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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

नौवाँ बयान


संध्या हो गई बल्कि रात हो चली है। बढ़ते हुए अन्धकार ने पहाड़ों की गुफाओं तथा दर्रों में तो अपना दखल जमा ही लिया था अब उस घने और सुहावने जंगल में भी अपनी हुकूमत फैलाना शुरू कर दिया है जिसमें अजायबघर की छोटी मगर खूबसूरत इमारत है।

बंगले के नीचे बहने वाला चश्मा इस समय बड़े ही शांत तथा गंभीर भाव से बह रहा था और उसके दोनों किनारे वाले गुंजान पेड़ एकदम स्थिर भाव से खड़े नाले के निर्मल जल में पड़ती हुई अपनी पल-पल-भर में अंधकार में विलीन होती जाने वाली छाया को निहार रहे हैं।

बंगले से लगभग पचास कदम के फासले पर नाले को पार करने के लिए छोटा-सा पक्का पुल बना हुआ है मगर नाले की चौड़ाई ज़्यादा न होने के कारण उसके दोनों किनारे वाले पेड़ों ने एक तरह पर इस पुल को भी अपने साये में ले लिया है और वह पत्तों की आड़ में ऐसा छिप गया है कि यकायक निगाह में नहीं पड़ता।

इस पुल पर हम एक आदमी को बारीक कपड़े से अपना मुँह ढाँके टहलता हुआ देख रहे हैं। कभी यह रुककर नीचे के पानी में उछल-कूद करने वाली मछलियों को देखता है, कभी बेचैनी की निगाह से अपने चारों तरफ देख और सन्नाटा पाकर फिर इधर-उधर टहलने लगता है, और कभी रुकावट के लिए बनी हुई पुल के किनारे कमर-भर ऊँची दीवार पर बैठ अपने हाथ की एक छोटी-सी पुस्तक खोल कर पढ़ना चाहता है मगर अन्धकार उसे ऐसा करने की इजाजत नहीं देता जिससे वह लाचार हो किताब बन्द कर फिर इधर-उधर देखने लगता है।

इस तरह कभी बैठते, कभी टहलते और कभी किसी गहरे सोच में डूब इधर-उधर देखते हुए लगभग आध-घण्टे के बीत गया मगर उस आदमी का मतलब पूरा न हुआ और अन्त में घबड़ाहट के साथ यह कहने के बाद कि- ‘अभी तक चाचाजी नहीं पहुँचे, न-जाने क्या सबब है’! वह पुल पार कर धीरे-धीरे बंगले की तरफ बढ़ा।

पाठक चन्द्रकांता सन्तति में इस बंगले तथा इमारत का कुछ हाल पढ़ चुके हैं अस्तु उन्हें याद होगा कि इसकी कुरसी बहुत ऊँची थी और और लगभग पन्द्रह सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद मकान का दरवाजा मिलता था। उन्हें यह भी स्मरण होगा कि इस बंगले के बीचोंबीच में एक बड़ा-सा कमरा था जिसके चारों कोनों पर चार कोठरियाँ

तथा हर दो कोठरियों के बीच एक-एक दालान पड़ता था।  (१. देखिए चन्द्रकांता सन्तति, चौथा भाग, सातवाँ बयान।)

यह आदमी सीढ़ियाँ चढ़ मकान के दरवाजे पर पहुँचा जो यद्यपि इस समय बन्द था मगर उसके भारी कुण्डे में बाहर से किसी तरह का ताला लगा हुआ न था। उसने सिकड़ी हटा पल्ले को धक्का दिया और दरवाजा खोल मकान के दाहिने तरफ दालान में पहुँचा। दालान के सामने की तरफ कमर बराबर ऊँचा जंगला लगा हुआ था जिसके पास खड़े हो कुछ देर तक वह सामने की तरफ देखता रहा तब धीरे से बोला, ‘‘अन्दर चलना चाहिए, शायद वे भीतर ड्योढ़ी में पहुँच गये हों,’’

इतना कह वह बगल वाली कोठरी के दरवाजे के पास गया जो बन्द था मगर यह नहीं मालूम होता था कि क्योंकर बन्द है या किस तरह खुलता है क्योंकि कोई सिकड़ी, कोंढ़ा, ताला या ताली लगाने की जगह कहीं भी दिखाई नहीं देती थीं।

दरवाजे के ऊपर ठीक बीचोबीच में एक छोटी-सी लोहे की कड़ी लगी हुई थी जिसे उस आदमी ने घुमाना शुरू किया। लगभग पचीस दफे घूमने के बाद वह रुक गई और जरा जोर देते ही टेढ़ी होकर उस आदमी के हाथ की तरफ झुक गई। कड़ी के झुकते ही वह दरवाजा भी एक हलकी आवाज के साथ खुल गया और तब उस आदमी ने उस कड़ी को उलटा दबा ज्यों-का-त्यों पहिले की तरह कर दिया।

कोठरी के अन्दर एकदम अंधकार था मगर उस आदमी ने इस बात का कोई ख्याल न किया और टटोलता हुआ कोठरी के बीचोबीच में जाकर लगभग तीन हाथ ऊँचे किसी धातु के बने एक खम्भे के पास पहुँचा जिस पर एक चर्खी लगी हुई थी। उसने दोनों हाथों से उस चर्खी को घुमाना शुरू किया जिसके साथ ही उसके पैर के नीचे तथा अगल-बगल कुछ देर तक का हिस्सा इस तरह जमीन में धँसने लगा मानों लोहे अथवा और किसी धातु का बना हुआ है जो चर्खी घुमाने से जमीन में धँस रहा था।

लगभग बीस हाथ के जाने के बाद वह टुकड़ा ठहर गया और तब वह आदमी उस पर से उतर अन्धेरे ही में टटोलता हुआ उस स्थान के एक कोने में गया जहाँ के किसी पुरजे को हिलाते ही तेज रोशनी उस कोठरी भर में फैल गई जो छत में लगे शीशे के एक विचित्र गावदुम गोले में से निकल रही थी और इतनी तेज तथा साफ थी कि उस जगह पर निगाह नहीं ठहर सकती थी।

इस रोशनी में उस लम्बी-चौड़ी कोठरी का हर एक कोना साफ दिखाई देने लगा। इसके पूरब तरफ दीवार में बन्द दरवाजा था जो शायद किसी दूसरी कोठरी में जाने के लिए था, पश्चिम तरफ एक कूआं था, उत्तर तरफ एक दालान था जिसमें कई लोहे के सन्दूक तथा विचित्र प्रकार के बर्तन तथा कुछ औजार पड़े हुए थे और दाहिनी तरफ एक कोठरी थी जिसके आगे जंगला लगा हुआ था बस इसके सिवाय वहाँ और कुछ नहीं दिखाई पड़ता था।

वह आदमी कुछ देर तक बेचैनी के साथ इधर-उधर देखने बाद यह कह कर कि- ‘अभी यहाँ नहीं आये’ पूरब तरफ वाले बन्द दरवाजे के पास पहुँचा और उसे किसी ढंग से खोल अन्दर चला गया।

यह तीन-चार हाथ चौड़ी और बहुत ही लम्बी एक सुरंग थी जिसमें थोड़ी-थोड़ी दूर पर आमने-सामने लोहे के जंगलेदार दरवाजे एक ही रंग-ढंग के बराबर लगे हुए थे। हर एक दरवाजे में फाटक बन्द था और ताले के साथ धातु की एक पतली चद्दर बँधी हुई थी जिस पर कुछ लिखा हुआ था। इस सुरंग में थोड़ी-थोड़ी दूर पर उसी किस्म की विचित्र रोशनी हो रही थी जैसी कि इस समय बाहर की कोठरी में थी।

उस आदमी ने एक दरवाजे के पास पहुँच उसकी तख्ती को उठा कर देखा। उस पर सूबे और साफ अक्षरों में ‘खास बाग’ लिखा हुआ था, उसको छोड़ सामने वाले दूसरे दरवाजे की तख्ती देखी, उस पर ‘वायु-मण्डप’ लिखा हुआ पाया फिर एक तीसरे की तख्ती पर गौर किया तो उस पर ‘चौथा दर्जा- देव-मन्दिर’ लिखा देखा।चौथे पर ‘नाले वाला दरवाजा’ और पाचवें पर ‘केन्द्र’ पाया। इसी प्रकार हर एक दरवाजे पर जो गिनती में बीस से किसी प्रकार कम न होंगे एक-न-एक स्थान का नाम लिखा हुआ था जिसे वह आदमी आदि से अन्त तक बराबर पढ़ता चला गया।

लगभग दो सौ कदम चले जाने के बाद वह आदमी एक ऐसे महराबदार फाटक के पास पहुँचा जिसके बीचोंबीच में जंजीर के सहारे एक पुतली लटक रही थी जो देखने में पत्थर की मालूम होती थी। यह पुतली अपने दाहिने हाथ से तो वह जंजीर जो उस महराब में से उतरी थी, पकड़े थी और बायें हाथ में एक बड़ी सी चाभी लिए हुए थी जिसके साथ एक छोटी पुस्तक और लाल रंग के कागज का टुकड़ा बँधा हुआ था जिस पर साफ अक्षरों में ‘अजायबघर’ लिखा हुआ था।

वह आदमी यहाँ तक पहुँचा ही था कि यकायक किसी प्रकार की हलकी आवाज आई और उस सुरंग में जलती हुई वे सभी रोशनियाँ जो अपने प्रकाश से इस स्थान को बिल्कुल दिन की तरह उजाला किये हुए थीं यकायक बुझ गईं जिससे वहाँ घोर अंधकार छा गया। वह आदमी यह देख घबराहट के साथ बोला, ‘‘हैं यह क्या हुआ? रोशनियाँ क्यों बुझ गईं! कहीं चाचाजी तो नहीं आ गये और उन्होंने तो कोई कार्रवाई नहीं की?’’

टटोलता और अन्दाज से चलता हुआ वह आदमी उस स्थान के बाहर हो कर बड़ी कोठरी में लौटा और उसी वक़्त वहाँ की वह विचित्र रोशनी जो सुरंग की रोशनियों के साथ ही बुझ गई थी आपसे आप यकायक पुन: जल उठी। कोठरी में उसका तेज उजाला फैल गया और उस जगह का एक-एक कोना साफ दिखाई देने लगा, मगर किसी की सूरत नजर न आई।

कुछ देर तक इधर-उधर देखने और खोज-ढूँढ करने के बाद वह आदमी फर्श के उस छोटे टुकड़े के पास पहुँचा जो ऊपर वाली कोठरी से यहाँ तक आया था और उस पर चढ़ चर्खी को उलटा घुमाने लगा जिससे वह टुकड़ा धीरे-धीरे ऊपर की तरफ चढ़ने लगा और अन्त में ऊपर वाली कोठरी की जमीन के साथ जा लगा।

इस कोठरी में इस समय घोर अंधकार था। वह आदमी कुछ देर तक चुपचाप खड़ा रहा और जब किसी प्रकार की आहट न पाई तो उस कोठरी से बाहर निकल दालान में पहुंचा।यहाँ भी एक प्रकार से पूर्ण अधंकार था और किसी आदमी के होने का गुमान नहीं हो सकता था।

दालान के बरामदे के साथ पीठ लगा कर इस आदमी ने धीरे से कहा, ‘‘न-मालूम क्या बात है! वह कैसी आवाज मैंने सुनी थी और रोशनी को कहाँ ढूँढे?’’

पाठकों का तरद्दुद ज्यादा न बढ़ा कर हम बताये देते हैं कि यह वास्तव में कुँअर गोपालसिंह हैं जो वादे के मुताबिक भैयाराजा से मिलने के लिए बहुत देर से यहाँ आये हैं और उनको न पाकर बेचैन हो रहे हैं।

कुछ देर तक गोपालसिंह तरह-तरह की बातें सोचते उसी जगह खड़े रहे। उदय होते हुए चन्द्रदेव का प्रकाश धीरे-धीरे फैलने लगा और यकायक उसकी हलकी रोशनी ने बहुत दूर दो आदमियों को इधर ही आते हुए दिखलाया। उन दोनों का बदन स्याह कपड़ों से ढँका हुआ था इस कारण उनकी सूरत-शक्ल के विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता था। आगे आने वाला आदमी बीच-बीच में आगे बढ़ उसकी कुछ बातें सुनने के बाद फिर पीछे हट जाता था।

गोपालसिंह को शक हुआ कि ये दोनों कहीं भैयाराजा और उनका वह साथी न हों जिसके विषय में उन्होंने कहा था कि मेरे साथ और भी एक व्यक्ति होगा जिसे देख कर तुम बहुत ही प्रसन्न होगे। कुछ और नजदीक पहुँचने पर चाल-ढाल देख कर उनका शक और भी बढ़ा और वे दालान के बगल की कोठरी को पार कर बाहर की तरफ लपके।

परन्तु दरवाजे के पास पहुँचने पर उन दोनों आदमियों को गोपालसिंह ने कहीं न पाया और उन्हें खोजने के लिए वे सीढ़ियाँ उतर कर आगे, जिधर से उन दोनों को आते देखा था, बढ़ने लगे। अभी पचीस या तीस कदम ही गये होंगे कि पीछे से कुछ आहट मिली। निगाह फेरने पर दो आदमी सीढ़ी चलते दिखाई पड़े मगर उस जगह चन्द्रमा की रोशनी न पहुँचने के कारण वे निश्चय रूप से नहीं कह सकते थे कि ये दोनों वे ही हैं जिनको उन्होंने पहिले देखा था या कोई दूसरे पर तो भी लौटे और सीढ़ियों की तरफ बढ़े।

जब तक गोपालसिंह सीढ़ियों के पास पहुँचे तब तक वे आदमी अन्दर के कमरे में पहुँच गए और वहाँ से होते हुए किसी दूसरे स्थान में चले गये।गोपालसिंह ने इस आशा से कि अब वे इस इमारत के अन्दर ही तो कहीं होंगे कई बार धीरे-धीरे ‘चाचाजी, चाचाजी’ कह कर आवाज दी मगर कोई जवाब न मिला, लाचार फाटक बन्द करते हुए वे कोठरी में पहुँचे जहाँ से ‘ड्योढ़ी’ में जाने का रास्ता था या जहाँ से कि वे अभी थोड़ी ही देर हुई वापस हुए थे। चन्द्रमा की रोशनी आड़ी होकर बाहर वाले दालान में पहुँच रही थी जिसके कारण वहाँ का अंधकार बहुत कम हो गया था पर तो भी उस जगह किसी आदमी की सूरत नजर न आई।

‘‘कदाचित् वे ‘ड्योढ़ी में पहुँच गये हों’’ कह कर गोपालसिंह कोठरी के अन्दर गये और पहिले की तरह चर्खी घुमा कर नीचे की कोठरी में पहुँचे जहाँ की विचित्र रोशनी अभी तक उसी तरह जल रही थी मगर वहाँ भी किसी आदमी की सूरत दिखाई न दी।

बहुत देर तक इधर-उधर घूमने और कमरे-कोठरियों तथा सुरंगों में तलाश करने पर भी जब भैयाराजा या किसी दूसरे आदमी पर गोपालसिंह की निगाह न पड़ी तो लाचार दु:खी और खिन्न चित्त से वे यहाँ से निकले और ऊपर वाली कोठरी में पहुँचे, मगर वहाँ पहुँच यह देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ कि उस कोठरी का दरवाजा जिसे अन्दर जाती समय वे खुला छोड़ गए थे इस समय बन्द था। उन्हें विश्वास हो गया कि जरूर कोई-न-कोई आदमी इस कोठरी तक आया है। तो फिर वह कहाँ चला गया? इस कोठरी में से तो सिवाय अजायबघर की ड्योढ़ी के और कहीं जाने का रास्ता नहीं है! तो फिर यहाँ उस आदमी से उनकी मुलाकात क्यों न हुई? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि वह आदमी कोठरी के अन्दर न आया हो और बाहर ही से दरवाजा बन्द करता हुआ चला गया हो! लेकिन तो भी उस आदमी को यह बात तो अवश्य ही मालूम हो गई होगी कि नीचे ड्योढ़ी में कोई गया हुआ है।

इत्यादि कई तरह की बात गोपालसिंह ने तेजी के साथ सोची और तब उस दरवाजे को खोलने का प्रयत्न करने लगे। दरवाजे के ऊपरी हिस्से पर ठीक वैसी ही कड़ी लगी हुई थी जैसी कि बाहर की तरफ थी और उस कड़ी को उलटा घुमाकर दबाने से दरवाजा खुल जाता था। गोपालसिंह ने कड़ी घुमाकर दरवाजा खोलने का प्रयत्न किया मगर यह जानकर उनके आश्चर्य, दु:ख और घबराहट का कोई ठिकाना न रहा कि वह दरवाजा किसी तरह नहीं खुलता।

बहुत देर तक गोपालसिंह दरवाजा खोलने की कोशिश करते रहे मगर जब किसी तरह भी दरवाजा न खुला तो कुछ सोचते हुए फिर पहिले ढंग से नीचे वाली कोठरी अर्थात् ड्योढ़ी में पहुँचे।यहाँ इस समय अन्धकार था क्योंकि चलते समय गोपालसिंह ने सब रोशनियाँ बुझा दी थीं पर उनको फिर से जलाने में गोपालसिंह को किसी तरह का तरद्दुद न करना पड़ा और थोड़ी ही देर में वह कोठरी रोशनी में जगमग करने लगी। एक नजर चारों तरफ देखकर गोपलसिंह पूरब तरफ वाली सुरंग में घुसे और अगल-बगल के दरवाजों तथा उन पर लगे धातु के पत्तरों को देखते हुए उस दरवाजे के सामने जाकर खड़े हो गए जिसके ताले पर ‘नाले वाला दरावाजा’ लिखा हुआ था।

गोपालसिंह उदास भाव से कुछ देर तक खड़े रहे, इसके बाद उन्होंने किसी गुप्त रीति से ताला खोल कर दरवाजा खोला और कोठरी के अन्दर चले गए।

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