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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

।। आठवाँ भाग ।।

 

पहिला बयान


सुबह हुआ ही चाहती है सूर्य भगवान का लाल पेशखेमा आसमान पर तन रहा है और इसे देख अपने प्रभु चन्द्रदेव का अनुसरण करते हुए छोटे-छोटे तारों ने भी अपना मुँह छिपाना शुरू कर दिया है।

खुशबूदार जंगली फूलों की महक से भरे हुए हवा के हलके झोंके दक्खिन की तरफ से आ रहे हैं और उस नौजवान के दिल की कली को भी खिला देने का प्रयत्न कर रहे हैं जो एक हलकी नकाब से मुँह ढाँके हुए पत्थर की चट्टान पर सिर झुकाए बैठा कुछ सोच रहा है।

कुछ देर बाद एक लम्बी सांस लेकर इस आदमी ने अपनी नकाब उलट दी और उसी समय पीछे की तरफ से पत्तों के चरमराहट की आवाज ने उसके कानों में पहुँच कर किसी के आने की सूचना दी। उसने पीछे की तरफ घूम कर देखा और भूतनाथ को तेजी के साथ अपनी तरफ आते देख प्रसन्नता के साथ उठ खड़ा हुआ।

बात की बात में भूतनाथ उस जगह आ पहुँचा और उस आदमी की तरफ ‘देख कर बोला, ‘‘क्या तुम देर से मेरी राह देख रहे हो?’’

आदमी : हां अगर बहुत देर से नहीं तो काफी देर से तो जरूर ही इस जगह बैठा आपकी राह देख रहा हूँ और अब जाने की सोच रहा था क्योंकि मुझे अपने मालिक के कई जरूरी काम निपटाने हैं जिनको न करने से उनका बहुत नुकसान होगा।

भूत० : नहीं नहीं हरदीन, मैं तुम्हारा या तुम्हारे मालिक का नुकसान करके तुमसे कोई काम नहीं लिया चाहता। सच तो यह है कि तुम स्वयं ही समय-समय पर मुझसे मिल कर जिन-जिन बातों की खबर मुझे देते रहे हो उसके लिए मैं तुम्हारा बड़ा कृतज्ञ हूँ। इधर तुमने कई ऐसी बातें बताई हैं जिनका मुझको स्वप्न में भी गुमान न था और न कभी होता। अभी उसी दिन तुमने जो बातें मुझे कही हैं क्या वे भी मैं अपनी कोशिश से जान सकता था? कदापि नहीं! मेरे साथ लाख दोस्ती और मुहब्बत का दम भरने वाला दारोगा मुझे कभी अपने उन भेदों में शरीक न करता जिनकी तुमने मुझे खबर दी है।

हर० : सच तो यह है कि यद्यपि आप बराबर उसके काम में लगे रहते और उसकी मदद करते रहते हैं फिर भी वह आपको अपना विश्वासपात्र नहीं समझता। आपने भी कई बार उसे बुरी तरह पर धोखा दिया है इसी से वह हमेशा आपसे डरता रहता है।

भूत० : और उसने मुझे क्या कम दिक किया?

हर० : मगर ताज्जुब है कि इतना होने पर भी आप-न-जाने उस दुष्ट का साथ क्यों पसन्द करते हैं? यह तो आप स्वयं ही जानते हैं कि वह हद दर्जे का पाजी और कमीना आदमी है और विश्वासघात का तो पूरा पुतला ही है। लेकिन इस पर भी जो आप उसकी मदद करते हैं यह मुझे बहुत कुढ़ाता है। आप निश्चय समझिये कि उसका साथ देकर सुख और प्रसन्नता पाने की आशा करना सरासर भूल है। ऐसों की संगति करने वाला कभी सुख नहीं उठा सकता और न भले आदमियों में ही अपनी गिनती करा सकता है। जिस तरह बुरे कर्मों का फल किसी-न-किसी समय भोगना ही पड़ता है।आप स्वयं इस बात को पूरी तरह से सोच-विचार कर देखिए। जब-जब आपने दारोगा का साथ दिया आपको दुःख ही उठाना पड़ा, आपके सिर पर तरद्दुदों का बोझ बढ़ता ही गया और आपसे बुरा मानने तथा दुश्मनी की नीयत रखने वालों की संख्या वृद्धि ही पाती गई, खैर इस समय मैं आपसे इस विषय पर कुछ कहना-सुनना पसन्द नहीं करता हूं क्योंकि आप स्वयं इन बातों को मुझसे कहीं ज्यादा समझ सकते हैं, दूसरे आप मुझसे यह भी कह चुके हैं कि आपने हमेशा के लिए दारोगा वगैरह का साथ छोड़ दिया है और भैयाराजा तथा प्रभाकरसिंह की मदद कर रहे हैं।मुझे आशा है कि इस बार अपने निश्चय पर दृढ़ रहेंगे और पुनः किसी जरा-सी बात पर उनसे नाराज होकर दारोगा के तरफदार न हो जायेंगे।

भूत० : क्या करूँ मैं अपने स्वभाव से स्वयं लाचार हूँ। मुझे बड़ी जल्दी क्रोध आ जाता है और तब मुझे भले-बुरे का कुछ भी ध्यान नहीं रह जाता। मैं दिल को बहुत रोकता हूँ और चाहता हूँ कि किसी तरह भी दुष्ट दारोगा या उसके साथियों की कम्बख्त सूरत मुझे देखनी न पड़े मगर मेरी मर्जी के खिलाफ जरा भी कुछ होते ही मेरे यह सब खयाल काफूर हो जाते हैं। खैर अब तुम निश्चय रक्खो कि इस बार मैंने सदा के लिए दारोगा का साथ छोड़ दिया है और अब कभी उसकी मदद न करूँगा।

हरदीन : अगर ऐसा हो तो क्या बात है!

भूत० : नहीं नहीं, मुझे पूरी आशा है कि तुम इसके विरुद्ध कोई बात करते अब मुझको न देखोगे। अच्छा यह बताओ हेलासिंह के बारे में और किसी बात का पता लगा?

हर० : जो कुछ हाल आपको मैं कह चुका हूँ उससे ज्यादा किसी बात का पता मैं न लगा सका। हाँ कल रात को गुप्त रीति से मैं दारोगा के मकान में अवश्य घुस गया था उस समय रघुबरसिंह भी वहाँ ही था और उन दोनों में हेलासिंह के विषय में कुछ बातें हो रही थीं। (१. देखिये भूतनाथ छठवाँ भाग, बारहवाँ बयान।)

भूत० : (कुछ रुकावट के साथ) रघुबरसिंह! उसे तो किसी ने गिरफ्तार कर लिया था, फिर क्या छूट आया?

हर० : छूट ही आया होगा, वहाँ बैठा हुआ तो था।

भूतनाथ यह सुन कर चुप हो गया और सिर झुका कर कुछ सोचने लगा।

उसकी आँखों के सामने उस समय का दृश्य घूम गया जब प्रभाकरसिंह और भैयाराजा वगैरह ने उसके शागिर्दों के हाथ से जैपालसिंह को छुड़ा लिया था और स्वयं उसे भी जक पहुँचाई थी। उसे विश्वास था कि जैपालसिंह अभी तक भैयाराजा के ही कब्जे में हैं और वे उसको जल्दी कैद से न छोड़ेंगे।

कुछ ही समय के अन्दर भूतनाथ ने अपने फैले हुए खयालों को दुरुस्त किया और हरदीन की तरफ देख कर कहा, ‘‘अच्छा तो रघुबरसिंह और दारोगा में क्या बातें हो रही थीं?’’

हर० : हेलासिंह और बलभद्रसिंह के बारे में बातचीत हो रही थी तथा इस बात पर भी विचार किया जा रहा था कि बड़े महाराज का जीता रहना उसके पक्ष में कहाँ तक हितकर है।

भूत० : मुझे मालूम पड़ता है कि दारोगा महाराज की जान लेने पर उतारू हो गया है, खैर तो क्या...

हर० : उस समय रघुबरसिंह से वह कुछ इसी तरह की बात कर रहा था मगर मैं पूरी तरह सुन न सका क्योंकि दारोगा को कुछ शक हो गया और मुझे वहाँ से बाहर हो जाना पड़ा।

भूत० : (कुछ सोचता हुआ) उसके फन्दे से महाराजा साहब को बचाने का कोई उपाय करना चाहिए!

हर० : कुछ नहीं हो सकता! महाराज दारोगा पर इतना भरोसा और विश्वास करते हैं कि यदि वे स्वयं अपनी आँखों से दारोगा को अपने विरुद्ध कुछ कार्रवाई करते देखें तो भी दारोगा का कुछ दोष न समझ उसे अपनी आँखों का कसूर समझेंगे। ज्यादा क्या, उसी भैयाराजा वाले मामले में ही देख लीजिए, अपने भाई की बातों पर जो उन्हें कोई विश्वास न हुआ मगर दारोगा कि गढ़ी एक कहानी को ब्रह्मवाक्य समझ बैठे! भला यह भी कोई बात है कि अपने देव-तुल्य भाई को तो अपना विद्रोही मान लें और एक कमीने को अपना हितू मान कर उसके ऊपर इतने मेहरबान हो जायँ कि भाई का नाराज होकर और मुँह न देखने की प्रतिज्ञा करके चले जाना कोई बात ही न समझें! दो दिन हुआ भैयाराजाजी मेरे मालिक से मिले थे बल्कि दिन-भर उन्हीं के यहां रहे भी थे क्योंकि वे उनको अपने लड़के के बराबर मानते हैं और प्यार करते हैं, उस समय उनकी बातचीत से यह मालूम हो गया कि वे महाराज से इतना रंज हैं कि अब कभी भी उनके पास न जायँगे।क्या कोई अच्छे लक्षण हैं!

भूत० : हाँ वे दारोगा पर विश्वास बहुत करते हैं, कभी उसके विरुद्ध कोई बात जल्दी अपने दिल में न लावेंगे, पर तो भी एक दफे उनको दारोगा की कार्रवाइयों की सूचना दे देनी चाहिये, कदाचित् अब भी वे सम्हल जायँ।

हर० : अच्छी बात है, आप कोशिश कीजिये मगर मैं इस विषय में दखल न दूँगा क्योंकि मुझे पूरा विश्वास है कि वे कभी इस बात को नहीं मानेंगे कि दारोगा उनके विरुद्ध कार्रवाई कर रहा है। दूसरे अगर कहीं दारोगा को मेरा पता लग जाएगा तो मैं कहीं का भी न रहूँगा और मुफ्त में मुझे अपनी जान से हाथ धोना पड़ेगा। मैं आपसे भी प्रार्थना करता हूँ कि आप कभी मुझे प्रकट न कीजिएगा और न किसी से यही जाहिर कीजिएगा कि मैं आपको या आप मुझे जानते हैं।

भूत० : नहीं-नहीं, तुम विश्वास रक्खो, मैं कभी तुम्हारा नाम किसी तरह प्रकट न होने दूँगा और न किसी को भी तुम पर किसी प्रकार का शक करने का मौका ही मिलेगा!

हर० : मुझे आपसे ऐसी ही आशा है। (ठहर कर) अच्छा अब यदि आज्ञा हो तो मैं जाऊँ क्योंकि देर हो रही है।

भूत० : अच्छा तुम जाओ मगर मेरी एक बात सुनते जाओ, इसके बाद मुझे अगर तुमसे मिलने की जरूरत होगी तो मैं खुद ही तुमसे मिल लूँगा।

थोड़ी देर तक दोनों में कुछ बातचीत हुई और इसके बाद हरदीन भूतनाथ से बिदा हो जमानिया की तरफ रवाना हुआ और भूतनाथ ने काशी का रास्ता लिया।

पाठक इस हरदीन को पहिचानते हैं। भरथसिंह का यह प्यारा नौकर है और उन्होंने चन्द्रकान्ता सन्तति में अपना किस्सा कहते समय इसी का जिक्र किया है। (१. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति-6, तेइसवाँ भाग, नौवाँ बयान।)

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