मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 3 भूतनाथ - खण्ड 3देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण
तीसरा बयान
दोपहर का समय है। जमानिया के खास बाग में एक सजे हुए कमरे में राजा गिरधरसिंह सुनहरे पाँवों के सुन्दर पलंग पर लेटे हुए हैं, बगल में ही कुँवर गोपालसिंह बैठे हैं और पलंग की पाटी का सहारा लिए महाराज की तरफ कुछ झुके हुए उनसे बातें कर रहे हैं। इन दोनों के सिवाय इस कमरे में कोई दिखाई नहीं देता।
गोपाल० : यद्यपि मुझ पर हमला करने वालों ने गिनती में ज्यादे होने पर भी कोई तेजी या फुर्ती नहीं दिखाई तथापि मैं यह जरूर कहूँगा कि दारोगा साहब के पहुँच जाने से मुझे बहुत कुछ मदद मिली। अगर वे न पहुँचते तो कदाचित् मुझे उन दुष्टों के हाथ से तकलीफ उठानी पड़ जाती।
महा० : बेशक ऐसा ही है, दारोगा का वहाँ पहुँच जाना बहुत ही अच्छा हुआ, तुम्हारी मदद करने में बेचारे को चोट भी आई जिससे वह वहाँ ज्यादे देर तक न ठहर सका। इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह हमारा सच्चा हितैषी है।
गोपाल : जी हाँ, आपका उस पर बहुत विश्वास और भरोसा है।
महा० : वह विश्वास के लायक आदमी है, उस पर भरोसा न करेंगे तो किस पर करेंगे?
गोपाल० : (कुछ देर तक चुप रहकर) अजायबघर की तालियाँ भी उनको दे दी गई...
महा० : हाँ मैंने इस इमारत की ताली उसी को दे दी है। एक ताली वह पहिले ही माँग ले गया था दूसरी भी उसे दे दी। उस जगह का बहुत कुछ भेद मैं उसे बता चुका हूँ।
वह उस ऊपरी बंगले में आराम के साथ रह सकता है, उसके ऐसे साधु-प्रकृति आदमी के रहने लायक वह निराला स्थान है भी बहुत अच्छा।
गोपाल० : सिवाय उन दोनों तालियों के और कोई ताली तो अजायबघर की है नहीं?
महा० : उन तालियों के सिवाय एक किताब भी इसी प्रकार की है जिसके पढ़ने से उस जगह का पूरा-पूरा हाल जाना जा सकता है और दरवाजे खोलने के लिए किसी तरह की तालियों की भी जरूरत नहीं पड़ती। उस किताब को भी ‘ताली’ ही के नाम से संबोधन करते हैं मगर इस समय मुझे स्मरण नहीं है कि वह कहाँ है या किसके पास है, शायद भैयाराजा से पूछने से कुछ पता लगता मगर अफसोस, वह तो एक जरा-सी बात पर मुझसे रंज होकर चले गए। इस बात का भी कुछ खयाल...
इतना कहते-कहते महाराज का गला भर आया और आँखें डबडबा उठीं मगर उन्होंने शीघ्र ही अपने को सम्हाला और गोपालसिंह से आगे कुछ कहा ही चाहते थे कि चोबदार ने हाजिर होकर भरथसिंह के आने की सूचना दी। महाराज ने प्रसन्नता के साथ उनको बुलवा भेजा और पलंगड़ी पर, जिस पर लेटे हुए थे, तकिये के सहारे उठंग कर बैठ गये। इसी समय भरथसिंह आ पहुँचे और महाराज को सलाम कर कुँवर गोपालसिंह के बगल में बैठ गये।
महा० : (भरथसिंह से) आज बहुत दिनों के बाद नजर आये!
भरथ० : जी हाँ महाराज, कई प्रकार की झंझटों में ऐसा फंसा हुआ था कि दर्शन न कर सका। आज (गोपालसिंह की तरफ देखकर) इनके विषय में कुछ विचित्र खबर पाकर आना पड़ा, सुना कि जंगल में उनके ऊपर कई आदमियों ने हमला कर दिया था।
महा० : हाँ, आज सुबह ये हवा खाने की नीयत से जंगल की तरफ गये थे। वहीं कई आदमी इन पर टूट पड़े। बारे दारोगा साहब अपने एक दोस्त के साथ वहाँ पहुँच गये जिनकी मदद से इनकी जान बची, अगर वे लोग न पहुँचते तो इनके लिए जरूर मुश्किल हो जाती।
भरथ० : (आश्चर्य से) मगर यह तो बड़ी बुरी खबर है! महाराज ने उन लोगों का पता लगाने की आज्ञा दी जिन्होंने ऐसा काम किया?
महा० : हाँ, मैंने दारोगा साहब से कह दिया है, वे जरूर उन दुष्टों का पता लगावेंगे। मगर वह बेचारा खुद जख्मी हो गया है।
भरथ० : (कुछ ठहककर, गोपालसिंह से) आपने उन आदमियों को पहिचाना जिन्होंने आपके ऊपर हमला किया था?
गोपाल : नहीं, बिल्कुल नहीं।
भरथ० : कोई उनमें से जख्मी भी हुआ था?
गोपाल : हाँ एक आदमी मेरे नेजे की चोट खाकर गिरा था। मगर बाद में मालूम हुआ कि वह भी उठकर भाग गया क्योंकि उसे लेने के लिये दारोगा साहब ने जब आदमियों को भेजा तो वहाँ कोई न मिला।
भरथसिंह यह सुन कुछ देर तक चुप रहे इसके बाद महाराज की तरफ देखकर बोले, ‘‘जमानिया के इतने नजदीक और खास कुँवर साहब पर इस तरह का हमला होना बड़े आश्चर्य और दु:ख की बात है! दारोगा साहब तो उन दुष्टों का पता लगाने की चेष्टा करेंगे ही, पर मैं यह अवश्य कहूँगा कि महाराज को और जरियों से भी पता लगाने की पूरी चेष्टा करनी चाहिए तथा भविष्य में पुन: ऐसा न हो इस बात का भी पूरा प्रबन्ध होना चाहिए।
महाराज : हाँ हाँ, ऐसा तो किया ही जाएगा। उन कम्बख्तों को पूरी सजा दी जायगी और आगे के लिए भी ऐसा प्रबन्ध होगा जिसमें वे लोग आज-सी कार्रवाई फिर न करने पावें।
भरथ० : अवश्य ऐसा ही होना चाहिए। (ठहरकर) आज्ञा हो तो मैं चलूँ क्योंकि महाराज के आराम का समय हो गया है और मैंने अभी तक भोजन इत्यादि नहीं किया है। इस संबंध में तरह-तरह की विचित्र बातें सुन मुझसे नहीं रहा गया और मैं बेमौका होने पर भी सही हाल पूछने के लिए चला आया।
महाराज की आज्ञा पाकर भरथसिंह उठे और गोपालसिंह भी साथ ही उठकर कमरे के बाहर निकल आये। बाहर आकर गोपालसिंह ने भरथसिंह का हाथ पकड़ लिया और यह कहते हुए कि ‘‘पहिले मेरी दे-चार बातें सुन लीजिए तब फिर भोजन करने जाइयेगा’’, अपने खास कमरे की तरफ बढ़े जो महाराज के कमरे से ज्यादा दूर न था।
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