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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

तीसरा बयान


कोठरी के भीतर घोर अन्धकार था मगर अन्दाज से टटोलता हुआ दारोगा एक आले के पास पहुँचा और उसमें से सामान निकालकर रोशनी की।

लगभग आठ हाथ के चौड़ी और इतनी ही लम्बी यह कोठरी बिल्कुल संगीन बनी हुई थी। इसमें आने के लिए केवल एक वही दरवाजा था जिसकी राह दारोगा इस जगह आया था, पर सामने की तरफ एक बहुत बड़ी अलमारी दीवार में जड़ी हुई दिखाई पड़ रही थी।

लालटेन हाथ में लिए दारोगा कुछ देर तक चुपचाप खड़ा सोचता रहा, इसके बाद आगे बढ़ा और उस आलमारी के पास जा उसका पल्ला खोला, तब कोई खटका ऐसा दबाया कि उसकी बगल वाली सिल्ली हट गयी और उतरने के लिए सीढ़ियाँ दिखलाई पड़ीं। दारोगा उस अलमारी के अन्दर घुसा और उन्हीं सीढ़ियों की राह उतरने लगा।

दस-बारह सीढ़ियाँ उतरने के बाद दारोगा ने अपने को एक लम्बे-चौड़े दालान में पाया जिसके दोनों तरफ दो कोठरियाँ थीं। दारोगा बायीं तरफ वाली कोठरी में घुस गया और एक दरवाजे के पास पहुँचा जिसमें बड़ा-सा ताला बन्द था।

दारोगा ने उसी गुच्छे में से एक ताली लगा ताला अलग किया और तब पल्ला खोल अन्दर घुसा। एक छोटी कोठरी नजर आई जिसमें किसी तरह का सामान यहाँ तक कि आला या आलमारी भी न थी

हाथ में रोशनी लिए दारोगा इस कोठरी में घुसा और दाहिनी तरफ दीवार में पैर से ठोकर मारने लगा, तीन-चार ठोकर खाते ही पत्थर की एक पटिया अलग हो गई और आदमी के जाने लायक रास्ता तथा ऊपर के लिए पतली सीढ़ियाँ दिखाई दीं जिनकी राह वह ऊपर चढ़ने लगा।

अब दारोगा जिस जगह पहुँचा वह एक बड़ा कमरा था जो बिल्कुल काले ही पत्थरों का बना हुआ था जिस कारण इस जगह एक डरावना अन्धकार छाया था जिसको दारोगा के हाथ की लालटेन दूर नहीं कर पाती थी।

इस कमरे के बीच में खड़े होकर दारोगा ने अपने चारों तरफ निगाह दौड़ाई, पूरब-उत्तर और पश्चिम की तरफ की दीवारों में लगभग चार-चार हाथ के फासले पर लोहे के पल्ले जड़े हुए दिखाई पड़ते थे जो सरसरी निगाह से देखने में आलमारियाँ मालूम होती थीं पर वास्तव में उन कोठरियों के दरवाजे थे जिनमें दारोगा अपने बहुत ही गुप्त कैदियों को रखता था।

दारोगा पश्चिम तरफ की दीवार के सबसे आखिरी दरवाजे के पास पहुँचा और लालटेन हाथ से रख ताला खोल लोहे का दरवाजा (जो एक ही पल्ले का था) हटाया, इसके बाद लालटेन वाला हाथ ऊँचा कर अन्दर की अवस्था देखने लगा।

एक लोहे का जंगल जिसमें चार-चार अंगुर पर मोटे छड़ लगे हुए थे, पार कर दारोगा की निगाह उस छोटी कोठरी के अन्दर गई जिसमें कम्बल के ऊपर पड़ी हुई एक लाश दिखाई पड़ती थी। पर नहीं वह लाश नहीं थी बल्कि एक कैदी था और अभी तक उस कैदी में कुछ जान बाकी थी क्योंकि दारोगा के हाथ की रोशनी जब अन्दर गई तो उसने करवट बदली और एक लम्बी ‘आह’ लेकर अपने कपड़े दुरूस्त कर उठ बैठा। उस समय मालूम हुआ कि वह आदमी नहीं बल्कि औरत है जिसका बदन सूख कर बिल्कुल काँटा हो गया था और बड़ी-बड़ी आँखें जो किसी समय बड़े-बड़े कलेजे वालों को पानी करने की ताकत रखती होंगी इस समय बिल्कुल गढ़े में घुसी हुई थीं। वे गाल जो किसी समय अपनी सुन्दरता से गुलाब को नीचा दिखाते होंगे इस समय मुर्झाये हुए थे और उनकी जगह दो ऊँची हड्डियों ने दखल कर रक्खी थी जो आँखों को भी अपनी मातहती में लिए हुए थीं तथा वह बदन जो अपनी कोमलता से किसी समय कमल को मात करता होगा इस समय झांवरा हो, गया था। दारोगा की आँखें इस कैदी औरत से मिलीं। इस अवस्था में पहुँच जाने पर भी उन आँखों में न-जाने कौन सी ताकत थी जिसने दारोगा का सिर नीचा कर दिया, पर तुरत ही बेहयाई और बेमुरौवती का जामा पहिन कर उसने अपनी आँखें उठाईं और उस औरत की तरफ देख कर कहा, ‘‘मालती, क्या तू मुझे पहिचान सकती है?’’

न-मालूम दारोगा के इस सवाल में कौनसा भेद छुपा हुआ था कि इसके सुनते ही वह औरत एकदम सिर से पैर तक काँप उठी और थोड़ी देर तक तो ऐसा मालूम हुआ मानों उसे फिर गश आ जायगा पर बहुत ही कोशिश करके उसने अपने को सम्हाला और दोनों हाथों से अपना मुँह ढांक कर बोली, ‘‘दुष्ट, पापी! क्या तुझे जरा भी शर्म नहीं है? क्या ईश्वर ने तेरा दिल ऐसा बनाया कि उस पर लज्जा और हया की आभा तक नहीं पड़ सकती! क्या मरे हुए को मारते तेरे को दया नहीं आती! कम्बख्त, इतने दिनों तक तेरी कैद में रह कर भी मैं इसलिए ईश्वर को धन्यवाद देती थी कि वह मुझे तेरी काली सूरत नहीं दिखाता था और मैं इसी में प्रसन्न रहती थी मुझे तेरी आवाज सुननी नहीं पड़ती, पर इतने दिनों बाद मेरी वह प्रसन्नता भी तू दूर किया चाहता है! कहीं...!

दारोगा : ठहरो ठहरो, इतना जोश में न जाओ, मैं तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं दिया चाहता ...

औरत : हाँ ठीक है इस समय तूने मुझे बड़े सुख में रक्खा हुआ है, भला मुझे किसी तरह का कष्ट है?

दारोगा : (सिर झुका कर) तुम्हारा कहना ठीक है, जरूर तुम्हें इस जगह कैद रह कर तकलीफ उठानी पड़ती है मगर इतना तो तुम खुद सोच सकती हो कि तुम्हारा इन दुःखों का कारण मैं नहीं हूँ बल्कि तुम्हारी जिद है जिसने तुम्हें इस अवस्था तक पहुँचा रक्खा है! यदि मैं तुम्हारा वह विचार जान कर भी तुम्हें कैद न कर लेता तो फिर क्या करता? बड़ी मजबूरी में पड़ कर ही मुझे तुम्हारी यह गत करनी पड़ी। मगर तुम यह बात भी न भूलो कि तुम्हें यहाँ आते ही मैंने छुटकारे का एक उपाय बतलाया जिसे करते ही तुम कैद से छूट जाती पर तुम्हें मेरी बात मंजूर न हुई। भला इस जिद का भी कोई ठिकाना है!

औरत : वाह क्या कहता है, इस समय तू मुझे... खैर तुमसे व्यर्थ की बकवाद मैं नहीं किया चाहती!

दारोगा : मैं व्यर्थ की बकवाद नहीं करता बल्कि तुम्हारे फायदे की बात कहता हूँ, यदि तुम्हें मेरी वह बात मंजूर नहीं है तो मैं एक दूसरी बात कहता हूँ, सुनो और व्यर्थ की मूर्खता मत करो!

उस औरत ने इसका कोई जवाब न दिया पर दारोगा ने झुक कर धीरे-से न-जाने क्या कहा कि सुनते ही वह बिल्कुल बदहवास हो गई, उसकी आँखें बन्द हो गईं और गश की-सी हालत में वह जमीन पर गिर गई।

दारोगा कुछ देर तक उसकी तरफ देखता रहा, इसके बाद उसने धीरे-से कहा, ‘‘जान पड़ता है सचमुच बेहोश हो गई! खैर फिर देखा जायगा। मगर यह बड़ी कमजोर हो गई है, कहीं...!’ कैदखाने का बाहरी लोहे वाला दरवाजा उसने बन्द किया और इस बात का कुछ खयाल न कर कि कैदी की क्या दशा होगी वहाँ से हट एक-दूसरे के पास पहुँचा।

और दरवाजों की तरह इस दरवाजे में भी एक बड़ा ताला लगा हुआ था जिसके खोलने के इरादे से दारोगा ने अपने हाथ की लालटेन जमीन पर रक्खी और उस झब्बे की तालियों में से जो कि किसी क्रम से लगी हुई थीं खोज कर एक ताली उस ताले में लगाई मगर ताला न खुला। कुछ देर तक जोर करने के बाद दारोगा ने ताली निकाल ली और देखभाल तथा ठोंक-पीट करने के बाद पुनः लगाई पर इस बार भी वही नतीजा निकला। आश्चर्य करते हुए दारोगा ने एक दूसरी ताली लगाई और फिर तीसरी मगर कोई भी उस ताले में न लगीं।

यह एक नई बात थी क्योंकि दारोगा को इस बात का विश्वास नहीं हो सकता था कि इस ताले में किसी प्रकार का ऐब आ गया है। उसको यह संदेह हुआ कि जरूर उसके झब्बे की तालियों में किसी ने उलट-फेर कर दिया है। एक-एक करके उसने झब्बे की सब तालियों को गिना और उसके साथ ही चौंक कर बोल उठा ‘‘है इसमें तो उन्नीस ही तालियाँ हैं! तीन तालियाँ कहाँ गईं!’’

कुछ देर तक दारोगा सोचता रहा, इसके बाद मन-ही-मन यह कहता हुआ कि ‘जैपाल से पूछना चाहिए कदाचित वह जानता हो, क्योंकि सिवाय उसके तो यह झब्बा मैं और किसी के हाथ में देता नहीं, वह उन्हीं सीढ़ियों की राह नीचे वाली कोठरी में पहुँचा। तालियों की कमी ने उसे इतना घबरा दिया दिया कि वह उस ताले को बन्द करने के लिए भी न ठहरा जो कैदियों के कमरे में जाने वाली आलमारी में लगता था और बाहर निकल गया।

इस कोठरी की दाहिनी और बाईं दीवारों में भी एक-एक आलमारी ठीक उसी तरह की थी जैसी कि बीच की दीवार में, वही जिसमें से दारोगा अभी निकला था। दारोगा के जाने के कुछ ही क्षण बाद दाहिनी तरफ वाली आलमारी खुली और उसमें से कोई आदमी बाहर निकला जिसके हाथ में मद्धिम रोशनी की एक विचित्र लालटेन थी। इस रोशनी ने दिखा दिया कि उस आदमी का सारा बदन ही स्याह कपड़े से ढंका हुआ नहीं है बल्कि चेहरे पर भी नकाब पड़ी हुई है, तेजी के साथ एक निगाह अपने चारों तरफ डालने के बाद इस आदमी ने बीच वाली आलमारी जिसके पल्ले दारोगा सिर्फ भिड़का कर छोड़ गया था खोली और उसके अन्दर चला गया।

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