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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

पाँचवाँ बयान


दारोगा के चले जाने के बाद दीवार की आलमारी में से एक आदमी निकला और उसी रास्ते में घुस गया जिधर कैदियों की कोठरी में जाने की सीढ़ियाँ थीं।

जल्दी-जल्दी सीढ़ियाँ चढ़ वह ऊपर कोठरी में पहुँच गया। यहाँ पर आकर उसने हाथ की लालटेन कुछ ऊँची की और उसका कोई ऐसा खटका दबाया जिसके साथ ही लालटेन की रोशनी पहिले से बहुत ज्यादे तेज हो गई और उस जगह की सब चीजें साफ-साफ नजर पड़ने लगीं फुर्ती के साथ कमर से ताली निकाल उसने वह ताला खोला जिसे दारोगा न खोल सका था और पल्ला हटा लालटेन की रोशनी में अन्दर की तरफ देखने लगा। हथकड़ी-बेड़ी से मजबूर प्रभाकरसिंह एक चटाई पर अधलेटे पड़े दिखाई दिए जिन पर निगाह पड़ते ही उस आदमी ने दूसरे ताली लगा कर जँगलेदार दरवाजा भी खोला और प्रभाकरसिंह को उठने का इशारा किया।

प्रभाकरसिंह उठ खड़े हुए। इस आदमी ने उनको हथकड़ी-बेड़ी से छुटकारा दिया और तब मुँह पर उँगली रख चुप रहने का इशारा कर सीढ़ियों की तरफ बढ़ा, मगर प्रभाकरसिंह ने रोक कर कहा, ‘‘यहाँ एक और कैदी है, क्या उसे भी आप छुड़ा सकते हैं?’’

उस आदमी ने सिर हिलाया पर प्रभाकरसिंह दृढ़ता के साथ बोले, ‘‘लेकिन मैं बिना उसको छुड़ाए यहाँ से जाने वाला नहीं!’’

यह सुन उस आदमी ने जिसकी सूरत नकाब से ढकी रहने के कारण प्रभाकरसिंह नहीं देख सकते थे धीरे से कहा, ‘‘दारोगा अब आता ही होगा, मुझे इतना समय नहीं है कि और किसी को छुड़ाने की कोशिश करूँ देर होने से मैं खुद गिरफ्तार हो जाऊँगा।’’

प्रभा० : तब लाचारी है, आप जायँ और मुझे यहीं छोड़ दें।

आदमी : (कुछ देर चुप रहकर) वह कौन हैं।

प्रभा० : मैं ठीक नहीं पहिचान सका पर शक होता है

इतना कह झुक कर प्रभाकरसिंह ने उस नकाबपोश के कानों में कुछ कहा जिसे सुनते ही वह चौंका और बोला, ‘‘हैं, वह है! तब तो उस बेचारी को अवश्य छुड़ाना ही चाहिये। मगर दारोगा आ पहुँचा तो बड़ी मुश्किल होगी, खैर तुम सीढ़ी के पास जाकर खड़े हो, किसी के आने की आहट पाओ तो मुझे बताना मैं उस औरत के छुड़ाने का उद्योग करता हूँ।’’

प्रभाकरसिंह ने ‘बहुत अच्छा’ कह उस औरत वाली कोठरी की तरफ इशारा किया और तब सीढ़ी के पास जा खड़े हुए और यह नकाबपोश उस तरफ बढ़ा। पहले तो उसने मजबूत जंजीर और भारी ताले को गौर से देखा और तब अपने कमर से एक छोटी शीशी निकाली जिसमें किसी प्रकार का अर्क था। उसमंप से कई बूंद जंजीर पर टपकाने बाद नकाबपोश ने शीशी बन्द कर ठिकाने रक्खी और इस बात की राह देखने लगा कि जंजीर कट जाय तो दरवाजा खोले।

कुछ देर बाद एक हल्की-सी आवाज के साथ वह जंजीर दो टुकड़े हो गई मगर उसी समय प्रभाकरसिंह का इशारा पा नकाबपोश उनके पास गया। पास पहुँचते ही प्रभाकरसिंह ने कहा ‘‘दरवाजा खुलने की आवाज आई है, मालूम होता है दारोगा आ रहा है, अब क्या होगा!’’

‘‘तो लाचारी है, पहिले हमें अपने बचाव का उपाय करना चाहिये, अगर हम खुद फँस जायेंगे तो फिर कुछ भी न हो सकेगा।’’ कहकर नकाबपोश ने प्रभाकरसिंह को नीचे उतरने का इशारा किया, प्रभाकरसिंह ने कुछ उज्र किया मगर उसने कुछ भी न सुना और हाथ पकड़े हुए जबर्दस्ती प्रभाकरसिंह को नीचे ले आया।

अपनी लालटेन उस आदमी ने बुझा दी थी अस्तु अन्दाज से टटोलता हुआ वह प्रभाकरसिंह को उसी आलमारी के पास ले गया जिसमें कुछ देर पहिले वह स्वयं छिपा हुआ था। उन्हें अन्दर करने और स्वयम् भी अन्दर हो जाने के बाद मुश्किल ही से उसने आलमारी का पल्ला बन्द किया होगा कि रोशनी हाथ में लिये जैपाल के साथ दारोगा ने कोठरी के अन्दर पैर रक्खा।

बिना और किसी तरफ ध्यान दिये वे दोनों आदमी ऊपर चढ़ गये और उनके जाते ही नकाबपोश प्रभाकरसिंह को साथ लिये आलमारी के बाहर निकला। दरवाजा खुला हुआ था जिसकी राह दोनों आदमी बाहर वाली उस कोठरी में पहुँचे जहाँ से यहाँ आने का रास्ता था। नकाकपोश का खयाल था कि दारोगा इस कोठरी का दरवाजा अन्दर से बन्द करता गया होगा पर ऐसा न था अस्तु ये दोनों खुशी-खुशी बाहर निकल आए।तब वह नकाबपोश जो दारोगा के इस मकान के सब दरवाजे और रास्तों से बखूबी वाफिक मालूम होता था, बगल की एक सीढ़ी की राह ऊपर छत पर जा पहुँचा। यहाँ दीवार के साथ अभी तक कमन्द लटक रही थी जिसके सहारे पहिले नकाबपोश और उसके बाद प्रभाकरसिंह उतर गये। नकाबपोश ने कमन्द खैंच ली और दोनों आदमी शहर के बाहर की तरफ रवाना हुए।

शहर के बाहर मैदान में पहुँचकर वह नकाबपोश रुका और प्रभाकरसिंह भी खड़े हो गये। चन्द्रदेव के उदय होने में विलम्ब होने के कारण यद्यपि चारों तरफ अन्धकार था पर नकाबपोश के हाथ की लालटेन दूर-दूर तक रोशनी पहुँचा रही थी। उसी की रोशनी में चारों तरफ देख नकाबपोश एक साफ जगह पर बैठ गया और प्रभाकरसिंह को भी बैठने को कहा।

प्रभाकरसिंह के बैठ जाने के बाद नकाबपोश ने अपनी लालटेन बुझा दी और तब पूछा। ‘‘अच्छा प्रभाकरसिंह, अब तुम बताओ कि क्योंकर इस दुष्ट दारोगा के फन्दे में पड़ गये? तुम्हें तो गदाधरसिंह ने गिरफ्तार किया था?’’

प्रभाकर० : मैं सब हाल बताने को तैयार हूँ मगर पहिले आपका परिचय चाहता हूँ,

‘‘हाँ हाँ, अब इसमे कोई हर्ज नहीं है,’’ कह कर नकाबपोश ने कोई खटका दबा कर पुनः अपनी लालटेन बाली और चेहरे से नकाब दूर की। लालटेन की रोशनी में इन्द्रदेव को पहिचानते ही प्रभाकरसिंह उनके पैरों पर गिर पड़े। इन्द्रदेव ने उन्हें उठा कर गले से लगाया और तब लालटेन फिर बुझा दी।

प्रभा० : मुझे छुड़ाने के लिए आपको स्वयं कष्ट करना पड़ा?

इन्द्रदेव : नहीं, एक दूसरे काम के लिए मुझे जमानिया आना पड़ा था, मगर तुम्हें एक बुरी खबर सुनने के लिए तैयार हो जाना चाहिये।

प्रभा० : सो क्या! मेघराजजी तो अच्छी तरह से हैं! इन्दु और जमना का तो कोई अनिष्ट नहीं हुआ!!

इन्द्रदेव : इन्दुमति और तुम्हारे पिता कुशल से हैं पर मेघराज भूतनाथ के कब्जे में पड़ गये और।।

प्रभा० : हाँ हाँ कहिये, जमना-सरस्वती का क्या हाल है?

इन्द्रदेव : (रुकते गले से) उन दोनों को गदाधरसिंह ने मार डाला

।प्रभा० : हैं, मार डाला! सो कैसे? वे भूतनाथ के हाथ कैसे पड़ गईं?

इन्द्र० : तुमको फँसाने के बाद तुम्हारी सूरत बन गदाधरसिंह तुम लोगों की घाटी में जा पहुँचा और वहीं रात के समय मौका पाकर उसने यह कार्रवाई कर डाली। सुबह जमना-सरस्वती की लाशें पाई गईं।थोड़ी देर हुई मेरा एक शागिर्द यह खबर लाया है।

जमना और सरस्वती की मौत का हाल सुन प्रभाकरसिंह को बड़ा ही दुःख हुआ क्योंकि वे अपनी नेकचलन सालियों को बहुत ही ज्यादे चाहते और मानते थे।इन्द्रदेव को भी इस बात का बहुत ही दुःख था पर वे बुद्धिमान आदमी थे इस कारण तथा और भी किसी सबब से उन्होंने इस समय रंज जाहिर करना उचित न समझा और कुछ देर तक प्रभाकरसिंह को समझाने-बुझाने के बाद बोले, ‘‘मेरे एक शागिर्द ने तुम्हारे दारोगा की कैद में होने का हाल मुझे बताया और साथ ही तुम्हारे कैदखाने की तालियें भी जिन्हें वह न-जाने किस तरह उसके कब्जे से निकाल लाया था मुझे दीं और मैंने भी तुम्हारा छुड़ाना जरूरी समझ सबसे पहिले तुम्हें छुड़ाया।अब तुम अपने को शान्त करो और गौर से मेरी बातें सुनो क्योंकि मैं एक बहुत ही भारी काम तुम्हारे सुपुर्द किया चाहता हूँ!’’

प्रभाकर० : जो आज्ञा करिए मैं करने को तैयार हूँ।

इन्द्रदेव देर तक प्रभाकरसिंह को कई तरह की बातें समझाते रहे और प्रभाकरसिंह भी बड़े ध्यान से उनकी बातें सुनते रहें।

रात आधी से कुछ ज्यादे ही जा चुकी थी जब इन्द्रदेव की बातें समाप्त हुईं और उन्होंने कहा, ‘‘बस अब मैं अपने ठिकाने जाता हूँ, देखूँ उधर क्या मामला है, पर तुम इसी समय चले जाओ और जो कुछ मैंने कहा सो करो। मगर देखो होशियार रहना, कहीं ऐसा न हो कि फिर गदाधरसिंह के फेर में पड़ जाओ!’’

‘‘मैं सब तरह से होशियार रहूँगा, आप कोई तरद्दुद न कीजिए,’’ कहते हुए प्रभाकरसिंह उठ खड़े हुए। इन्द्रदेव भी खड़े हो गये और प्रभाकरसिंह को जाने के लिये कह किसी सोच में सिर झुकाये तेजी के साथ शहर की तरफ चले। थोड़ी ही दूर जाने के बाद एक नियत स्थान पर उनका एक शागिर्द घोड़ा लिए खड़ा मिला जिससे दो बातें कर इन्द्रदेव ने उसे भी छुट्टी दी और घोड़े पर चढ़ अकेले ही जमानिया की तरफ रवाना हो गये।

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