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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

छठवाँ बयान


भूतनाथ के छठवें भाग के पन्द्रहवें बयान में हम लिख आए हैं कि भीम, दारोगा और भूतनाथ को साथ ले दत्त उधर रवाना हुआ जहाँ जमुना और सरस्वती को छोड़ गया था मगर ठिकाने पहुँचकर जब जमुना और सरस्वती को नहीं पाया तब उसको बड़ा ही आश्चर्य हुआ और खंजर की अद्भुत रोशनी में घूम कर जमुना और सरस्वती को ढूँढ़ने लगा, उसी समय बहुत-से आदमी हाथ में नंगी तलवारें लिए वहाँ आ पहुँचे और उस जगह को घेर लिया जहाँ दत्त, भीम, दारोगा, भूतनाथ और उसके साथी लोग थे तथा एक जगह मौका देख कर जमुना और सरस्वती भी छिपी हुई थीं।

ये घेर लेने वाले बहुत-से आदमी दारोगा साहब के वे ही सिपाही थे जिनका हाल ऊपर के बयान में लिखा जा चुका है और जिन्हें साथ ले अपने कैदियों को निकाल ले जाने की नीयत से दारोगा साहब अजायबघर की तरफ रवाना हुए थे।

दत्त और भीम की लड़ाई खतम होने के कुछ देर पहले ही दारोगा उस जगह पहुँच चुका था और अपने साथियों को कुछ समझा-बुझा कर झाड़ियों में थोड़ी-थोड़ी दूर पर छिपने की आज्ञा दे आप बिहारी और हरनामसिंह को साथ ले एक मोटे पेड़ की आड़ में खड़ा होकर सब हाल देख रहा था।सबसे पहले जिस पर उसकी निगाह पड़ी भूतनाथ रूपी नन्दराम थे जिनको देखते ही दारोगा काँप उठा और बड़ी कठिनता से अपने को सम्हाल कर बिहारीसिंह से बोला, ‘‘अफसोस भूतनाथ ने सख्त धोखा दिया! यह सब कार्रवाई उसी की है और जरूर वे जमीन पर पड़े बेहोश आदमी वे ही कैदी होंगे। जिनको मैंने अजायबघर में रक्खा था अथवा जिन्हें लेने के लिए हम लोग इस समय यहाँ आए हैं। तुम भी देखो, मैं पहिचानने में धोखा तो नहीं खाता?’’

बिहारी० : (गौर से देख कर) नहीं कदापि नहीं, निःसन्देह भूतनाथ ही है, देखिए किस तरह सिर हिला-हिला कर बातें कर रहा है।

दारोगा : इसने बहुत बुरा धोखा दिया।

बिहारी : पहले दर्जे का धूर्त और कमीना है, इसकी बातों पर तो वही विश्वास करे जो निरा पागल हो। मैंने तो आपसे पहले ही कह दिया था कि यह जरूर धोखा देगा, वैसा ही हुआ भी। अफसोस तो यह है कि आप ऐसे होशियार होकर भी इसकी बातों में इतनी जल्दी आ जाते हैं।

दारोगा : निःसन्देह मुझसे बड़ी भूल हुई और मैंने व्यर्थ ही अपने बहुत-से भेद इस पर प्रकट कर दिये।

बिहारी : खैर अब पछताने से कुछ होगा नहीं बल्कि व्यर्थ समय नष्ट होगा। इस समय ऐसा उपाय करना चाहिये जिसमें ये सबके सब यहीं गिरफ्तार हो जायँ और वे कैदी पुनः अपने कब्जे में आ जायँ!

दारोगा : अवश्य ऐसा ही होना चाहिए नहीं तो बड़ा अनर्थ होगा।

हरनाम : मगर यह तो बताइए कि आप लोग केवल भूतनाथ ही को देख कर रह गये या कुछ और भी देखा? जरा फिर तो देखिए, उसके पीछे कौन खड़ा है और वे दोनों लड़ने वाले कौन हैं?

बिहारी : (गौर से देख कर) हैं, वह पीछे खड़े रहने वाले तो दारोगा साहब मालूम होते हैं?

दारोगा : (घबरा कर) हाँ, ठीक तो कहते हो! वह तो मेरी ही सूरत का कोई ऐयार मालूम होता है, तो कहीं उसने मेरी सूरत बन भूतनाथ को धोखा तो नहीं दिया और वह उस ऐयार को असली दारोगा तो नहीं समझ बैठा है? यह भी सम्भव है कि इसी ऐयार ने धोखा देकर मुझसे अजायबघर की ताली भी ले ली हो और भूतनाथ पर शक करना हमारी गलती हो।

बिहारी० : सम्भव है, मगर मुझे ऐसा विश्वास नहीं होता, भूतनाथ इतनी जल्दी धोखे में आने वाला नहीं है। इसमें तो कोई शक ही नहीं कि वह आपकी सूरत बना हुआ आदमी कोई ऐयार हो मगर साथ ही यह भी जरूरी है कि वह ऐयार भूतनाथ का कोई साथी अथवा दोस्त है। देखिए उन दोनों में कैसी हाव-भाव की बातें हो रही हैं। जहाँ तक मेरा ख्याल है इस समय कोई भी ऐसा ऐयार इस जमीन पर नहीं है जो भूतनाथ के साथ भेष बदलकर रहे और ज्यादा देर तक अपने को छिपा सके। वह जिस तरह जमीन सूँघता हुआ कैदियों का पता लगाता है उसी तरह नकल और असल को भी दो बातों में जान लेना उसके बायें हाथ का खेल है क्योंकि वह हर वक्त अपने साथियों पर चाहे वह कोई भी हो जाँच की नजर डालता रहता है, यों तो आदमी ही है, सम्भव है, धोखा खा गया हो।

दारोगा : लेकिन यदि तुम्हारा ही कहना सच हो और वह असली भूतनाथ ही हो तो उसको इतने सहायक कहाँ से मिल गए! मैंने तुम्हारी ही जुबानी सुना था कि उसके वे सभी शागिर्द जो तिलिस्मी खोह में उसके साथ रहते थे उसके दुश्मन बन गए हैं।

बिहारी : आपका कहना ठीक है और मैंने जो कुछ कहा था वह भी गलत नहीं था, लेकिन भूतनाथ के जगह-जगह पर कितने अड्डे हैं जहाँ दस-दस पाँच-पाँच आदमी हमेशा रहा करते और समय पर उसकी मदद किया करते हैं। अगर एक जगह के दस-बीस आदमी बिगड़ ही गए तो क्या, अभी उसके पास जरूर पचासों शागिर्द होंगे।

दारोगा : जो कुछ भी हो मगर इसमें शक नहीं कि मैंने बहुत बड़ा धोखा खाया। (चौंक कर) देखो-देखो, अब लडाई बन्द हो गई है और वे दोनों एक-दूसरे का मुँह देख रहे हैं। मालूम होता है कि लड़ते-लड़ते थक गए हैं। (रुक कर) यह लो, अब तो दोनों गले-गले मिल मित्र भाव प्रकट कर रहे हैं! आखिर यह मामला क्या है!

बिहारी : मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि दोनों ही लड़नेवाले दोस्त हैं और एक-दूसरे को न पहिचानने के कारण लड़ रहे थे मगर अब कोई परिचय पा एक-दूसरे को पहचान गए हैं।

दारोगा : हो सकता है, शायद तुम्हारा ही कहना ठीक हो। (चौंक कर) मगर वह तो देखो कौन दो आदमी हैं जो धीरे-धीरे इसी तरफ चले आ रहे हैं!

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