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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

पाँचवाँ बयान


सूर्य भगवान अस्त हुआ चाहते हैं और संध्या होने में ज्यादे देर नहीं है। ऐसे समय हम अपने पाठकों को लेकर दारोगा की तरफ चलते हैं जो अपने खास बाग वाले मकान के एक एकान्त कमरे में अभी-अभी पहुँचा है तथा बिहारीसिंह और हरनामसिंह से बातें करने में लगा है जो पहले ही से वहाँ बैठे हुए थे।

दारोगा : कहो बिहारीसिंह, कौन-सा इन्तजाम कर चुके और अब क्या बाकी है?

बिहारी : बाकी तो कुछ भी नहीं, आपकी इच्छानुसार सभी इन्तजाम कर चुका हूँ केवल ताली मिलने की देर है।

दारोगा : (ताली जेब से निकाल कर) यह देखो ताली भी मिल गई।

बिहारी : (खुश होकर और ताली दारोगा से लेकर) क्या महाराजा के पास इस प्रकार की कई तालियाँ हैं?

दारोगा : नहीं-नहीं, कुल दो ही तालियाँ थीं जिनमें से एक तो यही है और दूसरी वह थी जिसको मैंने धोखे में पड़ कर अन्य तालियों के साथ जैपाल रूपी किसी ऐयार को दे दिया।

बिहारी : वह भी बेशक बहुत बड़ा धोखा हो गया, न-मालूम वह कम्बख्त कौन था।

हरनाम : (ताली बिहारी के हाथ से लेकर और गौर से देख कर) यदि इस किस्म की दो ही तालियाँ थी जिनमें से एक जाती रही तब कम-से-कम इस ताली को तो बहुत ही हिफाजत से रखना चाहिए। क्या महाराज ने इसके देने में कुछ हीला-हवाला नहीं किया?

दारोगा : हीला-हवाला तो क्या ही करते मगर मुझसे यह सुन कर कि पहली ताली मेरी जेब से कहीं गिर पड़ी, सोच में जरूर पड़ गये और देर तक सिर झुकाये रहे। उनके चेहरे से मालूम होता था कि उनको ताली खो जाने का बड़ा ही रंज है मगर मेरे ख्याल से वे कुछ कह न सके और न दूसरी ताली से इनकार ही कर सके।

बिहारी : शायद महाराज को यह ख्याल हुआ हो कि कहीं आप इस ताली को भी न गवाँ दें जिससे अजायबघर का खोलना-बन्द करना ही असम्भव हो जाय।

दारोगा : निःसन्देह यही बात है क्योंकि मुझे खूब मालूम है कि यह तिलिस्मी ताली है और इस प्रकार की दूसरी ताली किसी तरह नहीं बन सकती।

बिहारी : ठीक है, अच्छा क्या आपने ताली माँगने का कोई कारण भी उन्हें बतलाया?

दारोगा : केवल यही कहा कि मैं राजविरोधी दो-तीन कैदियों को जिन्हें जन्म कैद का हुक्म हुआ है वहाँ रखूँगा।

बिहारी : ठीक है।

हरनाम : (दारोगा से) हाँ यह तो कहिए आपको कुछ मालूम हुआ कि कुँअर साहब कल रात को कहाँ गये थे? मुझे तो इसमें कुछ भैयाराजा का हाथ दिखाई देता है।

दारोगा : क्या कुँअर साहब रात को कहीं गए थे?

हरनाम : क्या आपको खबर नहीं मिली? आधी रात को वे चोर दरवाजे से बाहर हुए और मुझे जान पड़ता है कि भैयाराजा के साथ कहीं गये, क्योंकि कुंअर साहब ऐसे नहीं कि बिना महाराज की आज्ञा के घर से बाहर कदम निकालें। हाँ भैयाराजा की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकते क्योंकि बनिस्बत महाराजा को ज्यादा मानते हैं और उनको भी कुंअर साहब से बहुत ज्यादा मुहब्बत है।

दारोगा : सम्भव है, भैयाराजा बड़े धूर्त हैं, मुमकिन है कि किसी नये फेर में पड़े हों। मुझको तो बार-बार यही आश्चर्य होता है कि इतना सब कुछ होने पर भी मुझसे किसी तरह का बदला क्यों नहीं ले रहे हैं अथवा यहाँ आकर अपना रंग क्यों नहीं जमा रहे हैं। न-मालूम उन्होंने मेरे लिए कौन-सी सजा सोच ली है जो चुपचाप बैठे हुए हैं। कल ही जब अपना और भैयाराजा का हाल कहते-कहते मैंने पाँच-सवारों के आकर उन पर टूट पड़ने और अपने भाग आने का हाल महाराज को सुनाया तो उनके चेहरे पर कोई खास चिन्ह तरद्दुद और घबड़ाहट का न पाया बल्कि वे उसी तरह क्रोध में भरे हुए भैयाराजा को बुरा-भला कहते रहे।

जहाँ तक मेरा खयाल है यदि उन्हें महाराज का ध्यान न होता तो निःसन्देह मेरे साथ बुरी तरह पेश आते। (बिहारी से) हाँ तुम तो मौजूद ही थे, तुमने भी अवश्य इस बात पर ध्यान दिया होगा!

बिहारी : केवल ध्यान ही नहीं दिया बल्कि मैं तो बराबर कुंअर साहब ही की तरफ देख और इस बात को जानने की कोशिश कर रहा था कि उन पर इस घटना के सुनने का क्या असर पड़ता है? मैंने देखा कि पल-पल में उनके चेहरे की रंगत बदल रही है और वे कभी आश्चर्य तो कभी क्रोध के शिकार हो रहे हैं। मैं कल ही आपसे कहने वाला था मगर आपकी मरहम-पट्टी के...

बिहारीसिंह इतना ही कहने पाया था कि किसी के पैर की आहट मालूम हुई और वह रुक कर दरवाजे की तरफ देखने लगा, उसी समय एक चोबदार कमरे में आया और बिहारीसिंह की तरफ देख कर बोला, ‘‘नामदारसिंह दरवाजे पर खड़े हैं, पूछते हैं कि हम लोगों के लिए क्या आज्ञा होती है।’’

यह सुन बिहारीसिंह ने दारोगा की तरफ देखा और कुछ इशारा पा हरनामसिंह को साथ ले कमरे के बाहर हो गया, मगर चोबदार को वहीं छोड़ता गया। दारोगा ने चोबदार को कुछ समझा-बुझा के बिदा किया और स्वयं वहाँ से उठ एक दूसरे कमरे में पहुँचा। जल्दी-जल्दी कपड़े पहिने और तब हर्बे लगा चोर दरवाजे से बाहर निकल कर पैदल ही एक तरफ को रवाना हो गया।

इस समय रात लगभग डेढ़ पहर जा चुकी थी और अंधकार ने पूरी तरह से अपना दखल जमा लिया था। दारोगा थोड़ी दूर गया होगा कि एक बहुत बड़े बरगद के पेड़ के नीचे कुछ आदमियों की आहट सुनाई पड़ी, नजदीक पहुँच कर खड़ा हो गया और एक आदमी को अपनी तरफ आता हुआ देख धीरे से बोला, ‘‘कौन, बिहारीसिंह?’’ जवाब में ‘हाँ’ सुन वह बोला, ‘‘तुम लोगों के साथ रोशनी का भी कुछ इन्तजाम है?

बिहारी : जी हाँ, हर एक के पास एक-एक मशाल है, मगर यदि ईश्वर ने चाहा तो मशाल की जरूरत ही न पड़ेगी।

दारोगा : हाँ ठीक है, आशा तो ऐसी ही है, परन्तु हम लोगों को अपने इन्तजाम से बेफिक्र रहना चाहिए।

बिहारी० : जी हाँ, यह तो ठीक है।

दारोगा : अच्छा यह बताओ कुल कितने आदमी तुम्हारे साथ हैं, मैं समझता हूँ कि पचास से कम न होंगे।

बिहारी० : जी हाँ, ऐसा ही है, हम लोगों को मिला कर कुल तिरपन हैं!

दारोगा : बहुत काफी हैं, अच्छा आओ चलें, सिपाहियों से कह दो कि बहुत सम्हाल कर पैर रक्खें जिसमें आवाज न हो।

इतना कह कर दारोगा अजायबघर की तरफ रवाना हुआ और उसके साथी और सिपाही पीछे-पीछे जाने लगे।

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