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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

चौथा बयान


सूनसान और भयानक जंगल के बढ़ते हुए सन्नाटे को तोड़ने की सामर्थ्य उन छोटी-छोटी चिड़ियाओं में नहीं है जो दिन-भर इधर-उधर घूम-फिर कर अब अपने-अपने घोंसलों की तरफ जा रही हैं।

अंधकार यद्यपि बढ़ता जा रहा है तथापि इसका कारण यह नहीं कि सूरज डूब गया है। ऊँचे-ऊँचे पेड़ों की चोटियों पर इस समय भी उसकी अन्तिम किरणें पड़ कर उन्हें सुनहरा कर रही हैं, पर इस जगह का जंगल इतना घना है कि उस रोशनी को नीचे तक आने की इजाजत ही नहीं मिलती।

मन्द-मन्द बहती हुई बयार जंगली चश्मे के किनारे जाती हुई उस औरत के कपड़ों को इधर-उधर उड़ा रही है जो बार-बार अपने चारों तरफ देखती और कुछ-कुछ देर पर रुकती हुई दक्षिण की तरफ बढ़ी जा रही है।

इस औरत की सूरत-शक्ल का ठीक-ठीक अन्दाजा यद्यपि नहीं किया जा सकता पर उसकी पोशाक के खयाल से हम कह सकते हैं कि वह किसी गरीब खानदान की नहीं है। मुसलमानी ढंग की पोशाक पर जरी का काम उसके अमीर होने की सूचना दे रहा है और दो-चार नाजुक गहने इस बात की और भी पुष्टि कर रहे हैं।

यकायक उस औरत के कानों में टापों की आवाज सुनाई पड़ी जिसने उसे चौंका दिया और वह इधर-उधर देखने लगी, थोड़ा ही गौर करने पर उसे समझ आ गया कि सवार सामने की तरफ से आ रहा है और बहुत-दूर भी नहीं है, उत्कंठा ने इस औरत की चाल भी तेज कर दी और यह बात-की-बात में सवार के पास पहुँची।

इस औरत को देख कर सवार ने उतरने में फुर्ती की और घोड़े की लगाम पेड़ की डाल से अटकाने बाद औरत के पास पहुँच सलाम कर खड़ा हो गया। औरत ने सलाम का जवाब दिया और तब मीठी आवाज में पूछा, ‘‘कहो क्या कर आये?’’

सवार : सब ठीक हो गया है, उसने सब बातें स्वीकार कीं और चीठी देने का वादा भी किया है मगर एक शर्त वह बेढ़ब लगाती है।

औरत : सो क्या?

सवार : उन सब बातों के बारे में वह खास आपके हाथ का लिखा हुआ पत्र चाहती है जो कि आपने जुबानी मेरे जरिये कहला भेजी हैं।

औरत : मगर ऐसा होना तो मुश्किल है।

सवार : बेशक मुश्किल है और बेमुनासिब भी क्योंकि आपकी चीठी उसके पास हो जाने पर वह अगर किसी समय बर्खिलाफ हो गई...

औरत : बेशक यही बात है, उस वक्त उसके दुश्मन हो जाने का बड़ा ही बुरा नतीजा निकलेगा जब उसके पास सबूत में मेरा ही लिखा खत होगा। (कुछ रुक कर) अपने हाथ से लिख कर तो उसे मैं कुछ भी नहीं दिया चाहती!

सवार : मगर वह और किसी तरह मानती भी तो नहीं! मैंने उसे बहुत कुछ ऊँच-नीच समझाया और कहा-सुना भी, मगर बातें आपकी सब मंजूर करने पर भी वह यही कहती है कि मुझे क्या सबूत कि तुम सच कह रहे हो और किसी तरह का धोखा देकर अपना कोई काम निकालने की तुम्हारी नीयत नहीं है।

औरत : यह तो बड़े तरद्दुद की बात तुमने सुनाई, तुम ही सोचो कि मैं अपने हाथ की लिखी कोई चीठी उसे कैसे भेज सकती हूँ?

सवार : किसी तरह नहीं और बिना आपके लिखे वह मन्जूर नहीं करती (कुछ रुक कर) यदि आप स्वयं एक बार उससे मिलें तो कैसा हो?

औरत : मेरी उसकी कभी की मुलाकात नहीं!

सवार : तो इससे क्या, जब आपने यह ढंग पकड़ा है तो आखिर कभी-न-कभी मिलना भी तो पड़ेगा ही!

औरत : ठीक है मगर तो भी किसी ऐसे आदमी के घर जाना जिससे मुझे डर ही लगा रहता है मुनासिब नहीं मालूम होता। क्या जाने कब क्या खराबी पैदा हो जाय!

सवार : कौन ताज्जुब हैं!

औरत : तुम एक दफे और उससे मिलते और बातचीत करते। शायद मान जाय।

सवार : जो हुक्म, मगर मुझे भरोसा नहीं हैं कि वह मानेगी क्योंकि अपने भरसक मैं उसे बहुत कुछ कह-सुन और समझा चुका पर वह किसी तरह राजी नहीं हुई। (कुछ रुक कर) हाँ एक बात हो सकती है।

औरत : वह क्या?

सवार : नन्हों उसे अच्छी तरह जानती है बल्कि दोनों में बड़ी मुहब्बत है।

औरत : (चौंक कर) क्या तुम ठीक कह रहे हो?

सवार : बेशक मैं बहुत ठीक कह रहा हूँ।

इस बात ने औरत को कुछ देर के लिए चुप कर दिया और वह सिर नीचा कर कुछ सोचने लगी, कुछ देर के बाद उसने कहा, ‘‘अच्छा मैं नन्हों से मिलूंगी।

अगर तुम्हारा कहना ठीक है और नन्हों उसे जानती है तो इसमें कोई शक नहीं कि मेरा काम बखूबी बन जायगा और मैं गदाधरसिंह को हमेशा के लिए अपने कब्जे में कर सकूँगी, अच्छा अब तुम जाओ। और मैं भी लौटती हूँ, बहुत देर हो गई।’’

सवार यह सुन सलाम कर पीछे घूमा मगर उसी समय औरत ने फिर कहा, मगर एक बात का तो कोई फैसला हुआ ही नहीं।’’

सवार : सो क्या है?

औरत : (एक पत्थर पर बैठ कर) आओ यहां बैठ जाओ तो बताऊँ।

सवार औरत के पास आकर बैठ गया और दोनों में धीरे-धीरे कुछ बातें होने लगीं। जगल में अंधकार छा गया था जब उनकी बातें समाप्त हुईं और सवार घोड़े पर चढ़ उसी तरफ को चला गया जिधर से आया था। उस सवार के जाने के बाद वह औरत भी उठी और धीरे-धीरे जंगल के बाहर की तरफ रवाना हुई।

हम पहिले कह आये हैं कि इस घने और सुनसान जंगल में बाहर की बनिस्बत बहुत ही ज्यादा अंधकार था अस्तु धीरे-धीरे चलती हुई वह औरत जब घने जंगल में से निकल आई तो उसे कुछ चाँदना मिलने लगा। सूर्य भगवान यद्यपि डूब चुके थे पर तो भी पश्चिम तरफ आसमान पर थोड़ी-बहुत लालिमा मौजूद थी जो इस जगह को जिसे न जंगल ही कह सकते हैं और न मैदान ही थोड़ी बहुत रोशनी पहुँचा रही थी। पेड़ अपनी इधर उधर फैली हुई डालियों के कारण कुछ भयानक-से मालूम हो रहे थे जब ऐसे ही पेड़ के नीचे पहुँच उस औरत ने एक ऐसी चीज देखी जिसने उसे चौंका दिया।

एक कमसिन और गहने-कपड़े से सजी हुई औरत की लाश इस पेड़ के नीचे पड़ी हुई थी।

इस औरत ने एक दफे तो गौर से अपने चारों तरफ देखा और जब किसी पर निगाह न पड़ी तो धीरे-धीरे चल कर उस लाश के पास आई और जमीन पर बैठ गौर से उसकी सूरत देखने लगी। बदन पर हाथ रक्खा, नब्ज देखी और तब नाक के पास हाथ लगा कर बोली, ‘‘मरी नहीं जीती है, मगर गहरी बेहोशी में है, ’’

कुछ देर तक गौर के साथ उसका मुँह देखने के बाद इस औरत ने अपनी कमर से एक डिबिया निकाली जिसमें किसी प्रकार की खुशबूदार चीज थी। उसने वह डिबिया बेहोश औरत की नाक से लगाई जिसके साथ ही उसे दो-तीन छीकें आईं और वह होश में आकर उठ बैठी।

अपनी कामयाबी पर खुश होकर इस औरत ने उससे पूछा-‘‘तुम कौन हो और इस जंगल में इस तरह बेहोश क्यों पड़ी थीं?’’

औरत : मेरा नाम रम्भा है, अपने रिश्तेदारों के साथ जमानिया की तरफ जा रही थी कि रास्ते में डाकुओं ने आकर हम लोगों को घेर लिया। डर के मारे मैं बेहोश हो गई। फिर कुछ खबर नहीं कि क्या हुआ और मैं क्योंकर यहाँ आई।

औरत : तुम्हारा मकान कहाँ है?

रम्भा : विजयगढ़। मैं वहाँ से अपने बाप के घर जमानिया आ रही थी जब रास्ते में यह आफत आई। (रो कर) न-मालूम मेरे रिश्तेदारों का क्या हाल हुआ! डाकुओं ने उन्हें छोड़ा या मार डाला। हाय अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ। किधर खोजूँ!

इतना कह कर औरत रोने लगी, यहाँ तक कि उसे फिर गश आ गया।

अब बिल्कुल अंधकार हो गया था, इस कारण उस बेहोश का हाल जानने की इच्छा रहने पर भी यह औरत ठहर नहीं सकती थी क्योंकि जानती थी कि इस जँगल में वह खतरों से खाली नहीं है। उसने अपनी पोशाक दुरूस्त की और बेहोश की तरफ से ध्यान हटा उस तरफ चली जिधर जा रही थी।

अभी वह मुश्किल से पचास कदम गई होगी कि उसने कानों में सीटी की आवाज सुनाई दी और उसके बाद ही कुछ दूर पेड़ों में एक रोशनी दिखाई पड़ी जो किसी लालटेन की मालूम होती थी। वह रुक गई और गौर से उस तरफ देखने लगी।

थोड़ी देर बाद पेड़ों की झुरमुट में से एक आदमी हाथ में लालटेन लिए हुए निकला और उसी तरफ आता दिखाई पड़ा। उसे अपनी तरफ आते देख वह औरत हटकर एक पेड़ की आड़ में हो गई। लालटेन की रोशनी में चारों तरफ गौर से देखता और आहट लेता हुआ जब वह आदमी उस जगह पहुँचा जहाँ थोड़ी देर पहिले यह औरत खड़ी थी तो रुका और इस प्रकार इधर-उधर देखने लगा मानो किसी को ढूँढ़ रहा है, उस समय वह औरत भी जिसे बेहोशी की हालत में पाठक देख चुके हैं इसी तरफ आती हुई दिखाई पड़ी।

पास आकर उस औरत ने लालटेन हाथ में लिए हुए आदमी से कुछ बातें की और तब उस तरफ इशारा किया जहाँ पेड़ की आड़ में वह पहिली औरत छिपी हुई थी। इसके बाद वह तो कहीं चली गई और वह आदमी उस तरफ बढ़ा जिधर पहिली औरत छिपी हुई थी।

इस औरत ने उसे अपनी तरफ आते देख भागने की चेष्टा की मगर भाग न सकी क्योंकि उसी समय किसी ने पीछे से आकर उसे पकड़ लिया और जबर्दस्ती बेहोशी की दवा सुँघा बेहोश कर दिया।

वह आदमी जिसने इस औरत को बेहोश किया भूतनाथ था और वह औरत वही थी जिसे दूसरे बयान में पाठक शेरसिंह के साथ मर्दानी सूरत में देख चुके हैं अथवा गौहर के नाम से भूतनाथ ने जिसका परिचय शेरसिंह को दिया था-शेरसिंह से अलग होने के बाद भूतनाथ बराबर गौहर के पीछे घूम रहा था और उसकी सब कार्रवाई देख-सुन कर उसे गिरफ्तार करने का मौका ढूँढ़ रहा था।

गौहर को बेहोश करने के बाद भूतनाथ वहाँ भी न ठहरा क्योंकि लालटेन हाथ में लिए वह दूसरा आदमी भी उसे खोजता हुआ बराबर उसी तरफ बढ़ा आ रहा था। भूतनाथ ने अपने कमर में से चादर खोली और उसी में गौहर की गठरी बाँध तेजी के साथ जँगल के बाहर की तरफ रवाना हुआ मगर थोड़ी देर में उसे मालूम हो गया कि वह अकेला नहीं है बल्कि कोई आदमी उसका पीछा कर रहा है।। यह जान उसने अपनी चाल और तेज की ओर थोड़ी देर बाद जंगल के बाहर सड़क पर पहुँच जमानिया की तरफ रवाना हो गया।

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