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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

तीसरा बयान


नागर के मकान से निकल कर अर्थात् दारोगा से बिदा हो कर जब भूतनाथ पुनः रामेश्वरचन्द्र की दुकान की तरफ चला गया तो दारोगा के दिल में तरह-तरह के खयाल पैदा होने और मिटने लगे। घबराहट में भरा वह नागर से अलग एक दूसरे कमरे में जाकर बैठ रहा और झुकी हुई गर्दन को हाथ का सहारा देकर तरह-तरह की बातें सोचने लगा, साथ ही अपनी अवस्था पर ध्यान देकर वह एक बार काँप उठा उसका सर घूमने लगा और वह पागलों की तरह इधर-उधर देखता हुआ आप ही आप यों बुदबुदाने लगा अफसोस, मैं बेढब फंस गया। एक तो सभी प्रकार से स्वतन्त्र होने पर भी यहाँ दिन के समय बाहर जाने से रहा दूसरे वह बेईमान साधू और भी उल्लू बना गया। न मालूम वह जैपाल बना हुआ आदमी कौन था और उन तालियों की मदद से जिनमें अजायबघर की भी कुँजी है क्या कार्रवाई करेगा और मेरे कितने गुप्त भेदों को जान कर मेरी बनी-बनाई बात मटियामेट कर देगा। मुझे सबसे ज्यादा चिन्ता भैयाराजा की स्त्री और प्रभाकरसिंह के माता-पिता की है जिनका छुटकारा केवल मेरी बदनामी ही का कारण नहीं बल्कि मेरी जान का भी घातक होगा। हाय मैं किसी तरफ का न रहा। भला महाराज क्या कहते होंगे और मेरे लिए कितने दुखी हो रहे होंगे? भूतनाथ पर भरोसा मुझे करना चाहिये या नहीं? क्या वह मुझे धोखा देगा और दुश्मन से मिल कर कोई नया गुल खिलावेगा? (कुछ रुक कर) नहीं-नहीं, वह ऐसा न करेगा, क्योंकि वह बड़ा लालची है और मैंने उसे बहुत कुछ देने का वादा किया है।

इसी तरह की बातें सोचते और चिन्ता करते संध्या हो गई और सूर्य भगवान इस दुनिया को छोड़ किसी दूसरी दुनिया को अपनी चमक-दमक से शोभायमान करने के लिए चले गए। ऐसे समय में किसी के पैर की आहट पा दारोगा चौंक पड़ा और जब उसने सिर उठा कर देखा तो नागर पर नजर पड़ी जो उसे चैतन्य करने के लिए आ रही थी।

दारोगा के दिल की इस समय क्या अवस्था थी इसका कहना बड़ा ही कठिन है। यद्यपि अब संध्या हो जाने के कारण इस समय बाहर निकल जाना उसके लिए कोई कठिन बात न थी दिल की परेशानी और घबड़ाहट ने मानों उसकी सभी ताकत छीन ली थी और उसके लिए पैर उठाना तक मुश्किल हो रहा था, तथापि उसने किसी तरह अपने को सम्हाला और नागर से बिना कुछ कहे-सुने या बातचीत तक किए उसके मकान के पिछवाड़े की तरफ वाले चोर दरवाजे की राह बाहर निकल गया।

भूतनाथ को तो दारोगा ने अपनी समझ में ठीक कर लिया बल्कि यों कहना चाहिए कि अपना दोस्त बना लिया था मगर उससे बिदा होकर भूतनाथ ने क्या किया और अब क्या करेगा इसकी भला दारोगा को क्या खबर है? वह तो इस समय केवल इस सोच में निमग्न है कि राजा साहब के पूछने पर अपनी अनुपरिस्थिति का कारण क्या कहेगा और अजायबघर में रक्खे हुए कैदियों का, जिनका निकल जाना उसके लिए बड़ा दुःखदायी होगा, क्या प्रबन्ध करेगा?

इन्हीं बातों पर विचार करता हुआ दारोगा चुपचाप सिर झुकाये चला जा रहा था कि यकायक कोई उचित उपाय सूझ जाने पर वह उछल पड़ा और थोड़ी देर के लिए पिछली बातों को बिल्कुल भूल गया। एक गली में जिधर रोशनी न थी जाकर उसने कमर से खंजर निकाल कई जख्म अपने बदन पर बनाए और निकले हुए लहू से अपने कपड़ों को तर करने के बाद तेजी के साथ खास बाग की तरफ रवाना हुआ।

कुछ देर बाद जब वह खास बाग में पहुँचा तो सीधा महाराज के पास गया। महाराज उस समय अपने मुसाहिबों से उसी के विषय में कुछ बातचीत कर रहे थे कि दारोगा उनके सामने जा पहुँचा और पैरों पर गिर बार-बार रोने लगा। राजा साहब उसकी यह दशा देख कर आश्चर्य से बोले, ‘‘तुम आज दिन भर कहाँ थे और यह तुम्हारी क्या अवस्था हो रही है?’’

दारोगा : (रूमाल से आँसू पोंछ कर) मेरी दुर्दशा के कारण आपके प्यारे भाई भैयाराजा ही हैं जिन्होंने एक बार पहिले जूतों का हार गले में डाल कर और कान काट कर मेरी दुर्गति की थी और आज फिर मेरी यह गति बनाई है। न-मालूम उन्हें मुझे दुःख देने से क्या मिलता है!

क्या उनके तकलीफ देने से मैं अपने धर्म से डिग जाऊँगा? नहीं कदापि नहीं, यदि वह जमानिया का राज्य लिया चाहते हैं तो क्यों नहीं आपके सम्मुख आकर फैसला कर लेते? चाहे मेरी जान ही क्यों न जाती रहे परन्तु मुझसे यह कब हो सकता है कि जिसके नमक से अपना रोम-रोम भरा हुआ है उसके गले पर अपने हाथ में छुरी फेरूँ। (राजेश्वर) अफसोस, मेरी यह सब दुर्दशा आप ही की बदौलत है, न मैं आपका पक्षपाती होता और न मेरी यों दुर्गति होती। इस जिन्दगी से मौत ही अच्छी है! मगर भैयाराजा ऐसा करते क्यों हैं? यदि मैं उनके रास्ते का काँटा हूँ और उनके काम में बाधक हूँ तो क्यों नहीं पहिले मुझी को मार कर तब आप पर हाथ साफ करते! हाय, मैं क्या करूँ, अपनी आदत से मजबूर हूँ, नहीं तो भैयाराजा का साथ देने में मुझे इस समय से ज्यादा आराम और इज्जत मिलना सम्भव है। अफसोस, कोई ऐसा भी नहीं है जो उनको यह समझा देता कि बिना दारोगा को जान से मारे तुम्हारा काम सिद्ध न होगा और उसके जीते-जी तुम्हें जमानिया का राज्य न मिल सकेगा, जिसमें वे मुझे मार डालें और मैं इस जंजाल से छूट कर अपने शुभ कर्मों का फल स्वर्ग में चल कर भोगता हुआ...

राजा : (दारोगा की बेतुकी बातें सुन बात काटते हुए) खैर साफ-साफ कुछ कहो तो सही कि क्या मामला है? भैयाराजा तुम्हें कहाँ मिले और तुम्हारी यह दशा उन्होंने क्यों बनाई? यदि उन्हें राज्य की ही अभिलाषा है तो मेरे सामने क्यों नहीं आते? मैंने तो पहिले ही कह दिया था कि राजपाट ले लो और मुझे छोड़ दो, मैं दारोगा को अपने साथ ले किसी जंगल में जाकर भगवत् भजन करूँगा मगर-न-मालूम किस कारण उन्होंने उस समय स्वीकार न किया और अब इस प्रकार तुम्हें दुःख देकर मेरे दिल को कुढ़ाते हैं।

दारोगा : मैं कल शाम को उस नयी ऐयारी की दुकान पर, जिसका कई बार आपसे जिक्र कर चुका हूँ, बैठा हुआ था और जैपालसिंह भी मेरे साथ थे। रामेश्वरचन्द्र से बातें करते-करते बहुत देर हो गई। जब मैं वहाँ से उठा तो ग्यारह बज गए थे। आगे-आगे मैं जा रहा था जैपाल मेरे पीछे, जब मैं सुन्दरसिंह के दूकान वाले मोड़ पर पहुँचा जहाँ से नदी की तरफ गली घूमी है तो जैपाल के धक्के से मैं गिरने को हो गया। पीछे मुड़कर देखा तो जैपाल सड़क से उठ कर अपने बदन की धूल झाड़ रहा था। मैंने उससे पूछा, ‘‘तुम कैसे गिर पड़े? तुम्हारे ही धक्के से मैं गिरने को हो गया।कुछ नशा तो नहीं किया है!’’ उसने कहा, ‘‘क्या आप हँसी करते हैं! क्या मैं ऐसा पियक्कड़ हूँ जो रास्ते में गेंद की तरह लुढ़कता फिरूँ! मैं बेफिक्री से चला आ रहा था कि किसी ने धक्का दिया जिससे मैं जमीन पर गिर पड़ा। वह देखिये मोड़ पर वह खड़ा है, शायद उसी की यह कार्रवाई है।’’ इतना सुन मैंने गली की तरफ देखा। एक आदमी सर से पैर तक अपने को स्याह लबादे में छिपाये खड़ा था जिसके मुँह पर नकाब पड़ी हुई थी। मैंने उसे ललकारा और तलवार निकाल उसकी तरफ लपका मगर मुझे बढ़ता देख कर वह फुर्ती से नदी की तरफ भागा। हम दोनों ने भी उसका पीछा किया मगर अभी दस ही बीस कदम आगे बढ़े थे कि किसी ने कमन्द के झटके से मुझे जमीन पर गिरा दिया और मेरे गिरते ही जबर्दस्ती कुछ सुँघाकर बेहोश कर दिया। मैं नहीं जानता कि मेरे बेहोश होने पर जैपाल पर क्या गुजरी या उसके साथ क्या हुआ पर सूर्य उदय होने के समय जब मुझे होश आया तो मैंने अपने को एक अँधेरी कोठरी में पाया जिसके दरवाजे के छेदों की राह रोशनी छन-छन कर अन्दर आ रही थी और सुबह होने की खबर दे रही थी। उन छेदों से झाँककर जब मैंने बाहर की तरफ देखा तो मैदान और जंगल के सिवाय और कुछ न दिखाई पड़ा। जब बहुत ध्यान दिया तो मालूम हुआ कि यह जमीन रूरा के जंगल के पास है। दो पहर तक मैं उसी कोठरी में पड़ा रहा। कोई आदमी वहाँ नजर न आया और न किसी के आने की आहट मिली, दोपहर ढलने बाद किसी ने दरवाजे का कुण्डा खोला। मैंने देखा तो राजाभैया पर नजर पड़ी। मैंने पूछा, ‘‘कहिए मुझे यहाँ किसलिए लाए हैं और जैपाल कहाँ है?’’ वे कहने लगे,इसके पहिले कि मैं तुम्हारी बातों का जवाब दूँ तुम्हारे खून की धारा बहाऊँगा, नहीं तो तुम यह प्रतिज्ञा करो कि राजा साहब और कुँअरजी को मारकर मुझे जमानिया का राजा बनाओगे इसके अतिरिक्त तुम्हें यह भी बताना पड़ेगा कि बहुरानी कहाँ हैं और तुमने उसे कहाँ रक्खा है?’’ इसके जवाब में मैंने कहा, ‘‘राजा साहब की नेकियों से मैं इस कदर दबा हुआ हूँ कि मुझसे यह काम कदापि नहीं हो सकता और न मुझे बहूरानी की ही कोई खबर है। आप मुझे नाहक ही बदनाम करते हैं और मुझ बेकसूर को बार-बार दुःख देकर अपने सर पर पाप बढ़ाते हैं।भैयाराजा ने मेरे मारने में कुछ न उठा रक्खा मगर मैं बराबर उनके वारों को ही बचाता रहा और एक दफे भी अपनी तरफ से वार न किया नहीं तो भैयाराजा की क्या ताकत थी जो अकेले मेरे सामने ठहरते। मैं एक ही हाथ में उनका काम तमाम कर दिए होता। खैर यों ही पैंतरा बदलते और उनके वार बचाते करीब आधे घण्टे के गुजर गया और मुझे कई जख्म भी लगे जिससे मेरी हालत खराब होने लगी। यदि ज्यादा देर तक लड़ाई होती तो मैं जरूर मारा जाता मगर उसी समय अकस्मात् कई सवार पश्चिम की तरफ से आ गए और ललकार कर भैयाराजा पर टूट पड़े। मैं इस मौके को गनीमत जान बचा भाग निकला और आपके सामने आने के पहिले एक मिनट के लिए भी कहीं न रुका।

इस बिल्कुल झूठ मगर चालाकी से भरी हुई बात ने राजा साहब के दिल पर बड़ा असर डाला। यह बातें सुन और भैयाराजा की बदनीयती पर ध्यान दे वे क्रोध से काँपने लगे, मगर कर ही क्या सकते थे, आखिर दारोगा को समझा-बुझा और दिलासा दे विदा किया और स्वयं महल में चले गए।

अपने चाचा भैयाराजा के बारे में यह खबर सुन कर कि कई सवार उन पर टूट पड़े कुँवर गोपालसिंह को बड़ा दुःख हुआ। उन्हें इस बात के जानने की अभिलाषा हुई कि उन सवारों और भैयाराजा में कैसी निपटी, मगर दारोगा के चले जाने के कारण यह बात जान न सके, फिर भी अपने चिन्ता के भाव को उन्होंने बहुत छिपाया। उन्हें यह भी सन्देह हुआ कि शायद ये बातें दारोगा बिल्कुल झूठ ही कह रहा हो, मगर जो कुछ हो, इन्द्रदेव की बातें उन्हें भूली न थीं और साथ ही अपने पिता की मर्जी के विरुद्ध दारोगा को बुरा-भला कहना भी उचित न समझते थे इसलिए चुपचाप मन मारे बैठे रह गए।

जब दारोगा अपनी बीती बयान कर चुका और राजा साहब उसको बिदा कर महल में चले गए तो कुँअर साहब अपने कमरे में आए और पलंग पर लेट कर करवटें बदलने तथा तरह-तरह के विचारों में गोते खाने लगे, यहाँ तक कि रात आधी से ज्यादा बीत गई मगर उन्हें नींद न आई। जब किसी तरह उलझन कम न हुई तो वे घबरा कर पलंग से उठ बैठे और कपड़े पहिनने तथा बदन पर हर्बे लगाने के बाद दबे पाँव कमरे से बाहर हो बाग में आए जहाँ से चोर दरवाजा खोल के बाहर निकले और पैदल ही एक तरफ को रवाना हो गए।

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