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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

सोलहवाँ बयान


प्रभाकरसिंह, इन्दुमति, दिवाकरसिंह और नन्दरानी के साथ ही साथ दयाराम और जमना-सरस्वती के रहने के लिए जो स्थान इन्द्रदेव ने मुकर्रर किया था वह बहुत ही गुप्त था बल्कि यों कहना चाहिए कि वह भी तिलिस्म का एक भाग ही था।

एक लम्बा-चौड़ा मैदान जिसे चारों तरफ से ऊँची-ऊँची पहाड़ियों ने घेरा हुआ है तरह-तरह के गुलबूटों तथा जंगली फूलों और लताओं से बड़ा ही सुहावना हो रहा है।

पूरब तरफ की पहाड़ी पर से एक नाला तेजी से गिर रहा है जिसका पानी कई नालियों में घूमता हुआ नीचे के मैदान में फैलता और उसे सरसब्ज बनाता हुआ एक तरफ जाकर बड़े गहरे और अंधकारमय गड्हे में गिर कर गायब हो जाता है। जिस जगह से नाला नीचे गिरता है उसके ठीक ऊपर पहाड़ी पर एक तरफ पुल-सा बाँध कर उस पर दो-मंजिला बंगला बना हुआ है जिस पर से उस मैदान का पूरा दृश्य बड़ी ही मनोहरता से दिखाई देता है।

इस बंगले के सामने तथा नाले के ठीक ऊपर पड़ने वाले बरामदे में इस समय हम मेघराज, प्रभाकरसिंह और इन्द्रदेव को बैठे हुए देख रहे हैं। प्रभाकरसिंह के वयस्क पिता कमरे के अन्दर आराम कर रहे हैं क्योंकि दोपहर के भोजन के बाद प्रायः कुछ देर तक सोने की उनकी आदत है।

आज कई दिनों के बाद इन्द्रदेव को इतना समय मिला है कि वे इस स्थान में आवें और मेघराज इत्यादि से मिलें अस्तु इस बीच की बीती बातों को वे मेघराज और प्रभाकरसिंह को सुना रहे हैं और वे दोनों बड़े ही ध्यान के साथ सुन रहे हैं।

इन्द्र० : कई दिन हुए बलभद्रसिंह महाराज गिरधरसिंह से मिलने आये थे और लौटते समय मेरे पास होते हुए गए थे, उनके साथ दलीपशाह भी थे। महाराज ने बलभद्रसिंह से कहा है कि गोपालसिंह की शादी लक्ष्मीदेवी के साथ इसी साल हो जानी चाहिए और अब कुछ ही दिनों में इसका इन्तजाम शुरू भी हो जाएगा, मगर इस समय एक बात बड़ी ही दुःखदायी हो गई है।

प्रभा० : सो क्या?

इन्द्र० : इधर कई दिनों से भैयाराजा और बहुरानी का कुछ भी पता नहीं है।

मेघ० : अभी दो या तीन दिन से ज्यादा न हुए होंगे कि वे यहाँ आ कर चाची जी (बहुरानी) को ले गये और कह गये थे कि हम अजायबघर की तरफ जाते हैं, उस दिन से फिर हम लोगों ने उन्हें नहीं देखा।

इन्द्र० : हाँ, बात यह है कि हम लोगों के समझाने-बुझाने से तथा यह भी देख कर कि वे दारोगा का कुछ बिगाड़ नहीं सकते बल्कि ऐसी चेष्टा करने से स्वयं उन्हीं का अनिष्ट हो जाने की आशंका है उन्होंने यह निश्चय कर लिया था कि वे अब किसी गुप्त स्थान में गुप्त रीति से रहेंगे। वे कुँअर गोपालसिंह से मिले और उनसे यह इरादा जाहिर किया कि वे अजायबघर को अपना निवास-स्थान बनाना चाहते हैं, पर गोपालसिंह की जुबानी उन्हें मालूम हुआ कि राजा साहब ने वह स्थान दारोगा को रहने के लिए देने का इरादा किया है। उसकी दो तालियों में से एक ताली तो पहिले ही दारोगा के पास थी (जो अब गदाधरसिंह से तुम लोगों ने पा ली है) और दूसरी ताली भी दारोगा ने राजा साहब से माँग ली है, अस्तु इन सब बातों को बताकर कुँवर गोपालसिंह ने भैयाराजा से कहा कि वे एक दिन बाद इस बात का निश्चय कर उन्हें बता सकते हैं कि महाराज का ठीक-ठीक क्या इरादा है और वे वास्तव में अजयाबघर दारोगा को दिया चाहतें हैं या नहीं। भैयाराजा ने अजायबघर में ही दूसरे दिन उनसे मुलाकात करने का निश्चय किया और वादे के मुताबिक वे अपनी स्त्री के साथ अजायबघर जाने के इरादे से मुझसे बिदा भी हुए।

इधर गोपालसिंह जब भैयाराजा से बिदा हो घर लौटे तो रास्ते में कुछ बदमाशों ने उन्हें घेर के लड़ना शुरू कर दिया। उस समय दारोगासाहब ने वहाँ पहुँच कर उनकी मदद की और दुष्टों को भाग जाना पड़ा पर गोपालसिंह और दारोगा दोनों ही को कुछ जख्म अवश्य लगे।

जब महाराज को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने दारोगा पर प्रसन्न हो इनाम के तौर पर अजायबघर का मालिक उसे बना दिया। गोपालसिंह लाचार हो गये और इसी खबर को लेकर वे अजायबघर में भैयाराजा से मिलने के इरादे से पहुँचे मगर वहाँ बहुत देर तक राह देखने पर भी उनको कहीं न पाया, लाचार हो वे मुझसे आकर मिले और मुझे अपने साथ ले उन्हें खोजने के इरादे अजायबघर लौटे।

जहाँ-जहाँ मैं जा सकता था और जिस-जिस स्थान का पता मुझे था वहाँ-वहाँ अपने भरसक मैंने अच्छी तरह ढूँढ़ा पर उनका पता न लगा और न आज तक वे फिर कभी दिखाई ही दिए।

गोपालसिंह को भी इस बात का बहुत ही रंज है और वे बड़े ही दुखी हैं। भैयाराजा के साथ ही साथ उनकी स्त्री का भी पता नहीं है और यद्यपि मैंने अपने कई ऐयारों को उन दोनों की खोज में भेजा है पर अब तक कुछ पता नहीं लगा।

मेघराज और प्रभाकरसिंह को यह हाल सुन बहुत दुःख हुआ और मेघराज बोले, ‘‘सिवाय दारोगा के और तो कोई ऐसा दुश्मन दिखाई नहीं पड़ता जो उनका अनिष्ट करे या कर सके।’’

इन्द्र० : हाँ प्रकट रूप में तो यही बात है। खैर जो कुछ भी हो कम-से-कम अभी तक इस विषय में कुछ ठीक पता नहीं लग सका है, यद्यपि इसके पहिले भी कई दफे वह गायब हो चुके हैं पर ऐसा कभी नहीं हुआ था कि बिना मुझसे कहे वे चले गये हों।

मेघ० : हाँ, यही बात और भी सन्देह पैदा करने वाली है!

कुछ देर तक इसी विषय पर बातें होती रहीं और तब मेघराज ने कहा, ‘‘कल एक बात बड़े ही आश्चर्य की हुई, जमानिया में घूमते-फिरते यकायक भूतनाथ ने मुझे देख लिया जो उस समय (प्रभाकरसिंह की तरफ देख कर) इनकी सूरत बना हुआ था। वह तो कहिए कि भाग्यवश स्वयं ये प्रभाकरसिंह ही मुझे मिल गये और इन्होंने मुझे उसकी तरफ से चैतन्य कर दिया नहीं तो मैं अवश्य ही उसके फन्दे में पड़ जाता।’’

प्रभा० : यह भी एक बड़ी विचित्र घटना है, मेघराज अपना हाल कह लें तो मैं आपको सब हाल सुनाऊँ। भाग्यवश मैंने गदाधरसिंह को अपनी सूरत बनाते देख लिया अस्तु समय पर पहिचान गया कि वह गदाधरसिंह ही है, नहीं तो वास्तव में उसके हाथ में पड़ मेघराज को तकलीफ उठानी पड़ती!

इन्द्र० : अच्छा, फिर क्या हुआ?

मेघ० : बात यह हुई कि (कुछ रुककर) कल मैं यहाँ से जब गया तो नागर के मकान पर पहुँचा क्योंकि उससे गदाधरसिंह के बाबत कुछ हालचाल मिलने की आशा थी, परन्तु उस धूर्त ने किसी बात का भी पता ठीक-ठीक मुझे लगने न दिया, यद्यपि दो–तीन बातें मालूम हुईं पर मेरा असल तात्पर्य पूरा न हुआ।

अस्तु जब मैं उसके मकान के बाहर निकला तो एकाएक प्रभाकरसिंह की सूरत बने हुए गदाधरसिंह ने मुझे रोका। मैं उसे देख प्रसन्न हुआ और इस बात का तो उस समय मुझे जरा भी सन्देह न हुआ कि वह प्रभाकरसिंह नहीं है, नहीं तो उसी समय जाँच कर लेता।

इतना कह मेघराज वह सब हाल जिसे हमारे पाठक पिछले बयान में पढ़ चुके हैं मुख्तसर में इन्द्रदेव से कह गये और तब आगे का हाल इस प्रकार कहने लगे :—

मेघ० : जैसे ही मैं उस दालान के बाहर आया वैसे ही उस सभापति की निगाह मुझ पर पड़ गई। उसने मुझे जाते देख दो-तीन आदमियों को कुछ इशारा किया और वे लोग अपने को छिपाये हुए मेरे पीछे हो लिए।

मैंने तीनों आदमियों को देख लिया जो मेरा पीछा करने के लिए भेजे गये थे और साथ-ही-साथ मुझे इस बात का भी विश्वास हो गया कि ये तीनों मेरी गिरफ्तारी के लिए भेजे गये हैं पर मेरे उस कवच से डरते हैं और मेरे बदन में हाथ लगाने की हिम्मत नहीं करते। अस्तु मैं इनकी तरफ बिना ध्यान दिये उस तरफ रवाना हुआ जहाँ से मैंने और गदाधरसिंह ने सब हाल देखा था अथवा जहाँ से वे लोग मुझे पकड़ कर ले गये थे।

धीरे-धीरे चलता हुआ मैं बाहर मैदान में पहुँचा और तब तक किसी ने मुझको न टोका। मैदान में आते ही यकायक मुझे लालटेन को रोशनी दिखाई दी जो एक पेड़ की आड़ में बल रही थी और उसी जगह दो आदमियों के लड़ने की आहट मालूम हुई।

अपने को पेड़ों की आड़ में छिपाता और बचाता जब में उन दोनों लड़ाकों के पास पहुँचा तो यह देख मेरे ताज्जुब का हद न रहा कि उन दोनों ही की सूरत गदाधरसिंह की-सी है और कपड़े लत्ते के ख्याल से भी दोनों गदाधरसिंह ही मालूम पड़ते हैं।

मैं आश्चर्य के साथ सोचने लगा कि यह मामला क्या है और दो गदाधरसिंह क्यों दिखाई दे रहे हैं! यह तो अभी आपसे कह चुका हूँ कि गदाधरसिंह जब मेरे साथ था तो धूर्तता करके उसने अपनी असली सूरत धारण कर ली थी और मेरे सामने ही प्रभाकरसिंह की सूरत को इस्तीफा दे दिया था।अस्तु मुझे विश्वास हो गया कि उन दोनों में से हो-न-हो एक तो वही गदाधरसिंह है जो कुछ पहिले तक मेरे साथ था अस्तु मैं सोचने लगा कि फिर दूसरा गदाधरसिंह यह कौन और इन दोनों में तकरार क्यों हो रही है?

यह सब बातें मैं सोच ही रहा था कि एक गदाधरसिंह के हाथ की तलवार खा दूसरा जमीन पर गिर पड़ा। उस समय विजयी गदाधरसिंह मेरी तरफ घूमा (कदाचित उसने मुझे देख लिया था) और प्रसन्नता से बोला, ‘‘क्या आप उस सभा से बच कर निकल आये? मैं तो बड़े ही तरद्दुद में पड़ गया था और आपके छुटकारे का कोई उपाय करने ही वाला था कि यकायक असली गदाधरसिंह ने मुझे देख लिया और हम दोनों में लड़ाई हो पड़ी। मैं बचाता और तरह देता यहाँ तक आ गया जिससे उस सभा वालों को हम लोगों की आहट न मिले और आपकी तरह मैं भी गिरफ्तार न कर लिया जाऊँ।

मैं। (आश्चर्य के ढंग से) क्या वह असली गदाधरसिंह है?

गदा० : हाँ, आप पास चल कर देखिए।

मैंने ‘हाँ चलो’ कह कर भूतनाथ का हाथ पकड़ लिया और उस तरफ चलने को हुआ जिधर दूसरा गदाधरसिंह था, मगर उसका हाथ छूते ही आपके दिये विचित्र कवच की अद्भुत तासीर से गदाधरसिंह बेहोश हो कर गिर गया।

पहिले तो मैंने सोचा कि इसे गिरफ्तार कर अपने साथ लेता जाऊँ पर फिर ऐसा करना व्यर्थ समझ मैंने एक दूसरी चालाकी की। अपनी तिलिस्मी तलवार म्यान से निकाल उसी जगह बेहोश पड़े गदाधरसिंह के पास रख दी और तब हट कर आड़ में हो गया और उन तीनों आदमियों की राह देखने लगा जो उस कमेटी वाले सभापति के भेजे मेरे पीछे-पीछे आ रहे थे और जरूर अभी तक पास ही कहीं छिपे खड़े होंगे।

थोड़ी देर बाद उन तीनों में से एक आदमी आगे बढ़ा और गौर से गदाधरसिंह की सूरत देखने लगा। इसके बाद उसकी निगाह मेरी तलवार पर पड़ी जिसका लोहा तारों की रोशनी से भी चमक रहा था। उसने तलवार उठाने की चेष्टा की पर छूते ही बेहोश होकर गिर पड़ा।

उसको बेहोश होते देख उसके दोनों साथी भी उस जगह आ पहुँचे मगर कुछ कर न पाये और पहिले आदमी की तरह पारी-पारी से मेरी तलवार छू कर बेहोश हो गये।इसके बाद मैं उस तरफ घूमा जिधर जमीन पर दूसरा गदाधरसिंह पड़ा हुआ था, पर उसको कहीं न पाया, कदाचित् वह उठ कर कहीं चला गया था, अस्तु उन तीनों आदमियों की बेहोशी दूर करने का सामान उनकी नाक के पास रख मैं अपनी तलवार उठा कर वहाँ से हट गया। थोड़ी देर में उन तीनों की बेहोशी दूर हो गई और वे होश में आकर ताज्जुब-भरी बातें करने लगे पर अन्त में मुझे कहीं न पा नकली प्रभाकरसिंह अर्थात् गदाधरसिंह ही को उठा ले गये फिर मुझे नहीं मालूम कि क्या हुआ और गदाधरसिंह पर क्या बीती क्योंकि फिर मैंने उन सभों का पीछा नहीं किया और प्रभाकरसिंह के साथ इधर आ गया।

इन्द्र० : प्रभाकरसिंह फिर तुम्हें कहाँ मिले?

प्रभा० : मैं भी इनके और भूतनाथ की पीछे चलता हुआ उस गुप्त कमेटी के अड्डे तक पहुँच गया था और एक जगह छिपा हुआ सब हाल देख रहा था, अगर वे सब इनके साथ कुछ जोर-जबर्दस्ती करते तो अवश्य मैं इनकी मदद करता पर इसकी आवश्यकता ही नहीं पड़ी। जब ये वहाँ से बच कर निकल आये और गदाधरसिंह को भी अपनी होशियारी से इन्होंने बेहोश कर दिया तो मैं फिर इनके साथ होलिया और साथ-ही-साथ यहाँ लौट आया।

इन्द्र० : (मेघराज से) खैर तो तुम भी उस गुप्त कमेटी की हवा खा आये! अच्छा ही हुआ, मगर यह तो कहो कि वहाँ की बातचीत और रंग-ढंग से क्या तुम यह कह सकते हो कि यह सभा दारोगासाहब के कब्जे में है और वे ही उसके मुखिया हैं?

मेघ० : यह तो मैं नहीं जान सका, पर हाँ इतना सन्देह दो-एक बार मुझे अवश्य हुआ कि वह सभापति अपनी बोली बिगाड़कर बातें कर रहा है, पर सन्देह के सिवाय इस विषय में निश्चय रूप से मैं कुछ भी नहीं कह सकता।

इन्द्रदेव यह सुनकर कुछ देर तक गौर करते रहे तब प्रभाकरसिंह की तरफ देखकर बोले, ‘‘अच्छा अब तुम अपना हाल सुनाओ कि कहाँ और किस जगह तुमने गदाधरसिंह को अपनी सूरत बनाते देखा था?’’

प्रभाकरसिंह इसका कुछ जवाब दिया ही चाहते थे उसी समय इन्द्रदेव का एक खास आदमी आ पहुँचा और हाथ जोड़कर उनसे बोला, ‘‘जमानिया से दामोदरसिंहजी का आदमी आया है और कोई बहुत जरूरी खबर लाया है।’’

इन्द्र० : (चौंककर) जमानिया से आया है? क्या कहता है?

आदमी : कुछ बताता नहीं, कहता है कि और किसी को कहने का हुक्म नहीं है। कदाचित् कोई पत्र भी लाया है जो अपने हाथ से आप को देगा।

इन्द्र० : (मेघराज और प्रभाकरसिंह से) इस आदमी से मिलना जरूरी जान पड़ता है। मैं जाता हूँ और देखता हूँ कि वह क्या खबर लाया है, यदि कोई आवश्यक बात होगी तो तुम्हें भी सूचना दूँगा मगर तुम लोग अब बिना मुझसे कहे इस स्थान के बाहर न जाना, कदाचित् मुझे तुम लोगों से मदद की जरूरत पड़ जाय।

इतना कह इन्द्रदेव उठ खड़े हुए और अपने आदमी से कुछ बातें करते हुए बाहर चले गए।

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