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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

दूसरा बयान


रोहताशगढ़ से जमानिया ती तरफ आने वाली सड़क पर हम दो सवारों को देख रहे हैं जो जमानिया की तरफ बढ़े जा रहे हैं।

दोनों सवारों के चेहरों पर नकाबें हैं मगर इस समय इन्होंने उसे पीछे की तरफ फेंका हुआ है इस कारण हमें इतना मौका मिलता है कि उनकी सूरत-शक्ल के विषय में कुछ कह सकें।

बाईं तरफ वाले घोड़े पर सवार आदमी की उम्र लगभग चालीस वर्ष के होगी। रंग यद्यपि कुछ साँवला है पर तो भी चेहरा खूबसूरत है। बड़ी आँखें और सुडौल नाक उसकी सुन्दरता बढ़ाने के साथ ही चेहरे पर रौनक और रुआब डाले हुए है औ बड़ी-बड़ी मूछों ने जिनमें कोई-कोई बाल सफेद नजर आ रहा है, उसके हुस्न को और भी बढ़ाया हुआ है, साथ ही चौड़ी छाती और मजबूत कलाइयाँ उसकी ताकत का परिचय दे रही हैं, मगर साथ-साथ उसकी कमर से लटकता हुआ खंजर और बटुआ तथा खूबसूरती के साथ लपेटी हुई कमन्द इस बात की भी सूचना दे रही है कि उसे ऐयारी से कुछ शौक है या वह स्वयं कोई ऐयार है।

उसका साथी उम्र में बहुत छोटा मालूम होता है। मूँछ-दाढ़ी से एकदम साफ चेहरा बिल्कुल लड़कों का सा दिखता है, पर तो भी कद या ऊँचाई की तरफ बहत ध्यान देने से उसका सीना बहुत कम नहीं जान पड़ता। रंग साफ गोरा, चेहरा बहुत ही सुन्दर और आँखें बड़ी ही रसीली हैं जो अपने साथी की तरफ देख बार-बार जमीन की तरफ झुक जाती हैं। दूसरे सवार की तरह इस सवार की कमर में ऐयारी का कोई सामान यहाँ तक कि खंजर भी दिखाई नहीं दे रहा है।

दोनों सवारों की पोशाक एक ही रंग-ढंग की है। सिर पर बड़ा मुड़ासा जिसका सिरा कमर से भी कुछ नीचे लटका हुआ है, चुस्त अंगा और पायजामा तथा पैरों में कामदार जूते हैं जो यदि बेशकीमत नहीं तो कम-कीमत भी नहीं हैं।

इस समय इन दोनों में धीरे-धीरे कुछ बातें हो रही हैं जो औरों के कानों तक कदाचित् पहुँच न सकें पर हमारे पाठक अवश्य सुन सकते हैं। अपने साथी अधेड़ उम्र के आदमी की किसी बात पर हँस कर नौजवान ने कहा, ‘‘आप खातिर जमा रखिये, मेरे पास कोई हर्बा-हथियार न रहने पर भी मुझे किसी प्रकार का डर नहीं है, दूसरे मेरा आना-जाना इस राह से बराबर हुआ ही करता है इसलिए मैं आस-पास के जंगलों से बखूबी वाकिफ हूँ और सब प्रकार के हमलों से अपने को बचा सकता हूँ।

अधेड़ : शायद आपका कहना ठीक हो। खैर आप मेरा हाल तो पूछ चुके अब अपना बतलाइये कि इस तरह अकेले सफर करने का क्या कारण है?

नौज० : हाँ-हाँ, मैं अपना हाल भी कहूँगा मगर आप पहिले अपना पूरा हाल तो बता दीजिए।

अधेड़ : मेरे विषय में अब आप और क्या जानना चाहते हैं? मैंने तो कह ही दिया कि राजा वीरेन्द्रसिंह का ऐयार हूँ और किसी खास काम से जमानिया जा रहा हूँ।

नौज० : और आपका नाम क्या है?

अधेड़ : सुजानसिंह।

नौज० : (जोर से हँस कर) हाँ आप वह नाम भी बता चुके हैं, मगर मेरा दिल आपकी बातें कबूल नहीं करता।

अधेड़ : क्या मैं गलत कह रहा हूँ?

नौज० : यह तो मैं नहीं कहता कि आप गलत कह रहे हैं। मैं तो सिर्फ यही कहता हूँ कि मेरा दिल आपकी बातें कबूल नहीं करता।

अधेड़ : खैर तो आपका दिल क्या कहता है?

नौज० : यही कि न तो आप राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयार हैं और न आपका नाम सुजानसिंह है।

अधेड़ : (चौंक कर) सो क्यों, सो क्यों?

नौज० : (हँस कर) आप ऐयार होकर भी ऐसी भारी भूल करते हैं? क्या आप समझते हैं कि आज इस दुनिया में कोई आदमी ऐसा भी है जो प्रतापी राजा बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों को नहीं जानता या जिसने उनका नाम भी नहीं सुना है?

अधेड़ : तब?

नौजवान : तब यही कि राजा बीरेन्द्रसिंह के यहाँ सुजानसिंह नाम का कोई ऐयार ही नहीं है।

अधेड़ : (कुछ रुकते हुए) बात यह है कि मैं खास राजा बीरेन्द्रसिंह का ऐयार नहीं हूँ मगर उनके ऐयार देवीसिंह का शागिर्द जरूर हूँ और इसी सबब से अपने को राजा बीरेन्द्रसिंह का ही ऐयार समझता हूँ।

नौज० : शायद।

अधेड़ : शायद के क्या माने! क्या अब भी आप मुझ पर शक करते हैं?

नौज० : मैं कह चुका हूँ कि मेरी समझ में न तो आप राजा बीरेन्द्रसिंह के ऐयार हैं और न आपका नाम सुजानसिंह है।

अधेड़ : आखिर आपके इस खयाल का कोई सबब भी तो मालूम हो कि आप क्यों मुझे झूठा समझते हैं! अच्छा अगर मैं सुजानसिंह नहीं हूँ और बीरेन्द्रसिंह का ऐयार भी नहीं हूँ तो आप बतलाइये कि कौन हूँ! जरा पता तो लगे कि आप मुझ पर कौन होने का शक करते हैं?

नौज० : (हँस कर) बता दूँ?

अधेड़ : हाँ-हाँ बताइए, डर किस बात का है?

नौज० : बहुत अच्छा तो सुनिए, आप रोहतासगढ़ के महाराज दिग्विजयसिंह के ऐयार हैं। आपका नाम शेरसिंह है।

नौजवान की बात सुन कर सवार एकदम चौंक पड़ा और तब अपना घोड़ा नौजवान के पास ले गया और गौर से उसकी सूरत देखने लगा।

पर इसी समय यकायक बाईं तरफ से आवाज आई, ‘‘और मैं भी पहिचान गया कि तू कौन है!’’ और इसके साथ ही भूतनाथ आकर उन दोनों सवारों के सामने खड़ा हो गया।

भूतनाथ की सूरत देखते हैं न-जाने क्यों वह नौजवान एकदम काँप गया और तुरंत ही अपने घोड़े का मुँह घुमा तेजी के साथ बगल के जंगल में घुस देखते-देखते नजरों से गायब हो गया। भूतनाथ कुछ सायत एकटक उसकी तरफ देखता रहा और तब धीरे-से बोला, ‘‘यह यहाँ क्यों आई?’’

अधेड़ उम्र आदमी भूतनाथ को देखते ही घोड़े पर से कूद पड़ा और उसके गले लिपट गया। भूतनाथ ने भी उसे लिपटा लिया और दोनों की आँखों से प्रेमाश्रु बहने लगे।

थोड़ी देर बाद दोनों अलग हुए और शेरसिंह ने उस तरफ देखते हुए जिधर नौजवान चला गया था पूछा, ‘‘यह कौन था! मैंने इसे नहीं पहिचाना पर इसने मुझे पहिचान लिया!’’

भूत० : आपने इसे नहीं पहिचाना! वह गौहर थी।

शेर० : गौहर! शेरअलीखाँ की लड़की? (१. चन्द्रकान्ता सन्तति में ये नाम आ चुके हैं।)

भूत० : हाँ, मैं तो एक ही नजर में इसे पहिचान गया।

शेरसिंह कुछ देर तक एकटक उस तरफ देखते रहे जिधर वह सवार गया था इसके बाद उन्होंने भूतनाथ की तरफ देखा!

भूत० : इधर बहुत दिनों बाद आये?

शेर० : हाँ राजा साहब के एक काम से आना पड़ा और तुमसे भी बहुत दिनों से मुलाकात नहीं हुई थी इसलिए भी आ रहा हूँ। इधर तुम्हारे बारे में कई ऐसी खबरें सुनीं जिससे मुझे आश्चर्य हुआ।

भूत० : (लाचारी की मुद्रा से सिर झुका कर) हाँ, इधर मैं बड़ी मुसीबत में पड़ गया था, खैर अब आए हैं तो वह सब सुन लेंगे चलिए डेरे पर चलिए।

शेर० : नहीं भाई पहिले मैं वह काम कर लूँ जिसके लिए आया हूँ तब तुमसे बातें होंगी क्योंकि वह बड़ा जरूरी है।

भूत० : मैं समझता हूँ दारोगा से कोई काम होगा?

शेर० : हाँ, पर तुम्हें कैसे मालूम हुआ?

भूत० : (हँसकर) भला मुझे कौन बात नहीं मालूम! कहिये तो काम भी बता दूँ जिसके लिए आप आये हैं।

इतना कह भूतनाथ ने झुक कर शेरसिंह के कान में कुछ कहा जिसे सुनते ही वे चौंक पड़े और कुछ सायत तक चुप रहने के बाद बोले, ‘‘बेशक तुम्हारे विषय में मैंने जो कुछ सुना बहुत ठीक है, न-जाने तुम्हें इन बातों का पता क्योंकर लग जाता है। खैर इस वक्त तो ठहर नहीं सकता लेकिन फिर मिलूँगा तो जरूर अच्छी तरह बातें होंगी। अच्छा तुम्हें कहाँ खोजूँ, किस जगह रहोगे?’’

यकायक भूतनाथ के कानों में एक सीटी की आवाज सुनाई पड़ी जो जंगल की तरफ से आई थी। वह चौंका और तब ‘‘मैं स्वयं आपको खोज लूँगा’’ कहते-कहते शेरसिंह से जाने का इशारा कर फुर्ती के साथ उसी जंगल में घुस गया। शेरसिंह भी अपने घोड़े पर सवार हुए और तेजी के साथ जमानिया की तरफ रवाना हुए।

दिन पहर भर से कुछ कम ही बाकी रह गया होगा जब शेरसिंह जमानिया में दारोगा साहब के मकान पर पहुँचे, खासबाग वाले मकान पर नहीं बल्कि शहर वाले मकान पर जिसके विषय में हमारे पाठक ऊपर बहुत कुछ पढ़ चुके हैं।

सूचना मिलते ही दारोगा साहब ने शेरसिंह को भीतर बुला लिया और अपने सामने बैठा कर कुशल-मंगल के बाद आने का कारण पूछा, कुछ देर बातचीत होती रही, इसके बाद शेरसिंह ने एक चीठी जिस पर मुहर की हुई थी निकाल कर दारोगा के हाथ पर रख दी।

दारोगा ने वह चीठी खोल कर बड़े गौर के साथ पढ़ी और तब कहा, ‘‘इस चीठी से मालूम होता है कि आपसे और भी कई ऐसी बातों का पता लगेगा जो इसमें नहीं लिखी गई हैं।’’

शेर० : बेशक ऐसा ही है। उस चीठी के साथ ही आपको यह चीठी भी देखनी चाहिए जिसके पढ़ने से आपको राजा साहब की चीठी का मतलब पूरी तौर पर मालूम हो जाएगा।

इतना कह शेरसिंह ने एक दूसरा पत्र जेब से निकाल दारोगा साहब की तरफ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘’यह पत्र राजा शिवदत्त ने हमारे महाराज को भेजा था और आपको दिखाने के लिए महाराज की आज्ञा से मैं लेता आया हूँ।’’

दारोगा ने इस पत्र को भी गौर से पढ़ा और तब दोनों चीठियाँ सामने रख कर कहा, ‘‘तो राजा शिवदत्त महाराज दिग्विजयसिंह से मदद चाहते हैं?’’

शेर० : जी हाँ।

दारोगा : इस बारे में कि वे राजा बीरेन्द्रसिंह इत्यादि से बदला लेने में इनकी सहायता करें?

शेर० : जी हाँ, महाराज शिवदत्त ने बीरेन्द्रसिंह इत्यादि से हार मान कर पहिले तो तपस्या करनी चाही पर तपस्या उन्हें रुचि नहीं अस्तु अब वे अपने दुश्मनों से बदला लेने की फिक्र में लग गये हैं। उन्होंने शिवदत्तगढ़ नामक एक शहर भी बसाया है और उनके पास अब फौज और ऐयारों की कमी नहीं है पर तिस पर भी वे यह समझते हैं कि अकेले लड़ कर वे चाहे अपने और दुश्मनों पर फतह पा जाएं पर राजा बीरेन्द्रसिंह को नहीं जीत सकेंगे, इसलिए वे अपने दोस्तों की मदद चाहते हैं। उन्होंने आपसे भी मदद मांगी थी पर आपने इनकार कर दिया।

दारोगा : हाँ, उसने मदद माँगी थी पर मैंने नामंजूर किया क्योंकि...।(रुक कर) अच्छा आप पहिले आपनी बात समाप्त कर लें तो मैं यह बताऊँगा कि क्यों मैंने मदद नहीं दी।

शेर० : बहुत अच्छा हमारे महाराज आपको गुरु की तरह मानते हैं और इज्जत करते हैं और बिना आपकी आज्ञा लिए वे शिवदत्त को किसी तरह जवाब नहीं दे सकते थे, अस्तु उन्होंने इसीलिए मुझे आपके पास भेजा है कि मैं आपको शिवदत्त की चीठी दिखाने के साथ ही आपकी राय भी जान लूँ और यह भी मालूम कर लूँ कि आपके मदद से इन्कार करने का क्या कारण है। शिवदत्त के जोर देने और उसे अपना करने की उम्मीद करते हुए भी वे तब तक इस काम में हाथ न डालेंगे जब तक आपकी आज्ञा न पा लें।

दारोगा : अच्छा तो मैं सोच कर कल आपको ठीक-ठीक जवाब दूँगा।

राजा शिवदत्त से और मुझसे दोस्ती थी और मैंने उसकी बहुत कुछ मदद की भी मगर उसकी मदद से मुझे कोई फायदा तो हुआ नहीं उल्टे मेरा बहुत कुछ नुकसान ही हुआ। कुछ ही दिन की बात है कि उन्होंने अपने कई कैदी हिफाजत के खयाल से मेरे पास भेज दिए और मैंने दोस्ती के लिहाज से उनको रख भी लिया था पर न जाने किस तरह वे सब कैदी छूट कर निकल गये और साथ-साथ मेरे निज के कई कैदियों को भी निकाल ले जाकर मुझे आफत और तरद्दुद में डाल गये। अभी तक उन कैदियों का पता नहीं लगा है और अगर वे नहीं मिलेंगे तो मुझे बहुत सख्त तरद्दुद उठाना पड़ेगा। यही कारण है कि मैं शिवदत्त की मदद करते हिचकता हूँ और खास कर राजा बीरेन्द्रसिंह के मुकाबले में।

शेर० : मगर आपने शायद उनकी चीठी पर गौर नहीं किया जो मैंने अभी आपको दिखाई। वे आपसे बहुत ज्यादा मदद नहीं चाहते और राजा बीरेन्द्रसिंह के विषय में तो केवल हमारे महाराज से ही मदद चाहते हैं। आपसे केवल अपने उन्हीं दुश्मनों के विषय में सहायता चाहते हैं जो आपके कब्जे में हैं तथा केवल उन्हीं शत्रुओं से बदला लेने में आपकी मदद चाहते हैं जिनको आप पकड़ सकते या जो इस समय जमानिया राज्य में मौजूद हैं। उन्होंने ऐसे एक व्यक्ति का हमारे महाराज के पत्र में नाम भी लिखा है जो मुझे स्मरण नहीं आ रहा है...

दारोगा : प्रभाकरसिंह?

शेर० : जी हाँ, जी हाँ प्रभाकरसिंह! प्रभाकरसिंह से और महाराज शिवदत्त से बहुत दुश्मनी है और राजा बीरेन्द्रसिंह से चुनार में जो लड़ाई हुई थी उसमें प्रभाकरसिंह ने बीरेन्द्रसिंह की तरफ हो उन्हें बहुत नीचा दिखाया तथा सख्त जख्मी किया था, सुना गया है कि आजकल वे प्रभाकरसिंह जमानिया में हैं। अस्तु राजा शिवदत्त चाहते हैं कि आप प्रभाकरसिंह को गिरफ्तार कर उनके हवाले कर दें।

दारोगा : हाँ-हाँ, यह सब बातें तो राजा शिवदत्त की चीठी से जाहिर होती हैं, मगर मेरे कहने का मतलब यह है कि वे इस बात को जैसा समझते हैं वैसा सहज वास्तव में नहीं है और प्रभाकरसिंह को किसी ताकतवर आदमी की मदद मिल रही है जिसके आगे मुझे भी नीचा देखना पड़ा है।

शेर० : उन्होंने यह भी कहा है कि प्रभाकरसिंह के पकड़ने में किसी प्रकार का खर्च पड़े और ऐयारों, सिपाहियों या दूसरे लोगों को किसी इनाम इत्यादि की जरूरत पड़े तो वे देने को तैयार हैं और जरूरत पड़ने पर अपने ऐयारों को भी भेज सकते हैं। यहाँ तक कि वे प्रभाकरसिंह आदि की गिरफ्तारी के लिए दो-चार लाख रुपया खर्च करने में आगा-पीछा न करेंगे पर...

दारोगा : हाँ भई, सो सब तुम्हारा कहना ठीक है मगर तुम्हीं सोचो कि मैं साधू आदमी, संसार-त्यागी, विरक्त, मुझे इन झगड़ों में पड़ने से क्या फायदा! एक बार दोस्ती के खयाल से और बड़ा जोर देने पर मैंने शिवदत्तसिंह का काम कर दिया पर उसका मतलब यह तो नहीं है कि बराबर बुरे-भले कामों में उसकी मदद करता रहूँ और व्यर्थ की यह बदनामी की टोकरी अपने सिर पर लाद लोगों की निगाह में अपने को नीचा करता रहूँ! एक दफे जो मैंने उसकी मदद कर दी वही अभी तक मेरी बदनामी का सबब बनी हुई है, दुबारा मदद करने से न-जाने क्या होगा! उसकी बात को तो जाने दो, अपने इसी जमानिया राज्य में देखो, महाराज गिरधरसिंह कई बार मुझसे दीवानी या राज्य का और कोई ओहदा लेने पर जोर दे चुके हैं परन्तु मैं नहीं लेता क्योंकि ऐसा करने से मेरे संसार-त्याग और ईश्वर-भजन में विघ्न पड़ेगा। मैं तो राज्य का जो काम करता हूँ उतना भी न करता और तपस्या करने के लिए किसी जंगल में जाकर अपनी जिन्दगी के बाकी दिन काट देता अगर मुझे महाराज का प्रेम न होता, या वे ही मुझसे इतना स्नेह न रखते। तब भी मैंने इस बात का प्रण कर लिया है कि केवल इन्हीं महाराज के समय तक इस शहर में रहूँगा...।(यकायक अपने को रोक कर) खैर इन बातों से कोई मतलब नहीं, इस समय पहले...।(कुछ सोच कर) यदि मैं कुछ विलम्ब करके महाराज दिग्विजयसिंह के पत्र का उत्तर दूँ तो क्या कोई हर्ज है!

शेर० : कोई हर्ज नहीं, आप जब उत्तम समझें तभी उत्तर दें, मैं अपना काम कर चुका अब उत्तर देना आपके हाथ है।

दारोगा : हाँ ठीक है, अच्छा कल तो नहीं पर परसों किसी समय मैं आपको अपने उत्तर से सूचित करूँगा, इस दो दिन के बीच में मैं अच्छी तरह सोच-विचार भी कर लूँगा... (रुक-कर) बहुत अच्छा तो परसों संध्या को आप मुझसे मिलें।

शेर० : बहुत खूब, परसों मैं आपसे मिलूँगा। अब इस समय इजाजत दें तो डेरे पर जाकर...

दारोगा : हाँ-हाँ, अब मैं आपको ज्यादा देर रोक नहीं सकता। क्या कहूँ आप मेरी मेहमानदारी कबूल ही नहीं करते नहीं तो इसी कुटिया में आपके आराम का सब प्रकार का बन्दोबस्त हो जाता।

शेर० : सब आप ही का है और मैं भी आप ही का हूँ पर बात यह है कि इस शहर में मेरे कुछ सम्बन्धी ऐसे हैं जो मेरा दूसरे के यहाँ ठहरना मंजूर ही नहीं करते और लाचार मुझे उनकी बात माननी पड़ती है।

दारोगा : जी हाँ। यह बात तो आप कह चुके हैं और ऐसा करना उचित भी है, रिश्तेदारों का जोर ऐसा होता ही है जिसके विरुद्ध मैं आपको कुछ नहीं कह सकता। बहुत अच्छा, अब फिर बातें होती रहेंगी इस समय आपको रोकना व्यर्थ कष्ट देना है।

शेरसिंह उठ खड़े हुए और दारोगा बड़ी खातिरदारी के साथ उन्हें उस कमरे के दरवाजे तक पहुँचा गया। जब शेरसिंह मकान के बाहर चले गये तो वह कमरे के बाहर निकला और ऊपर की मंजिल में एक बन्द दरवाजे के सामने पहुँचा जिसमें ताला लगा हुआ था। कमर से तालियों का एक झब्बा निकाल कर उसने ताला खोला और कोठरी के अन्दर जा दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया।

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