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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

दसवाँ बयान


उन दोनों नकाबपोशों ने यह तो जान लिया कि यह जमीन पर पड़ा हुआ बेहोश आदमी भूतनाथ है पर इसके बाद वे कुछ भी न कर सके क्योंकि उस आग में जिसे तेज करके उन्होंने भूतनाथ को पहिचाना था कोई ऐसी विचित्र वस्तु जल रही थी जिसमें इतनी तेज बेहोशी का असर था कि उसने उन सभों को बात करने की भी फुरसत न दी और वे दोनों बेहोश होकर जमीन पर लेट गए।

उन दोनों के गिरने के साथ ही वह जमीन पर पड़ा आदमी जो वास्तव में भूतनाथ था उठ खड़ा हुआ और प्रसन्नता के साथ उन दोनों की तरफ देखता हुआ बोला, ‘‘वह मारा, कैसा धोखा दिया! बड़ी डींग की ले रहे थे! नहीं जानते थे कि गदाधरसिंह भी लोगों पर नजर रखता है और उसे अपनी ऐयारी पर घमण्ड है।

इतना कहकर भूतनाथ उठ खड़ा हुआ और ‘‘बहादुर-बहादुर’’ करके कई दफे आवाज दी मगर कोई जवाब न मिला जिससे वह कुछ तरद्दुद के साथ बोला, ‘‘न जाने-बहादुर कहाँ चला गया! मैंने उससे आस ही पास रहने को कहा था, मालूम होता है कि किसी दूसरी फिक्र में चला गया मगर ऐसा करना मुनासिब नहीं था। खैर कोई हर्ज नहीं, मैं अकेला ही इन दोनों के लिए काफी हूँ।’’

भूतनाथ आग के पास गया। उसमें जलती हुई बेहोशी का असर रखने वाली चीज अब जल कर समाप्त हो चुकी थी अस्तु भूतनाथ ने इधर-उधर से बटोर कर और भी बहुत-सी सूखी डालियाँ तथा पत्तों को आग पर डाला और उसके तेज हो जाने पर यह कहता हुआ दोनों नकाबपोशों की तरफ बढ़ा- ‘‘देखना चाहिए कि यह ‘चन्द्रशेखर’ या ‘सर्वगुण सम्पन्न चांचला सेठ’ कौन है जिसने मेरे नाकों दम कर रक्खा है!!’’

भूतनाथ ने बारी-बारी से दोनों नकाबपोशों की नकाबें हटाकर उनकी सूरतें देखीं मगर पहिचान किसी की न कर सका। वे सूरतें आज के पहिले उसने कभी देखी न थीं, मगर उनकी बातचीत का वह अंश जिसे उसने उनके पीछे-पीछे छिप कर आते हुए सुना था इस बात का विश्वास दिलाता था ये दोनों उसके जाने-बूझे आदमी हैं, अस्तु उसे निश्चय हो गया कि इन दोनों की यह सूरतें असली नहीं हैं और जरूर उन्होंने अपनी सूरतें बदली हुई हैं।

यह समझकर कि उसकी सूरत रंगी हुई हैं और बिना मुँह धोये इस बात का ठीक-ठीक पता नहीं लग सकता कि वे दोनों वास्तव में कौन हैं, भूतनाथ को कुछ तरद्दुद हुआ क्योंकि इस समय उसके पास इस किस्म की कोई चीज नहीं थी जिससे वह उनकी सूरत धोकर देख सकता। उस जगह से कुछ ही दूर पर एक गड्ढा था जिसमें प्राय: बरसात का पानी इकट्ठा हुआ करता था। सोचते-सोचते भूतनाथ को इसी गड्ढे का ध्यान आया और उसने निश्चय किया कि वहाँ से पानी लाकर इन दोनों का मुँह धोना चाहिए।

भूतनाथ उठ खड़ा हुआ पर फिर यह सोचकर कि कहीं बीच में ये दोनों होश में आकर भाग न जायँ उसने कमर में से कमन्द खोलकर उसी से उन दोनों के हाथ-पाँव बड़ी बेदर्दी के साथ कसकर बाँध दिये।इसके बाद यह सोचकर कि इस जलती हुई आग को देखकर किसी आते-जाते आदमी का (अगर कोई इस रात के समय में हो तो) ध्यान इस तरफ पड़ सकता है, उसने अपने बटुए में से एक अबरक की छोटी लालटेन निकाली और उसे बाल लेने बाद मिट्टी से ढक कर आँच बुझा दी, उस लालटेन को धीमा करके एक आड़ की जगह में रख दिया और अपना दुपट्टा हाथ में लेकर उस गड्ढे की तरफ रवाना हुआ।

एक घड़ी के अन्दर ही गीला दुपट्टा हाथ में लिए भूतनाथ लौटा। उस गीले कपड़े से उसने उन दोनों का मुँह अच्छी तरह साफ किया और तब लालटेन की रोशनी तेज कर इस नीयत से उनके मुँह के पास लाया कि देखें अब भी वह पहिचान सकता है या नहीं।

बेशक इन सूरतों को भूतनाथ पहिचानता था मगर ये वे सूरतें थीं जिनके होने का वह स्वप्न में भी गुमान नहीं कर सकता था। उसने देखा कि इन दोनों बेहोश आदमियों में से एक तो उसका पुराना दोस्त ‘गुलाबसिंह’ है और दूसरा उसका बागी शागिर्द और पहिले का साथी ‘विजय’!

गुलाबसिंह को इस जगह और ऐसी अवस्था में देखने की भूतनाथ को स्वप्न में भी आशा न थी क्योंकि वह वास्तव में उसे मर गया हुआ समझता था, मगर इस समय उसे यहाँ देखा और यह जान कर कि वह गुलाबसिंह ही ‘चन्द्रशेखर’ अथवा ‘सर्वगुण सम्पन्न चाँचला सेठ’ इत्यादि नामों से उसका काल हो रहा था उसका क्रोध एकदम भड़क उठा। पुरानी बातें और जो-जो तकलीफें या मुसीबतें उसे इसके हाथों उठानी पड़ी थीं वह एकदम उसके सामने नाचने लगीं।दोस्ती और मुरव्वत के नाते को उसने ताक पर रख दिया, लज्जा-शर्म और हया को तिलांजलि दे दी, भले-बुरे के ध्यान को भी अलग रख लिया। अपने दो-दो दुश्मनों को सामने देखकर उसकी बुद्धि विचार-शक्ति के साथ मिलकर हवा खाने चली गई और क्रूरता और बेहयाई का जामा पहिन कर उसने कमर से खंजर निकाल गुलाबसिंह का काम तमाम कर दिया, उसके बाद विजय की तरफ झुका और उसकी गर्दन भी धड़ से अलग कर दी।

ओफ, भूतनाथ का कैसा कड़ा कलेजा था कि इतना निर्दय और निष्ठुर काम करने से भी चूर-चूर न हो गया! वह कैसा दिल था जिसने उसे ऐसा भयंकर काम करने से भी न रोका! कैसा हाथ था जो अपने मित्र का खून करने से भी न काँपा! भूतनाथ, क्या तू ऐसा कर्म करके भी इस दुनिया में नेकनाम और भला बनना चाहता है? और क्या ऐसे कर्मों का कोई अच्छा नतीजा निकलेगा?

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