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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

।। नौवाँ भाग ।।

पहिला बयान


अब वह जमाना आ गया है जिसका हाल चन्द्रकान्ता सन्तति पढ़ने वालों को उसके चौदहवें-पन्द्रहवें और सोलहवें भागों में इन्दिरा का किस्सा सुनने से मालूम हुआ होगा। दामोदरसिंह का इन्दिरा की तस्वीर वाला कलमदान सर्यू को देना, इन्द्रदेव का जमानिया जाना, अपनी लड़की तथा स्त्री को लेकर अपने घर लौटकर दामोदरसिंह की मृत्यु, गोपालसिंह की उस विचित्र सभा द्वारा गिरफ्तार उनके पिता राजा गिरधरसिंह की मृत्यु, और गोपालसिंह का राजा बन कर इन्द्रदेव की सहायता से गुप्त कमेटी का भण्डा भोड़ना आदि सब हाल चन्द्रकान्ता सन्तति में खुलासे तौर पर लिखा जा चुका है। अस्तु यहाँ पर हम उन बातों का जिक्र बिल्कुल ही न करेंगे या केवल उतना ही करेंगे जितना बहुत आवश्यक होगा।

रात पहर-भर से कुछ ऊपर जा चुकी है। अपने आलीशान मकान के एक बड़े कमरे में जिसके सब दरवाजे भीतर से बन्द हैं दामोदरसिंह और भरथसिंह का नौकर हरदीन बैठे हुए कुछ बातें कर रहे हैं।

कमरे में सिवा एक शमादान के जो दामोदरसिंह के सामने जल रहा है और कोई रोशनी नहीं तथा इस कारण उस बड़े कमरे में एक प्रकार का अन्धकार है पर तो भी उस शमादान की रोशनी दामोदरसिंह के चेहरे की उदासी और लाचारी की अवस्था प्रकट करने को काफी है।

दामोदरसिंह के हाथ में एक कागज है जिसे मन-ही-मन पढ़ रहे हैं और हरदीन बेचैनी के साथ उनके मुँह की तरफ देख रहा है...

पढ़ना समाप्त कर दामोदरसिंह ने लम्बी साँस खींची और उसी समय हरदीन ने कहा, ‘‘पर मैं पुनः आपसे कहने की जुर्रत करता हूँ कि आप अपना विचार छोड़ दें।आप निश्चय रक्खें कि दारोगा को—जिसकी चालाकियों का जाल सब तरफ अच्छी तरह फैला हुआ है—आपकी कार्रवाई का पता जरूर लग जाएगा और वह आपकी दोस्ती और अहसानों पर कुछ भी ख्याल न कर आपका कट्टर दुश्मन बन बैठेगा बल्कि ताज्जुब नहीं कि आपकी जान का ग्राहक बन जाय। उस समय आप ही सोचिए कि उनके मुकाबिले में आप क्या कर सकेंगे और किस तरह अपने को बचावेंगे।’’

दामोदर० : हरदीन, तुम भी कैसी बातें करते हो? भला तुम सोचते हो कि जब मैं इस काम को करने पर उतारू हुआ हूँ तो इसकी मुसीबतों की तरफ मैंने खयाल न किया होगा या आने वाली आफतों को पहिले ही से सोच न लिया होगा? नहीं हरदीन, यह सब कुछ मैं सोच-विचार चुका हूँ और जो कुछ तुमने कहा वह सब कुछ समझ लेने के बाद ही इस काम में हाथ लगाया है। मैं जानता हूँ कि ऐसा करने और कमेटी का हाल प्रकट कर देने पर दारोगा कदापि मुझको जीता न छोड़ेगा पर यह विश्वास मेरे निश्चय को बदल नहीं सकता।मैंने जो सोचा है वह मैं अवश्य ही कर डालूँगा पर साथ ही उस प्रतिज्ञा को जो मैंने कमेटी का सदस्य होते समय की थी यहाँ तक निबाहूँगा कि मेरे मरने के पहिले इस कमेटी का हाल लोगों पर प्रकट न होगा। जिस व्यक्ति के हाथ वह सब कागजात जो मैंने लिख कर तैयार किये हैं सौपूँगा उसे अच्छी तरह समझा दूँगा कि मेरे मरने का निश्चय कर लेने के बाद वह इनको पढ़े और तब जैसा मुनासिब समझे वैसी कार्रवाई करे।

हरदीन : मगर क्या आप समझते हैं कि दारोगा को इस बात का पता नहीं लगेगा? क्या आप सोचते हैं कि जिस आदमी के हाथ आप ये कागजात सौपेंगे उसका नाम दारोगा को मालूम न हो जाएगा? क्या आप जानते नहीं हैं कि दारोगा की ताकत कहाँ तक बढ़ी हुई है और किस प्रकार घर-घर में इसके भेदिये और दूत पहुँचे हुए हैं? और क्या आप इसी बात का मुझे विश्वास दिला सकते हैं कि खास आपके इसी घर में आपका कोई नौकर या सम्बन्धी दारोगा की तरफ मिला हुआ नहीं है और इस समय भी आपकी सब बातें सुन नहीं रहा है।

दामो० : मैं समझता हूँ, सब जानता हूँ, सब बातों पर गौर कर चुका हूँ। और जो कुछ तुम कहते हो वह सब ठीक है मगर क्या तुम ही इस बात का विश्वास मुझे दिला सकते हो कि इस गुप्त कमेटी का भेद ज्यादा दिनों तक छिपा हुआ रह सकता है? क्या तुम ही यह कह सकते हो कि इस सभा की कार्रवाई और करतूतें तथा अत्याचार ज्यादा दिनों तक इसे कायम रहने देंगे? क्या तुम ही यह बता सकते हो कि अब इस सभा की जिन्दगी कितने दिनों की है? कुछ नहीं, तुम इस बात का निश्चय रक्खो कि इस सभा का अन्त आ चुका है, यदि मैं इस काम को न भी करूँ तो कोई दूसरा अवश्य कर डालेगा और इस सभा का भण्डा जरूर फूट जायगा। ऐसा अवस्था में सभा का मन्त्री होकर मैं क्यों न इस काम में अगुवा बनूँ और दूसरे की जान आफत में न डाल, मैं ही अपनी जान क्यों न होम करूँ?

हरदीन चुप हो गया, दमादोरसिंह फिर बोले—

दामो० : क्या तुम कह सकते हो कि वह विचित्र मनुष्य जो उस दिन ऐसी आश्चर्यजनक रीति से हमारी सभा में पहुँचा और सब कार्रवाई देख-सुन कर चला गया, कौन था? क्या तुमने उसकी शक्ति की तरफ खयाल किया? क्या तुमने इस बात पर गौर किया कि उस विचित्र मनुष्य को जो केवल छू भर लेता वह बेहोश हो जाता था? और क्या तुमने इन्हीं बातों पर कभी ध्यान दिया कि जिस प्रकार वह आदमी एक दफे आया उसी प्रकार सौ दफे आए और सब बातें जान-सुन सकता है और हम लोग उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।

हर० : बेशक उस अद्भुत व्यक्ति में कुछ विचित्र ताकत थी।

दामोदर० : ताकत! ताकत की बात जाने दो, पहिले इस बात को सोचो कि वह था कौन? मुझे पूरा विश्वास है कि वह अवश्य भैयाराजा या उन्हीं का कोई साथी था। तुम्हें मालूम है कि स्वयं दारोगा अपनी जबान से कह चुका है कि भैयाराजा को इस कमेटी का हाल मालूम हो गया है। भला जब वे महाराज से बिगाड़ कर चले गये उस समय के बाद केवल एक दफे महाराज की मृत्यु पर आने के सिवाय फिर कभी किसी को दिखाई दिये? या दिखे भी तो सिर्फ दारोगा को! जरूर इतने दिनों तक गुप्त रह कर उन्होंने तपस्या या और किसी ढंग से अद्भुत शक्ति पाई है और अपना पुराना बदला लेने और सभा का भण्डाफोड़ करने आये हैं।

हरदीन, तुम इस बात का विश्वास रक्खो कि वह आदमी जो उस दिन आ पहुँचा था कोशिश करने पर सभा का गुप्त-से-गुप्त भेद जान सकता है और सभा को तरह-नहस कर डालना तो उसके बायें हाथ का खेल है। यदि मेरा खयाल ठीक निकला और वे वास्तव में भैयाराजा या उन्हीं का कोई दूत हुआ तो क्या वे प्रकट होने के बाद इस सभा को और इसके सदस्यों को जीता छोड़ेंगे? नहीं, वे बुरी तरह से अपना बदला लेंगे और उस समय उस दुष्ट के साथ-ही-साथ हम लोगों को भी मिट्टी में मिल जाना पड़ेगा।फिर क्यों न मैं ही सभा का जीवन शेष करूँ! क्यों दूसरों की निगाह में मैं व्यर्थ ही कमीना बेईमान और राजद्रोही बनूँ और ऐसे दण्ड से दण्डित किया जाऊँ? नहीं हरदीन, मैं सब कुछ सोच चुका हूँ और सोचने के बाद ही मैंने इस काम में हाथ डाला है। अब मैं अपना विचार बदल नहीं सकता और तुम भी मेरा निश्चय बदल नहीं सकते।तुमको मैं अपना हितू समझता हूँ और तुम पर विश्वास करता हूँ इसी से ये सब कागजात मैं तुम्हें पढ़ने के लिए देता हूँ।इन कागजों में मैंने सभा का सब कच्चा चिट्ठा उतार दिया है, इसके सब सदस्यों, सहायकों तथा कार्यकर्ताओं के नाम, जहाँ तक मुझे मिल सके, मैंने इनमें लिख दिए हैं, सभा के सब अधिवेशनों का हाल और उन आदमियों के नाम भी जिनको सभा की तरफ से प्राणदण्ड हुआ है, मय पूरे हाल के इसमें दे दिया है। जो-जो लोग इस दुष्ट सभा के चक्कर में पड़ कर कैद भोग रहे हैं उनका नाम इसमें लिखा है जिन-जिन पर इस सभा की क्रूर दृष्टि पड़ चुकी है, जो थोड़े ही दिनों में इसके फन्दे में पड़ा चाहते हैं उनका भी जिक्र मैंने कर दिया है, अपने जानने में तो मैंने कोई बात नहीं छोड़ी, अब तुम भी पढ़ कर देख लो जिससे मुझे विश्वास हो जाय कि मैंने किसी बात में भूल नहीं की है, लो इन्हें पढ़ो और तब तक मैं एक दूसरे काम से छुट्टी पाकर आता हूँ।

इतना कह अपने सामने के कागज उठा कर दामोदरसिंह ने हरदीन के आगे बढ़ा दिए और कमरे का दरवाजा खोलते हुए बाहर चले गये। बाहर जाकर उन्होंने फिर दरवाजा भिड़का दिया।

लगभग एक घड़ी में हरदीन ने उन कागजों का पढ़ना समाप्त किया और तब तक दामोदरसिंह भी वहाँ लौट आए।

कमरे का दरवाजा फिर से बन्द कर वे हरदीन के सामने आकर बैठ गए और बोले, ‘‘सब बात दुरुस्त है, मेरी आज्ञानुसार इन्द्रदेव को बुलाने आदमी जा चुका है और उम्मीद है कि आज ही वे आ पहुँचेंगे। इन कागजों के लिए एक उपयुक्त पेटी भी मैं लेता आया हूँ।’’

इतना कहकर दामोदरसिंह ने अपने कपड़ों में से सोने का बना हुआ छोटा सा कलमदान की शक्ल का एक डिब्बा निकाला और हरदीन के आगे रख कर कहा, ‘‘बस इन कागजों के लिए यही डिब्बा उपयुक्त होगा मगर पहले तुम यह बताओ कि इनमें कोई बात बढ़ाने या घटाने लायक तो तुमको नहीं मालूम हुई है?’’

हर० : नहीं, सब ठीक है, किसी बात की कसर नहीं है, पर हाँ इन कागजों की हिफाजत का पूरा ख्याल होना चाहिए क्योंकि किसी तरह भी ये दारोगा के हाथ लग गए या उसे इनका पता लग गया तो फिर आप पर भविष्य में आने वाली आफत और भी नजदीक आ जायगी और आप अपने को इस दुष्ट के चंगुल से किसी प्रकार बचा न सकेंगे।

दामो० :अपने भरसक तो मैं इस बात को बहुत ही गुप्त रखूँगा और इस बात का प्रबन्ध कर जाऊंगा कि मेरी मौत के पहिले ये कागजात खोले या पढ़े न जायँ क्योंकि सब कुछ होने पर भी अपनी प्रतिज्ञा के निर्वाह का खयाल मुझे जरूर है पर तो भी भावी के आगे सब चेष्टा व्यर्थ होगी। मैं नहीं कह सकता कि मेरी मौत कैसी होगी, स्वाभाविक होगी अथवा खूनियों के हाथ से, इसका ठीक पता ईश्वर ही जानता है और अब मैं उसकी कृपा पर अपने को छोड़ देता हूँ।

इतना कह दामोदरसिंह ने वह सोने का कलमदान खोला, सब कागजों को कायदे से सिलसिलेवार उसमें रक्खा और उसे बन्द करने के बाद उसकी ताली हाथ में लिये कमरे के बाहर चले गये।

हरदीन ने उस कलमदान को उठाकर देखा, सोने की खूबसूरत तीन तस्वीरें बनी हुई थीं बीचोबीच में एक छोटी लड़की की तस्वीर थी जिसके नीचे ‘इन्दिरा’ यह नाम लिखा हुआ था। दूसरी तरफ भैयाराजा की तस्वीर लगी हुई थी और बाईं तरफ एक नाजुक और खूबसूरत औरत की तस्वीर थी जिसे हरदीन पहिचानता न था।

थोड़ी देर बाद दामोदरसिंह फिर वहाँ लौटे और हरदीन के पास आ काँपते स्वर में बोले, ‘‘हरदीन, एक प्रतिज्ञा तुमसे भी मैं कराना चाहता हूँ, वह यह कि मेरे जीते-जी अपनी जुबान से तुम इन कागजातों और इस कलमदान का हाल किसी से भी न कहना और न यह बताना कि यह मैं किसे दे रहा हूँ।’’ हरदीन ने दामोदरसिंह की इच्छानुसार प्रतिज्ञा की और तब उनकी मन्शा समझ उठ कर सलाम करने के बाद कमरे के बाहर चला गया।

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