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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

सातवाँ बयान


दोपहर का समय है पर अजायबघर के चारों तरफ वाले घने जंगल में एक प्रकार से अँधेरा ही छाया हुआ है क्योंकि सूर्य की किरणों में वहाँ के पेड़ों की घनी छाया को भेदकर जमीन पर पहुँचने की ताकत नहीं है।

अजायबघर की इमारत के नीचे से बहने वाले चश्मे के किनारे हम दो आदमियों को बैठे हुए देख रहे हैं जिनको हमारे पाठक बाखूबी जानते हैं क्योंकि एक तो जमानिया के प्रसिद्ध दारोगा साहब हैं और दूसरे हैं उनके प्रिय दोस्त जैपालसिंह। अवश्य ही उन दोनों में इस समय किसी गूढ़ विषय पर बातचीत हो रही है जिसका किसी भी दूसरे के कानों तक पहुँचना शायद वे पसन्द नहीं करते क्योंकि थोड़ी देर तक उनका चारों तरफ होशियारी के साथ देखना इस बात की सूचना देता है।

जैपाल की किसी बात के उत्तर में दारोगा ने कहा–

दारोगा : हेलासिंह के साथ आमने-सामने बातें न करके चीठी के जरिये बातचीत करने में सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि अगर कभी वह अपने कथन से फिर गया तो हम लोगों के पास इस बात का सबूत रहेगा कि वह भी हमारी इस कार्रवाई में शामिल रहा है बल्कि उसी के कहने पर यह सब काम किया गया।

जैपाल : बेशक यह तो ठीक ही है, और इस बात का सबसे अच्छा सबूत उसकी वह चीठी होगी जो उस दिन उसने मेरे पास भेजी है।

दारोगा : हाँ जरा वह चीठी फिर से तो निकालो।

जैपाल ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर एक चीठी निकाली जिसे बहुत सावधानी के साथ छिपाये हुए था और उसे दारोगा के हाथ में देते हुए कहा, ‘‘भाग्यवश मेरी चाल ठीक बैठ गई और पहिले हेलासिंह ही ने मुझे चीठी भेजी। अब उसे यह कहने का मौका नहीं रहा कि हम लोग स्वयं चाहते हैं कि मुन्दर की शादी गोपालसिंह के साथ हो जाए।

दारोगा ने चीठी खोलकर पढ़ा, यह लिखा हुआ था-

‘‘श्रीयुत् रघुबरसिंह योग्य लिखी हेलासिंह का राम-राम,

मेरे प्यारे दोस्त,

आपको मालूम है कि राजा गोपालसिंह की शादी बलभद्रसिंह की लड़की लक्ष्मीदेवी के साथ होने वाली है,मगर मैं चाहता हूँ कि आप कृपा करके कोई ऐसा बंदोबस्त करें जिससे वह शादी टूट जाय और उसके बदले में मेरी लड़की मुन्दर की शादी राजा गोपालसिंह के साथ हो जाय। अगर ऐसा हुआ तो मैं जन्मभर आपका अहसान मानूँगा और जो कुछ आप कहेंगे करूँगा, मुझे आपकी दोस्ती पर भरोसा है।

शुभम्

दारोगा : (चीठी पढ़कर) इस चीठी में हेलासिंह ने बड़ी भारी धूर्तता की।

जैपाल : सो क्या?

दारोगा : साफ तो बात है, देखो पहिले तो इस चीठी में कहीं दिन या मिती नहीं दी गई है जिससे हम साबित कर सकें कि चीठी फलाँ वक्त हमारे पास आई थी, दूसरे इसमें हर जगह कुँअर गोपालसिंह को राजा गोपालसिंह कह के लिखा है।

जैपाल : (गौर से चीठी देखकर) बेशक आपका कहना ठीक है, इसका मतलब क्या है?

दारोगा : इसका अर्थ यह है कि राजा गिरधरसिंह के मरने और गोपालसिंह के राजा बनने के बाद यह चीठी लिखी गई है, यह पढ़ने वाले पर साबित हो और इसमें वह यह बात भी दरसाता है कि राजा गिरधरसिंह को मारे बिना हम लोगों को अपने काम में सफलता नहीं मिल सकती।

जैपाल : हाँ, यह बात भी हो सकती है। (रुककर) तो क्या उसे मालूम हो गया कि हम लोग राजा साहब को इस दुनिया से उठा दिया चाहते हैं?

दारोगा : हाँ, क्योंकि कल कमेटी में मैंने इस बात का जिक्र उठाया था कि राजा गिरधरसिंह राज्य बहुत बुरी तरह चला रहे हैं और शीघ्र ही यदि इस बात का कोई प्रबन्ध नहीं किया जायगा तो वे इस राज्य को चौपट कर देंगे। मगर सिवाय इस बात के मारने-न-मारने के विषय में मैंने कुछ भी नहीं कहा था।

जैपाल : अच्छा! तब आपकी बात का सभासदों ने क्या उत्तर दिया?

दारोगा : बहुत-से लोग मेरी बात से सहमत हुए बल्कि कइयों की राय हुई कि इनको उतारकर भैयाराजा को गद्दी पर बिठाया जाय पर मैं इस बात को भला कैसे स्वीकार कर सकता था? अस्तु मैंने यह बात वहीं खतम कर दी, फिर किसी समय मौके से उसकी चर्चा छोड़ूँगा।

जैपाल : अच्छा यह बताइए, हेलासिंह को इसे चीठी का जवाब क्या दिया जाय?

दारोगा : आज जरा ठहर जाओ, समझ-बूझकर जवाब देंगे।

जैपाल : आपको शायद मालूम नहीं कि आज बलभद्रसिंह महाराज से मिलने आये थे और यह निश्चय हो गया कि शादी जहाँ तक हो सके जल्द ही कर दी जाय।

दारोगा : (चौंककर) क्या वास्तव में ऐसी बात है, बलभद्रसिंह महाराज से मिलने आए थे, मगर आश्चर्य की बात है कि यह खबर मेरे किसी आदमी ने मुझको नहीं दी!

जैपाल : आज आप सुबह से ही गोपालसिंह वाले मामले की फिक्र में पड़े हुए थे, दूसरे बलभद्रसिंह बहुत सवेरे बल्कि यों कहना चाहिए कि रात ही को यहाँ आये तड़के ही महाराज से बातें कर बिदा भी हो गये।

दारोगा : (कुछ सोचकर) खैर कोई हर्ज नहीं, इसका भी बन्दोबस्त किया जायगा। अब इस समय इन बातों को बन्द करो और जिस काम के लिए आये हो उसे करो।

जैपाल : हाँ, पहिले हमें अजायबघर की सब अजायबातों को अच्छी तरह देख-समझ लेना चाहिए। (मुस्कुराकर) ईश्वर की दया से आपकी आज की चाल बहुत ही ठीक बैठी और गोपालसिंह की जान बचाने के इनाम में आपको ऐसा उत्तम स्थान महाराज ने दे दिया।

दारोगा ने भी इसके जवाब में मुस्कुरा दिया और तब दोनों आदमी सीढ़ियाँ चढ़कर मकान के अन्दर चले गए।

लगभग घण्टे-भर तक ये दोनों आदमी उस इमारत के अन्दर न-मालूम क्या-क्या करते रहे, इसके बाद पहिले दारोगा मकान के बाहर निकला और उसके पीछे-पीछे जैपाल तथा दोनों आदमी शहर की तरफ रवाना हुए।

अभी ये लोग बहुत दूर न गये होंगे कि यकायक दारोगा की निगाह भूतनाथ पर पड़ी जो पगडण्डी के किनारे ही एक घने पेड़ के नीचे लेटा हुआ था। भूतनाथ को देखते ही दारोगा झिझका मगर उसी समय भूतनाथ उठकर बैठ गया और इन दोनों की तरफ देखकर बोला, ‘‘आइए, आइए, मैं बहुत देर से आप ही लोगों की राह देख रहा हूँ।

दारोगा ने अपने मन के भाव को छिपा हँसकर कहा, ‘‘क्यों? क्या अब भी यहाँ से किसी को छुड़ाकर ले जाना है?’’

भूत० : (आश्चर्य का मुँह बनाकर) सो क्या? आपके इस कहने का क्या मतलब?

दारोगा : सिर्फ इतना ही कि मेरे साथ तरह-तरह के वादे करने और दोस्ती का इकरार करने पर भी अन्त में आपने मुझी को धोखा दिया और अजायबघर से मेरे कई कैदी निकाल ले गए।

भूत० : बड़े ही ताज्जुब की बात है! मुझे कुछ भी समझ में नहीं आता कि आप कब की बात कह रहे हैं! मैं तो इधर बहुत दिनों से आपसे मुलाकात तक नहीं कर सका, भला फिर आपके किसी कैदी को क्यों और कैसे छुड़ा ले जाऊँगा!

दारोगा : (हँसकर) बहुत खासे, थोड़ी ही देर में कह देना कि मैं तुमसे कभी नागर के मकान पर भी नहीं मिला था!

भूत० : नहीं नहीं, सो मैं भला कैसे कह सकता हूँ, मगर मेरे कहने का मतलब यह है कि उस दिन के बाद से आज तक फिर मैंने आपको कभी नहीं देखा और न आपके मकान पर ही कभी गया।

दारोगा : (अविश्वासपूर्वक) तो क्या परसों रात को तुम भैयाराजा के साथ मेरे मकान पर नहीं गए थे!

भूत० : हरगिज नहीं! मैं तो उस दिन नागर के मकान पर से जो आपसे बिदा हुआ तो फिर आपकी मैंने सूरत तक नहीं देखी और आप कहते हैं कि भैयाराजा के साथ आपके मकान पर गया था! जरूर यह किसी दुष्ट ऐयार का काम है जिसने मेरी सूरत बन आपको धोखा दिया है, और आश्चर्य की बात तो यह है कि इस समय मैं आपके साथ जैपालसिंह को देख रहा हूँ जिनके दुश्मन के कब्जे में पड़ने की खबर स्वयं मैंने ही आप तक पहुँचाई थी और जिनको छुड़ाने के लिए हरनामसिंह को साथ लेकर मैं गया भी था, पर कुछ कार्य न हो सका जिसका मुझे बहुत अफसोस है। यह कब और कैसे छूट आए?

भूतनाथ की इन चलती-फिरती बातों ने दारोगा को सोच में डाल दिया और सिर नीचा कर कुछ देर चुपचाप सोचने के बाद उसने भूतनाथ से कहा, ‘‘अच्छा तो जिस दिन तुम मुझसे नागर के मकान पर मिले उस दिन के बाद से आज तक तुम कहाँ थे?

भूत० : मैं अपने मालिक रणधीरसिंह जी के पास गया हुआ था जिन्हें मेरी बहुत सख्त जरूरत पड़ गई थी। तब से अब तक उन्हीं के काम में फँसा रहा और आज ही फुरसत पाकर इस तरफ आ रहा हूँ।आपको इस तरफ आते देख इस ख्याल ये यहीं रुक गया था कि आप अपना काम करके लौटें तो आपसे बातें करूँ क्योंकि मुझे स्वयं इस बात का अफसोस था कि आपके साथ वादा करने पर भी लाचारी में पड़ जाने के कारण मैं आपका कोई काम न कर सका था। मगर यहाँ आपकी बातों से कोई दूसरी ही बात मालूम होती है। भला यह तो कहिए कि आपके कौन-कौन से कैदी छूट गए हैं जिनके छु़ड़ाने का इलजाम आप मुझ पर लगाना चाहते हैं।

दारोगा : दो औरतें जिनको मैं जमना और सरस्वती समझता हूँ मेरी कैद से निकल गईं और हरनामसिंह तथा बिहारीसिंह भी शायद छुड़ाने वालों के ही फन्दे में पड़ गये हैं क्योंकि उनका भी तब से पता नहीं है। अभी तक मुझे यही विश्वास था कि तुम्हीं इन सभों को ले गए हो मगर अब तुम कुछ दूसरी ही बात कह रहे हो!

भूत० : भला आप ही सोचे कि यह भी कोई बात है कि आप जमना-सरस्वती को गिरफ्तार करें और मैं उन्हें छुड़ा लाऊँ! मैं जिन लोगों का इस दुनिया से उठ जाना पसन्द करता हूँ उन्हीं लोगों को कैद से छुड़ाने की कोशिश करूँगा! यह तो आपको खुद सोचना चाहिए कि क्या गदाधरसिंह इतना बेवकूफ है कि अपने पैर में आप कुल्हाड़ी मारेगा?

दारोगा : अजीब बात है, कुछ समझ में नहीं आता! अगर वह तुम नहीं थे जो उस रात को भैयाराजा के साथ मेरे मकान में आए और मेरी कारीगरी से बेहोश हुए थे तो तुम्हारी ही सूरत का कोई ऐयार होगा।

भूत० : जरूर यही बात है। हाँ, एक बात तो आपसे कहना ही मैं भूल गया। मैंने सुना है कि आजकल दलीपशाह ने मेरे विरुद्ध कमर कसी है और मेरी सूरत बन इधर-उधर घूमा-फिरा करता है, मैंने हरनामसिंह से भी इस बात का जिक्र किया था पर उसने शायद आपसे नहीं कहा।

दारोगा : हाँ उसने कहा था कि गदाधरसिंह कहते हैं कि मेरी सूरत में आने और तुम्हें कैद कर भैयाराजा को छुड़ा ले जाने वाला वास्तव में दलीपशाह है, तो मुमकिन है कि वही तुम्हारी सूरत में मेरे यहाँ भी पहुँचा हो, खैर इन बातों का तो फैसला इस तरह खड़े-खड़े नहीं हो सकता, तुम शाम को मुझसे मिलो तो अच्छी तरह बातचीत करके ठीक-ठीक निश्चय किया जाए कि मामला क्या है?

भूत० : बहुत अच्छा मैं आज तो नहीं पर कल शाम को आपसे जरूर मिलूँगा।

दारोगा को सलाम कर भूतनाथ वहाँ से चला गया और दारोगा जैपाल से बातचीत करता हुआ जमानिया की तरफ रवाना हुआ।


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