थीं, वे दोनों कहीं दिखाई नहीं पड़तीं, तुम जानते हो कहाँ गईं?

भूत० : हाँ, मैंने उन्हें बेहोश करके (हाथ से बताकर) उस खिड़की के बाहर वाली झाड़ी में डाल दिया है और जरूर वे अभी तक वहाँ ही होंगी।

मेघ० : उन्हें बेहोश करने की तुम्हें क्या जरूरत पड़ी? क्या मेरा परिचय जानने के लिए उन्हें भी गिरफ्तार करना आवश्यक हो गया था?

भूत० : जी नहीं बात यह हुई कि इसी खिड़की में से मेरी और जमना की कुछ बात हुई और उन्होंने मुझे ऐसी खरी-खोटी सुनाई कि क्रोध में आकर मैंने उन्हें खिड़की के बाहर खींच लिया और तब बेहोश करके झाड़ी में डाल दिया, मगर ओफ, अब तो मैं कुछ भी नहीं कर सकता, गर्मी के मारे बुरी हालत होती जा रही है।

मेघ०: भूतनाथ, जिस गर्मी से तुम इतना घबड़ा रहे हो उससे कहीं ज्यादा गर्मी पहुँचाने वाली आँच जमना और सरस्वती के कलेजे में दिन-रात सुलगा करती है जिनके पति दयाराम को तुमने अपने हाथ से कत्ल किया है। मैं जानता हूँ कि तुम्हारा कथन है कि तुमने दयाराम को उस समय नहीं पहिचाना और मुमकिन है कि तुम्हारा कहना ठीक भी हो पर क्या उस दयाराम की स्त्रियों पर वार करना तुम्हें मुनासिब था जो जान से ज्यादा तुम्हें मानता और भाई से ज्यादा तुम्हारी इज्जत करता था? अगर एक बार मान भी लिया जाय कि जमना-सरस्वती तुम्हें दुःख देने पर मुस्तैद हो गई थीं तो भी इसका जवाब यह नहीं था कि तुम उनका अनिष्ट करने की कोशिश करते। उन्हें कष्ट पहुँचाने की बनिस्बत उनके हाथों से मारा जाना तुम्हारे हक में ज्यादा बेहतर होता। खैर यह पुराने पचड़े इस समय उठाना मैं पसन्द नहीं करता। मैं इस कोठरी की गर्मी दूर करता हूँ पर अभी मुझे दो-चार सवाल और भी करने हैं, उनका जवाब देकर तुम कोठरी के बाहर जाना।

इतना कह मेघराज वहाँ से लौट गये। थोड़ी देर बाद एक खटके की आवाज आई और उसके साथ ही एक प्रकार की आवाज जो उस जगह गूँज रही थी बन्द हो गई, मानों किसी कल-पुर्जे का घूमना रोक दिया गया हो, इसके बाद वह खिड़की भी खुल गई जो बाहर की तरफ पड़ती थी और ठण्डी हवा के झोंकों ने आकर भूतनाथ को चैतन्य किया। धीरे-धीरे कोठरी की गर्मी कम होने लगी और भूतनाथ कुछ स्वस्थता के साथ मेघराज के लौटने का इन्तजार करने लगा।

घड़ी-भर के ऊपर बीत गया मगर मेघराज न लौटे। भूतनाथ खड़ा-खड़ा घबड़ा गया और आखिर अपनी जगह से चल कर उस दरवाजे के पास पहुँचा जिसके अन्दर से मेघराज ने उससे बातें की थीं। ताज्जुब की बात थी कि इस बार भूतनाथ के पास जाने पर भी वह दरवाजा बन्द न हुआ और हिचकते तथा कुछ डरते हुए भूतनाथ ने उस दरवाजे के अन्दर पैर रक्खा।

यह कोठरी भी पहली कोठरी की भाँति किसी तरह के सामान से एकदम खाली थी मगर चारों कोनों पर चार सिहांसन चाँदी के बने रक्खे थे जो इतने बड़े थे कि हर एक पर तीन या चार आदमी आराम के साथ बैठ सकते थे इसके सिवाय कोठरी की दीवारों पर भी तरह-तरह की तस्वीरें मौके-मौके पर टँगी थीं जो बहुत सफाई और कारीगरी के साथ बनी हुई थीं। इस कोठरी की छत में भी वैसा ही शीशे का गोला था जैसा पहिली कोठरी में था और उसमें से बेहिसाब रोशनी निकल रही थी, भूतनाथ ने देखा कि इस कोठरी में सिवाय एक उस दरवाजे के जिसकी राह वह यहाँ आया और कोई दरवाजा न था और उसे इस बात का ताज्जुब हो रहा था कि इस सब तरह से बन्द कोठरी में से मेघराज कहाँ चले गये।

भूतनाथ ने मेघराज की कुछ देर राह देखने का निश्चय किया और समय काटने के लिहाज से वह दीवार पर टँगी हुई उन तस्वीरों को देखने लगा। सब तरह की तस्वीरें देख भूतनाथ पश्चिम तरफ की दीवार के पास पहुँचा जहाँ दीवार के बीचोबीच में एक बड़ी तस्वीर लगी हुई थी देखना मुनासिब न समझ पहिले तो भूतनाथ का इरादा हुआ कि इस तस्वीर पर का पर्दा न हटाये पर उसके चंचल स्वभाव ने न माना और आखिर उसने पास जाकर उस तस्वीर का पर्दा हटा ही दिया।

काले चौखठे में जड़ी हुई इस तस्वीर को भूतनाथ ने बड़े गौर से देखा और साथ ही उसके रोंगटे खड़े हो गये, क्योंकि यह तस्वीर जिस स्थान और मौके की थी उसे भूतनाथ अच्छी तरह जानता था बल्कि यों कहना चाहिए कि भूतनाथ के जीवन की एक मुख्य घटना को यह तस्वीर प्रकट कर रही थी।

यह तस्वीर भूतनाथ द्वारा दयाराम के मारे जाने का दृश्य दिखा रही थी, एक मकान की ऊपरी छत पर कई आदमी दिखाये गए थे जिनमें से राजसिंह भूतनाथ के हाथ की चोट खा एक तरफ गिरा हुआ था, दलीपशाह और उसके साथी दूसरी तरफ जख्मी होकर गिरे हुए थे, और खाली हाथ दयाराम भूतनाथ के आगे खड़े थे, भूतनाथ के हाथ का खंजर दयाराम के कलेजे के पार हुआ ही चाहता था।   (१. देखिये चन्द्रकान्ता सन्तति-6, बाईसवाँ भाग, तीसरा बयान।)

भूतनाथ अपने को सँभाल न सका, तस्वीर का पर्दा उसके हाथ से छूट गया और वह पीछे की तरह हटता हुआ जाकर एक सिंहासन पर बैठ गया अथवा यों कहना चाहिए कि गिरा पड़ा ताज्जुब की बात थी कि भूतनाथ के बैठते ही वह सिंहासन हिला और तब इस तेजी से जमीन के अन्दर घुस गया कि भूतनाथ को उस पर से उतरने की जरा भी मुहलत न मिली और साथ ही वह किसी असर से बेहोश भी हो गया।

जब भूतनाथ होश में आया तो उसने अपने को एक खोह में पाया जो सुरंग की तरह मालूम हो रही थी। सामने की तरफ रोशनी दिखाई पड़ती थी और पेड़ों पर पड़ती हुई धूप बता रही थी कि सूर्य भगवान को उदय हुए काफी देर बीत चुकी है, धीरे-धीरे चलता हुआ वह गुफा के बाहर निकला और तब उसे मालूम हुआ कि यह वही गुफा है जिसकी राह मेघराज के साथ उनके गुप्त स्थान में आया था, अर्थात यही गुफा उस विचित्र घाटी में जाने की राह थी। अभी तक भूतनाथ के होश दुरुस्त नहीं हुए थे अस्तु यह बाहर आकर एक घने पेड़ नीचे बैठ गया जिसके पास ही से एक छोटा पहाड़ी चश्मा बह रहा था। थोड़ी देर बाद उसने उठ कर चश्मे के पानी से मुंह-हाथ धोया और तब जमानिया की तरफ रवाना हो गया।

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