मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 3 भूतनाथ - खण्ड 3देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण
पाँचवाँ बयान
रात होने में अभी घण्टे-भर से ज्यादे देर है पर सन्नाटे ने अभी से जंगल और मैदान में अपना दखल जमाना शुरू कर दिया है। आसमान से बातें करने वाले बड़े-बड़े पेड़ इस समय एकदम शान्त भाव से खड़े हैं और उनका एक पत्ता भी हिलता हुआ दिखाई नहीं देता। प्राय: संध्या के समय चहकने और फुदकने वाली चिड़ियों ने भी अपने घोंसलों का आश्रय ले लिया है और उनकी मीठी तान भी किसी ओर से आती नहीं सुनाई देती।
सूर्यदेव अस्ताचलगामी हुए रात्रि का अन्धकार और भी तेजी के साथ बढ़ने लगा और उसके साथ ही जंगल के सन्नाटे में भी ज्यादती हो गई। मगर कुछ ही देर बाद पूरब तरफ से काले बदल उठते हुए दिखाई पड़ने लगे और ऐसा मालूम हुआ मानों तेज आँधी के साथ पानी भी अब आया ही चाहता है।
ऐसे समय में हम दो सवारों को जमानिया की सड़क पर से जाते देख रहे हैं। दोनों के तेज घोड़े इस समय पसीने से लथपथ हो रहे हैं पर तो भी आने वाले तूफान की तरफ ध्यान देकर वे उनकी चाल कम नहीं कर रहे हैं।
दोनों सवारों के चेहरों पर नकाबें पड़ी हुई हैं, चुस्त और कीमती पोशाक साथ ही कई तरह के हरबे भी बदन पर सजे हुए हैं, और कीमती तलवारें उछल-उछल कर घोड़ों की पीठ से लगती हुई मानों उनकी तेजी पर शाबाशी दे रही हैं।
देखते-देखते अंधकार चारों तरफ फैल गया और तेज हवा के झोंकों से जंगल गूँजने लगा, साथ ही पानी की बूँदे भी गिरने लगीं जिसे देख एक सवार ने कुछ घबड़ाकर अपने साथी से कहा, ‘‘लीजिए अब तो पानी भी आ गया, अब कहीं रुक जाना ही मुनासिब है।
दूसरे ने यह सुन जवाब में कहा, ‘‘मगर इस जंगल में सिवाय पेड़ों की आड़ के रुकने लायक जगह मिलेगी ही कहाँ?’
’पहिला : कुछ दूर आगे सड़क के किनारे एक जगह ऐसी है जहाँ कुछ आराम मिल सकता है, यदि वहाँ कोई मुसाफिर न हुआ तो!
दूसरा : तब वहीं चलना चाहिए, पानी तो बेतरह आता दिखाई देता है।
दोनों तेजी के साथ बढ़ने लगे। अन्धकार और हवा की सनसनाहट तथा तेजी बढ़ने लगी और कुछ ही देर बाद इतनी हो गई कि कुछ बात करना या कहना तक मुश्किल हो गया। कुछ दूर और जाते-जाते पानी भी अपनी पूरी तेजी से बरसने लगा और बिजली की कड़कड़ाहट आँधी की सनसनाहट के साथ मिलकर कान के परदे फाड़ने लगी।
दोनों सवारों के कष्ट का कोई ठिकाना न रहा मगर यकायक बिजली की रोशनी में किनारे पर ही एक पक्का कूआँ उन्हें दिखाई दिया जिसकी ऊँची जगत के निचले हिस्से में एक अच्छा दालान इस लायक बना हुआ था जिसमें बैठ वे लोग यद्यपि बौछार से तो नहीं पर पानी और आँधी से अपने को बहुत कुछ बचा सकते थे।
दोनों सवार इसी को गनीमत समझकर अपने-अपने घोड़ों पर से उतर पड़े जिनको उन्होंने अपने साथ ही उस दालान के अन्दर कर लिया जो ऊँचाई या चौड़ाई के खय़ाल से किसी तरह कम या छोटा न था। बिजली की रोशनी में यह भी दिखाई पड़ा कि उस दालान में से एक तरफ से तो कुएँ के ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं और दूसरी तरफ एक कोठरी है जिसका दरवाजा बन्द है।
दोनों साथियों में से एक ने उस कोठरी का दरवाजा खोलना चाहा पर वह न खुला (शायद अन्दर से बंद हो) इससे वे दोनों लाचार हो उस दालान के एक कोने में बैठ गये और दो कम्बलों की मदद से जो घोड़ों के साथ थे पानी और बौछार से अपने को यथासम्भव बचाने की चेष्टा करने लगे। थोड़ी देर बाद यद्यपि पानी में तो कुछ कमी नहीं हुई पर हवा की तेजी कम हो गई और दालान के अन्दर बौछार का आना बन्द हो गया जिससे वे दोनों भी अब कुछ आराम के साथ कम्बल बिछाकर लेट गये और आपस में धीरे-धीरे बातें करने लगें।
एक : यह पानी बड़े बेमौके आया नहीं तो हम लोग अवश्य जमानियाँ पहुँच जाते।
दूसरा : हाँ, और यह रात-भर बन्द होता भी नहीं दिखाई देता।
पहिला : अगर इस समय पानी कुछ कम हो जाय तो हम लोग चल पड़ेंगे क्योंकि अब हम जमानिया से ज्यादा दूर नहीं हैं।
दूसरा : जमानियाँ पहुँचकर आप सीधे दारोगा साहब के यहाँ जाइएगा?
पहिला : नहीं, क्योंकि अब वैसा करने की कोई जरूरत नहीं रही।
दूसरा : क्यों?
पहिला : महाराज ने गोपालसिंह की शादी लक्ष्मीदेवी से करने का वचन मुझे दे दिया है।
दूसरा : हाँ, मगर दारोगा साहब तो इस शादी के विरुद्ध हैं!
पहिला : भले ही रहा करें, पर अब वे कर ही क्या सकते हैं? और फिर मैं समझता हूँ कि अब वे अपना विरोध छोड़ देंगे।
दूसरा : न-मालूम उन्हें इस शादी से इतनी चिढ़ क्यों हो गई है? उनका तो इससे कोई संबंध भी नहीं है।
पहिला : कोई भी नहीं, ईश्वर जाने क्या बात है? सच तो यह है कि उनसे दोस्ती होते हुए भी इस मामले के कारण मुझे उनसे बहुत चिढ़ हो गई है और मैं उनसे मिलना या बोलना तक पसन्द नहीं करता।
दूसरा : वही हाल मेरा भी है, मुझे स्वयं उससे नफरत हो गई है, यद्यपि मेरा उससे कोई खास वास्ता नहीं है तथापि मैं उसके सब हाल-चाल की खबर बराबर रखता हूँ और मुझे बाखूबी मालूम है कि ऊपर से वह चाहे जितना महात्मा और साधु बना रहे पर भीतर-ही-भीतर बड़ा ही कमीना तथा नमकहराम आदमी है। और उसके साथी भी वैसे ही मिल गए हैं- जैपालसिंह, हेलासिंह, गदाधरसिंह इत्यादि उनके दोस्त भी उसी की टक्कर के हैं।
पहिला : (हँसकर) भला गदाधरसिंह को आप क्यों बदनाम कर रहे हैं, वह तो आपका...
दूसरा : (बात काटकर) चाहे वह मेरा कोई भी हो मगर असल बात तो कहने में आती ही है। गदाधरसिंह के सिर से अपने मालिक को मारने का कसूर कभी नहीं जाएगा, और न उसकी स्त्रियों के साथ कुटिलता करने के कलंक का टीका ही उसके माथे से कभी दूर होगा।
पहिला : मगर रणधीरसिंह तो ऐसा नहीं समझते हैं?
दूसरा : न समझें, यह उनकी भूल या नादानी है और इसके लिए कभी-न-कभी जरूर उन्हें अफसोस करना पड़ेगा।पर दरअसल बात यह है कि उन्हें अभी इन मामलों की कोई खबर ही नहीं लगी है और दयाराम के मर जाने के बाद से वे एकदम उदासीन तथा संसार से विरक्त हो गये हैं जिससे इन सब बातों की खोज भी करने में उन्हें कोई इच्छा नहीं जान पड़ती। नहीं तो वे अगर सच्चा हाल जानते तो गदाधरसिंह से अवश्य बुरी तरह पेश आते। और फिर भूतनाथ के ऊपर केवल यही एक इलजाम तो नहीं है, दारोगा इत्यादि के साथ मिल उसने न-जाने और कितने दुष्ट-कर्म किए हैं जिनका कोई ठिकाना है?
पहिला : मुश्किल तो यह है कि उसमें स्थिरता बिलकुल नहीं है। अभी दारोगा का साथी बना है, तुरन्त ही उसको छोड़ किसी दूसरे का साथी बन जाएगा, उससे किसी बात पर रंज हुआ कि चट उसका भी दुश्मन बन बैठेगा और किसी तीसरे से दोस्ती का दम भरने लगेगा।
दूसरा : हाँ, यही तो बात है, हम लोगों के देखते-देखते वह न-जाने कितनी दफ़े दारोगा का साथी बन चुका है और कितनी दफे प्रभाकरसिंह वगैरह का काम कर चुका है, इसका तो पता ही नहीं लगता कि वह कब क्या सोचता और क्या करने की इच्छा रखता है। उसके कसम खाने और प्रतिज्ञा करने का तो और भी एतबार नहीं रह गया है। झूठों और दगाबाजों का उसे सिरताज कहना चाहिए।
पहिला : मगर ऐयारी में तेज है।
दूसरा : हाँ सो तो है, मगर केवल ऐयारी और धूर्तता में तेज़ होने का अर्थ यह तो नहीं है कि मनुष्य जो चाहे बुरा-भला काम किया करे।
पहिला : नहीं नहीं, सो कैसे हो सकता है।
दूसरा : यदि मान भी लिया जाय कि वह जैसा कहता है कि मैंने भूल से दयाराम को मारा- यह बात ठीक है तो भला दयाराम की स्त्रियों से दुश्मनी करने की क्या जरूरत थी? यदि यह कहा जाय कि वे अपने पति का बदला लिया चाहती थीं तो भूतनाथ उनकी बनिस्बत बहुत ज्यादा ताकतवर था, उन्हें किसी अच्छे ढंग से अपनी बेकसूरी साबित करके दिखा देता कि वास्तव में वह दयाराम का खूनी नहीं है।सो न करके उन बेचारी औरतों की भी जान लेने का प्रयत्न करना बल्कि साथ ही साथ उनके मित्रों और रिश्तेदारों पर भी सफाई का हाथ फेरना क्या वाजिब था?
पहिला : मगर वह तो इन सभी बातों से अपने को दूर बतलाता है और कहता है कि मैं बिल्कुल बेकसूर हूँ।
दूसरा : मेरे सामने भला वह ऐसा कहे तो सही! उसकी एक-एक बात खोल कर दिखा दूँ, बड़ा सच्चा बना फिरता है!
पहिला : हाँ आप तो उसका सब हाल जानते ही हैं। आप ही के वे सबब से तो जमना और सरस्वती का वह कुछ बिगाड़ नहीं सका, नहीं तो वह क्या उन्हें जीता छोड़ता?
दूसरा : खैर इन सब बातों का जिक्र करने से कोई फायदा नहीं, अब पानी बंद हो गया है केवल बदली है सो भी साफ हो रही है, अब यदि आप चाहें तो यहाँ से चल सकते हैं।
पहिला : हाँ अब चलना चाहिए, यहाँ रुकने की कोई आवश्यकता नहीं है, कपड़े इत्यादि सब बिलकुल तरबतर हो गये हैं, इन्हें बदलना होगा और बिना जमानिया पहुँचे इसका कोई बन्दोबस्त नहीं हो सकता।
दोनों साथी उठ खड़े हुए और दो सामान ठिकाने कर घोड़ों को दालान के बाहर निकाला। पानी अब बिल्कुल बन्द हो गया था और बादल फट रहे थे। पूरब तरफ से उठते हुए चन्द्रदेव की शीतल किरणें बादलों में से छन-छनकर आने लगी थीं।
दोनों आदमी अपने घोड़ों पर सवार हुए और सड़क पर आकर तेजी के साथ जमानिया की तरफ रवाना हुए। उसी समय दालान वाली कोठरी का दर्वाजा जो पहिले बन्द था खुला और भूतनाथ निकल कर बाहर आया।
उन दोनों सवारों की तरफ देखकर जो अब दूर निकल गये थे भूतनाथ ने क्रोध से दाँत पीसा और कहा, ‘‘भला दलीपशाह, कोई हर्ज नहीं, इन बातों का बदला लिए बिना भूतनाथ कदापि न रहेगा। मैंने तो तुम्हारी प्रतिज्ञा पर विश्वास किया था और सोचा था कि तुम दयाराम वाले भेद को अपनी जुबान से किसी पर प्रकट न करोगे मगर अब मालूम हो गया कि तुम्हारी प्रतिज्ञा कहाँ तक सच है।
इतना कह भूतनाथ ने पुन: क्रोध से उस तरफ देखा और तब लौट के दालान वाली कोठरी के पास जाकर कहा, ‘‘पारस, अब तुम रोशनी कर लो, वे दोनों चले गये।’’
कोठरी के अन्दर भूतनाथ का पारस नामी शागिर्द भी था जिसे पाठक छठे भाग के बारहवें बयान में देख चुके हैं। भूतनाथ की आज्ञानुसार पारस ने रोशनी की और भूतनाथ खुद भी कोठरी के अन्दर चला गया।
कोठरी में एक मामूली कम्बल बिछा हुआ था जिस पर बैठकर भूतनाथ ने पारस से कहा, ‘‘मेरी इच्छा तो हुई इसी समय इन दोनों का पीछा करूँ और देखूं कि ये दोनों कहाँ जाते और क्या करते हैं पर सवेरे ही हरदीन को मिलने का वादा किया हुआ है इससे रुक गया।’’
पारस० : इनमें एक तो दलीपशाह हैं!
भूत० : हाँ वही है, मैं इसे बोली से पहचान गया, मगर दूसरा आदमी न जाने कौन है? दूर होने के सिवाय वे दोनों बातें भी बहुत धीरे-धीरे कर रहे थे इससे उस दूसरे आदमी को मैं पहिचान न सका।
पारस० : ।यदि आज्ञा हो तो मैं उसका पीछा करूँ, यद्यपि वे दोनों घोड़ों पर सवार हैं पर मैं भी उनको शीघ्र ही...
भूत० : नहीं, इसकी कोई जरूरत नहीं, मैं इस समय कुछ दूसरा काम तुम्हारे सुपुर्द किया चाहता हूँ।
पारस० : आज्ञा!
भूत० : इन दोनों के आने के पहिले यह तो मैं तुमसे कह ही चुका हूँ कि मैंने रामेश्वरचन्द्र को अपनी सूरत बनाकर रणधीरसिंह जी के यहाँ भेज दिया है।
पारस० : जी हाँ।
भूत० : उसे रवाना करने के बाद मैं स्वयं काशी पहुँचा और मनोरमा से मिला, उसके मकान पर मैंने दो आदमियों को देखा जिन्हें कई दिन पहिले मैं गिरफ्तार करके लामाघाटी भेज चुका था। मैंने उन दोनों को छोड़ देने की कोई आज्ञा नहीं दी इससे मुझे शक होता है कि उन दोनों को किसी ने कैद से छुड़ा दिया है।अस्तु तुम लामाघाटी जाकर इस बात का पता लगाओ कि वास्तव में क्या बात है और वे दोनों कैसे छूट गये, लेकिन सिर्फ इतना ही नहीं इसके सिवाय और भी एक-दो बातों का तुम्हें पता लगाना पड़ेगा।
भूतनाथ पारस को बहुत देर तक कुछ कहता और तरह-तरह की बातें समझाता रहा। इसके बाद बोला, ‘‘अब बादल बिल्कुल साफ हो गये, तुम इसी समय चले जाओ। मैं बाकी रात इसी जगह काट दूँगा क्योंकि कल सुबह ही हरदीन से मिलने का वादा कर चुका हूँ।’’
पारस ‘बहुत अच्छा’ कहकर वहाँ से रवाना हुआ और भूतनाथ ने वह रात उसी कोठरी में काटी। सुबह की सुफेदी आसमान पर फैल रही थी जब वह छोटी कोठरी के बाहर निकला और अपना कम्बल लपेटकर पास ही के एक पेड़ पर रख देने के बाद कोठरी को खुला छोड़कर हरदीन से मिलने के लिए रवाना हो गया। हरदीन से उसकी जो कुछ बातें हुईं या उसके बाद जो हुआ पाठक ऊपर के बयान में पढ़ चुके हैं।
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