लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 3

भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

421 पाठक हैं

भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

छठवाँ बयान


जैपाल को साथ लिए दारोगा कैदियों के कमरे में गया और वहाँ पहुँचते ही उसकी निगाह उस कोठरी के खुले दरवाजे पर गई जिसमें प्रभाकरसिंह कैद थे वह झपट कर वहाँ पहुँचा मगर प्रभाकरसिंह अब वहाँ कहाँ?

दारोगा जैपाल की तरफ घूमा जो उस दरवाजे को देख रहा था जिसके अन्दर वह औरत कैद थी, उसकी टूटी हुई जंजीर की तरफ दारोगा का खयाल गया और वह उस तरफ बढ़ा मगर जैपाल ने रोक कर कहा, ‘‘ठहरिये, मालूम होता है कि जिस आदमी ने प्रभाकरसिंह को छुड़ाया है वह मालती को भी छुड़ाना चाहता था पर मौका न मिलने या शायद हम लोगों की आहट पा जाने के कारण अपना काम पूरा नहीं कर सका। ताज्जुब नहीं कि नीचे कहीं छिपा हुआ मिल जाय, पहिले एक बार उसे ढूँढ़ने की कोशिश करनी चाहिये।’’

दारोगा ने जैपाल की बात मान ली और पिछले पाँव लौट कर सीढ़ियाँ उतर नीचे की कोठरी में आया। जैपाल भी नीचे उतर आया और उस कोठरी का ताला बन्द कर प्रभाकरसिंह और उनके छुड़ाने वाले की खोज में लगा।

बड़ी-बड़ी आलमारियों, कोठरियों और दालानों में से घूमते और ढूँढ़ते हुए दारोगा ने बहुत-सा कीमती समय व्यर्थ नष्ट कर दिया और इस बीच प्रभाकरसिंह और उनके छुड़ाने वाले को इतना मौका मिल गया कि वे उस मकान के बाहर हो सकें।आखिर जब पूरी तरह खोज-ढूँढ़ लेने बाद दारोगा को विश्वास हो गया कि अब वहाँ कोई नहीं है तो सुस्त और उदास होकर वह अपने कमरे में जाकर गद्दी पर पड़ गया। जैपाल भी पास ही जा बैठा।

बड़ी देर के बाद दारोगा ने सिर उठाया और जैपाल की तरफ देख कर कहाँ, ‘‘आज तक मेरे इस कैदखाने से कोई कैदी भाग न सका था। यह पहिला मौका है कि ऐसा हुआ है।

जैपाल : अभी तक आपने इस कैदखाने से काम भी तो नहीं लिया था। मगर यह तो बड़ी विचित्र बात है कि आपके झब्बे में से कैदखाने की ताली निकल जाय और सो भी खास उस कोठरी की चाभी जिसमें प्रभाकरसिंह कैद थे!

दारोगा : और मैं उस झब्बे को सिवाय तुम्हारे और किसी के हाथ में कभी देता भी नहीं! मैं तो समझता हूँ कि कल जब तुम कैदियों को खाना देने के लिए यह झब्बा मुझसे ले गये थे उसी समय या उसके बाद किसी ने धोखा देकर यह कार्रवाई की है और ऐसा होना कुछ मुश्किल भी नहीं है क्योंकि मुझे अच्छी तरह याद है कि कल तुम पानी लेने के लिए एक दफे लौटे थे।

जैपाल : हाँ, पानी के लिए मुझे लौटना तो जरूर पड़ा था और तालियों का झब्बा भी उस समय मैं जरूर वहीं छोड़ आया था पर जब मैं लौट कर गया उस समय तक तो तालियों में कोई कमी। नहीं हुई थी, बराबर सब ताले बन्द करता हुआ मैं वापस आया था!

दारोगा : पर उस समय यदि कोई यहाँ छिपा होगा तो उसने कम-से-कम तालियों को पहिचान लिया होगा और मौका पाते ही उन्हीं तालियों को उसने गायब कर दिया! खैर जो हुआ सो हुआ अब यह सोचना चाहिये कि गदाधरसिंह को क्या जवाब देना उचित है जो अब आता ही होगा?

जैपाल : क्या आपने उससे वादा कर दिया था कि प्रभाकरसिंह को लौटा देंगे?

दारोगा : नहीं, वादा तो नहीं किया था मगर बात यह थी कि प्रभाकरसिंह को मुझे सौंपते समय उसने मुझसे यह जरूर कह दिया था कि बिना उससे पूछे मैं शिवदत्त के कब्जे में न दूँगा, मुमकिन है उसे किसी तरह से पता लग गया हो कि शिवदत्त प्रभाकरसिंह के बारे में मुझे लिखेगा।

जैपाल : ऐसा होना कोई ताज्जुब नहीं है। वह बड़ा धूर्त है और ऐसी-ऐसी बातों की खास कर उसे बहुत ही खबर रहती है।

दारोगा : और इस समय यदि मैं उससे कहूँगा कि प्रभाकरसिंह को कोई छुड़ा ले गया तो वह कभी मेरी बात पर विश्वास न करेगा और यही समझेगा कि दारोगा झूठ कह रहा है।

जैपाल : बेशक वह ऐसा खयाल कर सकता है।

दारोगा : केवल उसी के खयाल से नहीं बल्कि शिवदत्त के खयाल से भी इस समय प्रभाकरसिंह का कब्जे में रहना जरूरी था क्योंकि शिवदत्त फिर उनसे पुराना बदला लिया चाहता है।

जैपाल : मगर आपने तो उसकी कुछ भी मदद करने से इनकार कर दिया था।

दारोगा : पहिले तो जरूर इनकार कर दिया था मगर अब जो मैं सोचता हूँ तो यही ठीक मालूम होता है कि उससे बिगाड़ करने की बनिस्बत दोस्ती बनाए रखना ही ज्यादा लाभदायक होगा। दूसरे उसने दिग्विजयसिंह से भी मदद माँगी है और उन्होंने अपना खास आदमी भेज कर मुझसे दरियाफ्त कराया है कि इस मामले में क्या करना उचित होगा।

जैपाल : यह तो मुझे जरूर मालूम हुआ था कि महाराज दिग्विजयसिंह के ऐयार शेरसिंह आये थे मगर क्या बातें उनकी और आपकी हुईं यह पता न लगा।

जैपाल की बात सुन कर दारोगा साहब ने वे चीठियाँ जो शेरसिंह की मार्फत पाई थीं, उसके सामने फेंक दीं, जैपाल उन्हें ध्यानपूर्वक पढ़ गया और तब बोला, ‘‘आपने शेरसिंह को क्या जवाब दिया?’’

दारोगा : अभी तक तो कोई उत्तर नहीं दिया है पर शीघ्र ही जवाब देने का वादा किया है, इसी बीच में हमें ठीक-ठीक निश्चय कर लेना है कि अब क्या करना मुनासिब होगा, कहो तुम्हारी क्या राय है?

जैपाल : (कुछ देर सोच कर) मेरी समझ में तो शिवदत्त से दोस्ती बनाए रखने में ही हम लोगों का फायदा है। एक तो आजकल उसने अपनी ताकत खूब बढ़ा ली है, दूसरे...

जैपाल की बात समाप्त नहीं हुई थी कि बाहर से कुछ आहट मालूम हुई। एक नौकर ने पहुँच कर कहा, ‘‘गदाधरसिंह आये हैं और बाहर खड़े हैं।’

’दारोगा ने भूतनाथ को ले आने का हुक्म दिया और थोड़ी देर में वह आ मौजूद हुआ। दारोगा ने उठ कर बड़ी खातिरदारी के साथ उसे लाकर खास अपनी गद्दी पर बैठाया और नाहीं-नूकर करते हुए उसके बैठ जाने पर आप भी बैठा।

बैठते ही भूतनाथ ने कहा, ‘‘प्रभाकरसिंह के निकल जाने का तो आपको इस समय बड़ा अफसोस हुआ होगा!’’

दारोगा : (आश्चर्य से) आपको उनके छूट जाने का हाल कैसे मालूम हुआ?

भूत० : मुझे किस बात का पता नहीं रहता! क्या शिवदत्त के बारे में मैंने जो खबर दी थी वह गलत निकली! या दिग्विजयसिंह के बारे में आपसे जो कुछ कहा उस पर अविश्वास करने का आपको मौका मिला?

दारोगा : नहीं नहीं, आपकी दोनों खबरें बहुत ठीक निकलीं, वास्तव में आपके शागिर्द लोग बड़े ही तेज और अपने काम में पक्के हैं। उनकी लाई हुई कोई खबर झूठी नहीं हो सकती। आज ही दिग्विजयसिंह का आदमी मुझसे मिला था।

भूत० : मुझे मालूम है।

दारोगा : क्या शेरसिंह आपसे मिले थे?

भूत० : यहाँ तो अभी मेरी उनकी मुलाकात नहीं हुई है मगर हो जायगी लेकिन तब आपने उनको क्या जवाब दिया?

दारोगा : मेरा जवाब तो बस आप ही के ऊपर निर्भर करता है, आप जैसा कहें मैं वैसा ही करूँ!

भूत० : क्यों मुझसे क्या मतलब? मुझसे न विग्दिजयसिंह से कोई वास्ता और न शिवदत्त से। मैं इन दोनों के विषय में आपको क्या राय दे सकता हूँ? आप जो मुनासिब समझे करें!

दारोगा : वाह-वाह, यह भी आपने खूब कही! आप ही से तो बड़ा मतलब है बल्कि आप ही के ऊपर इस मामले का भार है,

भूत० : इसके क्या माने?

दारोगा : इसके यह माने कि अगर आप मेरी सहायता करें तब तो मैं शिवदत्त की मदद करना मंजूर करूँ और अगर आप इनकार करें तो मैं भी उससे इनकार कर दूँ।

भूत० : मैं तो अपने भरसक बराबर ही आपकी मदद करता रहा हूँ, आपको इस विषय में शिकायत करने का मौका तो न मिलना चाहिये।

दारोगा : मैं शिकायत तो नहीं करता पर इतना जरूर कहूँगा कि इधर कुछ दिनों से आपने मेरी तरफ से कुछ बेरुखी अख्तियार कर ली है,

भूत० : सो कैसे!

दारोगा : क्या आप नहीं जानते कि मेरे ऊपर इधर कैसी-कैसी मुसीबतें आई हैं और कैसे-कैसे तरद्दुदों ने मुझे घेर रखा है!

भूतनाथ : इतना मुझे अवश्य मालूम है कि आपके कई कैदी निकल गये लेकिन इससे ज्यादा और कुछ अगर हुआ हो तो मैं नहीं जानता।

दारोगा : क्या कैदियों का निकल जाना कुछ कम मुसीबत की बात है? क्या वे छूट कर मेरा अनिष्ट नहीं करेंगे?

भूत० : यह तो भला मैं कैसे कह सकता हूँ कि आपको उनके सबब से तकलीफ नहीं उठानी पड़ेगी।

दारोगा : और आप बुरा न मानें तो मैं कहूँगा कि वह मुसीबत मेरे ऊपर आप ही के सबब से आई।

भूत० : (बनावटी हँसी हँस के) क्या मैं ही आपके कैदी छुड़ा ले गया हूँ!!

दारोगा : नहीं नहीं, यह तो मैं नहीं कहता मगर आपका मुझसे नाराज हो जाना ही इस घटना का मुख्य कारण है, इसका मुझे पक्का विश्वास है, खैर अब इन पचड़ों को जाने दीजिए और यह बताइए कि आज से आप मेरी मदद सच्चे दिल से करने को तैयार हैं या नहीं?

भूत० : (हँस कर) मैंने आपकी मदद करने से इन्कार ही कब किया?

दारोगा : खैर तो फिर आगे के लिए बताइये कि आपका क्या इरादा है। इस बात को आप अच्छी तरह समझ लीजिये कि मेरी मदद करने से आपका सिवाय फायदे के नुकसान नहीं है।

मेरे साथी बने रहने से अभी तक आपका फायदा ही हुआ है और होगा, और मेरे विपक्ष में रहने से आपका कोई फायदा नहीं है बल्कि कुछ नुकसान ही है।क्योंकि चाहें आप ऐसे धुरन्धर ऐयार का मैं या मेरा कोई साथी कुछ बिगाड़ नहीं सकते मगर साथ ही इसके आप यह भी समझ रखिये कि चाहे कोई आदमी कैसा ही ताकतवर क्यों न हो मगर उसके दुश्मनों की गिनती का बढ़ते जाना उसके हक में कदापि ठीक नहीं है, मैं अच्छी तरह जानता और समझता हूँ इधर के कई काम आपके हाथ से ऐसे हुए हैं जिन्होंने आपके दुश्मन बढ़ा दिए हैं। मैं यह ताने के तौर पर नहीं कहता बल्कि अपना दिली खयाल आपसे कहता हूं कि आपके काम यदि आपके दुश्मनों की संख्या बढ़ा रहे हैं तो आपको भले ही इस समय मेरी मदद की जरूरत न हो, पर कभी-न-कभी आपको अपने कामों में मेरी सहायता की जरूरत पड़ सकती है और इस बात का आपको अनुभव भी है, साथ ही इसमें भी कोई शक नहीं कि आपकी मदद से मेरा भी बहुत कुछ फायदा हो चुका है और आगे और होने की उम्मीद है! सच तो यह है कि अगर हम और आप साथी बने रहेगें तो ऐसे-ऐसे काम कर गुजरेंगे जिसका खयाल भी करना मुश्किल है। आप ही कहिए क्या मेरा कहना गलत है?

भूत० : नहीं नहीं, आप बहुत ठीक कह रहे हैं, मैं इस बात को मानता हूँ कि मेरे दुश्मन बढ़ गये हैं और इस बात को भी जानता हूँ कि आपके दुश्मन भी घटे नहीं हैं तथा इस बात को भी मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि एक-दूसरे की मदद करने से हमारा आपका दोनों का फायदा होगा, मगर...

दारोगा : मगर क्या?

भूत० : खैर इस समय इस बात को रहने दीजिए और पहिले यह बतलाइये...

दारोगा : नहीं नहीं, पहिले आप अपनी यही बात समाप्त कीजिये तब मैं कुछ बताऊँगा क्योंकि ‘मगर’ एक ऐसा शब्द है जिसके मतलब का कोई अन्त नहीं।

भूत० : (हँस कर) मगर कई बातें ऐसी आ गई हैं जिनके सबब से कई खास मामलों में मैं आपकी मदद न कर सकूँगा।

दारोगा : वे कौन-से मामले हैं?

भूत० : एक तो इन्द्रदेव के विरुद्ध किसी प्रकार की और कोई भी कार्रवाई मैं नहीं करूँगा और न आपको करने दूँगा।

दारोगा : ठीक है, यह तो मैं पहिले ही जानता था फिर भला इन्द्रदेव से मेरी कौन-सी दुश्मनी है जो मैं उनके विरुद्ध कुछ करूँगा! इस आशंका को तो आप अपने दिल से एकदम ही हटा दीजिए। अच्छा और कुछ!

भूत० : दूसरे इन्द्रदेव के दोस्तों और साथियों के विरुद्ध तब तक मैं किसी काम में आपकी सहायता न करूँगा जब तक वे मेरे साथ दुश्मनी का बर्ताव न करेंगे।

दारोगा : हाँ यह भी ठीक है, इसे भी मंजूर करता हूँ। और कुछ हो तो उसे भी बता दीजिए।

भूत० : (कुछ रुक कर) तीसरी बात यह है कि ... खैर, इस समय उस बात को उठाने की कोई जरूरत नहीं मौका पड़ने पर देखा जायगा। मेरी इन दो बातों का ही यदि आप खयाल रक्खेंगे तो फिर मुझे आपकी मदद करने में कोई उज्र न होगा।

दारोगा : मैं इस बात का वादा करता हूँ कि इन्द्रदेव के बर्खिलाफ कभी कोई कार्रवाई न करूँगा और न आपसे ऐसे किसी काम के लिए कहूँगा जिससे इन्द्रदेव उसके दोस्त या उसके साथियों का कुछ भी अनिष्ट होता हो।

भूत० : और मैं इस बात का वादा करता हूँ कि तब तक सच्चे दिल से आपकी मदद करूँगा जब तक आप कोई भेद की बात मुझसे न छिपावेंगे।

इस बात पर दोनों ने कसम खाई और तब दारोगा ने उठ कर भूतनाथ को गले लगाया। इसके बाद दोनों फिर बैठे और पुनः बातचीत शुरू हुई।

दारोगा : अच्छा अब आप बताइये कि शिवदत्तसिंह और दिग्विजयसिंह को मैं क्या जवाब दूँ?

भूत० : जरा उन चीठियों को मुझे दिखाइये।

दारोगा ने वे चीठियाँ भूतनाथ के आगे रख दीं। भूतनाथ सरसरी निगाह से उन्हें पढ़ गया और तब बोला, ‘‘जहाँ तक मालूम होता है शिवदत्त आपसे केवल प्रभाकरसिंह के मामले में मदद लिया चाहता है।’’

दारोगा : हाँ और इसी सबब से प्रभाकरसिंह का कब्जे में आकर निकल जाना मुझे बड़ा ही अखरा! हाँ यह तो बताइये, आपको इस बात का कैसे पता लगा कि प्रभाकरसिंह को कोई छुड़ा ले गया?

भूत० : (मुस्कुरा कर) किसी तरह से मुझे मालूम हो गया! और सच तो यह है कि मुझे शुरू ही से यह सन्देह था कि वे आपके कब्जे में ज्यादा दिन तक रहने नहीं पावेंगे।

दारोगा : जब आपको यह सन्देह था कि वे छुड़ा लिए जायेंगे तो आपने यह बात मुझे क्यों नहीं बता दी जिसमें मैं उनको और भी होशियारी से रखता?

भूत० : बेशक मेरी गलती थी जो मैंने इस बात से आपको होशियार नहीं किया पर जिस समय मैं बेहोश प्रभाकरसिंह को लिए आपके पास आया था उस समय इतना घबड़ाया हुआ था कि होशहवास दुरुस्त नहीं थे।

दारोगा : आपको इतनी घबराहट! आश्चर्य की बात है! मुझे विश्वास नहीं होता।

भूत० : चाहे न हो पर मैं वास्तव में ठीक कह रहा हूं, खैर अब इस जिक्र के उठाने की कोई जरूरत नहीं, अब मैं इजाजत चाहता हूँ।

दारोगा : क्यों, इतनी जल्दी क्यों?

भूत० : मुझे शेरसिंह से मुलाकात करनी है जिनसे मिलने का वादा कर चुका हूँ वे कहाँ होंगे इसका मुझे पता नहीं, इससे उन्हें खोजना भी होगा।

दारोगा : यदि यह बात है तो मैं आपको नहीं रोक सकता। (उठते हुए) तो अब कब मुलाकात होगी?

भूत० : जरूरत होने पर आप मुझे अपने पास ही पाइयेगा। इतना कर भूतनाथ उठ खड़ा हुआ, खातिरदारी और खुशामद की बातें करता हुआ दारोगा उसे दरवाजे तक पहुँचाने आया और उसके चले जाने पर नौकरों को दरवाजा बन्द करने का हुक्म दे अन्दर लौट गया।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book