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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

सत्रहवाँ बयान


अपने लंगोटिया यार और पुराने साथी गुलाबसिंह का खून करते हुए भूतनाथ ने कुछ भी आगा-पीछा न किया और उसकी गरदन धड़ से अलग करने के बाद अपने शागिर्द विजय का भी सिर काट डाला, तब खंजर पोंछ ठिकाने रक्खा और वहीं जमीन पर बैठ कर सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए।

कुछ ही देर बाद यकायक भूतनाथ के कान में जफील की आवाज सुनाई दी जिसे सुन वह चौंककर खड़ा हो गया और इधर-उधर देखने लगा।

पुनः जफील की आवाज आई और इस बार भूतनाथ समझ गया कि यह सीटी पहिले की बनिस्बत नजदीक से बजाई गई है और साथ ही आवाज पूरब से आई है। यह मालूम होते ही उसने अपनी लालटेन बुझा दी जिससे वहाँ घोर अन्धकार छा गया और तब दोनों लाशों को भी खींचकर एक तरफ करने के बाद कुछ दूर आड़ में जाकर खड़ा हो गौर के साथ इधर-उधर नजर दौड़ाने लगा।

थोड़ी ही देर बाद तीसरी जफील की आवाज आई और इसी समय भूतनाथ की निगाह दो मशालों पर पड़ी जिन्हें हाथ में लिये हुए दो आदमी उसी तरफ बढ़े आ रहे थे, साथ ही भूतनाथ को यह भी मालूम हो गया कि वे दोनों आदमी अकेले नहीं हैं बल्कि उनके पीछे-पीछे और भी कई आदमी चले आ रहे हैं।

भूतनाथ चौकन्ना हो अपने स्थान से और भी पीछे हट गया क्योंकि उसने देखा कि वे आने वाले सीधे उसी की तरफ बढ़े आ रहे हैं। भूतनाथ उनको पहिचानने की चेष्टा करने लगा पर थोड़ा ही और पास आने पर उसे मालूम हो गया कि इन आने वालों में से सिवाय एक के और सभों की सूरतें नकाब से ढँकी हुई हैं।

थोड़ी ही देर में वे लोग उस जगह पर आ पहुँचे जहाँ कुछ देर पहिले भूतनाथ ने ऐसी निर्दयता का काम किया था। वहाँ पहुँच वे दोनों आदमी जो मशाल लिए हुए सबसे आगे आ रहे थे रुक गये और मशाल नीची कर गौर के साथ देखने के बाद बोले, ‘‘बेशक यहाँ कुछ खूनखराबा हुआ है।’’

दोनों मशाल वालों के पीछे-पीछे लगभग दस-बारह आदमियों का एक झुण्ड आ रह था जिनके आगे-आगे एक ऐसा आदमी था जिसकी सूरत नकाब से ढँकी न थी। मशाल वाले आदमियों की बात सुन वह आदमी आगे बढ़ आया और जमीन की तरफ देखकर बोला, ‘‘बेशक तुम लोगों का कहना ठीक है। यहाँ जरूर खूनखराबा हुआ है और वह भी थोड़ी ही देर पहिले क्योंकि खून के निशान बिलकुल ताजे हैं।’’

ज्यादा खोजने की जरूरत न पड़ी, थोड़ी ही देर में वे गुलाबसिंह तथा विजय की लाशों के पास पहुँच गये और उन्हें चारों तरफ से घेर गौर से देखने लगे।

उस बेनकाब आदमी ने जिसका नाम हम थोड़ी देर के लिए ‘जैराम’ मान लेते हैं एक आदमी की तरफ देख कुछ इशारा किया जिस पर उसने अपने कपड़ों में से एक छोटी-सी बोतल जिसमें किसी तरह का अर्क भरा हुआ था निकाली और जैराम के हाथ में दे दी।

जैराम ने आहिस्ते से इन दोनों लाशों के सिर सीधे किये और तब उस बोतल के पानी से छींटा मार-मारकर खून इत्यादि दूर किया, इसके बाद कमर से एक कपड़ा खोल उनका चेहरा साफ किया, इसके बाद मशाल की रोशनी में गौर से देखकर कहा, ‘‘हैं, ये दोनों तो गदाधरसिंह के ऐयार बहादुर और पारस हैं!’’

भूतनाथ अभी तक जैराम की तरफ गौर से देखता हुआ उसको पहिचानने की कोशिश कर रहा था पर जैराम की इस बात ने कि ‘ये दोनों तो गदाधरसिंह के ऐयार बहादुर और पारस हैं’ उसको एकदम घबड़ा दिया और वह बेचैनी के साथ कुछ आगे झुककर उन दोनों लाशों की तरफ देखने लगा।

वास्तव में उस समय भूतनाथ को वे चेहरे गुलाबसिंह और विजय के नहीं बल्कि बहादुर और पारस के ही मालूम हुए। वह एकदम परेशान हो गया और इतने आदमियों की मौजूदगी का कुछ भी ख्याल न कर झपट कर उनके पास पहुँच गया तथा जमीन पर बैठ देखने लगा कि ये सूरतें किसकी हैं। एक ही निगाह ने उसे बता दिया कि उस अजनबी का कहना ठीक है और बेशक ये दोनों उसके दो प्यारे शागिर्द बहादुर और पारस हैं जिन्हें वह जान से ज्यादा मानता था।

भूतनाथ एकदम पागल-सा हो गया। उसने अपने बटुए में से एक शीशी निकाली जिसमें किसी प्रकार का तेल था। उसे उंगली से दोनों के चेहरे पर लगा कर कपड़े से रगड़ कर पोंछा और फिर गौर से देखा मगर उन सूरतों में किसी तरह का अन्तर न पड़ा। उसे विश्वास हो गया कि उसकी आँखें उसे धोखा नहीं दे रही हैं और वास्तव में वह अपने सामने अपने प्यारे शागिर्द बहादुर और पारस की ही लाशें देख रहा है जिन्हें गुलाबसिंह और विजय समझकर उसने अपने हाथ से मार डाला था। उसने दोनों हाथों से अपना माथा पकड़ लिया और जमीन पर बैठ गया बल्कि यों कहना चाहिए कि गिर गया।

थोड़ी देर बाद भूतनाथ कुछ चैतन्य हुआ और तब उसे मालूम हुआ कि इस समय वह अकेला है और सिवाय उन लाशों तथा एक मशाल के जो उसी जगह जमीन में गड़ी हुई जल रही है वहाँ और कोई भी नहीं है। इधर-उधर नजर दौड़ाते ही उसे मालूम हो गया कि वे सब आदमी जो थोड़ी देर पहिले उस जगह मौजूद थे अपनी एक मशाल वहीं रख उसे अकेला छोड़ चले गये हैं।

थोड़ी ही देर में बहुत-सी लकड़ियाँ इकट्ठी हो गईं और तब आँसू बहाते हुए भूतनाथ ने उन दोनों लाशों को मय सिर के चिता पर रख उसमें आग लगा दी।

चिता धधकने लगी और भूतनाथ उससे थोड़ी दूर हट जमीन पर बैठ चिन्ता-सागर में गोते लगाने लगा। उसकी समझ में नहीं आता था कि यह क्या मामला हो गया! उसने अपने हाथ से उन दोनों आदमियों का चेहरा साफ किया था और इस बात का निश्चय कर लेने के बाद ही कि वे दोनों गुलाबसिंह तथा विजय हैं उनका खून किया। तब क्या उसकी आँख ऐसी कमजोर हो गईं कि अपने प्राण से प्यारे दोनों शागिर्दों को पहिचान न सका और उन्हें विजय और गुलाबसिंह समझ उनका खून कर बैठा, या इसमें भी उसके साथ किसी तरह की ऐयारी की गयी है? यद्यपि अपने इन दोनों शागिर्दों के मरने का गम उसे हद से ज्यादा हुआ पर बहुत गौर करने पर भी वह कुछ निश्चय न कर सका कि यह क्या बात हो गई।

जब तक चिता बुझकर ठण्डी न हो गई तब तक भूतनाथ वहाँ बैठा कभी सोचता और कभी अपने शागिर्दों के गम में आँसू बहाता रहा, इसके बाद वह उठा और अपने घर की तरफ रवाना हुआ।

घर पहुँचकर भी भूतनाथ ने दम न लिया। वह कुछ ही देर वहाँ रुका अपने उन शागिर्दों को जो वहाँ मौजूद थे कुछ समझाने-बुझाने के बाद एक शागिर्द को साथ लेकर बाहर निकल गया। न तो उसने अपनी स्त्री से ही मुलाकात की और न किसी शागिर्द को ही अपनी बदहवासी का सबब बताया।

संध्या होने के कुछ देर पहिले जमानिया के बाहर वाले एक कूँए पर पहुँचकर भूतनाथ रुका। मालूम होता है कि यह स्थान भूतनाथ का कोई अड्डा था क्योंकि उसके पहुँचते ही उसका एक शागिर्द जो न जाने कितनी देर से यहाँ मौजूद था उससे मिला और एक गुप्त इशारे से अपने को प्रकट करने के बाद बोला, ‘‘आपने आने में बहुत देर कर दी!’’

भूत० : हाँ मैं एक मुसीबत में पड़ गया था जिसका हाल मैं तुम्हें फिर बताऊँगा। तुम पहिले यह कहो कि नागर का मकान का पहरा दे इतने दिनों में तुमने कुछ पता भी लगाया या नहीं?

शागिर्द : कल तक तो सब साबिक-दस्तूर ही रह मगर आज मैंने एक नये आदमी को उस घर में जाते देखा है जिसे इसके पहिले कभी नहीं देखा और जिसके ऐयार होने का शक होता है। यदि आपने इस समय मुझसे यहाँ मिलने के लिए कहा न होता तो मैं अवश्य उसका पीछा करता, बल्कि ताज्जुब नहीं कि वह अभी तक वहीं हो क्योंकि उसके अन्दर जाने के बाद मजदूरनी ने आकर नौकरों को फाटक बन्द करने का हुक्म सुनाया।

भूत० : उस आदमी का हुलिया तो जरा मुझे सुनाओ, शायद मैं उसे जानता होऊँ।

अपने शागिर्द की जुबानी जो हुलिया भूतनाथ ने सुना उससे उसे विश्वास हो गया कि वह आदमी और कोई नहीं बल्कि मेघराज ही है जिसके साथ भैयाराजा के कारण कई बार उसकी देखाभाली भी हो चुकी थी।

भूतनाथ इस समय सचमुच ही बेपेंदी का लोटा हो रहा था। एक तो उसका स्वभाव ही कुछ ऐसा था कि अपने किसी एक विचार पर वह ज्यादा देर तक कायम नहीं रह सकता था, दूसरे थोड़ी ही देर पहिले वाली दुःखदायी घटना ने उसे और बदहवास कर दिया था और उसमें अपना भला-बुरा पहिचानने की शक्ति नहीं रह गई थी। यद्यपि पहिले दिन दारोगा का साथ छोड़ वह प्रभाकरसिंह तथा भैयाराजा का साथी बन चुका था, प्रभाकरसिंह के माता-पिता तथा भैयाराजा की स्त्री को छुड़ाने का कारण बन चुका था, जमना-सरस्वती के बचाने का उद्योग कर चुका था, और खास इन्द्रदेव के सामने कह चुका था कि अब वह इन झगड़ों में नहीं पड़ेगा और अपने को उनकी दया और भरोसे पर छोड़ देगा, पर इस समय ये सभी बातें उसे विस्मरण हो गयीं।उस मेघराज को जिसके विषय में कुछ बहुत ताज्जुब की बातें वह देख और सुन चुका था तथा जिसके असली भेद का पता न पाने के कारण भैयाराजा का दुश्मन बन बैठा था, इस समय अकेला और एक प्रकार से अपने दोस्त के घर में घुसा हुआ सुनकर उसका असली हाल जानने की इच्छा एकदम बलवती हो उठी और उसने यह निश्चय कर लिया कि ऐसा अच्छा मौका हाथ से जाने न देना चाहिए और जिस प्रकार हो मेघराज को अपने कब्जे में कर उनके असली भेद का पता लगाना ही चाहिये।

भूतनाथ ने सोच-विचार में ज्यादा समय नष्ट करना उचित न समझा, उसने उसी समय अपनी सूरत प्रभाकरसिंह की-सी बनाई और अपने दोनों शागिर्दों को गुप्त रीति से पीछे-पीछे आने के लिए कह तेजी के साथ नागर के मकान की तरफ बढ़ा। उसके दोनों शागिर्द भी भेष बदले और उससे थोड़ा हटे हुए उसके साथ जाने लगे।

जैसे ही मेघराज नागर के मकान के बाहर निकले वैसे ही भूतनाथ आगे बढ़ा और उनसे मिला। पाठक अब समझ ही गये होंगे कि मेघराज अथवा दयाराम की जिस प्रभाकरसिंह से मुलाकात हुई वह भूतनाथ ही था।

वह आदमी जिसने ‘चन्द्रोदय’ के नाम से अपना परिचय मेघराज को दिया था वास्तव में असली प्रभाकरसिंह ही थे। प्रभाकरसिंह ने यद्यपि मेघराज को भूतनाथ की तरफ से चैतन्य कर दिया और बता दिया था कि भूतनाथ ही मेरी सूरत बना तुम्हारे साथ है पर वह स्वयं अपने को भूतनाथ के चंगुल से बचा न सके क्योंकि भूतनाथ के उन दोनों शागिर्दों ने जो बराबर उसके पीछे छिपते आ रहे थे उन्हें देख लिया बल्कि मेघराज से उनकी बातचीत और वह परिचय का शब्द भी जिसके द्वारा प्रभाकरसिंह ने अपने को मेघराज पर प्रकट किया था सुन लिया और तब धोखे में डाल उन दोनों ने प्रभाकरसिंह को बेहोश कर अपने कब्जे में कर लिया। इस बात का पता मेघराज को कुछ भी न लगा और वे यही समझते रहे कि असली प्रभाकरसिंह अभी तक मेरी पीछे आ रहे हैं।

जिस समय मेघराज को पकड़ कर उस विचित्र सभा के लोग ले गये उस समय भूतनाथ जिसने छिपकर अपने को उन लोगों के फन्दे से बचा लिया था अपने शागिर्दों से मिला जो उसी जगह मौजूद थे और वहां उनकी जुबानी उसे मालूम हुआ कि असली प्रभाकरसिंह को वे दोनों ऐयार गिरफ्तार कर कहीं रख आये हैं। भूतनाथ के मन में मेघराज को गिरफ्तार करने की इच्छा लगी हुई थी पर उनके उस विचित्र कवच की तासीर से वह बहुत डरा हुआ था अस्तु यह सुनकर कि प्रभाकरसिंह को उसके शागिर्दों ने पकड़ लिया है वह बहुत ही प्रसन्न हुआ। वह स्वयम् तो प्रभाकरसिंह बन गया और कई बातें समझाने के बाद अपने दोनों शागिर्दों की अपने हाथ से अपने जैसी सूरत बनाकर वहाँ से रवाना कर आप इस इन्तजार में खड़ा हो गया कि थोड़ी देर में मेघराज जिनके विषय में उसे यकीन था कि सभा उनका कुछ बिगाड़ न कर सकेगी, वहाँ आ पहुँचेंगे।

भूतनाथ का ख्याल ठीक निकला और जब मेघराज सभा से उठकर आये तो वह छिपता हुआ उनके पीछे रवाना हुआ।

जब मेघराज ने अपनी समझ में असली पर वास्तव में नकली भूतनाथ को प्रभाकरसिंह की सूरत में बनाकर छोड़ दिया और सभा के आदमी उसे उठाकर ले गये तो भूतनाथ फिर मेघराज से मिला और ‘चन्द्रोदय’ शब्द का व्यवहार कर उनके साथ हो लिया। बेचारे मेघराज को कुछ भी पता न लगा कि भूतनाथ गहरी चालाकी खेल गया और उनको धोखे में डाल स्वयं फिर उनके साथ हो गया है। वे उसे ही असली प्रभाकरसिंह मान उसके साथ हो गये और अपने गुप्त स्थान (इन्द्रदेव की दी हुई उस अद्भुत घाटी) में आ पहुँचे। आने के साथ ही उनकी मुलाकात इन्द्रदेव से हुई और उनसे जो-जो बातें हुईं वह पाठक ऊपर के बयान में पढ़ ही चुके हैं, और अब यह भी समझ गये होंगे कि इन्द्रदेव ने जिस प्रभाकरसिंह से मेघराज के सामने बातें की वह वास्तव में भूतनाथ है।

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