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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

दूसरा बयान


हरदीन से बिदा होने के बाद भूतनाथ कुछ ही आगे बढ़ा होगा कि उसे कानों में घोड़े के टापों की आवाज सुनाई दी। वह रुककर देखने लगा कि आवाज किधर से आ रही है। जिस जगह वह था उसके लगभग पचास गज के फासले पर एक दूसरी पगडंडी थी जो उसी जंगल में किसी तरफ को निकल गई थी और इसी पर से आते हुए एक सवार पर भूतनाथ की निगाह पड़ी जिसका खूबसूरत और ताकतवर घोड़ा इस जंगली और बेढंगे रास्ते पर अपनी तेजी न दिखा सकने और लगाम खिंची हुई पाने के कारण उतावला-सा मालूम होता था। उसका सवार भी जिसकी पूरी सूरत अभी तक भूतनाथ को दिखाई न दी थी कोई नौजवान आदमी था जो चुस्त और कीमती पोशाक पहिरे हरबों को बदन पर सजाये, एक नेजा हाथ में लिए, इधर-उधर के पेड़ों की पगडण्डी रोकने वाली डालों से अपने को बचाता और होशियारी के साथ चारों तरफ देखता हुआ चला आ रहा था।

सवार को अच्छी तरह देखने और पहिचानने की नीयत से भूतनाथ पेड़ों की आड़ में छिपता हुआ धीरे-धीरे उस पगडण्डी की तरफ पढ़ा और एक आड़ की जगह में खड़ा होकर उस सवार के पास पहुँचने की राह देखने लगा जो कि बहुत ही धीरे-धीरे आ रहा था। थोड़ी ही देर में वह सवार पास आ पहुँचा और भूतनाथ को यह देखकर बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि जमानिया के कुमार गोपालसिंह हैं।

गोपालसिंह इस जंगल में क्यों आए? इनके साथ कोई आदमी क्यों नहीं है? और ये अकेले कहाँ जा रहे हैं? इत्यादि बातों को सोचता हुआ भूतनाथ काशी जाने का इरादा छोड़ कदम दबाता और पेड़ों की आड़ में खुद अपने को छिपाता हुआ उनके पीछे रवाना हुआ।

लगभग घण्टे-भर गोपालसिंह उसी धीमी चाल से बराबर चलते गये। ज्यों-ज्यों वे आगे बढ़ते जाते थे जंगल घना और भयानक मिलता जाता था और पगडण्डी पतली और पेचीली होती जाती थी। भूतनाथ का आश्चर्य बढ़ता जा रहा था और उसकी समझ में नहीं आता था कि इतने घने और भयानक जंगल में गोपालसिंह के अकेले और इस सन्नाटे के समय में जाने का क्या कारण है।

कुछ देर तक और जाने के बाद गोपालसिंह एक ऐसी जगह पहुँचे जहाँ एक छोटा-सा नाला जंगल के बीचोंबीच में से बहता हुआ किसी तरफ को निकल गया था। उस नाले के किनारे पर ही एक ऊँचा टीला था जो दूर तक फैला हुआ था बल्कि यों कहना चाहिए कि वह नाला बहुत दूर तक इसी टीले की जड़ के साथ बहता हुआ दूसरी तरफ निकल गया था।

यह नाला यद्यपि बहुत चौड़ा या गहरा न था पर इसका जल साफ और मोती की तरह स्वच्छ था। इसके किनारे पहुँच गोपालसिंह ने घोड़ा रोका और उतर पड़े। लगाम पास के एक पेड़ की डाल से अटका दी और पैदल नाले के किनारे-किनारे रवाना हुए। भूतनाथ भी उसी तरह कदम दबाता हुआ उनके पीछे चल पड़ा।

लगभग पचास कदम जाने के बाद गोपालसिंह एक ऐसी जगह पहुँचे जहाँ नाले का पानी बहुत गहरा मालूम होता था तथा उसकी चौड़ाई भी और जगहों की बनिस्बत ज्यादे थी। नाले के किनारे पर पत्थरों और बड़े-बड़े मिट्टी के ढोंकों का एक ढेर लगा हुआ था जो कुदरती नहीं मालूम होता था। गोपालसिंह इसी ढेर के पास आकर खड़े हो गए और एकटक नाले की तरफ देखने लगे।

थोड़ी ही देर बाद यकायक नाले के जल में एक प्रकार की खलबलाहट पैदा हुई और उसका पानी बीचोंबीच से इस तरह चक्कर खाने लगा मानों तह के किसी छेद की राह कहीं निकलता जा रहा हो। भूतनाथ बड़े गौर से इस बात को देख ही रहा था कि यकायक कुँअर गोपालसिंह उठे और नाले के पास जल में कूद पड़े इसके कुछ देर बाद जल की खलबलाहट बन्द हो गई और नाले का पानी पूर्ववत् स्थिर और शान्त भाव से बहने लगा।

भूतनाथ को इस बात से बहुत आश्चर्य मालूम हुआ मगर यह सोचकर कि कदाचित् यहाँ नाले के जल के अन्दर से कोई सुरंग या राह किसी तिलिस्म में गई हो उसने अपने चित को सन्तोष दिया और एक ठिकाने बैठ गोपालसिंह के लौटने का इन्तजार करने लगा।

लगभग आधे घण्टे बाद नाले के जल में फिर पहिले की तरह खलबलाहट उत्पन्न हुई और इसके बाद ही गोपालसिंह जल के अन्दर से निकलकर आते हुए दिखाई दिए। इस समय उनके हाथ में एक छोटी-सी गठरी थी जिसे उन्होंने खोला, उसमें से एक धोती तथा कुछ चीजें निकालकर बाहर रक्खा और तब उस धोती को, जो जल के अन्दर से निकलने पर भी बिल्कुल सूखी थी पहिन कर अपने गीले कपड़े इधर-उधर के पेड़ों पर सूखने के लिए डाल दिए।

उन चीजों में जो गठरी के अन्दर से निकली थीं सोने का एक जड़ाऊ डिब्बा भी था जिसको गोपालसिंह ने खोला। अन्दर एक विचित्र ढंग की छोटी-सी पुस्तक थी जिसे उन्होंने निकाल लिया और एक पत्थर के ढोंके पर बैठ गौर से पढ़ना शुरू किया।भूतनाथ का जी यह जानने के लिए कि यह किताब कैसी या किस विषय की है घबड़ा रहा था मगर ज्यादा पास जाने की हिम्मत भी वह नहीं कर सकता था, लाचार अपने ठिकाने खड़ा देखने लगा कि अब क्या होता है।

जब तक कपड़े नहीं सूखे गोपालसिंह बराबर उस किताब को पढ़ते रहे। इसके बाद उसे उसी जड़ाऊँ सन्दूकड़ी में बन्द कर दिया और तब अपने कपड़े पहिन तथा हर्बे लगाने बाद उस धोती और संदूकड़ी को बाकी चीजों के साथ पहिले ही की तरह बाँध हाथ में लिए उस तरफ चले जिधर अपना घोड़ा छोड़ आए थे।

गोपालसिंह अभी दस ही पन्द्रह कदम आगे बड़े होंगे कि यकायक इधर-उधर छिपे हुए कई आदमी निकल आए और उनकी तरफ झपटे। गोपालसिंह यह देखकर एक दफे तो चौंके मगर फिर तुरन्त ही उन्होंने अपने को सम्हाला और हाथ ही गठरी बगल में दबा अपने नेजे से उन आदमियों का, जो गिनती में दस से कम न होंगे, मुकाबला करने लगे।

गोपालसिंह को अकेले इतने आदमियों का मुकाबला करने योग्य न समझ भूतनाथ उनकी मदद करने के इरादे से आगे की तरफ झपटा मगर उसी समय उसकी निगाह दारोगा और जैपालसिंह पर पड़ी जो तेजी के साथ उसी तरफ आ रहे थे। उनको देखते ही भूतनाथ रुक गया।बात-की-बात में वे दोनों भी आ पहुँचे और गोपालसिंह की तरफ होकर उनके विपक्षियों का सामना करने लगे।

लगभग आधे घण्टे तक लड़ाई होती रही। दुश्मनों के कई आदमी जख्मी हुए और दारोगा तथा जैपालसिंह के बदन पर भी हलके-हलके कई जख्म लगे मगर भूतनाथ को इस लड़ाई में कोई आनन्द न मिला। न तो गोपालसिंह के दुश्मनों ने ही कुछ ज्यादा फुर्ती या तेजी दिखलाई और न तो दारोगा या जैपाल ने भी कोई बहादुरी जाहिर की। भूतनाथ लड़ाई के फन को बाखूबी समझता था और स्वयं भी बहादुर तथा हिम्मतवर होने के कारण देख रहा था कि वे लोग जिन्होंने गोपालसिंह पर हमला किया था, शुरू ही से बिलकुल बेदिली के साथ लड़ रहे थे।

कुछ देर तक ऐसी ही लड़ाई होती रही, और इसके बाद गोपालसिंह के नेजे की चोट खाकर एक आदमी के जमीन पर गिरते ही बाकी के सब आदमी भाग खड़े हुए तथा देखते-देखते आँखों की ओट हो गए। गोपालसिंह ने अपना हाथ रोका और दारोगा साहब की तरफ देखकर बोले, ‘‘आप बड़े मौके पर आ पहुँचे!’’

दारोगा : मैं जैपालसिंह के साथ यहाँ से थोड़ी दूर पर एक काम के लिए आया था कि इन दुष्टों से बातचीत की आहट मुझे सुनाई दी और जब इस तरफ आया तो आप पर निगाह पड़ी, तब तो फिर लौट नहीं सकता था, मालिक की सेवा करना तो नौकर का धर्म ही है, चाहे इसमें उसकी जान ही क्यों न जाती रहे!

गोपाल : (दारोगा की तरफ देखकर) आप जख्मी हो गए हैं!

दारोगा : जी हाँ, दो-एक मामूली जख्म लगे हैं, लेकिन कोई डर की बात नहीं है, मुझे इस बात की बड़ी प्रसन्नता है कि आपको किसी प्रकार की चोट न पहुँची नहीं तो मैं किसी को मुँह दिखाने के लायक न रहता।

गोपाल : न-मालूम ये लोग कौन थे जिन्होंने ऐसे बेमौके मुझ पर हमला किया?

जैपाल यह सुनकर उसी जख्मी आदमी के पास गया जो जमीन पर पड़ा था और उसके चेहरे को गौर से देखकर बोला, ‘‘मैं इस आदमी को नहीं पहिचानता! (दारोगा साहब की तरफ देखकर) आइए आप देखिए, शायद आपने इसे कहीं देखा हो।’’

दारोगा उस जख्मी के पास गया मगर उसने भी इसे कभी नहीं देखा था। जख्मी के पैर में चोट आई थी और वह आँखें बन्द किए हुए चुपचाप पड़ा था या कदाचित् बेहोश हो गया था।

गोपाल० : इसे ले चलना चाहिए।

दारोगा : जी हाँ, आप चलें, इसको ले चलने का मैं बन्दोबस्त करता हूँ।

इतना कहकर दारोगा आगे बढ़ गया और गोपालसिंह के ‘नहीं-नहीं’ कहने पर भी उनका घोड़ा खोलकर उनके पास ले आया। गोपालसिंह घोड़े पर सवार हुए और दारोगा तथा जैपाल साथ-साथ कुछ बातें करते हुए जाने लगे।

भूतनाथ भी आगे बढ़ा ही था कि यकायक किसी ने पीछे से उसके कंधे पर हाथ रक्खा जिससे वह चौंका, घूमकर देखने से एक नकाबपोश पर निगाह पड़ी। नकाबपोश ने एक खास तरह का इशारा किया जिसके साथ ही भूतनाथ बोल उठा, ‘‘हैं, तुम यहाँ कैसे आ पहुँचे!’’

नकाब० : आपको ही खोजता हुआ यहाँ तक आ गया। आपने यह लड़ाई देखी?

भूत० : हाँ देखी, लड़ाई क्या बच्चों का खिलवाड़ हुआ है। मेरी समझ में नहीं आता कि यह क्या मामला हो गया?

नकाब० : मामला क्या सब बनी-ठनी बात थी! वे हमला करने वाले सब दारोगा के ही आदमी थे।

भूत० : ऐसा! मगर तुम्हें कैसे मालूम?

नकाब० : उन आदमियों में से दो-एक को मैं जानता हूँ और शायद आप भी जानते होंगे। वह आदमी जो गोपालसिंह के हाथ से जख्मी होकर गिरा है दारोगा का विश्वासपात्र और गुप्त नौकर यादव है।

इतना कह नकाबपेश उस तरफ घूमा जिधर वह आदमी पड़ा था मगर वहाँ कोई दिखाई न पड़ा, यह देख उसने कहा, ‘‘मालूम होता है कम्बख्त उठकर भाग गया। नखरा किए हुए पड़ा होगा, मौका पाते ही चल दिया!’’

भूत० : खैर जाने दो यह बताओ तुम इस समय यहाँ कैसे आ निकले, क्या मुझे खोजते आये हो? कोई काम है!

नकाब० : जी हाँ, इसी से तो आना पड़ा।

भूत० : क्या बात है?

नकाब० : चलिए कहीं ठिकाने बैठ जायँ तो बातें करें।

नकाबपोश भूतनाथ को साथ लिए उसी नाले के किनारे चला गया और दोनों एक साफ जगह देखकर बैठ गये। घण्टे भर से ज्यादा देर तक दोनों में किसी गुप्त विषय पर बात-चीत होती रही और इसके बाद भूतनाथ यह कहता हुआ उठ खड़ा हुआ- ‘‘मैं इसी समय काशी जाता हूँ और नानक की माँ से मिलता हुआ वहीं पहुँचता हूँ। तुम शान्ता से कह देना कि किसी प्रकार कि चिन्ता न करे, मैं स्वयं उससे मिलकर सब हाल उसे सुनाऊँगा।’’

नकाबपोश भी ‘बहुत अच्छा’ कहकर उठ खड़ा हुआ और दोनों आदमी दो तरफ को रवाना हो गये।

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