मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 3 भूतनाथ - खण्ड 3देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण
पन्द्रहवाँ बयान
मेघराज जब होश में आए तो उन्होंने देखा कि वे अभी तक उसी स्थान पर हैं जहाँ, वे छिपकर उस गुप्त कमेटी का हाल देख रहे थे पर इस समय वे अकेले नहीं हैं बल्कि उनके चारों तरफ बहुत-से आदमी खड़े हैं और कई मशालों की रोशनी भी उस जगह का अन्धकार दूर कर रही है।
ये आदमी जो मेघराज को घेरे हुए थे लगभग दस-बारह के होंगे। सभों के चेहरे नकाब से ढँके हुए थे इस कारण यद्यपि उनकी सूरतें तो नहीं देखी जा सकती थीं फिर भी मेघराज इतना समझ गये कि ये लोग उन्हीं में से हैं जिन्हें वे नीचे वाले कमरे में पहुँचते देख रहे थे, परन्तु मेघराज ने यह भी देखा कि ये लोग दूर ही से उन्हें घेरे हुए हैं और पास आने में हिचकते हैं। साथ ही उनकी तेज निगाहों ने थोड़ी ही दूर पर गिरे हुए दो बेहोश आदमियों को भी देख लिया जिनको कई आदमी होश में लाने का उद्योग कर रहे थे।
शीघ्र ही चैतन्य होकर मेघराज उठ बैठे और उन्होंने प्रभाकरसिंह को देखने की इच्छा से इधर-उधर नजर घुमाई मगर वे कहीं नज़र न आये।
मेघराज को होश में आया देख उनको चारों तरफ के आदमी कुछ और दूर हट गये मगर एक आदमी हाथ में नंगी तलवार लिए अपने स्थान पर ही खड़ा रहा और कुछ हुकूमत की आवाज में बोला, ‘‘तुम कौन हो और यहाँ क्यों आये हो?’’
मेघराज कुछ क्षण उस आदमी की तरफ देखते रहे और इसके बाद बड़ी लापरवाही के साथ बोले, ‘‘इसका जवाब हम तुमको क्यों दें?
आदमी : (क्रोध के साथ) तुमको मेरी बात का जवाब देना ही पड़ेगा, अगर सीधे जवाब न दोंगे तो हम लोग तलवार के जोर से दरियाफ़्त करेंगे कि तुम कौन हो।
मेघराज कुछ देर के लिए चुप हो रहे और इसी बीच अपने कर्त्तव्य का भी उन्होंने निश्चय कर लिया। वे जमीन पर से उठ खड़े हुए और तब बड़ी फुर्ती के साथ अपने खाली हाथ से उन्होंने उस आदमी की नंगी तलवार पकड़ और छीन कर दूर फेंक दी, इतना ही नहीं, तलवार पकड़ते ही उस व्यक्ति का बदन कांपा और वह बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा।
सब आदमी आश्चर्य के साथ मेघराज का मुँह देखने लगे, क्योंकि उस तलवार से मेघराज का हाथ जख्मी होना तो दूर रहा जरा चरका तक नहीं लगा। उनको आश्चर्य में पड़े देख मेघराज ने हँसकर कहा, ‘‘तुम लोगों की तलवारें मेरे जिस्म के किसी हिस्से को भी नुकसान नहीं पहुँचा सकतीं बल्कि मेरे बदन को छूने की भी तुम्हारी ताकत नहीं है जिसका सबूत (जमीन पर पड़े बेहोशों की तरफ बताकर) ये आदमी हैं।
सब लोग आश्चर्य के साथ मेघराज का मुँह देखने लगे लगे।
मेघ० : मैं तुम लोगों का दुश्मन नहीं हूँ मगर तुम्हारी दुश्मनी को बर्दाश्त भी नहीं कर सकता। खैर, तुम लोग या तो मुझे जाने दो या फिर अपने सरदार के पास चलो, वहीं मुझे जो कहना होगा कह-सुन लूँगा।
मेघराज की बात सभों ने स्वीकार की और दो आदमी हाथ में मशाल ले आगे-आगे चलने के लिये तैयार हुए। मेघराज उनके पीछे-पीछे चले पर दो ही चार कदम जाने के बाद यह कहकर लौटे कि ‘पहिले इन लोगों की बेहोशी दूर कर देनी चाहिये’ और उन दो आदमियों के पास पहुँचे जो बेहोशी की हालत में जमीन पर गिरे हुए थे और जिन्हें अब कई आदमी घेरे होश में लाने की चेष्टा कर रहे थे।
मेघराज को देखते ही बाकी के लोग दूर हट गये और मेघराज ने पास जाकर कुछ खास कुछ खास तर्कीब के साथ उनके बदन पर धीरे-धीरे हाथ फेरा जिसके साथ ही उनकी बेहोशी दूर हो गई और वे उठकर आश्चर्य के साथ अपने चारों तरफ देखने लगे।
मेघराज फिर उस जगह पर ठहरे और उन सभों के साथ शीघ्र ही उस दालान में जा पहुँचे जहाँ की कैफियत थोड़ी देर पहिले ऊपर से वे देख रहे थे।
बीचोंबीच में एक ऊँची गद्दी लगी हुई थी जिस पर एक नकाबपोश सरदाराना ढंग से बैठा हुआ था, उसके दोनों तरफ लगातार कई-कई आदमी बैठे हुए थे मगर सभी के चेहरे नकाब के ढंके थे। मेघराज को ले जाकर उन आदमियों ने सरदार के सामने खड़ा कर दिया और आप अगल-बगल कुछ हट कर खड़े हो गये।
मेघराज ने गौर के साथ अपने चारों तरफ देखा मगर अपने दोस्त प्रभाकरसिंह को कहीं नहीं न पाया जिससे उन्हें विश्वास हो गया कि वे इन लोगों के हाथ नहीं पड़े।
गद्दी पर बैठे सरदार ने एक आदमी की तरफ देखकर कहा, ‘‘क्या ये ही वे हैं जो छिपकर हमारी सभा का हाल देख रहे थे?’’
उस आदमी ने हाथ जोड़कर ‘‘जी हाँ’’ कहा और तब मेघराज की तरफ घूमकर सभापति ने कहा, ‘‘क्या आप जानते हैं कि इस सभा का यह नियम है कि जो आदमी छिपकर इसका हाल जानने की कोशिश करता है वह मार डाला जाता है?’’
मेघ० : नहीं, यह बात मुझे नहीं मालूम थी, यदि मालूम होती तो कदाचित् मैं इस तरफ न आता।
सभापति : कदाचित् के क्या माने?
मेघ० : यही कि आप लोग मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकते क्योंकि आप लोगों की बनिस्बत मैं बहुत जबर्दस्त हूँ, मगर साथ ही मैं यह भी कह दिया चाहता हूँ कि आप लोगों से मेरी कोई दुश्मनी नहीं है, मैं किसी बुरी नीयत से यहाँ नहीं आया और न मेरा इधर आने का कोई इरादा ही था।
सभापति : इसका सबूत?
मेघ० : सबूत यही कि मैंने उन आदमियों का जो मेरी गिरफ्तारी के लिए भेजे गये थे कोई अनिष्ट नहीं दिया बल्कि उनकी बेहोशी दूर कर दी जो मेरा बदन छूकर बेहोश हो गये थे।
सभा० : (आश्चर्य से) क्या आप में यह सामर्थ्य है कि जो आदमी आपका बदन छूएगा वह बेहोश हो जायगा।
मेघ० : बेशक, और इसका सबूत अभी आप पा सकते हैं।
इतना कह मेघराज ने अपना बदन जोर से झटकारा जिसके साथ ही उनके शरीर में से आग की भयानक चिनगारियाँ निकलने लगीं जो शीघ्र ही यहाँ तक बढ़ी कि उनके अगल-बगल के सब आदमी डर से दूर हट गये और सभापति भी घबरा उठा।
परन्तु मेघराज ने शीघ्र ही उन चिनगारियों को बन्द कर दिया और तब सभापति की तरफ देखकर बोले, ‘‘आपने देखा कि मुझमें कैसी विचित्र शक्ति है जिसके कारण आप लोग मेरा कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते, मगर फिर भी मैं आपका कोई अनिष्ट नहीं किया चाहता। हाँ, इतना मैं कह देना चाहता हूँ कि आपकी इस सभा का हाल मैं सुन चुका हूँ और इसमें सम्मिलित होने की इच्छा रखता हूँ क्योंकि मैंने सुना है कि यह सभा अच्छे कामों के लिए बनाई गई है और जमानिया राज्य की त्रुटियों को दूर करने के लिए इसका जन्म हुआ है।’’
सभापति कुछ देर तक मेघराज की बातों पर गौर करता रहा और तब अपने बगल में बैठे एक सभासद की तरफ झुका जिसके आगे एक छोटी चौकी पर कागज-पत्र आदि लिखने-पढ़ने का सामान पड़ा हुआ था। दोनों में कुछ देर तक बातें होती रहीं और तब सभापति ने मेघराज से कहा, ‘‘इसके पहिले कि हम लोग आपकी बात का विश्वास करें और आपको अपनी सभा का सभासद बनावें, आपका परिचय पाना जरूरी है तथा इस बात का भी विश्वास हो जाना चाहिए कि आपका इरादा हम लोगों को धोखा देने का नहीं है, पर जहाँ तक मैं समझता हूँ और इस समय या इतने आदमियों के बीच में अपना परिचय देना स्वीकार न करेंगे अस्तु थोड़ी देर के लिए हम लोग आप पर विश्वास करते हैं और सभा की कार्रवाई आरम्भ करते हैं। सभा का कार्य समाप्त होने के बाद आपसे बातचीत की जायगी। अब हम अपना कार्य प्रारम्भ करते हैं!’’
इतना कह सभापति ने अपने बगल वाले आदमी की तरफ देखा जो सभा का मन्त्री मालूम होता था और उस आदमी ने सामने की चौकी पर से कई कागजात उठाकर उसके हाथ में दे दिए। मेघराज कुछ हटकर एक बगल में हो गये और देखने लगे कि यह विचित्र सभा अब क्या करती है।
कुछ देर सभा में सन्नाटा छाया रहा और सब सभासद आश्चर्य मिली हुई उत्कंठा के साथ मेघराज की तरफ देखते रहे। इसके बाद सभापति से कुछ इशारा पाकर उसके बगल में बैठा हुआ व्यक्ति जिसको हम सभा का मंत्री मान लेते हैं उठकर खड़ा हो गया और कहने लगा–
‘‘आप सभी लोग जानते हैं कि यह सभा इस राज्य की भलाई और रक्षा तथा प्रबन्ध के लिए बनाई गई है और समय-समय पर जो कुछ कार्रवाई यह सभा करती है वह सभासदों की राय तथा इच्छा से की जाती है।
‘‘आज की बैठक जिस काम के लिए की गई है वह आप लोग सुन चुके हैं और इस समय पुन: यह बात बताने की आवश्यकता नहीं है कि आज यहाँ के प्रसिद्ध रईस केशवदास की हत्या पर विचार करके उनके खूनी को समुचित दण्ड दिया जाएगा जिस काम को यहां के राजा गिरधरसिंह नहीं कर सके हैं।’’
इतना कह मन्त्री रुका और झुक कर अपने सामने चौकी पर से एक लम्बा कागज उठा उसे पढ़ने लगा जिसका हाल यहाँ लिखना पाठकों का समय नष्ट करना है।
कागज का मजमून सुना देने के बाद मन्त्री ने फिर कहना शुरू किया–
‘‘इन बातों को सुनने से आप लोग जान गये होंगे कि यहाँ के राजा की तरफ से खून की जो जाँच हुई है उसमें राजदरबार का प्रसिद्ध व्यक्ति, श्रीनिवास केशवदास का खूनी साबित हो गया है। इस बात का कोई सबूत देने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि राजकीय जांच के उस कागज की नकल ने, जिसे मैं अभी आपको सुना चुका हूँ साबित कर दिया है कि श्रीनिवास ही केशवदास का खूनी है, और स्वयं उसने भी अपने मुँह से खून करना स्वीकार कर लिया है।
इतना कह मन्त्री कुछ देर के लिए चुप हो गया और इस आशा से सभापति और सभासदों की तरफ देखने लगा कि कदाचित् कोई कुछ कहे पर जब कोई कुछ नहीं बोला तो उसने फिर कहना शुरू किया–
अस्तु अब आप लोग इस बात पर विचार करें कि श्रीनिवास को इस जुर्म की क्या सजा मिलनी चाहिए। राजा गिरधरसिंह ने उसे केवल देश-निकाले का दण्ड दिया है जो मेरी समझ में बिल्कुल ही कम है पर विचार का भार आप लोगों पर है।
इतना कह मंत्री बैठ गया। कुछ देर के लिए सन्नाटा छा गया और लोग एक दूसरे की तरफ देखने लगे तथा कानाफूसी करने लगे। इसके बाद एक आदमी ने उठकर कहा, ‘‘इसके पहले कि यह सभा कुछ फैसला करे एक दफे खूनी का सामना करना मैं उचित समझता हूँ।’’
सभापति यह सुन बोला, ‘‘ऐसा करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है। यदि आप लोग चाहें तो खूनी को अपने सामने बुला सकते हैं यद्यपि मैं इसकी आवश्यकता नहीं देखता।’’
ज्यादा आदमियों की राय खूनी को बुलाने की हुई अस्तु मंत्री ने कुछ आदमियों की तरफ देख कर इशारा किया और थोड़ी ही देर में हथकड़ी-बेड़ी से मजबूर एक कैदी वहाँ हाजिर किया गया।
सभापति की आज्ञा से कैदी को दालान में एक खम्भे से बाँध दिया गया, इसके बाद मन्त्री ने उससे पूछा–
मन्त्री : श्रीनिवास क्या तुमने केशवदास का खून किया है?
कैदी : मैंने जो कुछ भी किया उस पर विचार करने की सामर्थ्य आप लोगों में नहीं, ईश्वर की ओर से जो हम लोगों का राजा बनाया गया है और जिसे जनता के न्याय-सिंहासन पर बैठाया है उसके हुक्म को काटने की सामर्थ्य, उसके दिए हुए न्याय को मेटने की सामर्थ्य, आप लोगों में नहीं है। राजा गिरधरसिंह ने मेरा विचार कर केवल देश-निकाले का ही दण्ड मुझे दिया है और आगे अगर आप इस विचार पर कलम चलावेंगे और जबर्दस्ती मुझे किसी और दण्ड से दण्डित करेंगे तो आप लोग न्यायवान नहीं; अन्यायी, अत्याचारी और खूनी माने जायँगे।
सभापति : (क्रोध से) हम लोग तुम्हारी वक्तृता सुनने के लिए नहीं इकट्ठे हुए हैं और न हमको इतना समय ही है कि तुम्हारी इन सब बातों का जवाब तुम्हें दे और यह बतावें कि यह उन दोषियों का न्याय करने तथा उन्हें समुचित दण्ड देने के लिए ही बनाई गई है जिन्हें यहाँ का राजा, जो व्यर्थ ही अपने को राजा कहता है, महात्मा और साधु बना हुआ है तथा दयावान कहलाने के लिए मरा जाता है, दोषी जान कर भी ठीक-ठीक दण्ड नहीं देता और यों ही छोड़ देता है। आज इस सभा का विश्वास है कि तुम्हारे कसूर के मुताबिक सजा नहीं मिली है, अस्तु तुम व्यर्थ की बकवाद कर अपना समय नष्ट न करो और जो पूछा जाता है उसका जवाब दो। बताओ तुमने केशवदास का खून किया है या नहीं?
कैदी : (दृढ़ता के साथ) अपनी जान बचाने के लिए मुझे उसको मारना पड़ा इसके सिवाय मैं और कुछ नहीं कहा चाहता।
सभापति ने कई दफे पूछा पर कैदी ने किसी बात का उत्तर न दिया, आखिर लाचार हो कैदी को वहाँ से हटाने का हुक्म हुआ और तब इस बात पर विचार आरम्भ हुआ कि उसको क्या सजा मिलनी चाहिए।
सभापति की राय फाँसी की हुई और यही राय अधिकांश सभासदों की भी हुई, अस्तु मंत्री एक बार फिर उठ खड़ा हुआ और बोला, ‘‘तब यह निश्चय हुआ कि केशवदास का खूनी यह आदमी है अस्तु यह सभा खूनी को फाँसी का दण्ड देती है। आज ही खूनी को फाँसी दे दी जाए और उसकी लाश जमानिया शहर की किसी चौमुहानी पर रखवा दी जाय।’’
सब सभासदों ने स्वीकृति-सूचक सिर हिलाये और मन्त्री एक कागज पर कुछ लिखने लगा।
दयाराम एक तरफ खड़े बड़ी दिलचस्पी के साथ इस विचित्र सभा की यह सब कार्रवाई देख रहे थे। जिस समय उस कैदी को फाँसी देने का हुक्म हुआ उसी समय यकायक किसी आदमी ने एक मोड़ा हुआ कागज का टुकड़ा उनके हाथ में दिया। उन्होंने घूमकर देखना चाहा कि किसने वह कागज उनको दिया पर कोई दिखाई न पड़ा अस्तु उन्होंने उसे खोल डाला और सावधानी से पढ़ा, यह लिखा था :-
‘‘जहाँ तक शीघ्र हो यहाँ से निकल भागो और जब तक दूर न भाग जाओ अपनी जान की खैर समझो, कागज पढ़कर बर्बाद कर दो।’’
दयाराम शीघ्रता के साथ उपरोक्त मजमून पढ़ गये और तब तुरन्त ही मुड़ कर बिना किसी की तरफ देखे या किसी का कुछ ख्याल किये दालान से बाहर निकल गये।
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