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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

बारहवाँ बयान


संध्या के कोई सात या आठ बजे होंगे। जमानिया के दारोगा साहब अपने लम्बे चौड़े शैतान की आँत की-सी सूरत वाले मकान में एक भीतरी कमरे में बैठे अपने प्रिय मित्र जैपालसिंह से कुछ बातें कर रहे हैं। उनसे थोड़ी दूर हटकर एक और अधेड़ उम्र का आदमी बैठा है जिसकी छोटी चमकदार आँखें, पतली नाक और भूरे बालों वाले सिर के साथ-ही-साथ चिपटा चेहरा बता रहा है कि यह दारोगा की ही मंडली में शामिल रहने लायक कोई आदमी है।

दारोगा अपने बगल में बैठे जैपालसिंह की तरफ झुका जो गौर से कुछ देख रहा है और एक छोटी चौकी के सामने बैठा कागज पर महीन अक्षरों से कुछ लिख रहा है। आसपास में कोई कागजात तथा चीठियाँ इत्यादि फैली हुई हैं।

लिखना समाप्त कर जैपाल ने उस कागज को एक बार गौर से देखा और तब दारोगा के हाथ में देकर कहा, ‘‘लीजिए देखिए, मैं तो समझता हूँ यह लिखना मुनासिब होगा।’’

दारोगा ने कागज हाथ में ले खूब गौर से पढ़ा और तब सिर हिलाकर कहा, ‘‘नहीं, यह ठीक नहीं, इससे जाहिर होता है कि मैं खुद इस मामले में पड़ा चाहता हूँ। ऐसा नहीं होना चाहिए। तुम ऐसे ढंग से पत्र लिखो जिससे यह जाहिर हो कि मैं हेलासिंह के इस विचार को जानता तक नहीं और न ऐसा करने की मेरी इच्छा है, हाँ, कुछ लालच दी जाय तो मैं उसकी बात मान सकता हूँ।

मेरे प्यारे दोस्त हेलासिंह,

आपका पत्र पहुँचा। मैं इस काम का उद्योग कर रहा हूँ मगर इस काम में हद से ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी। खुल्लमखुल्ला तो आपकी लड़की की शादी कुँअर गोपालसिंह से नहीं हो सकती क्योंकि गोपालसिंह को आपकी लड़की का विधवा होना मालूम है।हाँ, उनके दारोगा साहब अगर हमारे साथ मिल जाएं तो कोई तरकीब निकल सकती है, लेकिन कठिनाई है कि दारोगा लालची है और आप गरीब।

रघुबरसिंह।’’

दारोगा ने इस चीठी को लेकर पढ़ा और कुछ गौर करके कहा, ‘‘हाँ यह ठीक है। मगर अभी दो-एक बातें दुरुस्त करनी होंगी। एक तो नाम के आगे कुँअर नहीं राजा शब्द होना चाहिए, दूसरे मेरे नाम के आगे से साहब का शब्द निकल जाना चाहिए।’’

‘‘बहुत खूब’’ कह जैपाल ने दारोगा के कहे मुताबिक मजमून ठीक कर दिया और तब उसे एक साफ कागज पर लिखने के बाद दारोगा को पढ़ने के लिए दिया। दारोगा ने पुन: ध्यान से पढ़ा और कहा, ‘‘हाँ, बस ठीक है, इसे लिफाफे में बन्दकर अभी बेनीसिंह के हवाले करो कि हेलासिंह के पास पहुँचा आवे।’’

जैपालसिंह ने चीठी लिफाफे में बन्दकर जोड़कर अपनी अंगूठी से मौहर कर दी और तब उसे हाथ में लेकर बाहर चला गया। दारोगा ने वे दोनों पहिली चीठियाँ जो जैपाल ने लिखी थीं शमशान में लगाकर जला दीं और तब उस आदमी की तरफ घूमा जो उससे थोड़ी दूर पर बैठा हुआ था।

दारोगा : कहिए वैद्य जी, आपने क्या सोचा?

वैद्य जी : इसमें सोचना क्या है, मैं तो आपका ताबेदार ही हूँ, जो आज्ञा दीजिए करूँगा।

दारोगा : नहीं, मोहन जी, सो न सोचिये, मैं जबरदस्ती आपसे कोई काम नहीं कराना चाहता। मगर साथ ही आपको यह भी समझ रखनी चाहिए कि अपनी प्रतिज्ञानुसार आप पीछे नहीं हट सकते और न ऐसा करने में आपका कल्याण ही है। अब हम लोगों के साथ ही रहने में आपका शुभ है।

मोहन : जी हाँ, सो तो मैं देखता हूँ मगर (रुकते हुए) आप समझते ही हैं कि यह कैसा जान-जोखिम का काम है और इसमें...

दारोगा : हाँ हाँ, आप कहिए, रुकिए मत।

मोहन : इस किस्म की चीजों और दवाइयों के बनाने में खर्च भी बहुत पड़ता है, दवाइयाँ तो मुझे ऐसी मालूम हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं, एक-से-एक तेज जहर और मरण की चीजें मैं जानता हूँ और बना सकता हूँ मगर रुपये की पूरी मदद होनी चाहिए।

दारोगा : (एक अलमारी के पास जा और उसमें से अशर्फियों का एक तोड़ा निकाल मोहनजी के सामने रखकर) लीजिए, यह एक हजार अशर्फियाँ हैं। इन्हें आप जिस तरह चाहिए खर्च कीजिए और कामों में लाइए, यदि घट जायँ तो फिर मुझसे कहिए, और साथ ही यह भी याद रखिए कि दारोगा ऐसा आदमी नहीं है जो अपने वादे से फिर जाये। आप खूब समझ रखिए कि महाराज के मरने के बाद आप ही राजवैद्य माने जाएँगे और यद्यपि इस समय भी आपकी राजदरबार में अच्छी इज्जत और कदर है और उस पर धन-दौलत में आपका मुकाबला करने वाला फिर कोई भी नहीं दिखाई देगा। आप किसी तरह का भी शक या तरद्दुद न करें, मैं आप पर किसी किस्म का जोखिम न आने दूँगा, मगर बात यही है कि जहर वैसा ही तेज और बेमालूम होना चाहिए जैसा मैंने आपसे कहा है।

मोहन : बेशक ऐसा ही होगा, पहिले आप परीक्षा कर लीजिएगा तब उसे इस्तेमाल कीजिएगा। (जैपाल की तरफ देखकर जो अब बाहर से लौट आया था) आप इन्हीं से पूछ लीजिए कि जहर इत्यादि के मामलों में मैं कैसा सिद्धहस्त हूँ।

जैपाल : बेशक यह बात तो मैं कहूँगा। (दारोगा की तरफ देखकर) एक बात इस समय आश्चर्य की हुई है। कुंअर गोपालसिंह कल दोपहर के कहीं गये इस समय लौटे हैं और आते ही उन्होंने अपना खास आदमी आपको बुलाने के लिए भेजा है जो इस समय बाहर दरवाजे पर खड़ा है और कहता है कि आपको अपने साथ लेकर आने का हुक्म है।

दारोगा : (चौंककर) गोपालसिंह ने मुझे बुलाया है! कहीं...।।(रुककर) तो तुमने उस आदमी से कह नहीं दिया कि मैं कल से बीमार पड़ा हूँ और घर से बाहर नहीं निकल सकता।

जैपाल : मैंने कहा मगर वह किसी तरह नहीं मानता, कहता है कि मुझे सख्त हुक्म है कि जिस तरह हो उनको लेकर आओ। वहाँ दस मिनट से ज्यादा ठहरना न होगा।

दारोगा : खैर लाचारी, जाना ही पड़ेगा! (मोहनजी से) आप भी मेरे साथ ही चलें, (जैपाल से) तुम मेरे लौटने तक यहाँ ही रहना।

दारोगा उठ खड़ा हुआ और कपड़ा पहिनने के बाद वैद्यजी का हाथ पकड़े काँपता मकान के बाहर निकला, दरवाजे पर दो घोड़ों का तेज रथ तैयार था जिस पर वह मोहनजी के साथ बैठ गया और गोपालसिंह का आदमी आगे बैठा, तथा तेजी के साथ महल की तरफ रवाना हुआ।

थोड़ी ही देर में रथ महल की ड्योढ़ी पर जा पहुँचा जहाँ पूछने से मालूम हुआ कि कुँअर साहब खास कमरे में हैं कह गये हैं कि दारोगा साहब आते ही उनके पास पहुँचाये जाएँ, अस्तु मोहनजी को साथ लिए बल्कि उनका हाथ थामे धीरे-धीरे चलता हुआ दारोगा गोपालसिंह के कमरे में पहुँचा जहाँ वे इस समय बड़ी बेचैनी के साथ इधर-उधर टहल रहे थे।

दारोगा को देखते ही गोपालसिंह झपटकर उसकी ओर बढ़े मगर उसकी हालत देखकर रुककर बोले, ‘‘यह आपकी क्या हालत है! क्या आप कुछ बीमार हैं?’’

दारोगा : (रुककर) जी हाँ, परसों ही से मेरी तबीयत बहुत खराब हो रही है। दस-दस, बीस-बीस मिनट पर कै और दस्त होते हैं, बीच-बीच में मूर्छा भी आ जाती है।ये बेचारे वैद्यजी कल से बराबर मेरे... साथ... है। मैं... ज्यादा... खड़ा... नहीं।

कहता-कहता दारोगा जमीन पर बैठा और तब लेट गया। उसकी आँखें बन्द हो गईं और वह जोर-जोर से साँस लेने लगा। वैद्यराज ने यह हाल देख झपटकर एक शीशी दारोगा की नाक से लगाई और कुछ देर सुँघाते रहे, इसके बाद अपनी जेब से डिबिया निकाल उसमें से किसी प्रकार की सफेद गोली निकाली और बड़ी मुश्किल से दारोगा का मुँह खोल उसमें डालने के बाद फिर शीशी सुँघाने लगे। बड़ी देर के बाद किसी तरह दारोगा को होश आया और वह धीरे-धीरे उठकर बैठ गया।

गोपाल : (मोहनजी से) क्या परसों से यही हालत है?

मोहन : जी हाँ, परसों से यही हालत है, मगर अब कुछ अच्छा मालूम होता है। पहिले तो आध-घण्टे इसी तरह मूर्छा रहा करती थी। इस समय बड़ी कठिनता से ये बेचारे यहाँ तक आए हैं!

दारोगा : (धीमी और कमजोर आवाज में) आपकी क्या आज्ञा है? मैं इस अवस्था में भी आपका हुक्म बजा लाने के लिए तैयार हूँ।

गोपाल : नहीं आपकी ऐसी हालत देखकर मैं आपको भला क्या बता सकता हूँ, मैंने आपको केवल यह जानने के लिए बुलाया था कि महाराज से अजायबघर की ताली पाकर आप वहाँ फिर कभी गए थे या नहीं?

दारोगा : महाराज ने मुझ दास पर बड़ी कृपा की जो अजायबघर ऐसा अद्भुत स्थान मुझे रहने के लिए दे दिया। मैं वहाँ जाने और रहने इत्यादि का इंतजाम करने वाला था पर महाराज के पास से लौटते ही ऐसी कम्बख्त बीमारी में पड़ गया कि जान बचने की कोई आशा नहीं दिखाई पड़ती।

मोहन : नहीं नहीं, दारोगा साहब, आप घबड़ाये नहीं, अब किसी तरह का खतरा नहीं है! मैं इस बात का जिम्मा लेता हूँ कि अब आपको इस बीमारी से डर नहीं और तीन-चार दिन के अन्दर ही आप पूरी तरह से अयोग्य हो जाएँगे।

गोपाल : (मोहनजी से) बेशक आपको ऐसी ही चेष्टा करनी चाहिए। यदि ये शीघ्र अच्छे हो गये तो मैं बहुत प्रसन्न हूँगा और आपको अच्छा इनाम मिलेगा।

मोहन : (आशीर्वाद देकर) आपकी दया से किसी प्रकार का डर नहीं है पर अब तो इनको आराम करना चाहिए, क्योंकि इस बीमारी में ज्यादा देर बैठना या बातें करना अच्छा नहीं होगा।

गोपाल : नहीं-नहीं, आप जाएँ, यहाँ बैठने की कोई जरूरत नहीं है। जिस सवारी पर आये हैं वह बाहर ही होगी। (दारोगा को अपने हाथ से उठाते हुए वैद्य जी की तरफ घूमकर) ऐसा तो नहीं है कि उस दिन मेरी सहायता करने में इनको जो चोट लगी उसी के कारण यह तकलीफ उठानी पड़ी।

मोहन : जी हाँ, खून ज्यादे निकलने और कमजोरी आ जाने के सबब से ही यह हाल हुआ है।

गोपाल : (अफसोस के साथ) तो बस आप लोग जायँ।

गोपालसिंह दारोगा के साथ कमरे के बाहर तक आये और जब यह काँखता-कूँखता वैद्यराज का हाथ पकड़े चला गया तो मन-ही-मन यह कहते हुए लौटे, ‘‘जब इनका परसों से यह हाल हो रहा है तो इनकी कार्रवाई तो हो नहीं सकती, जरूर कोई और ही बात है किसी दूसरे ही कारण से चाचाजी गायब हो गये हैं। हाय, अब मैं क्या करूँ और कहाँ उन्हें ढूँढू।’’

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