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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

सातवाँ बयान


इन्द्रदेव से बिदा होकर प्रभाकरसिंह अपने स्थान की तरफ रवाना हुए। यद्यपि जमना और सरस्वती के मारे जाने का हाल सुन वे बड़े ही दुःखी हो रहे थे फिर भी आँखों से निकल पड़ने वाले आँसुओं को बड़ी ही कठिनता से रोकते हुए तेजी के साथ बढ़े जा रहा थे।

भूतनाथ के सबब से उन्हें जो-जो कष्ट उठाना पड़ा था वह सब एक-एक कर के इस समय प्रभाकरसिंह को याद आ रहा था। जिस समय पहिले-पहिले अपनी स्त्री को लेकर भागते हुए नौगढ़ के पास जंगल में गदाधरसिंह से उनकी मुलाकात हुई थी उस समय से लेकर अब तक की सब घटनायें इस समय उनकी आँखों के सामने आ रही थीं।अपने पिता को जब उन्होंने पा लिया था और दयाराम का भी पता लग गया था उस समय उन्होंने समझा था कि उनके दुःख की घड़ी बीत गई और उन्हें दुःखद घटनाओं के उस भयानक जंगल में पुनः जाने की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी जिसमें शिवदत्त दारोगा और गदाधरसिंह रूपी खूँखार जानवर भरे हुए हैं, मगर अब उन्हें मालूम हुआ कि अब भी उस जंगल का कोई ऐसा टुकड़ा बाकी है जिसमें वे अभी तक पैर नहीं रख पाये हैं और उनकी स्त्री का गायब होना इसकी पूर्व सूचना थी तथा अब यह जमना, सरस्वती की मौत और दयाराम का पता न लगना साफ बता रहा था कि उनके ऊपर कोई भारी मुसीबत आना ही चाहती है, अगर वे सम्हल कर न चलेंगे तो ताज्जुब नहीं कि उनका कोई बड़ा अनिष्ट होने के साथ उनकी जान पर भी आ बने।

तरह-तरह की बातें सोचते हुए प्रभाकरसिंह चले जा रहे थे। जंगल-जंगल जाने की बनिस्बत उन्होंने सड़क से जाना ही मुनासिब समझा था और इसी कारण वे सड़क पर से होकर जा रहे थे।

शीघ्र ही अस्त हो जाने वाले चन्द्रमा की रोशनी प्रभाकरसिंह को चलने में पूरी मदद पहुँचा रही थी। जब उनके कान में घोड़े के टापों की आवाज पड़ी, वे चौकन्ने होकर इधर-उधर देखने लगे।थोड़ी ही देर में उन्हें मालूम हो गया कि यह आवाज सामने अर्थात उसी तरफ से आ रही है जिधर वे जा रहे थे और थोड़ी देर बाद एक सवार को अपनी तरफ आते देख प्रभाकरसिंह का शक जाता रहा।

न-मालूम यह सवार उनका दोस्त है या दुश्मन यह सोच प्रभाकरसिंह सड़क से हट कर एक किनारे हो गए, पेड़ों की आड़ में उन्होंने अपने को छिपा लिया मगर उस जगह के पास आकर जहाँ प्रभाकरसिंह ने सड़क छोड़ी थी वह सवार भी घोड़े पर से उतर पड़ा और जेब से एक सीटी निकाल कर किसी खास ढँग से उसे बजाया। इसके बाद घोड़े की लगाम एक डाल से अटका वह इधर-उधर गौर के साथ निगाहें दौड़ाने लगा।

उसके सीटी बजाने के साथ ही एक दूसरी सीटी की आवाज सुनाई दी और दो सवार तेजी के साथ आते हुए दिखायी दिए जो पीछे यानी जमानिया की तरफ से आ रहे थे। उनको आते देख इस आदमी ने पुनः सीटी बजाई और तब पेड़ों की झुरमुट में घुसा।

प्रभाकरसिंह इन सवारों की कार्रवाई गौर से देख रहे थे। उन्हें विश्वास हो गया कि वे सवार उनका भला करने की नीयत से नहीं आए हैं और इनसे दूर ही रहने में मंगल है। इस समय सिवाय एक साधारण खंजर के जो चलते समय इन्द्रदेव ने उन्हें दिया था उसके पास और कोई भी हथियार न था, अस्तु वे सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।

उन दोनों सवारों में से एक तो कुछ दूरी पर ही रुक गया और दूसरा पास आकर उस पहिले आदमी से कुछ बात करने लगा। इस समय मौका समझ धीरे-धीरे प्रभाकरसिंह अपने स्थान से हटने लगे और अन्त में इस बात का खयाल रखते हुए कि किसी प्रकार का शब्द न हो, वो एक घने पेड़ पर चढ़ गए।

थोड़ी ही देर बाद प्रभाकरसिंह को मालूम हुआ कि उस पेड़ जिस पर वे चढ़े हुए हैं केवल वे ही नहीं बल्कि कोई और आदमी भी मौजूद है और यह जान उनका तरद्दुद और भी बढ़ गया कि हिलती हुई डालियाँ और पत्ते इस बात की सूचना दे रहे थे कि वह दूसरा आदमी धीरे-धीरे उन्हीं की तरफ बढ़ रहा है।

प्रभाकरसिंह ने खंजर निकाल कर हाथ में ले लिया और गौर के साथ चौकन्ने होकर चारों तरफ देखने लगे, क्योंकि वे इस बात को बिल्कुल नहीं समझ सकते थे कि यह आदमी उनका दोस्त है या दुश्मन और अगर दुश्मन है तो उसका हमला किस तरह से होगा वे नहीं, जान सकते थे।

थोड़ी देर बाद आहट से प्रभाकरसिंह को मालूम हो गया कि अब वह आदमी उनसे ज्यादा दूर नहीं है और ये भी चैतन्यता के साथ खंजर पकड़े इधर-उधर देखते हुए इस बात को जानने की कोशिश करने लगे कि वह किस तरफ है और किस नीयत से इस तरह धीरे-धीरे उनकी तरफ बढ़ा आ रहा है। घना पेड़ होने के कारण इतना अँधेरा था कि हाथ को हाथ दिखाई देना मुश्किल हो रहा था और प्रभाकरसिंह बड़े तरद्दुद में पड़े हुए थे कि अब क्या करना चाहिये कि यकायक उनके कान में आवाज पड़ी-‘‘प्रभाकरसिंह जी!’’

आवाज कमजोर और जनानी मालूम होती थी जिससे प्रकट होता था कि यह बोलने वाला मर्द नहीं बल्कि कोई औरत है मगर इस बात को जान कर प्रभाकरसिंह का आश्चर्य और भी बढ़ गया। ऐसे स्थान पर उनके जान-पहिचान की अथवा उनका नाम जानने वाली कोई औरत कहाँ से आ गई और उसने उन्हें कैसे पहिचाना? प्रभाकरसिंह यही सोच रहे थे कि पुनः उसी औरत की आवाज आई,‘‘प्रभाकरसिंह जी!’’

इस बार भी प्रभाकरसिंह ने कुछ जवाब न दिया, थोड़ी देर बाद पुनः आवाज आई, ‘‘आप डरिये मत, मैं आपकी दुश्मन नहीं बल्कि दोस्त हूँ और दोस्त न होऊँ तो भी एक खाली हाथ औरत से डरने की आपको कोई वजह नहीं!’’

इसी समय प्रभाकरसिंह की निगाह नीचे सड़क की तरफ गई और यह देख उन्हें ढांढ़स हुई कि अब वे तीनों आदमी जिन्हें वे पहिले देख चुके थे या जिनके सबब से इस पेड़ पर चढ़े थे दिखाई नहीं देते अस्तु उन्होंने जवाब दिया। ‘‘तुम कौन हो?’’

जवाब मिला, ‘‘मुझे आप नहीं पहिचानते।’’

प्रभाकरसिंह बोले, ‘‘तो तुम मुझे क्योंकर पहिचानती हो या कैसे जानती हो कि मैं प्रभाकरसिंह हूँ?’’

औरत : पहिले तो मुझे कुछ सन्देह था पर अब आपकी आवाज ने मुझे बता दिया कि आप निश्चय प्रभाकरसिंह ही हैं।

प्रभाकर० : मगर ताज्जुब की बात है कि जिस तरह मेरी आवाज ने तुम पर प्रकट कर दिया कि मैं प्रभाकरसिंह हूँ उस तरह तुम्हारी आवाज मुझे कुछ भी नहीं बताती कि तुम कौन हो?

औरत : इसका सबब यह है कि आप मुझे बिल्कुल नहीं जानते! (कुछ रुक कर) खैर इस पेड़ पर बैठ कर बातें करने की बनिस्बत मुनासिब है कि नीचे उतर चला जाय क्योंकि आपके दुश्मन दिखाई नहीं पड़ते। अच्छा पहिले मैं नीचे उतर कर देखती हूँ कि क्या हाल है और वे वास्तव में चले गये हैं या यहीं छिपे हुए हैं।

प्रभा० : नहीं, नहीं, पहिले मुझे उतर जाने दो, मैं शीघ्र इस बात का पता लगा लूगाँ कि यहाँ कोई मेरा दुश्मन है या नहीं।

इसके जवाब में खिलखिला कर हँसने के बाद उस औरत ने कहा, ‘‘मालूम होता है कि आपको मुझ पर विश्वास नहीं हुआ और आप समझते हैं कि नीचे पहुँच कर मैं आपके साथ दगा करूँगी, खैर कोई हर्ज नहीं पहिले आप ही उतर जाइए, लीजिये मैं कुछ और हट जाती हूँ!’’

आहट से प्रभाकरसिंह को मालूम हुआ कि वह औरत कुछ दूर हट गई अस्तु वे सावधानी के साथ पेड़ के नीचे उतरने लगे क्योंकि उन्हें अभी तक यह सन्देह बना ही हुआ था कि कहीं वह औरत धोखे में उन पर हमला न करे मगर ऐसा न हुआ और वे सकुशल नीचे पहुँच गये।

इधर-उधर नजर दौड़ाने पर भी प्रभाकरसिंह को कहीं कोई दिखाई न पड़ा, सिवाय इसके इस जगह अँधेरा इतना था कि अगर कोई आस-पास में छिपा हुआ होता भी तो ये उसे देख न सकते थे। उसी समय पेड़ पर से उस औरत के उतरने की आहट आई और थोड़ी ही देर में वह नीचे आकर इनके पास में खड़ी हो गई।

प्रभाकरसिंह ने पूछा, ‘‘अच्छा अब तुम अपना परिचय दो कि तुम कौन हो और मुझसे क्या चाहती हो?’’

औरत : अपना परिचय देना व्यर्थ है क्योंकि आप मुझे बिल्कुल नहीं पहिचानते, इसके साथ ही मैं यह भी चाहती हूँ कि आप इस जगह न ठहरे क्योंकि आपके दुश्मन चारों तरफ मौजूद हैं।

प्रभाकर० : मेरे दुश्मन कौन?

औरत : क्या आप नहीं जानते कि वे लोग जिन्हें आपने थोड़ी देर हुई देखा था किसके आदमी हैं!

प्रभाकर० : नहीं,

औरत : ठीक है, आप क्योंकर जान सकते हैं, अभी ही तो गदाधरसिंह ने आपको दारोगा की कैद से छुड़ाया है।

प्रभाकर० : (आश्चर्य से) क्या कहती हो? किसने मुझे छुड़ाया?

औरत : जिसे आप इन्द्रदेव समझे हुए हैं वह वास्तव में गदाधरसिंह था।

प्रभाकरः नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।

औरत : अवश्य ऐसा ही है और इन्द्रदेव से मिलते ही आपको मेरी बात का विश्वास हो जायगा। मुझको इसी में सन्देह है कि आप इन्द्रदेव से मिल भी सकेंगे या नहीं।

प्रभाकर० : सो क्यों!

औरत : आपके पुराने मालिक शिवदत्तसिंह के ऐयार यहाँ आये हुए हैं और उन्होंने अपनी ऐयारियों का जाल इस तरह फैलाया हुआ है कि आपका निकल भागना असम्भव मालूम होता है क्योंकि वे आपको और आपके साथियों को अच्छी तरह जानते हैं और आप उनको नहीं पहिचानते। मुझे इस बात का भी डर है कि कहीं उनका वार इन्दुमति के ऊपर भी न हो क्योंकि इस समय उस बेचारी की रक्षा करने वाला कोई भी नहीं है।

इस औरत की बातें सुन प्रभाकरसिंह के ताज्जुब का हद न रहा क्योंकि आवाज इत्यादि से वे कुछ भी पहिचान नहीं कर सकते थे और वह औरत इनके सब हाल से परिचित मालूम होती थी, इसके साथ ही वे इस बात का भी निश्चय नहीं कर सकते थे कि यह वास्तव में उनकी दोस्त है अथवा दुश्मन और इस पर कहाँ तक विश्वास करना चाहिए। आखिर उन्होंने कहा, ‘‘मैं उस समय तक तुमसे सवाल-जवाब नहीं कर सकता जब तक तुम्हारा पूरा परिचय न पा जाऊँ या मुझे इस बात का विश्वास न हो जाय कि तुम दोस्त हो दुश्मन नहीं।

इस बात का कुछ जवाब न दे वह औरत सड़क की तरफ बढ़ी। कुछ सोच कर प्रभाकरसिंह भी उसके साथ चलने लगे। सड़क पर पेड़ों की आड़ न होने के कारण चन्द्रमा की अन्तिम किरणें अभी तक पड़ रही थीं और उसकी रोशनी में प्रभाकरसिंह को यह देख आश्चर्य हुआ कि वह औरत अपने चेहरे को नकाब से ढाँके हुए है तथा खूबसूरती के साथ लपेटी हुई कमन्द और एक बटुआ भी उसके पास मौजूद है।

प्रभाकरसिंह की तरह औरत ने भी इनको अच्छी तरह देखा बल्कि कुछ देर तक देखती रही प्रभाकरसिंह यह देख बोले, ‘‘तुम्हारे पास कमन्द और बटुआ है इससे मालूम होता है कि तुम कोई ऐयार हो?’’

औरत : ऐयार कहलाने लायक न होने पर भी मैं थोड़ी बहुत ऐयारी जरूर जानती हूँ।

प्रभाकर : क्या तुम अपनी सूरत मुझे न दिखाओगी?

औरत : आवश्यकता पड़ने पर आप अवश्य मेरी सूरत देख सकेंगे बल्कि परिचय भी पा सकेंगे पर इस समय नहीं आपको कई दफे मेरी जरूरत पड़ेगी और चाहे इस समय आप मुझ पर विश्वास न करते हों पर धीरे-धीरे आपको मालूम हो जायगा कि मैं आपकी दोस्त हूँ दुश्मन नहीं।

इस औरत की बातें सुन प्रभाकरसिंह कुछ देर के लिए चुप हो गये। उन्हें ज्यादा तरद्दुद तो इस बात का था कि इसे वे क्या समझें, दोस्त या दुश्मन? यद्यपि उनका दिल इसे दुश्मन समझना नहीं चाहता था पर उनकी विचार और विवेकशक्ति उसे दोस्त मानने को भी तैयार नहीं थी। वे इसी सोच में पड़े हुए थे कि उसे क्या जवाब दें कि उस औरत ने पुनः कहा, ‘‘मालूम होता है आपको मुझ पर विश्वास नहीं हो रहा है, और यह ताज्जुब की बात नहीं है। जितनी मुसीबतें और आफतें अब तक आप पर आ चुकी है तथा जितना धोखा आप उठा चुके हैं उससे आदमी पत्ते-पत्ते पर शक करता फिरे तो भी ताज्जुब की बात नहीं, अच्छा अब आपका और समय नष्ट न कर मैं जाती हूँ पुनः किसी मौके पर मिलूँगी पर एक बार फिर आपको समझाने जाती हूँ कि अब यदि आप किसी इन्द्रदेव को देखियेगा, तो उस पर समझ-बूझ कर विश्वास कीजिएगा तथा शिवदत्त के ऐयारों से भी अपने को बचाने की कोशिश कीजियेगा।

प्रभाकर : तो क्या तुम्हारा यह कहना सच है कि जिस इन्द्रदेव से मेरी मुलाकात हुई थी वे असली न थे?

औरत : बेशक!

प्रभाकर : और वह गदाधरसिंह था!

औरत : अवश्य!

प्रभाकर : यदि वह गदाधरसिंह ही था तो उसने मुझे दारोगा की कैद से क्यों छुड़ाया? उसी ने तो मुझे गिरफ्तार करके दारोगा के पास पहुँचाया था फिर मुझे छु़ड़ाने की उसे क्या जरूरत पड़ी?

औरत : इस बारे में मैं कुछ भी नहीं कह सकती और न अब ज्यादे देर ठहर ही सकती हूँ।

इतना कह बिना प्रभाकरसिंह की कोई भी बात सुने औरत सड़क से हट पेड़ों की आड़ में हो गई और कुछ दूर जाकर नजरों से गायब हो गई।

कुछ देर तक प्रभाकरसिंह वहाँ खडे़ तरह-तरह की बातें सोचते रहे इसके बाद तेजी के साथ पुनः उसी तरफ रवाना हुए जिधर पहिले जा रहे थे।

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