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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

चौथा बयान


अपनी सूरत बदले जब नन्दराम उस झाड़ी के पास पहुँचे जहाँ भैयाराजा, मेघराज, प्रभाकरसिंह उनके दोनों साथी तथा भूतनाथ के तीनों शागिर्द इत्यादि थे उस समय रात के दस बज चुके थे और सभी भूतनाथ के इन्तजार में घबरा रहे थे। पैरों की आहट पाते ही भैयाराजा ने मेघराज से कहा, देखो किसी के पैर की आहट मालूम होती है, शायद भूतनाथ आ रहा है।

मेघराज : (खड़े हो और किसी को अपनी ओर आते देखकर) कौन है, भूतनाथ?

नकली भूतनाथ : जी हाँ, मैं ही हूँ।

मेघराज : आओ, आओ, हम लोग देर हो जाने के कारण घबरा रहे थे। कहो क्या खबर लाए? कोई नई बात तो नहीं है?

नकली भूत० : (पास आकर) कुछ भी नहीं।

भैयाराजा : उस बेईमान दारोगा से भी मिले थे?

नकली भूत० : जी नहीं, इरादा तो जरूर हुआ मगर देर हो जाने के कारण उधर न गया, दूसरे मुझे यह भी विश्वास था कि वह अपनी खुशी से बहुरानी को कदापि मेरे हवाले नहीं करेगा बल्कि कोई-न-कोई बहाना निकाल कर टाल देगा। इसके अतिरिक्त यदि उसके पास जाता तो यहाँ आने के लिए मुझे जल्दी करनी पड़ती और ऐसी अवस्था में सम्भव था कि उसे मेरी तरफ से कुछ खुटका हो जाता या वह किसी को टोह लेने के लिए ही मेरे पीछे रवाना कर देता। हाँ, बाजार में दो आदमी जो शायद दारोगा के ही नौकर थे एक तरफ एकान्त में खड़े कुछ बातें करते मिले, उनकी बातचीत मैंने जरूर सुनी। जान पड़ा कि दारोगा ने नागर के मकान से लौट आकर राजा साहब के सामने फिर वही स्वांग रचा है अर्थात् अपने गायब होने की वजह आपको बतलाया और कहा है कि भैयाराजा ने ही मुझे गिरफ्तार कर लिया था और जमानिया का राज्य लेने के लिए मुझे डरा-धमकाकर अपना पक्षपाती बनाना चाहते थे तथा मेरे इनकार करने पर मुझे मार डालना चाहा बल्कि जख्मी किया मगर मैं अपनी चालाकी से किसी तरह बचकर भाग आया।

भैया० : (क्रोध में आकर) हाँ, वह कम्बख्त मुझे यों बदनाम करता है! खैर कुछ परवाह नहीं, अच्छा, भाईसाहब ने इस पर क्या कहा? उनको तो जरूरी उसकी बातों पर विश्वास हो गया होगा बल्कि उन्होंने मुझको बुरा-भला भी कहा होगा?

नकली भूत० : यह तो नहीं मालूम हुआ क्योंकि उन दोनों में केवल इतनी ही बात होने पाई थी कि किसी को आते देख वे दोनों अलग-अलग हो गए और देर हो जाने के कारण मैं भी उनका पीछा करना उचित न जान इधर बढ़ आया परन्तु यह तो निश्चय ही है कि राजा साहब ने उसी का पक्ष लिया होगा क्योंकि उसने पूरी तौर से उनको अपनी मुट्ठी में कर लिया है और जिधर चाहता है कान पकड़ कर घुमाता-फिरता है।

भैया० : निःसन्देह यही बात है। उस दफे भी ऐसा ही हुआ था, मेरी सच्ची बातों को महाराज ने बिल्कुल गप्प और बनावटी समझा और उसकी सरासर झूठ बातें ब्रह्म-वाक्य मान ली थीं। अफसोस!

नकली भूत० : खैर इस समय इन विचारों को छोड़ हम लोगों को पहले उस काम में लगना चाहिए जिसके लिए यहाँ तक आए हैं।

भैया० : अच्छी बात है, चलो मैं तैयार हूँ।

नकली भूत० : (प्रभाकरसिंह से) यदि आप लोगों में से कोई आदमी दारोगा की सूरत में हो जाय तो अच्छा हो, ऐसा करने से हमारा काम सहज में हो जायगा।

प्रभाकर० : हाँ, यह बात तो तुम ठीक कहते हो, अच्छा मैं ही दारोगा बनूँगा।

भैया० : (दिल्लगी के ढंग से) पहले नाक तो कटवा लो!

प्रभाकर० : (मुस्कराकर) नहीं, इसकी जरूरत नहीं पड़ेगी देखिए कुछ ही देर में आप भी न कह सकेंगे कि मैं दारोगा नहीं हूँ।

भैया० : अच्छा अब काम शुरू करो, ज्यादा विलम्ब करना उचित नहीं।

सूरत बदलने तथा हर तरह की बातें तै करने बाद ये लोग उठे और चारों तरफ आहट लेते धीरे-धीरे अजायबघर की तरफ रवाना हुए।

ये लोग अब जो कुछ करेंगे सो तो पीछे मालूम होगा पर इसी वक्त हम दारोगा का थोड़ा-सा हाल उस समय का लिखना उचित समझते हैं जब भैयाराजा की झूठी शिकायतें करने बाद राजा साहब से बिदा हो अपने स्थान पर चला गया था।

राजा साहब से बिदा होकर दारोगा सीधा अपने रहने की जगह पर पहुँचा। उसके आने की खबर उसके आदमियों को पहले ही हो चुकी थी और इसलिए सभी अपने-अपने काम पर मुस्तैद उसके आने का इन्तजार कर रहे थे। जब वह मकान पर पहुँचा और नौकरों ने उसको इस दशा में देखा तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ और वे हाल जानने के लिए व्याकुल होने लगे, मगर किसी की हिम्मत न पड़ी जो उससे कुछ बात करता या उसकी दुर्दशा का कारण पूछता। उधर वह भी किसी से कुछ बातचीत न कर सीधा अपने कमरे में पहुँचा और चुपचाप गद्दी पर जा बैठा।

साधू की धोखेबाजी और अपने कब्जे से तालियों के निकल जाने तथा तरह-तरह की मुसीबतों का सामना होने का ध्यान इस समय दारोगा के दिमाग में चक्कर खा रहा था। उसको और कोई बात नहीं सुहाती थी यहाँ तक कि खाने-पीने तथा अन्य जरूरी कामों की भी सुध न थी, साथ ही रह-रह कर उसे जैपाल का ख्याल आता था और वह सोचता था कि यदि जैपाल पर सख्ती होगी, तो वह जरूर मेरा भेद खोल देगा क्योंकि वह बहुत ही डरपोक है, और बातों के सिवाय मुझे कैदियों से भी बेफिक्र न रहना चाहिए बल्कि उनको अजायबघर से निकाल कर कहीं दूसरी जगह छिपा देना अथवा जान से मार कर सदैव के लिए झगड़ा मिटा डालना चाहिये।

इस तरह की बहुत-सी बातें सोचता हुआ दारोगा देर तक चुपचाप बैठा रहा। तरह-तरह के सोच-विचार ने उसका कलेजा हिला दिया, क्षण मात्र के लिए भी निद्रादेवी ने उसे दर्शन नहीं दिया और उसकी वह रात बड़ी बेचैनी से कटी। सुबह हो जाने के बाद भी बहुत देर तक अपने पलंग पर बैठा रह गया जबकि उसके आदमियों ने उसे किसी के आने की खबर दी और लाचार उसे बाहर आना पड़ा।महाराज का भेजा हुआ चोबदार दालान में खड़ा था जिसने बड़े अदब के साथ सलाम कर महाराज की तरफ से उसका कुशल-मंगल पूछा और तब जवाब ले कर वापस हुआ।

चोबदार के चले जाने के बाद दारोगा ने एक नौकर को हरनामसिंह और बिहारीसिंह को बुलाने के लिए भेजा और उनके आने की राह देखने लगा, इसी बीच अपने मन में यह भी निश्चय कर लिया कि आज महाराज से अजायबघर की दूसरी ताली लेकर रात को कुछ आदमियों के साथ वहाँ जायेगा और कैदियों को वहाँ से निकाल कर अपने मकान में ही ले आयेगा। हरनामसिंह और बिहारीसिंह के आने पर दारोगा ने कुछ घटा-बढ़ा कर पिछला सब हाल उन्हें सुनाया और तब कहा, नागर के मकान पर नकली साधू के धोखे में पड़ कर मेरी जो कुछ दुर्गति हुई सो तो हुई ही, साथ में अजायबघर की ताली के निकल जाने से मुझे कैदियों की तरफ से बड़ा खुटका पैदा हो गया है, अस्तु मैं राजा साहब के पास जाता हूँ उनसे दूसरी ताली लेता हूँ। आज रात के समय जैसे भी हो कैदियों को वहाँ से हटा लेना चाहिए। तुम लोग इस काम के लिए सब जरूरी इन्तजाम भी कर डालो।

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