लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 3

भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

421 पाठक हैं

भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

तेरहवाँ बयान


जमानिया वाले अपने कमरे के एक मकान में बैठी नागर एक हसीन आदमी के साथ बातें कर रही है।

इस आदमी की उम्र लगभग तीस वर्ष की होगी, साफ गोरा रंग, ऊँचा माथा और बड़ी-बड़ी आँखें बता रही हैं कि यह जरूर किसी ऊँचे घराने का आदमी है और साथ-ही-साथ उसकी बेशकीमती पोशाक उसके अमीर होने की सूचना दे रही है। खूबसूरती के साथ ही उसके बदन की सुडौली पर ध्यान देने से वह ताकतवर भी मालूम होता है और सामने रक्खी हुई तलवार उसके बहादुर होने में कोई सन्देह नहीं रहने देती। इस समय वह आदमी तकिये के सहारे लेटा हुआ नागर के चेहरे की तरफ देख रहा है और उसकी मुस्कुराहट के साथ हँसता हुआ उससे बातें भी करता जा रहा है।

नागर के चेहरे पर इस समय एक प्रकार की बेचैनी छाई हुई है जिसको दूर करने की वह बहुत चेष्टा कर रही है। यद्यपि उस आदमी की बातों का जवाब वह बड़ी ही नजाकत और मुस्कराहट के साथ दे रही है तथापि ऐसा मालूम होता है कि यह मुलाकात या बातचीत का वर्तमान ढंग उसे पसन्द नहीं, अथवा वह इसकी बातों के जवाब देने से बचना चाहती है।

बातें करते-करते हँसकर उस आदमी ने नागर का पंजा पकड़ लिया और कहा, ‘‘यह लो तुमने फिर बात उड़ा दी। भला बताओ तो सही कि ‘खून से लिखी किताब’ क्या है, या किस बला का नाम है? क्या वास्तव में यह कोई किताब है जो किसी के खून से लिखी गई है?

नागर : मैं कुछ नहीं कह सकती कि क्या बात है, उसके विषय में मैं कुछ नहीं जानती।

आदमी : वाह, तुम्हीं ने तो इसका जिक्र मुझे किया और अब तुम्हीं कहती हो कि मैं इस विषय में कुछ नहीं जानती! तुम्हारी यही बात तो मुझे अच्छी नहीं लगती। अच्छा बताओ तुमने यह नाम सुना कहाँ?

नागर : (कुछ रुककर) मैंने एक आदमी से सुना था।

आदमी : किस आदमी से?

नागर : आप उसे नहीं जानते।

आदमी : वह रहता कहाँ है?

नागर : मिर्जापुर में।

आदमी : (हँसकर) गदाधरसिंह तो नहीं!

नागर : (चिढ़कर) आप फिर उसी कम्बख्त का नाम लेते हैं। मैं आपसे कसम खाकर कह चुकी कि मैंने उस दुष्ट का साथ बिल्कुल छोड़ दिया है और इधर बरसों से उसकी शक्ल तक नहीं देखी है फिर न-जाने क्यों बार-बार उसी कम्बख्त का नाम लेते हैं।

आदमी : खैर जाने दो...

नागर : जाने क्या दूँ, आप बार-बार उसी का जिक्र करते हैं, और कोई बात ही आपको नहीं आती। अच्छा तो बताइए कि आपका यहाँ आना क्यों कर हुआ?

आदमी : बस तुम्हीं को खोजता हुआ तो आया हूँ, बड़ी मुश्किल से किसी तरह तुम्हारा पता लगा है! (कुछ कहकर) तुमने भी न-जाने कितने स्थान बदले हैं। कुछ दिन मिर्जापुर की धूल उड़ाई, कुछ दिन काशी के बाजार की सैर की, तब चुनार जाकर जमीं, और अब जमानिया की हवा खा रही हो। एक जगह टिक के तो तुमसे रहा ही नहीं जाता, ऐसी भागी-भागी क्यों फिरती हो?

नागर : (मुस्कुराती हुई) अपने कद्रदानों को खोजती फिरती हूँ।

आदमी : ओह, यह बात है, अब मैं समझा! अच्छा तब जरूर यहाँ भी आपको कोई कद्रदान मिल गया तभी तो आप इतने दिनों से जमी हुई हैं! खैर, देखो तुमने फिर बात उड़ा दी, बताओ तो सही कि वह खून से लिखी किताब है कहाँ?

नागर : भाई, मैं कह चुकी हूँ कि उसके विषय में ज्यादा कुछ नहीं जानती। वह शायद किसी तिलिस्म से संबंध रखने वाली किताब है।

आदमी : तिलिस्म! तिलिस्म क्या चीज होती है? क्या वही तो नहीं जिसके विषय में कहा जाता है कि यहाँ के महाराजा भी किसी भारी तिलिस्म के मालिक हैं।

नागर : हाँ कुछ ऐसी ही बात है- मैं खुद इस विषय में कोई जानकारी नहीं रखती। (उस आदमी की उँगली में पड़ी एक अँगूठी की तरफ देख के) यह अँगूठी तो नई मालूम होती है, जरा निकालो तो सही, देखूँ कैसी है।

‘‘तुम्हारे ही लिए तो इसे लाया हूँ!’’ कहकर उस आदमी ने वह अँगूठी अपनी उँगली से उतार नागर की उँगली में पहिरा दी। नागर ने विचित्र निगाह से उसकी तरफ देखा और तब अँगूठी को देखती हुई बोली, ‘‘बेशक बहुत ही खुश रंग मानिक है, कीमती होने में कोई शक नहीं है, क्या सचमुच इसे मेरे ही लिए लाये हो?’’

आदमी : तब क्या मैं झूठ कह रहा हूँ? (हँसकर) मैंने सोचा कि आज बहुत दिन दूर रहने के बाद दरबार में चलना हो रहा है, कुछ-न-कुछ नजर के लिए जरूर ले चलना चाहिए नहीं तो खफगी होगी। अच्छा मेरी बात को पूरा जवाब दे लो- वह खून से लिखी किताब पढ़ने से क्या आदमी तिलिस्म का मालिक बन जाता है?

नागर : नहीं, मालिक क्या हो जाएगा, हाँ उसे तिलिस्मी मामलों में कुछ जानकारी जरूर हो जाएगी, वहाँ की सैर करने योग्य हो जाएगा और यदि चाहे तो कुछ अंश तोड़कर वहाँ के धन-दौलत पर भी कब्जा कर सकेगा।

आदमी : ऐसा! तब तो बड़ी कीमती किताब है, ऐसी चीज पर तो जरूर कब्जा कर लेना चाहिए, वह है किसके पास?

नागर : राजा बीरेन्द्रसिंह के पास है।

आदमी : राजा बीरेन्द्रसिंह के पास! तब तो उसका मिलना असम्भव है।

नागर : असम्भव तो नहीं हाँ कठिन अवश्य है, आखिर उसके लिए कुछ लोग कोशिश तो कर ही रहे हैं!

आदमी : ऐसा! कौन?

नागर : (कुछ रुककर धीरे से) एक तो गदाधरसिंह ही।

आदमी : गदाधरसिंह! क्या वह रिक्त...खून से लिखी किताब पाने की कोशिश कर रहा है?

नागर : हाँ मगर इससे यह न समझिएगा कि मैंने खुद उसकी जुबानी यह हाल सुना है, उसकी तो बरसों से मैंने सूरत भी नहीं देखी, यह हाल मैंने एक दूसरे आदमी से सुना है जैसा कि मैं पहले कह चुकी हूँ।

आदमी : हाँ हाँ, नहीं तो क्या तुम मुझसे झूठ बोलोगी, अच्छा तो गदाधरसिंह उस किताब को लेकर क्या करेगा?

नागर : मालूम नहीं- (रुककर) शायद अपनी जोरू को तिलिस्म की सैर कराएगा।

आदमी : अच्छा, उसकी जोरू को तिलिस्म की सैर का शौक कब से लगा? वह तो बड़ी सीधी-सादी औरत थी!

नागर : अजी वह ब्याहता नहीं, यह नई औरत जो उसने काशीजी में रक्खी हुई है। वह बड़ी खराब औरत है और उसके दिल में तिलिस्म की सैर का शौक उठना कोई ताज्जुब नहीं है।

आदमी : क्या गदाधरसिंह ने काशी में और कोई औरत भी रक्खी हुई है? उससे कोई लड़का-बाला है?

नागर : एक लड़का जरूर है मगर मैं ठीक नहीं कह सकती कि कै बरस का है।

आदमी : खैर तो गदाधरसिंह उस किताब को लेने की फिक्र में है! (कुछ देर चुप रहकर धीरे से) अच्छा सच बताना, देखो झूठ न बोलना- कभी यहाँ के दारोगा साहब भी आते-जाते हैं या नहीं?

नागर : हाँ कभी आते तो हैं, क्यों?

आदमी : मैं सोचता हूँ कि ऐसी किताब उनके बड़े मसरफ की होगी और जब तुम्हारी उनसे मुलाकात होती रहती है तो अवश्य तुमने उनसे भी इस किताब का जिक्र किया होगा, बल्कि ताज्जुब नहीं कि दारोगा साहब ने उस किताब के लिए दरखास्त भी की हो?

नागर : (चौंककर) क्या कहा? मैं आपका मतलब नहीं समझी?

आदमी : मैंने कहा कि शायद दारोगा साहब ने तुम पर उस किताब को गदाधरसिंह से लेने का भार सौंपा हो?

नागर : (हँसकर बात उड़ाने के ढंग से) वाह क्या खूब! आप वही मसल करते हैं कि गाँव बसा ही नहीं और लुटेरे पहिले आ पहुँचे! अजी पहिले गदाधरसिंह के हाथ में तो वह किताब लग लेने दीजिए फिर देखा जायगा।

आदमी : अच्छा तो अभी गदाधरसिंह के हाथ में वह किताब नहीं लगी है?

नागर : (रुकते हुए) यह भला मैं क्या जान सकती हूँ कि यह किताब गदाधरसिंह के हाथ लगी या नहीं और फिर मैं इस झगड़े में पड़ने ही क्यों लगी? मुझसे इससे वास्ता ही क्या? किसी की किताब किसी के पास, मुझसे मतलब?

वह आदमी हँस पड़ा मगर कुछ बोला नहीं। कुछ देर तक दोनों चुप रहे इसके बाद नागर ने पूछा–

‘‘अब रात हो चली है, यदि कहिये तो आपके लिए भोजन का सामान मंगाऊँ?’’

आदमी : नहीं अब तो मैं जाऊँगा। क्या कहूँ, इतने दिनों के बाद तुम्हें देखा है, इस समय जी तो यही चाहता है कि तुम्हारे ही पास बैठा रहूँ और बातें करता रहूँ। मगर क्या करूँ, इस समय एक जरूरी काम है जिसके सबब से मैं रुक नहीं सकता, अब फिर किसी दिन आऊँगा तो तुम्हारी दावत कबूल करूँगा।

इतना कहकर वह आदमी उठ खड़ा हुआ, सामने रखी हुई तलवार उठा ली और दरवाजे की तरफ बढ़ा, नागर उसकी खातिरदारी के लिए सामने वाले नजरबाग तक उसे पहुँचाने आई और जब तक वह दरवाजे के बाहर न निकल गया उसकी तरफ देखती रही, इसके बाद यह कहती हुई लौटी, ‘‘सूरत-शक्ल तो जरूर पहिचानी हुई-सी मालूम होती है पर मुझे कुछ भी याद नहीं पड़ता कि कब और कहाँ इसको देखा है। खैर इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह रुपये वाला है और मैं इसके जरिये बहुत कुछ फायदा उठा सकती हूँ।’’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book