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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

चौदहवाँ बयान


नागर के मकान से निकलकर वह आदमी लगभग पचास कदम तक सीधा बढ़ता चला गया, तब रुका और एक मकान की आड़ में खड़ा होकर कुछ सोचने लगा।

थोड़ी ही देर बाद एक रथ जिसमें कई पर्दे इत्यादि लगे रहने के कारण कोई जनानी सवारी के होने का गुमान हो सकता था नागर के मकान के दरवाजे पर आकर रुका, फाटक खोला गया और वह रथ अन्दर चला गया, इसके बाद नौकरों ने फिर फाटक बन्द कर दिया।

थोड़ी देर तक उस जगह रुकने के बाद वह आदमी वहाँ से हटा। मगर उसी समय किसी ने उसके कन्धे पर हाथ रक्खा, उसने घूमकर देखा और साथ ही प्रसन्नता के साथ कहा, ‘‘हैं प्रभाकरसिंह, तुम भी आ गये!’’

प्रभाकर : हाँ, मगर यहाँ रुकने या बात करने का मौका नहीं है, चलो बढ़े चलो।

दोनों आदमी वहाँ से रवाना हुए, थोड़ी दूर निकल जाने के बाद प्रभाकरसिंह ने अपने साथी से कहा, ‘‘यहाँ क्या नागर के पास गये थे?’’

पाठकों को ज्यादा देर तक तरद्दुद में न डालकर हम कह देते हैं कि ये महाशय शायद जिन्हें आप नगर के मकान में देख चुके हैं वास्तव में मेघराज (दयाराम) हैं और किसी धुन में पड़े अपना अद्भुत स्थान छोड़ इस समय जमानिया में घूम रहे हैं, तथापि यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि उन्होंने अपनी सूरत भली-भाँति बदली हुई है और इन्द्रदेव के दिये हुए ऐयारी तथा तिलिस्मी सामानों तथा हर्बों से भी भलीभाँति सुसज्जित हैं।

प्रभाकरसिंह की बात सुनकर मेघराज ने कहा, ‘‘हाँ, नागर ही से मिलने आया था, मगर भाई इसमें शक नहीं कि नागर परले सिरे की धूर्त है। उसके पास आकर और उसकी बातें सुनकर यदि मुझे पिछली बातों का ध्यान न रहता तो मैं अवश्य उसके फन्दे में पड़ जाता, बातें बनाने में तो वह ऐसी चन्ट है कि नाक पर मक्खी नहीं बैठने देती।’’

प्रभा० : (हँसकर) क्यों सो क्यों?

मेघ० : मैंने उससे पूछा कि गदाधरसिंह आता है या नहीं तो साफ मुकर गई और कहने लगी कि मैंने तो बरसों से मुँह नहीं देखा।

प्रभा० : झूठी है, गदाधरसिंह बराबर उसके यहाँ आया-जाया करता है।

मेघ० : हाँ सोई तो, मगर उससे मैंने कितनी दफे घूमा-फिरा कर पूछा मगर उसने कबूल न किया। अच्छा कहाँ जाती है, अभी तो उसे मुझसे बहुत वास्ता पड़ना है और कई बातों का पता हम लोगों को उसी के जरिये लगेगा, उसको अपने कब्जे में रखना जरूरी है।

प्रभा० : मगर कहीं ऐसा न हो कि फिर तुम उसके फन्दे में फँस जाओ।

मेघ० : अब क्या बार-बार मुझसे बेवकूफी ही होती रहेगी? वह तो कहो कि पहिले मैं नहीं जानता था कि कम्बख्त ऐसी खोटी है नहीं तो क्या यह मुझे फँसा सकती थी! अभी तो मुझे पिछली बातों का बदला उससे लेना है, अब जब चाचाजी की दया से मैं अपने दुश्मनों से बदला लेने के योग्य हो गया हूँ तो ऐसा अच्छा मौका हाथ से जाने न दूँगा। तब इस बात का मुझे अवश्य खयाल रखना पड़ेगा कि मेरी किसी कार्रवाई से उनकी बदनामी न हो और वे किसी मामले में प्रकट रूप से घसीटे न जायँ। अच्छा यह बताओ कि तुम यहाँ कैसे आ पहुँचे? मैंने चलते समय पूछा था कि चलोगे या नहीं तब तो तुमने चलने से इनकार किया था।

प्रभा० : हाँ कुछ ऐसी बात हो गई जिससे यकायक मुझे अपना इरादा बदल देना पड़ा और यहाँ आने की जरूरत पड़ गई और सो भी जल्दी में कि न तो मैं अपनी सूरत ही बदल सका न कोई हथियार ही ले सका, केवल एक खंजर मेरे पास है।

मेघ० : खैर हथियार की चिन्ता नहीं, मेरे पास दो तलवारें हैं जिनमें से एक तुम ले सकते हो, हाँ सूरत बदलने का अवश्य कोई इन्तजाम करना चाहिए क्यों कि इस शहर में यदि तुम्हें दारोगा या गदाधरसिंह के किसी आदमी ने देख लिया तो मुश्किल होगी, लेकिन कठिनता यह है कि मेरे पास सूरत बदलने का कोई सामान इस समय मौजूद नहीं है।

प्रभा० : ऐयारी का बटुआ मैं अपने साथ लेता आया था पर सूरत बदलने का मौका अभी तक नहीं मिला।

मेघ० : तब फिर क्या है, जब बटुआ तुम्हारे पास है तो तुम पहिले सूरत बदल लो कोई काम करो, असली सूरत में यहाँ घूमना-फिरना ठीक नहीं है।

प्रभा० : मगर मुश्किल तो यह है कि जिस काम करने के इरादे से मैं यहाँ आया हूँ उसके लिए एक साथी की जरूरत है और हमारा कोई साथी इस समय यहाँ दिखाई नहीं देता, यदि तुम ही कुछ देर के लिए साथ हो जाते तो बड़ा अच्छा था।

मेघ० : हाँ हाँ, मैं तैयार हूँ, मेरा अपना काम हो गया अब जब तक के लिए कहो तुम्हारे साथ रह सकता हूँ, मगर तुम्हारा वह काम क्या है सो कुछ कहो।

प्रभा० : अब सूरत बदलकर ही मैं तुम्हें सब बताऊँगा क्योंकि गदाधरसिंह का मुझे भी डर लगा हुआ है कि कहीं वह देख और पहिचान न ले।

मेघराज : हाँ, इस दुष्ट की तरफ से होशियार रहना ही ठीक है! वह बड़ा ही काइयाँ है और किस समय कहाँ होगा इसका तो कुछ पता ही नहीं रहता।

प्रभा० : तो अगर मैं गदाधरसिंह की ही सूरत बन जाऊँ तब?

मेघ० : (हँसकर) तुम्हारी खुशी, मगर यदि वह तुम्हें अपनी सूरत में देख लेगा तो तुरन्त चौकन्ना हो जायगा।

प्रभा० : हाँ लेकिन दिल्लगी भी खूब होगी! मगर वह हम लोगों का कर ही क्या लेगा, हम लोग कुछ उससे कमजोर थोड़े ही हैं।

बातें करते हुए ये लोग अब शहर के बाहर निकल आये थे। रात का समय हो जाने के कारण इस जगह सड़क पर चलने वाला कोई दिखाई नहीं देता था अस्तु सूरत बदलने के लिए यही स्थान उत्तम समझ और पास ही एक कूँआ भी देख प्रभाकरसिंह रुक गए और बोले, ‘‘बस यह जगह ठीक है, तुम जरा इसी जगह रुके रहो तो मैं कूएँ के पीछे जाकर अपनी सूरत गदाधरसिंह की-सी बना लूँ, सामान मेरे पास है ही।’’मेघराज के ‘‘अच्छी बात है, मैं यहाँ खड़ा रहता हूँ’’ कहने पर प्रभाकरसिंह कूएँ पर चढ़ गए और पानी खींच हाथ-मुँह धोने के बाद आड़ में जा सूरत बदलने का उद्योग करने लगे।

प्रभाकरसिंह को गये कठिनता से कुछ सायत बीती होगी कि मेघराज अपने पीछे किसी तरह की आहट पा चौंके और घूमने पर इन्हें पेड़ों की आड़ में खड़ा एक आदमी दिखाई पड़ा जो हाथ के इशारे से इन्हें अपनी तरफ बुला रहा था। तलवार के कब्जे पर हाथ रक्खे मेघराज उसकी तरफ बढ़े और उससे दो-तीन कदम के फासले पर खड़े हो गौर से उसकी सूरत देखने लगे मगर अँधकार के कारण कुछ ठीक-ठीक मालूम न पड़ा।

पास आने में मेघराज को हिचकते देख उस आदमी ने बहुत धीमी आवाज में कहा, ‘‘कोई डर नहीं है, पास आ जाओ, मैं हूँ चन्द्रोदय'।’’

‘चन्द्रोदय’ शब्द सुनते ही मेघराज प्रसन्नतापूर्वक आगे बढ़े और बोले, ‘‘क्या मामला है? आप यहाँ कैसे?

‘चन्द्रोदय’ ने झुककर कोई बात मेघराज के कान में कही जिसके सुनते ही वह चौंक पड़े और कुछ पूछना ही चाहते थे कि उस आदमी ने फिर धीरे से कहा, ‘‘इस समय ज्यादा बात करने का मौका नहीं है, मगर कोई घबड़ाने की बात नहीं। अब तुम होशियार हो गये, बचे रहना और कोई तिलिस्मी हर्बा अपने पास का जाने न देना, मुझे हरदम अपने पास ही समझना क्योंकि मैं देखना चाहता हूँ कि अद्वितीय शिक्षक की शिक्षा और अपनी मेहनत से तुमने कहाँ तक फायदा उठाया है!’’

इतना कह वह आदमी पीछे हटकर अंधकार में मिल गया और मेघराज भी कुछ सोचते हुए अपने स्थान पर लौटकर प्रभाकरसिंह के आने का इन्तजार करने लगे।

थोड़ी ही देर बाद प्रभाकरसिंह एक हाथ में छोटी-सी जलती हुई लालटेन और दूसरे साथ में पानी से भरा लोटा लिये गदाधरसिंह की सूरत बने हुए पहुँचे और लालटेन ऊँची कर अपना चेहरा दिखाते हुए मेघराज से बोले, ‘‘क्यों, ठीक गदाधरसिंह की सूरत बनी है या नहीं!’’

मेघ० : बेशक अब आप बिल्कुल गदाधरसिंह ही मालूम होते हैं, मैं अगर आपको पहिले न देख चुका होता तो यही समझता कि आप वास्तव में गदाधरसिंह हैं और मुझे धोखा देने के लिए आये हैं।

प्रभाकरसिंह : आपके लिए भी मैं लोटे में पानी लेता आया हूँ, यदि आप अपना मुँह धोना चाहें तो धो सकते हैं।

मेघराज ने हाथ बढ़ाकर लोटा ले लिया मगर फिर कुछ सोचकर बोले, ‘‘नहीं, मुँह धोने से चेहरे का रंग और पुन: ठीक करना पड़ेगा, तो भी मैं यह लोटा अपने हाथ लिये चलता हूँ, शायद कहीं पानी की जरूरत पड़ जाय तो काम देगा।’’

प्रभाकर : जैसी आपकी मर्जी।

मेघ० : अच्छा तो अब आप अपना काम बताइये, कहाँ जाना चाहते हैं या क्या किया चाहते हैं? मैं आपके साथ हूँ।

प्रभा० : बहुत अच्छा तो आइये।

इतना कहकर प्रभाकरसिंह ने अपने हाथ की लालटेन बुझा दी जो अबरक की थी और इस लायक थी कि मोड़-मोड़ कर छोटी की जा सके। उसे जेब में रखने के बाद वे दाहिने घूमे और दोनों आदमी तेजी के साथ किसी तरफ जाने लगे।

आसमान में चन्द्रमा दिखाई नहीं पड़ता था पर तो भी उन तारों की रोशनी जो आज बहुतायत से दिखाई दे रहे थे इन दोनों आदमियों को रास्ता दिखाने के लिये काफी थी।

जिस तरफ से ये लोग जा रहे थे, उधर कोई आम राह या सड़क नहीं थी, केवल पगडंडियाँ थीं जिन पर ये दोनों तेजी के साथ चल रहे थे। आस-पास में पेड़ों की कमी होने के कारण इन्हें दूर तक की चीजें साफ दिखाई पड़ सकती थीं।

लगभग आध कोस के चले जाने बाद ये दोनों एक ऐसे स्थान के पास पहुँचे जो किसी बहुत बड़े मकान या किले का हिस्सा मालूम होता था पर इस समय बिल्कुल ही टूटा-फूटा और बर्बाद हो रहा था, इस जगह पेड़ों की बहुतायत होने के कारण अंधकार भी मामूली से ज्यादा था।

अभी तक प्रभाकरसिंह और मेघराज में किसी तरह की बातचीत न हुई थी और ये दोनों चुपचाप अपनी-अपनी चिन्ता में डूबे जा रहे थे पर इस जगह पहुँचकर मेघराज रुके और बोले, ‘‘हम लोग जमानिया के बाहर वाले उस प्रान्त में आ पहुँचे हैं जहाँ बहुत टूटे-फूटे मकान हैं और जिनके बारे में लोगों में तरह-तरह की बातें फैली हुई हैं कि भूतप्रेत और जिन्न-इत्यादि का वास...’’

प्रभा० : हाँ, इन खण्डहरों का सिलसिला दूर तक चला गया है। मगर मैं अब इसी जगह से अन्दर जाना चाहता हूँ।

मेघराज : (चौंककर और गौर से प्रभाकरसिंह की तरफ देखकर) मगर सो क्यों?

प्रभा० : इसी स्थान पर जमानिया के दारोगा साहब की वह गुप्त कमेटी हुआ करती है जिसका हाल शायद आपने ही सुना होगा!

मेघ० : (ताज्जुब से) दारोगा की गुप्त कमेटी! वह कैसी? तुमने कभी इसका जिक्र तो मुझसे किया नहीं!

प्रभा० : क्या आप नहीं जानते? हाँ ठीक है, आप क्योंकर जान सकते हैं और मुझे भी अभी हाल ही में इसका पता लगा है।

मेघ० : खैर तो आप उस कमेटी की कैफियत देखा चाहते हैं? अच्छा तो फिर आगे बढ़िए यहाँ रुकना ठीक नहीं। मगर आप ही आगे-आगे चलिए क्योंकि मैं इस जगह का हाल बिल्कुल नहीं जानता।

आगे-आगे भूतनाथ बने प्रभाकरसिंह और उसके पीछे मेघराज होशियारी के साथ कदम रखते हुए टूटे मकान की तरफ बढ़े और उसके ऊबड़-खाबड़ तथा गिरे हुए हिस्सों पर से होते हुए जाने लगे। प्रभाकरसिंह आगे की तरफ से बचते हुए इस तरह जा रहे थे मानों वे इस स्थान को पहिले भी देख चुके अथवा कई दफे आ चुके हैं। और इसी कारण मेघराज को उनके पीछे आने में ज्यादा तकलीफ न हुई, नहीं तो बहुत सम्भव था कि वे किसी ऊँचे या कुढँगे स्थान से गिर अपने हाथ पैर तोड़वा डालते।

अब वे लोग उस जगह से खंडहर के बीच वाले हिस्से में आ पहुँचे। ऐसा मालूम होता था यह किसी बड़े मकान या महल का चौक है, चारों तरफ किसी समय में बहुत ही आलीशान इमारत बनी हुई होगी जो इस समय बिल्कुल बर्बाद हो रही है पर तो भी कहीं-कहीं एक-आध कोठरी या कमरा ऐसा था जो ठीक हाल में था और इसी कारण रहने लायक कहा जा सकता था। फिर भी स्थान-स्थान पर उगे छोटे-बड़े पेड़ों और जंगली लताओं ने उस बीहड़ स्थान को और भी भयानक बना रक्खा था।

प्रभाकरसिंह और मेघराज एक ऊँचे स्थान पर जो शायद किसी कोठरी की छत थी खड़े होकर अपने चारों तरफ देखने लगे। सब जगह सन्नाटा छाया हुआ था और घोर अन्धकार के कारण मेघराज को इस बात का कुछ भी पता न लगता था कि वे किस स्थान पर आ गये हैं या उनके आसपास में क्या है।

थोड़ी देर रुकने के बाद प्रभाकरसिंह से कुछ पूछने के इरादे से मेघराज उनकी तरफ घूमे ही थे कि एकाएक अपने सामने की तरफ एक रोशनी देख चौंककर रुक गये। उनके देखते ही देखते सामने का सब स्थान रोशनी से भर गया और कई आदमी भी चलते-फिरते नजर आने लगे। प्रभाकरसिंह ने यह देख इशारे से उनको उसी जगह लेट जाने के लिए कहा और तब वे आप भी जमीन पर लेटकर बड़े गौर से उस तरफ देखने लगे।

वही स्थान जो कुछ देर पहिले एकदम अंधकारमय और भयावना लग रहा था अब कन्दीलों और शमादानों तथा मशालों की रोशनी से जगमगाने लगा। मेघराज ने देखा कि उनके सामने की तरफ लगभग सौ कदम के फासले तथा कुछ निचाई पर एक बड़ा कमरा या दालान नजर आ रहा है जिसमें घूमते-फिरते हुए कई आदमी रोशनी तथा बिछावन का इन्तजाम कर रहे हैं।

कुछ ही देर में सब इन्तजाम ठीक हो गया और इसके बाद वे सब आदमी जो कपड़े-लत्ते से नौकर मालूम होते थे मगर जिनके चेहरे नकाब से ढके रहने के कारण पहिचानना असम्भव था उस खण्डहर के फाटक के पास जाकर खड़े हो गये जो इस समय भी अच्छी हालत में था और उस जगह से जहाँ मेघराज और प्रभाकरसिंह छिपे हुए थे, दूर होते हुए भी साफ दिखाई पड़ रहा था।

इस फाटक पर भी एक रोशनी हो रही थी जिसकी सहायता से मेघराज ने देखा कि इस जगह कुछ आदमी हाथ में नंगी तलवार ले इधर-उधर घूम-फिरकर पहरा दे रहे हैं। उन्हें आश्चर्य मालूम हुआ था और भी गौर के साथ देखने लगे कि अब क्या होता है।

थोड़ी ही देर बाद दो आदमी अमीराना ढंग की पोशाक पहिने हरबे लगाये मगर अपने चेहरों पर नकाब डाले आपुस में कुछ बातें करके फाटक पर आ मौजूद हुए। आगे आनेवाले आदमी ने पहरेदारों की तरफ देख कुछ गुप्त इशारा किया जिसे देखते ही उन लोगों ने उसे झुककर सलाम किया और एक बगल हटकर उनको अन्दर चले जाने दिया। वे दोनों अन्दर आ पहुँचे और उसी दालान में जाकर बैठ गये।

थोड़ी देर बाद और भी आदमी पहुँचे और फिर धीरे-धीरे लगभग तीस-पैंतीस आदमी उस दालान में दिखाई देने लगे मगर इन सभी के चेहरे नकाब से ढँके हुए थे और इसी कारण बहुत गौर और विचार करने पर भी मेघराज कुछ जान न सके कि इन पर्दों के अन्दर कौन-सी सूरतें छिपा हुई हैं।

यकायक मेघराज को अपने पीछे किसी तरह की आहट सुनाई पड़ी जिसके साथ ही वे चौंककर उठ न सके क्योंकि उसी समय किसी ने पीछे से कपड़े की एक मोटी चादर इनके सिर पर डाल दी जिसमें ऐसी कड़ी बू आ रही थी कि मेघराज बर्दाश्त न कर सके और तुरन्त ही बेहोश होकर जमीन पर लेट गए।

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