मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 3 भूतनाथ - खण्ड 3देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण
ग्यारहवाँ बयान
कैलाश-भवन के नजरबाग में इन्द्रदेव गोपालसिंह के साथ टहल रहे हैं। गोपालसिंह के चेहरे से चिन्ता और उदासी झलक रही थी और इन्द्रदेव का चेहरा भी गम से खाली नहीं है। इन दोनों में आपस में इस प्रकार बातें हो रही हैं :-
गोपाल : आपकी जुबानी यह बात सुनकर कि चाचीजी (बहुरानी) भी उनके साथ थीं मुझे और भी रंज हो रहा है। मैंने दूर से उन दोनों को आते देखा और उनसे मिलने के लिए मकान के बाहर तक आया मगर वहाँ वे दोनों कहीं भी दिखाई न पड़े। जब उनको ढूँढ़ता हुआ कुछ आगे बढ़ा तो यकायक सीढ़ी चढ़ते हुए दो आदमी दिखाई दिये मगर जब मैं लौटकर वहाँ तक पहुँचूँ वे मकान के अन्दर जाकर कहीं गुम हो गए।
इन्द्रदेव : आप निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि वे दोनों आदमी जिन्हें आपने सीढ़ियाँ चढ़ते देखा वास्तव में भैयाराजा और बहूरानी ही थे या कोई और? गोपाल : निश्चय रूप से तो मैं यह भी नहीं कह सकता कि दालान में से दूर जंगल में जिन दोनों को मैंने देखा था वे भी वास्तव में चाचाजी और चाचीजी ही थीं या कोई और क्योंकि एक तो वहाँ कुछ अंधकार था दूसरे दूर होने के कारण सूरतें भी नहीं दिखाई देती थीं, मगर मेरा सन्देह यहीं था और अभी तक है कि वे चाचाजी ही थे क्योंकि चाल-ढाल इत्यादि सब ठीक उन्हीं की तरह थी।
इन्द्रदेव : जब वे दोनों आदमी जो सीढ़ी पर दिखे थे अजायबघर के अन्दर चले गए तो उसके बाद आपने भी वहाँ पहुँच कर उनको तलाश किया?
गोपाल : हाँ, पहिले तो दो-एक आवाजें दीं और जब कुछ जवाब न मिला तो जहाँ-जहाँ और जिस जगह मैं जा सकता था वहाँ-वहाँ जा-जाकर अपने भरसक अच्छी तरह उन्हें ढूँढ़ा मगर कहीं कुछ पता न लगा तब जैसा कि मैंने आपसे पहिले कहा कि ऊपर वाली कोठरी का दरवाजा जिसे खुला ही छोड़कर ड्योढ़ी में गया था बन्द मिला और बहुत कोशिश करने पर भी मैं उसे खोल न सका। और कोई रास्ता बाहर आने का मुझे मालूम न था इससे लाचार हो नाले वाले दरवाजे की राह बाहर आना पड़ा।
इन्द्रदेव : नाले वाला दरवाजा कौन?
गोपाल : वही जहाँ चाचाजी मुझसे मिले थे और अजायबघर की ताली दे दूसरे दिन मिलने का वादा कर गए थे!
इन्द्रदेव : तो आपको इतनी दूर जाने की क्या जरूरत थी, उसी जगह से अजायबघर के बाहर आने का दूसरा दरवाजा था।
गोपाल : मुझे नहीं मालूम कि वहाँ से बाहर आने का और भी कोई दरवाजा है। मैंने ‘ताली’ में इसका कोई जिक्र नहीं पाया यद्यपि मुमकिन है कि इसमें हो, क्योंकि उस पुस्तक में कई शब्द ऐसे हैं जिनका कोई अर्थ समझ में नहीं आता। न-जाने वे कैसे शब्द हैं या किस मतलब से रक्खे गए हैं, चाचाजी ने भी उसके विषय में मुझसे कुछ नहीं कहा।
इन्द्रदेव : जी हाँ, उस पुस्तक में कई जगह ऐसे शब्द आए हैं जिनका अर्थ लगाना कठिन हो जाता है परन्तु समय पर आपको उसका भेद मालूम हो जाएगा।
गोपाल : आपको यह बात कैसे मालूम! क्या आपने उस पुस्तक को देखा है?
इन्द्रदेव : नहीं, देखा तो नहीं है पर मैं जानता हूँ। खैर इससे कोई मतलब नहीं, अब सोचना यह है कि भैयाराजा कहाँ चले गए और कोठरी का दरवाजा क्योंकर बन्द हो गया!
गोपाल : हाँ इसी का पता लगाना चाहिए।
इन्द्रदेव : भैयाराजा अजायबघर के सब भेदों से बाखूबी वाकिफ हैं बल्कि जहाँ तक मैं जानता हूँ, कह सकता हूँ कि जितना हाल वे जानते हैं उतना महाराज भी नहीं जानते, अस्तु ऐसा तो हो नहीं सकता कि वे किसी प्रकार का धोखा खा गए हों या तिलिस्मी मामलों में फँस गए हों, हाँ यह जरूर हो सकता है कि वहाँ उनका कोई दुश्मन छिपा हुआ हो जिसने मौका पाकर उन पर वार किया हो और उन्हें अपने फन्दे में फँसा लिया हो!
गोपाल : यही शक मुझे भी होता है कि वे कहीं किसी दुश्मन के फन्दे में न पड़ गए हों, मगर उनका कोई दुश्मन तो नहीं जान पड़ता। हमारे दारोगा साहब हो सकते हैं मगर उनसे भी मुझे ऐसा विश्वास नहीं होता कि हम लोगों के साथ इस तरह खुलेआम दुश्मनी का बरताव करेंगे, अभी परसों ही उन्होंने मेरी बड़ी मदद की है।
इन्द्रदेव : सो क्या, कैसी मदद?
इसके जवाब में गोपालसिंह ने भैयाराजा से मिलकर लौटते समय उनके ऊपर जो हमला हुआ था और दारोगा ने उनको जिस प्रकार सहायता पहुँचाई थी वह सब पूरा-पूरा कह सुनाया। इन्द्रदेव सब हाल चुपचाप सुनते रहे अन्त में बुरा-भला कुछ भी न कह सके, ‘‘खैर तो अब आपकी क्या राय है? इस समय क्या करना चाहते हैं?’’
गोपाल : मेरी तो यही इच्छा थी यदि आप अजायबघर का कुछ हाल जानते हों तो मेरे साथ वहाँ चले स्वयम् वहाँ की हर एक जगह की तलाशी लेकर चाचाजी को खोजें, शायद कहीं पता लग जाय।
इन्द्रदेव : बहुत अच्छी बात है, मैं अजायबघर चलने के लिए तैयार हूँ मगर वहाँ जाने के लिए या तो वह किताब जिसे ताली के नाम से संबोधन करते हैं होनी चाहिए या फिर उसकी खास चाभी मिलनी चाहिए जो वहाँ के सब दरवाजों और तालों को खोल सकती है। बिना दोनों में से कोई चीज साथ रहे अन्दर के स्थानों की देख-भाल पूरी तरह नहीं की जा सकती।
गोपाल : वह किताब मेरे पास मौजूद है।
इन्द्रदेव : तो बस ठीक है, हम लोग इसी समय वहाँ जा सकते हैं, मगर दिन के समय जाने में कोई हर्ज तो नहीं होगा?
गोपाल : नहीं हर्ज क्या होगा, अगर कोई आदमी हम लोगों को देख भी लेगा तो क्या कर लेगा। केवल कुछ सावधानी की जरूरत है! हाँ, आपको दिन के समय वहाँ चलने में किसी तरह की असुविधा जान पड़ती हो तो इस समय न चलकर रात के समय चलिए।
इन्द्र० : (कुछ सोचकर) खैर कोई हर्ज नहीं, मैं इस समय चलने को तैयार हूँ।
गोपाल : तो फिर चलिए, मैं तो सब तरफ से तैयार हूँ।
इन्द्र० : बहुत अच्छा, तो आप जरा देर इसी जगह ठहरें मैं जाकर सवारी इत्यादि का इन्तजाम कर आऊँ।
गोपाल : ठीक है जाइए।
इन्द्रदेव वहाँ से उठे और अपने मकान में पहुँचे अपने एक शागिर्द को कई बातें बताने और सवारी का इन्तजाम करने के लिए कहने के बाद उस तरफ चले जो मकान का जनाना हिस्सा था और जहाँ सूर्य इत्यादि रहा करती थीं!
एक बड़े कमरे में सूर्य बैठी हुई अपनी छोटी बच्ची इन्दिरा के साथ कोई किताब देख रही थी। इन्द्रदेव को देखते ही वह उठ खड़ी हुई और इन्द्रदेव के बैठ जाने के बाद आप भी सामने बैठकर बोली, ‘‘आप इस समय बहुत उदास मालूम होते हैं, कहिए कुशल तो है?’’
इन्द्रदेव अपनी बेटी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘नहीं, कुशल नहीं है, भैयाराजा और बहुरानी किसी भारी मुसीबत में पड़ गए मालूम होते हैं। कुँअर गोपालसिंह आए हैं और उन्हीं की जुबानी मुझे यह हाल मालूम हुआ है।’’
इन्द्रदेव की बात सुन सूर्य ने घबराहट के साथ कहा, ‘‘कैसी मुसीबत, क्या हुआ?
इन्द्र० : भैयाराजा ने कल शाम गोपालसिंह से अजायबघर में मिलने का वादा किया था जहाँ वे अपनी स्त्री के साथ रहा चाहते हैं, मुझसे कल शाम को वे यह कहकर बिदा हुआ कि गोपालसिंह से मिलने जाता हूँ, कल किसी समय तक लौटूँगा और मेरे मना करने पर भी अपनी स्त्री को साथ लेते गए।
सूर्य : हाँ यह मुझे मालूम है, अब तक क्या वे अजायबघर नहीं पहुँचे?
इन्द्र० : गोपालसिंह अपने वादे के मुताबिक शाम को वहाँ गए मगर बहुत देर तक राह देखने पर भी भैयाराजा दिखाई न पड़े जिससे वे बहुत ही घबराए। इधर-उधर कई जगह उन्होंने भैयाराजा को खोजा भी, आखिर बड़ी देर के बाद दूर से दो आदमी उन्हें आते दिखाई पड़े जो कदाचित् भैयाराजा और बहुरानी ही थे क्योंकि आने वाले आदमी की चाल-ढाल उनको बिल्कुल भैयाराजा की तरह मालूम हुई। गोपालसिंह उनसे मिलने के लिए अजायबघर के बाहर निकले मगर तब तक वे दोनों आदमी कहीं गायब हो गए थे। बीच में थोड़ी देर के लिए सीढ़ियों पर दो आदमी नजर आए मगर वे भी अजायबघर के अन्दर घुस कर न-मालूम कहाँ गायब हो गए। फिर उन्होंने बहुत कुछ ढूँढ़ा मगर कहीं किसी का पता न लगा बल्कि उस जगह से बाहर आने का मुख्य दरवाजा न-मालूम किस तरह बन्द हो गया जिसके कारण उन्हें एक पेचीले रास्ते से बाहर निकलना पड़ा। इस समय उनका आग्रह है कि मैं उनके साथ अजायबघर जाकर भैयाराजा को खोजूँ शायद मिल जायँ, मगर मैं तो यही समझता हूँ कि वे दुश्मन के कब्जे में पड़ गए।
सूर्य : उनका दुश्मन सिवाय दारोगा के और कौन है! वे बेचारे तो किसी से दुश्मनी रखने वाले आदमी नहीं, हाँ इस दारोगा से बेशक उन्हें नफरत थी।
इन्द्र० : कुछ कहा नहीं जा सकता कि ठीक बात क्या है। जाहिर में तो सिवाय इसके और कुछ भी जान नहीं पड़ता कि दारोगा ने मौका पाकर किसी तरह उन्हें फँसा लिया है मगर यह भी कुछ निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता, देखो अब वहाँ जाने से शायद कुछ पता लगे। मैं गोपालसिंह के साथ अजायबघर जाता हूँ, तुमको यही कहने आया था।
इन्द्र० : (खड़े होकर) शायद आज रात को किसी समय लौ...कमरे के बाहर की तरफ देख और एक लौंडी को आते पाकर) हैं यह तो तुम्हारे पिता के घर की लौंडी है, यहाँ क्यों आई है?
इन्द्रदेव की आज्ञा पा वह लौंडी जिसका नाम नाम कौशल्या था अन्दर आई और प्रणाम करने के बाद उसने एक चीठी इन्द्रदेव के हाथ में दे दी। इन्द्रदेव चीठी पढ़ने लगे और सूर्य उस लौंडी को साथ कमरे में चली गई।
थोड़ी देर बाद सूर्य वहाँ लौटी और इन्द्रदेव ने उसकी तरफ देखकर कहा, ‘‘तुम्हारे पिता ने तुमको इसी दम बुलाया है और इन्दिरा को भी साथ लेते आने को कहा है।
सूर्य : जी हाँ, कौशल्या की जुबानी भी मुझे यही मालूम हुआ है। सवारी के साथ ही दो खास ऐयार भी मुझे ले जाने के लिए आये हैं और इसी समय साथ लेकर लौट भी जाना चाहते हैं। न मालूम इसका क्या कारण है!
इन्द्र० : यह चीठी भी कुछ ऐसे ढंग से लिखी गई है जिससे जाना जाता है कि लिखते समय वे बड़ी ही घबराहट और जल्दी में थे, लो तुम भी पढ़कर देख लो।
सूर्य ने चीठी लेकर शुरू से आखीर तक पढ़ा और इन्द्रदेव की तरफ देखकर कहा, ‘‘तो जैसी आपकी आज्ञा हो!’’
इन्द्र० : मैं तुम्हें इस समय जाने से नहीं रोक सकता, हाँ इतना जरूर कहूँगा कि तुम जितनी जल्दी हो सके यहाँ लौट आने की चेष्टा करना। इस चीठी में मेरे विषय में भी कहा है कि यदि किसी जरूरी काम में न फँसे हों तो तुम भी दो दिन के लिए साथ आना, मगर मैं तो इस समय वहाँ नहीं जा सकता, हाँ यदि हो सका तो चार दिन बाद आऊँगा, तुम जाने की तैयारी करो, मैं भी अब गोपालसिंह के साथ जाता हूँ।
सूर्य को दो-चार बातें और भी बताने तथा इन्दिरा को प्यार करने के बाद इन्द्रदेव बाहर निकले और अपने ससुर दामोदरसिंह के भेजे हुए ऐयारों से मिले, साहब-सलामत कर कुशल-मंगल का हाल पूछा तथा कुछ देर तक बातें करते रहे, इसके बाद यह कहकर कि ‘मुझे एक बड़े ही जरूरी काम से इसी समय बाहर जाना है और मैं ज्यादे देर तक यहाँ ठहर नहीं सकता’ उनसे विदा हुए। कपड़े पहिनने के बाद बगीचे में पहुँचते ही गोपालसिंह ने उनसे कहा, ‘‘आपने तो बहुत देर लगा दी!’’
इन्द्र० : जी हाँ, जमानियाँ से मेरे ससुर ने आदमी भेज मेरी स्त्री और लड़की तो तुरन्त बुलाया है और इसी समय उनको जाना होगा। इसी का प्रबन्ध करने में मुझे देर हो गई, मगर कोई हर्ज नहीं अब मैं सब तरह से तैयार हूँ आप चलिए। इन्द्रदेव और गोपालसिंह कैलाश-भवन के बाहर निकले, कुँअर गोपालसिंह जिस घोड़े पर यहाँ आये थे उसके बगल ही में इन्द्रदेव की सवारी के लिए भी एक तेज घोड़ा तैयार खड़ा था, दोनों सवार हुए और तेजी के साथ अजायबघर की तरफ चले।
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