मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 3 भूतनाथ - खण्ड 3देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण
आठवाँ बयान
संध्या के समय अपने तिलिस्मी मकान के अन्दर वाले बाग में एक पेड़ के नीचे कुर्सी पर उदास बैठे हुए इन्द्रदेव तरह-तरह की बातें सोच रहे हैं।
बेचारी जमना और सरस्वती की मौत ने तो, जिसकी खबर लेकर उनका ऐयार जमानिया पहुँचा था, उन्हें सता ही रक्खा था ऊपर से यह देख उनके रंज का ठिकाना न था कि उसी समय से दयाराम और प्रभाकरसिंह का भी कहीं पता न था और बहुत खोज-ढूँढ़ करने पर भी उनके ऐयार कुछ जान नहीं पाते थे कि वे कहाँ गायब हो गये। क्या जिस कम्बख्त ने जमना और सरस्वती की जान ली उसी ने उन दोनों का भी कुछ अनिष्ट किया अथवा वे दोनों स्वयं ही कुछ पता पाकर खूनी के पीछे चले गए।दोनों में से किसी बात का भी पता नहीं लगता था और बेचारे इन्द्रदेव की जान एक अजीब खुटके में पड़ी हुई थी। वे कुछ भी निश्चय नहीं कर पाते थे कि जमना और सरस्वती की मौत का बदला लें अथवा दयाराम और प्रभाकरसिंह का गम करें जिन्हें अपने खास लड़के की तरह वह चाहते थे! तरह-तरह के दुःखदायी खयाल उनके दिल को मसोस रहे थे और रह-रह कर उनका हृदय किसी ऐसे आदमी से बदला लेने पर उतारू हो जाता था जिसे लाख बुराई करने पर भी शायद दोस्ती का हक निबाहने की नियत से वे अभी तक छोड़ते चले आ रहे थे।
बेचारी इन्दुमति और प्रभाकरसिंह के माता-पिता पर भी इस घटना का बहुत बुरा असर पड़ा। वृद्ध होने और जमाने का बहुत कुछ ऊँचा-नीचा देख चुकने के कारण यद्यपि दिवाकरसिंह और नन्दरानी प्रकट में बहुत शोक न प्रकाश कर केवल इन्द्रदेव के ऊपर ही अपने प्यारे लड़के का पता लगाने का भार सौंप कर प्रकट में यह संतोष किये बैठे हुए थे कि यदि हमारे भाग्य में पुत्रशोक बदा ही है तो वह किसी तरह से हट नहीं सकता पर बेचारी इन्दुमति की बुरी हालत हो रही थी। यद्यपि अपनी इस कच्ची उम्र में ही वह बड़े-बड़े कष्ट उठा चुकी थी और दुनिया की अवस्था का बहुत कुछ अनुभव भी कर चुकी थी, इस पर भी इस समय इन्द्रदेव और उसके सास-ससुर का समझाना-बुझाना उसका कोई भी भला कर न रहा था। वह कई बार इन्द्रदेव से इस बात की इजाजत माँग चुकी थी कि वे उसे भेष बदल कर इस स्थान के बाहर जाने और अपने पति का पता लगाने की आज्ञा दें क्योंकि जमना-सरस्वती के संग से उसे भी कुछ कुछ ऐयारी आ गई थी। पर बेचारे इन्द्रदेव क्योंकर उसे ऐसा करने की इजाजत दे सकते थे। बराबर उसे दिलासा देते और समझाते थे कि ठहर जा बेटी जल्दी न कर, आजकल में मेरा कोई-न-कोई ऐयार प्रभाकरसिंह की खबर लेकर आता ही होगा।
यह भी नहीं था कि शागिर्दों ही पर सब भार छोड़ इन्द्रदेव स्वयम् चुप बैठे हों। मौका मिलने पर वे खुद भी भेष बदल कर बाहर निकलते और दयाराम तथा प्रभाकरसिंह का पता लगाते थे मगर अभी तक उनकी मेहनत का कोई अच्छा नतीजा नहीं निकला था।
केवल इस बात का पता वे लगा पाये थे कि प्रभाकरसिंह दारोगा के यहाँ कैद थे, मगर कई रोज हुए वहाँ से कोई उनको छुड़ ले गया। दारोगा की कैद से छूटने के बाद वे फिर क्या हुए या कहाँ गये इसका भी पता लगता न था।
इन तरद्दुदों के साथ ही एक तरद्दुद इन्द्रदेव को अपने ससुर के बारे में भी लगा हुआ था। जिस ढंग से आखिरी दफे उनके बुलाने पर अपनी स्त्री और लड़की को लेने जाने पर इन्द्रदेव से दामोदरसिंह की बातें हुई थीं १ उससे तथा खुद भी कुछ पता लगाने से यह बात इन्द्रदेव को मालूम हो चुकी थी कि शीघ्र दामोदरसिंह पर कोई आफत आने वाली है, मगर वह कैसी थी किस प्रकार की होगी इसका ठीक-ठीक पता नहीं लगता था और इस बात की फिक्र इन्द्रदेव को लगी हुई थी क्योंकि अपने ससुर की रक्षा करना इन्द्रदेव अपना आवश्यक कर्तव्य समझते थे। (१. देखिये चन्द्रकान्ता सन्तति चौदहवाँ भाग, ग्यारहवा बयान-इन्दिरा का किस्सा)
जमना-सरस्वती की मौत और दयाराम तथा प्रभाकरसिंह को गायब हुए आज करीब-करीब एक पखवाड़ा हो चुका है और जमानिया से अपनी स्त्री इत्यादि को लेकर इन्द्रदेव को लौटे भी करीब इतना ही समय गुजर चुका है।
बहुत देर तक सोच में डूबे रहने के बाद इन्द्रदेव ने सिर उठाया और ताली बजाई जिसके साथ एक नौकर जो अदब के साथ उनसे थोड़े ही फासले पर खड़ा था पास आ पहुँचा। इन्द्रदेव ने उसे अपना घोड़ा तैयार कर लाने का हुक्म दिया और आप उठ कर जनाने मकान में सर्यू से कुछ बातें करने के लिए चले गए।
थोड़ी देर बाद एक लबादा ओढ़े और अपनी सूरत में मामूली-सा फर्क डाले हुए इन्द्रदेव जनाने मकान के बाहर आये। तिलिस्मी मकान का पेचीला रास्ता तय करके बाहर आने पर पहाड़ी के नीचे उन्हें घोड़ा तैयार मिला और वे उस पर सवार हो तेजी के साथ एक तरफ को रवाना हुए।
लगभग आधे घंटे तक इन्द्रदेव लगातार घोड़ा फेंके हुए चले गये। सूर्यदेव अस्ताचलगामी हो चुके थे और उनकी किरणें केवल ऊँचे-ऊँचे पेड़ों की चोटियों पर ही कहीं-कहीं दिलखाई पड़ रही थीं जब इन्द्रदेव सड़क के किनारे एक ऐसी जगह पहुँच कर रुके जहाँ सड़क के दोनों तरफ दूर तक केवल बड़ के ही पेड़ लगे हुए थे और वे भी इतने पुराने तथा विशाल कि उनके सबब से दूर-दूर तक सड़क पर तथा आस-पास बिल्कुल अन्धकार हो रहा था। दोनों तरफ के पेड़ों की डालें आपस में गुथ गई थीं और बड़ की लटकती हुई शाखायें सड़क से आने-जाने वालों के रास्ते में रुकावट डालती थी। उस जगह सड़क के किनारे पुराने जमाने का एक आलीशान कुँआ भी था मगर वह अब टूट-फूट चला था और पेड़ों की पत्तियाँ गिरने से उसका पानी भी पीने लायक नहीं रह गया था।
इन्द्रदेव यहाँ पहुँच कर कुछ देर रुके और इसके बाद पुनः रवाना हुए पर इस बार उन्होंने सड़क छोड़ कर एक पतली पगडण्डी का रास्ता पकड़ा जो इन्हीं पेड़ों के बीच से घूमती-फिरती पश्चिम तरफ को निकल गई थी। अँधेरा होते-होते वे एक ऐसे स्थान पर पहुँचे जहाँ घोर जंगल के बीच एक ऊँचा टीला था जिस पर एक बड़ा और खूबसूरत बंगला बना हुआ दिखाई पड़ रहा था। यहाँ पहुँच इन्द्रदेव घोड़े पर से उतर पड़े और उसे रास्ते से दूर एक पेड़ के साथ लगाम अटका छोड़ने के बाद पैदल ही उस पगडण्डी पर चलने लगे जो चक्कर खाती हुई उस टीले के ऊपर चली गई थी।
कुछ ही दूर गये होंगे कि यकायक इन्द्रदेव को अपने पीछे कुछ आहट मालूम हुई, उन्होंने घूम कर देखा तो एक नकाबपोश को आते पाया। वे रुक गये और वह नकाबपोश उनके सामने आकर खड़ा हो गया। कुछ देर तक दोनों एकटक एक-दूसरे को देखते रहे और इसके बाद बाद नकाबपोश ने धीरे से कहा ‘शशधर!’’ जवाब में इन्द्रदेव से ‘‘राजन’’ सुनते ही उसने नकाब दूर कर दी और अब मालूम हुआ कि वे इन्द्रदेव के दिली दोस्त दलीपशाह है,
दलीपशाह ने इन्द्रदेव को गले लगाया और तब पूछा।, ‘‘आप यहाँ कैसे आ पहुँचे?’’
इन्द्र० : आज यकायक मेरे मन में आया कि यहाँ आकर भी कुछ देख-भाल करूँ मगर आपको इस जगह देख मुझे ताज्जुब होता है।
दलीप० : मैं और मेरे शागिर्द कई दिनों से इस मकान वालों का हाल जानने की फिक्र में लगे हुए हैं क्योंकि इस बात का सन्देह होता है कि प्रभाकरसिंह कदाचित इसी के अन्दर है।
इन्द्रदेव : (चौंककर) क्या सचमुच आप लोगों ने प्रभाकरसिंह को यहाँ देखा है?
दलीप० : हाँ (कान लगा कर) मगर देखिए किसी के आने की आहट सुनाई देती है, मालूम होता है कोई आदमी इधर आ रहा है, हम लोगों को आड़ में हो जाना चाहिये।
इन्द्रदेव और दलीपशाह पगडण्डी से हट कर एक पेड़ की आड़ में हो गये और उसी समय उनकी निगाह एक औरत पर पड़ी जो तेजी के साथ इसी तरफ आ रही थी। यद्यपि अंधकार के कारण उस औरत की सूरत-शक्ल का अन्दाज करना कठिन था तथापि इन्द्रदेव और दलीपशाह का ध्यान उसके हाथ के बड़े छूरे और उन बातों पर अवश्य गया जिन्हें वह बड़बड़ाती हुई कहती जाती थी- ‘‘यह बड़ा ही बुरा हुआ जो वह दुष्ट मेरे हाथ से बचकर निकल गया। अब वे लोग इस जगह का पता जरूर पा जायेंगे और तब प्रभाकरसिंह के लिए......!’’ यह कहती हुई वह औरत तेजी के साथ उसी टीले पर चढ़ गई।
उसके जाने के बाद इन्द्रदेव ने कहा-‘‘इसकी बात से तो मालूम होता है कि प्रभाकरसिंह यहीं है।’’
दलीप० : जरूर, और मेरी समझ में तो इसी वक्त इसका पीछा करना चाहिए
इन्द्र० : (कुछ सोच कर) अच्छा चलो।
दोनों आदमी जहाँ तक सम्भव था पेड़ों की आड़ में अपने को छिपाते हुए उस टीले पर चढ़ने लगे और थोड़ी देर में ऊपर जा पहुँचे। टीले का ऊपरी हिस्सा इतना प्रशस्त था कि उस पर बनी इमारत के अलावा भी वहाँ चारों तरफ थोड़ा मैदान और तब कुछ पेड़ थे। इन्द्रदेव और दलीपशाह एक मोटे पेड़ की आड़ में खड़े होकर चारों तरफ निगाह दौड़ाने लगे।
चन्द्र भगवान को अपनी पूरी किरणों के साथ उदय हुए आधी घड़ी के लगभग हो गया था और इस कारण उस सुफेद रंग से रंगे हुए मकान का बाहरी हिस्सा बिल्कुल साफ-साफ दिखाई पड़ रहा था जिसमें किसी तरह की विशेषता नहीं थी और सिवा उस सदर फाटक के जो इन दोनों के ठीक सामने पड़ता था और कोई खिड़की या दरवाजा भी नजर नहीं आता था।
दलीपशाह और इन्द्रदेव ने पेड़ों की आड़-ही-आड़ उस मकान का पूरा चक्कर लगाया पर कहीं कोई आदमी नजर न आया, चारों तरफ घूम आने पर इन दोनों को विश्वास हो गया कि इस मकान में अगर आदमी हैं तो अवश्य इसके अन्दर ही कहीं हैं और बिना अन्दर गये उनका पता लगाना कठिन है।
दलीपशाह ने इन्द्रदेव से पूछा, ‘‘कहिये तो कमन्द लगा कर मकान के अन्दर जाने की कोशिश की जाय क्योंकि फाटक बन्द है, ‘‘मगर इन्द्रदेव ने सिर हिला कर कहा, ‘‘नहीं, इस मकान में कमन्द नहीं लग सकेगी। यह ऐसी कारीगरी के साथ बना है कि इसकी दीवारों पर कहीं कमन्द अटकने की जगह नहीं।’’
दलीप० : फिर क्या करना चाहिए, मकान के अन्दर गए बिना कुछ पता लगाना मुश्किल जान पड़ता है।
इन्द्र० : जरा सब्र करो, कुछ देर तक राह देखो, अगर कोई आदमी नजर नहीं आवेगा तो इसी दरवाजे की राह अन्दर जाने की कोशिश करेंगे मगर देखो तो सही वह कौन आदमी है? वह तो प्रभाकरसिंह ही जान पड़ते हैं!
मकान के पिछली तरफ से इधर को आते हुए एक आदमी पर इन्द्रदेव की निगाह पड़ी। दलीपशाह ने भी उसे देखा और कहा, ‘‘बेशक मालूम तो प्रभाकरसिंह ही होते हैं, मगर ताज्जुब की बात है कि जब ये इस तरह पर खुले और स्वतन्त्र हैं तो आपके पास जाकर या आपको अपनी खबर न देकर यहाँ क्यों रुके हैं? रंग-ढंग से तो यह नहीं मालूम होता कि ये पराधीन हैं या किसी ने इन्हें कैद कर रक्खा है!!’’
इन्द्र० : बेशक, कम-से-कम कैदी तो वे नहीं ही मालूम होते!
दलीप० :तब मेरी एक राय है, अभी इनसे मुलाकात न कीजिए, आखिर इनका पता तो लग ही गया है, अब कहीं जा तो सकते नहीं और न कोई जल्दी ही है। पहिले देखिये ये करते क्या हैं!
इन्द्र० : आपकी राय ठीक है, ऐसा ही कीजिए।
दोनों आदमी चुपचाप खड़े प्रभाकरसिंह की तरफ देखने लगे। जिस जगह ये दोनों छिपे थे उसके आगे गजों तक जमीन पेड़-पत्तों से बिलकुल साफ थी।प्रभाकरसिंह कुछ देर तक धीरे-धीरे इसी मैदान में टहलते रहे, इसके बाद दरवाजे के पास पहुँचे और उसमें लगे हुए कुण्डे को खटखटाया। दरवाजा खुल गया और वे अन्दर चले गये।
लगभग घड़ी-भर के बाद वे पुनः बाहर आये मगर इस बार अकेले नहीं थे बल्कि अपने को नकाब में छिपाये एक औरत भी उनके साथ थी।
कुछ देर तक प्रभाकरसिंह उस औरत के साथ इधर-उधर टहलते और कुछ बातें करते रहे इसके बाद दोनों एक साफ पत्थर पर आकर बैठ गये जो उस जगह से जहाँ इन्द्रदेव और दलीपशाह छिपे खड़े थे दस-बारह कदम से ज्यादा दूरी पर न था। प्रभाकरसिंह और उस औरत में बातचीत होने लगीं जिसे इन्द्रदेव और दलीपशाह सुनने लगे। बिलकुल स्पष्ट सुनाई न पड़ने पर भी कुछ बातें समझ में आ सकती थीं।
प्रभा० :अब मुझे कब तक इस तरह छिपे बैठे रहना पडेगा? अकेले रहते- रहते तो तबीयत घबड़ा गई!
औरत : बस अब ज्यादा देर नहीं है, क्या कहूँ काम तो आज ही हो जाता मगर वह कम्बख्त कभी-न-कभी तो मेरे कब्जे में पड़ेगा।
प्रभा० : क्या बिना उसको गिरफ्तार किये काम नहीं चल सकता?
औरत : नहीं, सिवाय उसके और कौन बता सकता है कि उन सभों के साथ क्या सलूक किया गया?
प्रभा० : तो तुम्हें अभी तक उनकी मौत पर विश्वास नहीं होता?
औरत : कदापि नहीं, मुझे पूरा विश्वास है कि जमना और सरस्वती मरी नहीं बल्कि तिलिस्म में कैद हो गई हैं।
प्रभा० : मगर उन्हें तिलिस्म में कैद ही किसने किया? गदाधरसिंह तो तिलिस्म का हाल कुछ भी नहीं जानता!
औरत : पर दारोगा तो जानता है!
प्रभा० : बेशक दारोगा जरूर जानता है और वह ऐसा कर भी सकता है! (कुछ रुक कर) अच्छा तुमने एक बार कहा था कि ‘मैं तिलिस्म में जा सकती हूँ’ तो क्या तुम वहाँ जाकर उनका पता नहीं लगा सकतीं?
औरत : सब जगह तो नहीं मगर कुछ जगहें मैं जरूर जानती हूँ और वहाँ जा भी सकती हूँ।
प्रभा० :तो चल कर वहीं देखों शायद मिल जाएँ, न भी पता लगे तो कम-से-कम चित्त को कुछ सन्तोष हो जायगा।
औरत : (कुछ सोच कर) अच्छा जैसी मर्जी आपकी, मैं चलने को तैयार हूँ ।
प्रभा० : तो फिर चलो, मैं भी तैयार हूँ!
इन्द्रदेव बड़े गौर से इन दोनों की बातें सुन रहे थे, जब प्रभाकरसिंह की आखिरी बात सुन वह औरत उठ खड़ी हुई और प्रभाकरसिंह भी चलने को तैयार हो गये तो इन्द्रदेव ने बहुत धीरे से दलीपशाह से कहा, ‘‘इन लोगों की बातें सुनीं? मालूम होता है अब ये तिलिस्म में जायँगे।’’
दलीप०: आश्चर्य की बात है, मगर मेरी कुछ समझ में नहीं आता कि यह औरत कौन है और प्रभाकरसिंह से इसका परिचय क्योंकर हुआ। (देख कर) मगर देखिये वे दोनों तो उस तरफ जा रहे हैं। मकान के अन्दर न जा कर टीले के नीचे जाया चाहते हैं! चलिए हम लोग भी उधर ही चलें।
मन-ही-मन कई तरह की बातें सोचते हुए इन्द्रदेव भी दलीपशाह के साथ उसी तरफ रवाना हुए जिधर वह औरत और प्रभाकरसिंह जा रहे थे।
मकान के पश्चिम तरफ टीले के कुछ नीचे उतर कर पगडण्डी रास्ते के बगल में ही चूने या पत्थर की लगभग तीन हाथ ऊँची एक गोल पिण्डी एक बड़े-से चबूतरे के ऊपर बनी हुई थी। इस पिण्डी का घेरा छः हाथ से कम न था और सिंदूर से रंगी रहने के कारण यह एकदम लाल हो रही थी। इन्द्रदेव ने जो दलीपशाह के साथ उस औरत के पीछे-पीछे जा रहे थे देखा कि वह औरत उस जगह पहुँच कर रुकी और तब प्रभाकरसिंह के साथ पिण्डी के पीछे की तरफ चली गई।
थोड़ी ही देर बाद इन्द्रदेव और दलीपशाह भी उस जगह पहुँचे मगर वहाँ कोई न था। न तो वह औरत ही दिखाई पड़ी और न प्रभाकरसिंह नजर आए।
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