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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

चौदहवाँ बयान


भूतनाथ के विचित्र स्थान लामाघाटी से हमारे पाठक परिचित नहीं होंगे, क्योंकि चन्द्रकान्ता सन्तति में कई जगह इस घाटी का नाम आ चुका है। भूतनाथ इस स्थान को बहुत ही गुप्त समझ कर अकसर इसी में अपने कैदियों को रखता था, बल्कि कैदियों के सिवाय अपनी उन चीजों को भी जिनको वह बेशकीमती समझता था या जिनका दुश्मनों के हाथ लग जाना वह अपने हक में बुरा समझता था वह इसी जगह कहीं रखता था, खास करके जब से कला और बिमला के कारण तंग होकर भूतनाथ ने उस तिलिस्मी घाटी को छोड़ दिया था जिसमें पहिले रहता था तब से तो यह लामाघाटी ही उसका अड्डा बन गई थी।

इसी लामाघाटी के एक हिस्से में जिधर की इमारतों का काफी भाग टूटा होने पर भी बाकी का अंश अभी तक मजबूत और रहने लायक बना हुआ है हम एक कोठरी में गौहर को सुस्त और उदास बैठे देखते हैं जिसका जिक्र इस भाग के दूसरे बयान में आ चुका है। यद्यपि इस कमसिन और खूबसूरत लड़की के हाथ-पैर बँधे हुए नहीं है और न इस कोठरी में हम कोई जंगला या दरवाजा ही लगा हुआ देखते हैं जिसमें यह बैठी हुई है तथापि हम खूब जानते हैं कि यह यहाँ कैद है। इस कोठरी के बाहर निकलने की गौहर को कोई इजाजत नहीं है और न इस घाटी में रहने वाले आदमियों में सो कोई इससे बात कर सकता है। सुबह, दोपहर और शाम को एक आदमी आकर इसकी जरूरतों को पूरा कर जाया करता है और इसके सिवाय कभी इसे किसी आदमी की सूरत नहीं दिखाई देती और न इस घाटी के बाहर निकलने की ही कोई तरकीब दिखाई पड़ती है तथापि यह लड़की अभी हताश नहीं हुई है और इसके होंठों और आँखों से कभी-कभी खयाल के साथ प्रकट हो जाने वाली मुस्कराहट साफ कह देती है कि इसे आज ही कल में इस स्थान से निकल जाने की पूरी आशा बँधी हुई है।

समय संध्या का है और इस कारण घाटी में सन्नाटा छाया हुआ है क्योंकि यहाँ के आदमियों में सो दो-एक को छोड़ बाकी के सभी बालादेवी के लिए बाहर गये हुए हैं जो यहां रहने वालों के लिए जरूरी काम है क्योंकि ये सभी आदमी भूतनाथ के शागिर्द और ऐयार हैं और उसके हुक्म के अलावे अपनी इच्छी से भी बराबर भेष बदल कर इधर-उधर घूमते हुए उसका काम करते और गुप्त भेदों का पता लगाते रहते हैं। यही सबब है कि यहाँ इस समय कोई आदमी खास तौर पर गौहर की निगहबानी के लिये मुस्तैद नहीं दिखाई दे रहा है जिसके सबब से उस औरत को यहाँ आने में तरद्दुद हो जो एक मोटी चादर ओढ़े पेड़ों की आड़ में अपने को छिपाती हुई सामने की तरफ से इधर ही को चली आ रही है।

थोड़ी देर में वह औरत पास आ गई और तब बहुत सावधानी से इधर उधर देखने के बाद उसी कोठरी में घुसी जिसमें गौहर बैठी हुई थी। इसे देखते ही गौहर प्रसन्नता के साथ उठ खड़ी हुई और मुस्कुराती हुई दो कदम आगे बढ़ कर बोली, ‘‘आओ सखी, बारे किसी तरह आई तो सही, मैं तो समझी थी कि तुम अपना वादा पूरा न करोगी, शायद भूल गई हो।’’

औरत : नहीं-नहीं, भला अपना वादा मैं कभी भूलती हूँ? मेरे आने में देर होने का सबब यही हुआ कि उनके शागिर्द लोगों के जाने की मैं राह देख रही थी। जब सिर्फ दो आदमियों को छोड़ बाकी सब घूमने-फिरने चले दिये तब मैं स्वयं इधर आई। सो भी अपने को उन दोनों की निगाह से बचाती हुई, क्योंकि मुझे यद्यपि मालिक ने तुमसे मिलने को मना नहीं किया है तो भी तुमसे मिल कर किसी तरह का व्यर्थ का शक उनके दिल में पैदा करना मैं मुनासिब नहीं समझती!

गौहर : मैं उम्मीद करती हूँ कि इस वादे की तरह अपना दूसरा वादा भी तुम नहीं भूलोगी! (हाथ पकड़ कर) अच्छा सखी, बैठो तो सही।

वह औरत और गौहर दोनों एक कम्बल पर, जो यहाँ बिछा हुआ था, बैठ गईं और उस औरत ने अपनी चादर जो वह ओढ़े हुए थी उतार दी। इस समय उसकी खूबसूरती या नखसिख का वर्णन कर हम पाठकों का समय व्यर्थ खराब नहीं किया चाहते पर इतना बता देना जरूरी है कि यह औरत भूतनाथ की दूसरी स्त्री रामदेई है।

रामदेई : (बैठने के बाद) नहीं नहीं, मैं अपना दूसरा वादा भी न भूलूँगी और तुम्हें जरूर इस जगह के बाहर निकाल दूँगी तथा मुमकिन है कि वह दिन भी आज ही हो जब तुम स्वतन्त्रता की हवा खाती दिखाई दो पर एक दो सवाल मैं तुमसे अवश्य पूछा चाहती हूँ।

गौहर : हाँ हाँ, खुशी से पूछो, जो कुछ मैं जानती हूँ जरूर कहूँगी।

रामदेई : पहिली बात तो यह कि तुम क्यों इस तरह घूम-फिर रही थी जब इन्होंने (भूतनाथ ने) तुम्हें गिरफ्तार किया और दूसरी बात यह कि तुम्हारी तरफ से जो आदमी दो-एकबार मुझसे काशीजी में मिल कर बातें कर चुका है वह क्या वास्तव में तुम्हारा ही नौकर है?

गौहर : हाँ, वह मेरा ही ऐयार था।

राम० : मगर उसी मारफत जिस किस्म की बातें...

गौहर : देखो मैं दोनों बातों का जवाब तुम्हें देती हूँ। मेरी माँ के मरने का हाल तो तुमने सुना ही होगा?

राम० : हाँ मैं सुन चुकी हूँ।

गौहर : मैं अपनी माँ को बहुत चाहती थी, और उसके मर जाने पर एक तरह पर मैं पागल-सी हो गई। हकीमों ने बहुत तरह का इलाज किया पर मेरी हालत सुधरती ने देख उनकी सलाह से मेरे बाप ने मुझे यह इजाजत दे दी कि मैं थोड़े आदमियों को लेकर जहाँ चाहे घूमूँ-फिरूँ और अपना दिल बहलाऊँ। इसी तरह एक दफे चुनार भी गई थी। वहाँ के राजा बीरेन्द्रसिंह के दो लड़के हैं जिन्हें शायद तुम जानती हो।

राम० : हाँ–हाँ मैं उन्हें अच्छी तरह जानती हूँ, इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह उनका नाम है और दोनों बड़े ही खूबसूरत और बहादुर भी हैं।

गौहर : इन्द्रजीतसिंह तो ऐसे कुछ नहीं हैं पर आनन्दसिंह बड़े ही खूबसूरत और मनचले हैं। उनको जब मैंने देखा (गरदन नीची करके) तो...

राम० : हाँ-हाँ ठीक है, मैं समझ गई। अच्छा तब?

गौहर : मैंने बहुत कोशिश की कि किसी तरह से आनन्दसिंह से मिलूँ पर उन्होंने मेरी तरफ कुछ ध्यान नहीं दिया, तब मुझे बड़ा क्रोध आया पर मैं कर ही क्या सकती थी, लाचार मन मार वहाँ से चल दी। कुछ दिन बाद जब घूमते-घूमते शिवदत्तगढ़ पहुँची जिसे चुनार के पिछले राजा शिवदत्तसिंह ने बसाया है तो वहाँ मालूम हुआ कि राजा शिवदत्त इन दोनों कुमारों को गिरफ्तार कर अपना पुराना बैर जो बीरेन्द्रसिंह से है चुकाया चाहते हैं और मैं भी मौका अच्छा देखकर शिवदत्तसिंह के साथ हो गई। वह मेरे बाप को अच्छी तरह जानते हैं इससे ज्यादा तरद्दुद न हुआ। (रुक कर) अब इस समय उन्हीं के एक काम से मैं यहाँ आई हुई थी जब तुम्हारे पति ने मुझे गिरफ्तार कर लिया। मैं नहीं कह सकती कि मुझ पर किस तरह का सन्देह हुआ जो वे मुझसे रंज हो बैठे? क्या तुम इस बारे में कुछ कह सकती हो कि उन्होंने मुझे क्यों गिरफ्तार किया?

रामदोई : भला सो मैं क्या कह सकती हूँ, वे जानें और उनका काम जाने।

उनकी बातों में मैं दखल नहीं देती। और सच तो यह है कि मुझे उनके भेदों का हाल कुछ भी मालूम नहीं रहता।

गौहर : मैंने उनके विषय में तुमसे जो बातें पुछवाई थीं शायद उनका पता उन्हें लग गया हो और वे यह समझ बैठे हों कि मैं उनसे दुश्मनी रखती हूँ!

रामदेई : नहीं, उन बातों का पता तो उन्हें नहीं लगा है, क्योंकि अगर ऐसा होता तो मुझे कुछ-न-कुछ खबर जरूर लगती, जरूर कुछ और ही बात है।

गौहर : तो कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि तुम इधर मुझे कैद से रिहाई दो और आप ही तरद्दुद में पड़ जाओ, लोग तुम पर शक करने लगेंगे कि इसी ने गौहर को भगा दिया।

रामदेई : नहीं ऐसा भी न होगा। एक तो इन आदमियों को जो इस समय यहाँ है इतनी हिम्मत नहीं होगी कि मुझ पर ऐसा शक करें, दूसरे मैं आज ही यहां से चली जाने वाली भी हूं।

गौहर : क्या तुम चली जाओगी? तो फिर मेरी क्या दशा होगी! क्या मैं यहीं पड़ी सड़ा करूंगी? तुम्हारे सिवाय तो और कोई यहाँ ऐसा दोस्त भी दिखाई नहीं देता जिसके पास बैठ और कुछ बातचीत कर मैं तबीयत को बहला सकूं।

रामदेई : नहीं-नहीं, मैं जाऊँगी तो क्या तुम्हारा कुछ बन्दोबस्त किए बिना ही चली जाऊँगी? ऐसा तुम स्वप्न में भी खयाल न करना। मैं तुम्हारा कुछ रास्ता निकाले बिना यहाँ से नहीं जाने की।

गौहर : हाँ, यही तो मेरा विश्वास है।

राम० : (कुछ देर चुप रहकर) अच्छा तुम यहाँ से छूट कर कहाँ जाओगी?

गौहर : यह तो मैं अभी ठीक-ठीक नहीं कह सकती। एक बार जमानिया तो अवश्य जाऊँगी फिर वहाँ से चाहे जहाँ जाऊँ। आजकल जमानिया में शिवदत्त सिंह के कई ऐयार भी आए हुए हैं।

रामदेई : (आश्चर्य से) सो क्यों?

गौहर : मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकती। शायद प्रभाकरसिंह वगैरह को गिरफ्तार करने की फिक्र में हों।

रामदेई : कौन प्रभाकरसिंह?

गौहर : वही शिवदत्तसिंह के सेनापति, जिनकी स्त्री को शिवदत्त अपने महल में डाला चाहता था। क्या तुम उन्हें नहीं जानतीं?

रामदेई : नहीं-नहीं, मैं उन्हें बखूबी जानती हूँ, मगर वह तो मर गए न?

गौहर : वाह, यह तुमसे किसने कहा कि प्रभाकरसिंह मर गए?

रामदेई : क्या वह नहीं मरे?

गौहर : नहीं, इधर पाँच सात दिन का हाल तो मैंने नहीं कह सकती पर इसके पहिले तक तो ऐसा नहीं हुआ।

राम० : (कुछ सोचती हुई) अच्छा प्रभाकरसिंह नहीं मरे! तब मुझे यह झूठी...।।(चुप रहकर) अच्छा तो प्रभाकरसिंह को शिवदत्त पुनः पकड़ना चाहता है?

गौहर : महाराज शिवदत्त के पास ताकत हो गई है और अब वह चुन-चुन कर अपने दुश्मनों से बदला ले रहे हैं।

रामदेई : (धीरे-से) मगर शिवदत्त के दुश्मनों में तो वे (भूतनाथ) भी हैं।

गौहर : (मुस्कराती हुई) हाँ हैं तो सही!

रामदेई ने यह सुन धीरे से गौहर के कान में कुछ कहा जिसके जवाब में उसने भी रामदेई के कान में मुँह लगाकर कुछ कहा और इसके बाद इन दोनों में इतने धीरे-धीरे बातें होने लगीं कि हम भी सुन न सके।

इन दोनों की बातचीत घड़ी रात गये तक होती रही और तब रामदेई ने उठते हुए कहा, ‘‘अच्छी बात है तो मैं यहाँ से काशी जाना दो एक-दिन के लिए रोक देती हूँ। उनके आने की खबर है और ताज्जुब नहीं कि आज ही कल में वे यहाँ आ जायँ।आने पर जोर देकर पूछूँगी कि असल बात क्या है। यह तुमने बड़े ताज्जुब की बात कही है और जब तक असल बात का मुझे पता नहीं लगेगा मेरे पेट में पानी नहीं पचेगा।

गौहर : (खड़ी होकर) मैंने जो कुछ कहा है इसमें तुम रत्ती भर का फर्क न पाओगी। अच्छा तो आज आधी रात को मैं तुम्हारी राह देखूँगी।

राम० : हाँ, मैं अवश्य आऊँगी।

इतना कह रामदेई ने चादर से पुनः अपने को अच्छी तरह ढक लिया और तब उसी तरफ लौट गई जिधर से आई थी। गौहर कुछ देर तक उधर देखती रही और तब यह कहती हुई बैठ गई, ‘‘चलो अब इनमें लड़ाई तो हो ही जाएगी! ऐसा होने से मेरा काम जरूर बन जाएगा और मैं गदाधरसिंह के भेदों का पता लगाकर शिवदत्त की निगाहों में ऊँची हो लूँगी।’’

रात आधी से कुछ ऊपर जा चुकी है। लामाघाटी में चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है, कोई कहीं हिलता-डुलता दिखाई नहीं देता क्योंकि यहाँ की गुलाबी सर्दी किसी को चादर के बाहर मुँह निकालने की इजाजत नहीं देती। यद्यपि दिन के समय यह घाटी उजाड़ और जँगली झाड़ियों और खंडहरों के कारण कुछ भयानक-सी मालूम होती है पर इस समय चन्द्रदेव की शीतल किरणों ने यहां की भयंकरता को दूर कर एक प्रकार की रमणीयता पैदा कर दी है जिस पर गौहर आश्चर्य की निगाह डालती हुई सोच रही है कि यही स्थान जो इस समय इतना रमणीक मालूम हो रहा है दिन के समय कैसा मालूम पड़ता था। कदाचित गौहर की निगाह के इस परिवर्तन का कारण यह हो कि दिन के समय वह कैदी थी और इस समय यहाँ से निकल भागने की पूरी उम्मीद में है।

अपने सामने के दृश्य से होती हुई उसकी निगाहें कभी-कभी उस तरफ भी जा पड़ती हैं जिधर भूतनाथ के दूसरे शागिर्दों और रामदेई का डेरा है और कभी-कभी सोए हुए उस आदमी के खुर्राटों की तरफ उसका ध्यान चला जाता है जो उसकी निगहबानी के लिए रात को वहाँ ही इसी तरफ दालान में सोता है पर इस समय नींद के कारण बेहोश होकर यह नहीं देख रहा है कि वह औरत जिसकी हिफाजत के लिए वह मुकर्रर किया गया था भागा चाहती है।

यकायक गौहर की निगाह काली चादर ओढ़े हुए किसी आदमी पर पड़ी जो घने पेड़ों की छाया में अपने को छिपाता हुआ इधर ही आ रहा था। उसे देखते ही गौहर के मुँह पर प्रसन्नता छा गई और वह यह कहती हुई पीछे हटी, ‘‘आ पहुँची! अब मुझे भी तैयार होना चाहिए!’’

गौहर उस कोठरी में गई जिसमें कैद रहती थी और अपने कपड़े पहिन सामान दुरुस्त किया, दो-एक चीजें, जिनकी जरूरत न समझी, वहीं छोड़ीं और तककर एक निगाह गौर की चारों तरफ डाल वह पुनः निकल आई। वह आदमी जिसे काली चादर ओढ़े उसने अपनी तरफ आते देखा था अब एक पेड़ की आड़ में खड़ा था। गौहर उसके पास चली गई और बड़ी प्रसन्नता के साथ बोली, ‘‘कहो सखी, सब ठीक है न!!’’

इसके जवाब में उस व्यक्ति ने जो वास्तव में रामदेई थी जवाब दिया, ‘‘हाँ सखी, सब ठीक है, बस अब निकल ही चलना चाहिए! (कन्धे पर से एक और काली चादर उतार कर) लो इसे तुम ओढ़ लो, मैं इसे तुम्हारे ही लिए लेती आई हूँ।’’

गौहर ने वह चादर ओढ़ ली, दोनों कुछ देर तक चुपचाप खड़ी आहट लेती रहीं, तब धीरे-धीरे घाटी के बाहर की तरफ रवाना हुईं।

लामाघाटी के बाहर आने अथवा जाने के रास्ते का हाल लिखने की इस जगह कोई आवश्यकता नहीं मालूम होती क्योंकि चन्द्रकान्ता सन्तति में इसका हाल खुलासा तौर पर लिखा जा चुका है अस्तु इस विषय में कुछ न कह कर हम केवल इतना ही कहते हैं कि गौहर को साथ लिए हुए रामदेई बेखटके उस पेचीली घाटी के बाहर निकल आई और वहाँ के किसी आदमी को इस बात का पता न लगा।लगभग आधे घण्टे के भीतर ही रामदेई और गौहर उस छोटी पहाड़ी पर दिखाई देने लगीं जो लामाघाटी के भीतर जाने के पहिले दरवाजे की तरह पर थी और अपने चारों तरफ निगाहें दौड़ाने लगीं। दूर-दूर जहाँ तक निगाह जाती थी जंगली मैदान ही नजर आता था और चन्द्रमा की रोशनी किसी आदमी की सूरत नहीं दिखलाती थी।

दोनों औरतें कुछ देर तक चुपचाप इधर-उधर निगाहें दौड़ाती रहीं, इसके बाद दो-चार गुप्त बातें कर रामदेई ने गौहर को विदा किया और जब वह सकुशल उस छोटी पहाड़ी के नीचे उतर गई तो वह पुनः अपने डेरे की तरफ लौटी।

अभी रामदेई बहुत दूर न गई होगी कि यकायक किसी प्रकार की आहट पा उसने पीछे घूमकर देखा और एक आदमी को पहाड़ी पर चढ़ते देख उसका कलेजा उछलने लगा।पहिले तो उसने सोचा कि इधर-उधर कहीं छिप जाऊँ पर जब उसे विश्वास हो गया कि मेरी तरह उस आदमी ने भी मुझे देख लिया है तो लाचारी समझ वह उसी जगह रुक गई मगर कपड़े के भीतर से उसने एक खंजर जरूर निकाल लिया जिसे कमर में घोंसे हुए अपने साथ लाई थी।इस बीच में वह आदमी भी पास आ पहुँचा और यह देख रामदेई की हालत खराब हो गई कि वह और कोई नहीं स्वयं भूतनाथ है!

देखते-देखते भूतनाथ उसके पास आ पहुँचा और अपनी सात परदे के भीतर रहने वाली स्त्री को इस प्रकार आधी रात के समय यहाँ खड़ी देख आश्चर्य करने लगा।

।। नौवाँ भाग समाप्त ।।


तृतीय खण्ड समाप्त

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