लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 3

भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

Like this Hindi book 9 पाठकों को प्रिय

421 पाठक हैं

भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

इक्कीसवाँ बयान


संध्या होने में कुछ ही कसर थी जब भूतनाथ मनोरमा के मकान से बाहर निकला और किसी गम्भीर चिन्ता में डूबा हुआ एक तरफ को रवाना हुआ।

अब हम पाठकों को पुनः इन्द्रदेव की उस विचित्र तिलिस्मी घाटी के अन्दर ले चला चाहते हैं जहाँ बहुत दिनों के बिछुड़े हुए प्रेमी इस समय एकत्र हो रहे हैं और अपने पिछले दुःख और गम को पुनर्मिलन रूपी सुख के आँसू से धोकर बहा देना चाहते हैं।

यद्यपि दोपहर का समय है तथापि इन्द्रदेव के इस अनूठे और विचित्र स्थान में धूप और गर्मी का कोई कष्ट नहीं मालूम होता है। पहाड़ियों से आती हुई गरम हवा को बीच वाले मैदान के घने गुँजान पेड़ ठंडी और रुचिकर बना देते हैं और तरह-तरह के फूलों की सुगन्ध हवा में मिलकर खुशबूदार बनाए दे रही है।

एक बड़े मौलसिरी के पेड़ के नीचे संगमरमर के खूबसूरत चबूतरे पर कई कुर्सियाँ रक्खी हुई हैं जिन पर प्रभाकरसिंह, उनके पिता दिवाकरसिंह, भैयाराजा, दयाराम और इन्द्रदेव बैठे हुए आपुस में बातें कर रहे हैं।

दयाराम : (दिवाकरसिंह से) यह हम लोगों के लिए बड़े सौभाग्य की बात थी कि अकस्मात भैयाराजाजी को आपके जीते रहने का गुमान हुआ और उन्होंने हम लोगों को इसकी सूचना दी, नहीं तो हम लोग तो आपको पञ्चतत्व में मिल गया हुआ समझ कर एक तरह पर बेफिक्र ही से थे और कभी आपका दर्शन पुनः करने में आवेगा, इस बात का गुमान तक हम लोगों को न होता।

भैया० : मुझे यकायक ही इस बात का सन्देह हुआ कि आप मरे नहीं बल्कि दुष्ट दारोगा की कैद में पड़े हुए हैं। जमना, सरस्वती और इन्दुमति को जब भूतनाथ ने एक कुएँ की राह तिलिस्म के अन्दर पहुँचा दिया और मुझको इसका पता लगा तो उन तीनों पर मुझे बड़ी दया आई और मैं गुप्त रीति से उनकी मदद पर तैयार हो गया। इसके बाद ही मुझे दारोगा की कार्यवाइयों का पता लगा और मैं उसकी तरफ से भी होशियार हो गया, वह किस-किस को कहाँ कैद रखता है इसकी भी टोह लेने लगा। गुप्त रूप से उसके कैदियों से तथा आपसे भी मैं कई बार मिला मगर उस समय मैं आपको पहिचान या जान न सका और इसीलिए निश्चय रूप से यह न समझ सका कि आप प्रभाकरसिंह के पिता और हम लोगों के निकट सम्बन्धी हैं; हाँ इस बात का शक जरूर हो गया और वह शक बढ़ता ही गया, तिलिस्म में प्रभाकरसिंह को भी एक बार मैंने आपके जीवित रहने की सूचना दी थी। और उसके बाद यदि मैं तरह-तरह की झंझटों में न पड़ गया होता तो आपका और भी हाल जानने की चेष्टा अवश्य करता और मुमकिन था कि आपको कैद से छुड़ाने में भी सफलता प्राप्त करता पर ईश्वर को यह स्वीकार न था और आपको दुष्ट दारोगा की कैद का दुःख कुछ दिनों तक और भोगना बदा था। (१. देखिए भूतनाथ, दूसरा भाग, अट्ठाइसवाँ बयान। २. देखिए भूतनाथ, तीसरा भाग, छठा बयान।)

दिवा० : फिर भी इसे ईश्वर की महान दया कहना चाहिए कि आप लोगों की बदौलत मेरा छुटकारा हुआ और मैं उस भयानक कैदखाने के बाहर निकल कर स्वतन्त्रा की हवा खाने लायक हुआ।

इन्द्र० : (दिवाकरसिंह से) अच्छा अब यदि आपको कोई कष्ट न हो तो आप अपना अनूठा किस्सा बयान कीजिए और बताइए कि आप किस तरह दारोगा के कब्जे में पड़ गए?

दिवा० : हाँ मैं कहता हूँ सुनिए मगर यह कोई लम्बा-चौड़ा और दिलचस्प या अनूठा हाल नहीं है, मैं थोड़े ही शब्दों में सब बयान कर देता हूँ।

यह तो आप जानते ही हैं कि मैं शिवदत्त के पिता के समय से चुनार की फौज का सेनापति हूँ या यों कहना चाहिए कि था, शिवदत्त ने भी (राज्याधिकार पाने के बाद) कुछ दिनों तक मुझे प्रसन्नता के साथ अपनी फौज का सेनापति बनाये रखा। मैं उस समय तक उसके ऐबों को लड़कपन समझ कर उन पर ध्यान न देता था, पर धीरे-धीरे मुझे उसकी कार्रवाइयों का पता लगा और यह मालूम हुआ कि वह दिन पर दिन दुष्ट और कमीना होता जा रहा है। (इन्द्रदेव की तरफ देख कर) आपको कदाचित् स्मरण होगा कि प्रभाकर की शादी पहले मैंने मालती नाम की एक लड़की से ठीक की थी जिसके पिता को मैं बहुत ही चाहता और मानता था।

इन्द्र : हाँ मुझे यह बात बखूबी याद है।

दिवा० : तो मेरी बदनसीबी का असल कारण भी वही हुआ। शिवदत्त ने किसी तरह उस लड़की (मालती) को देख लिया और उस पर आशिक हो गया। उसने मालती के पिता पर मालती का विवाह अपने साथ करा लेने के लिए जोर डाला और जब उसने इनकार कर दिया तो मुझ पर इस विषय में जोर देने लगा कि मैं प्रभाकर की शादी मालती के साथ न कर किसी दूसरी लड़की से करूँ।

मुझे शिवदत्त की बदचलनी और दुष्टता की खबर तो थी ही, अस्तु उसकी यह बात सुन मैं बड़ी फिक्र में पड़ गया क्योंकि मैं अच्छी तरह जानता था कि वह बड़ा जिद्दी और खुदगर्ज है और साफ जवाब दे देने से वह मेरा भी दुश्मन हो जायगा अस्तु मैंने उसे साफ-साफ कोई जवाब न दिया और टालमटोल करता हुआ इस फिक्र में लगा कि गुप्त रीति से प्रभाकर की शादी मालती के साथ करके शिवदत्त की नौकरी छोड़ दूँ और किसी दूसरी जगह बसूँ।

मुझे अपने काम में बहुत कुछ सफलता मिली और शिवदत्त के बेजाने ही मैंने प्रभाकर के विवाह का सब सामान कर लिया। चुनारगढ़ से दूर एक दूसरे ही शहर में शादी का सब इन्तजाम किया गया। मैंने बीमारी का बहाना करके शिवदत्त से कुछ दिनों की छुट्टी ली और अपनी स्त्री तथा प्रभाकर इत्यादि को साथ ले वहाँ पहुँचा जहाँ शादी का इन्तजाम किया था। मुझे विश्वास था कि शिवदत्त को मेरी कार्रवाई का पता नहीं लगा है मगर यह मेरी भूल थी। उसने मेरा पीछा न छोड़ा और ठीक विवाह वाले दिन मालती को उसके बाप के घर से चुरवा मंगवाया।

मैं यह निश्चित रूप से नहीं कह सकता कि यह काम शिवदत्त ही का था या दारोगा का भी इसमें कुछ हाथ था पर जहाँ तक मैं समझता हूँ यह शिवदत्त की ही कार्रवाई थी।

इन्द्र० : इस काम में दोनों ही बेईमान शामिल थे, खैर तब!

दिवा० : मालती के इस तरह गायब हो जाने से मुझे बड़ा ही रंज हुआ मगर शादी रोकना व्यर्थ समझ दूसरे ही दिन प्रभाकर की शादी इन्दु के साथ कर दी गई। इसके बाद सभों के साथ चुनार लौट आया और इस फिक्र में लगा कि मालती की खबर लगाऊँ मगर उसका कुछ भी पता न लगा, उधर शिवदत्त मुझसे पूरी तरह बिगड़ बैठा और अन्त में उसने मुझे गिरफ्तार कर ही लिया।

मुझे शिकार खेलने का बहुत शौक था और प्रायः शिवदत्त अपने साथ मुझको भी शिकार खेलने ले जाया करता था। प्रभाकर की शादी के कुछ दिनों बाद एक दिन शिवदत्त ने अपने साथ शिकार के लिए चलने को कहा और यह भी कहा कि मैं रानी साहिबा को साथ ले चल रहा हूँ, तुम भी अगर अपने घर में से सभी को साथ लेते चलो तो औरतों का भी जी बहला रहेगा। मुझे यह बात पसन्द तो न थी मगर उसके जोर देने पर लाचार होकर मैंने अपनी स्त्री तथा कई लौंडियों को साथ ले लिया। इन्दुमति या प्रभाकरसिंह को मैं अपने साथ न ले गया। वहाँ शिकारगाह ही में मुझे व मेरी स्त्री को शिवदत्त ने ऐयारों की मदद से बेहोशी की दवा खिला अपने कब्जे में कर लिया और किले के एक गुप्त स्थान में हम दोनों कैद कर दिए गए। यह मैं नहीं कह सकता कि इसके बाद शिवदत्त ने कौन-सी ऐसी कार्रवाई की जिससे मैं मरा हुआ मशहूर कर दिया गया और मेरे सम्बन्धियों तथा मित्रों को भी विश्वास हो गया कि मैं अब इस दुनिया में नहीं हूँ।

प्रभा० : आपके जाने के दूसरे ही दिन शिवदत्त के खास आदमी ने मुझे खबर पहुँचाई कि शिकार खेलते समय आपको एक जंगली सूअर ने सख्त चोट पहुँचाई है मैं घबड़ाया हुआ वहाँ पहुँचा मगर पहुँचने पर आपकी (नकली) लाश देखने में आई तथा अपनी माता को भी अन्तिम अवस्था में पाया जिनके विषय में मुझको कहा गया कि अपने पति की मौत न देख सकने के कारण उन्होंने किसी तरह का तेज जहर खा लिया है। शिवदत्त ने वहाँ मेरे साथ इतनी सहानुभूति दिखाई कि मुझे उसके ऊपर सन्देह होने के बदले उलटा विश्वास हो गया।शिवदत्त ने अपनी फौज का मुझको सेनापति बना दिया। मुझे इस बात का जरा भी सन्देह न हुआ कि मेरे माता-पिता के बारे में उस हरमाजादे ने मुझे कितना बड़ा धोखा दिया है।

इन्द्र० : प्रभाकरसिंह की तरह हम लोग भी बिल्कुल धोखे ही में पड़े रह गए और किसी को इस बात का जरा भी गुमान न हुआ कि आपकी मौत में किसी प्रकार का रहस्य भरा हुआ है। मालती वाली घटना का हाल यद्यपि मुझे मालूम हुआ था और मैं अपनी तरफ से उसका पता लगाने की भी कुछ चेष्टा कर रहा था पर आप की मृत्यु की खबर पाकर मैंने उस तरफ से भी अपना ध्यान एक प्रकार से खींच लिया।

दिवा० : आखिर कुछ मालूम भी हुआ कि मालती कहाँ चली गई! शिवदत्त को जब बीरेन्द्रसिंह ने हराया और गिरफ्तार किया तो उसके कैदियों का तो कुछ पता लगा ही होगा।

इन्द्र० : नहीं उसका कोई हाल फिर मालूम न हुआ मगर सन्देह होता है कि आप ही की तरह मालती भी कदाचित् दारोगा के कब्जे में चली गई क्योंकि जब जमना, सरस्वती और इन्दुमति को छुड़ाने के लिए प्रभाकरसिंह तिलिस्म में घुसे थे, तो वहाँ दारोगा ने मनोरमा को मालती बनाकर भेजा और इन्हें धोखा देना चाहा था बल्कि एक तरह पर ये उसके फन्दे में पड़ भी गए थे पर मैंने वहाँ पहुँच कर छुड़ाया।(१. देखिये भूतनाथ चौथा भाग, बारहवाँ बयान।)

दिवा० : हाँ, ऐसा! मुझे यह हाल नहीं मालूम, यह कब की बात है?

इन्द्र ० : थोड़ी ही दिन की, आप अपना किस्सा समाप्त कर लीजिए तो प्रभाकरसिंह वह हाल सुनावेंगे।

दिवा० : बस मेरा किस्सा समाप्ति पर ही है। शिवदत्त के यहाँ अर्थात् चुनारगढ़ में मैं ज्यादा दिनों तक कैद न रहा और न मुझे यही मालूम हुआ कि उसने मुझे कैद क्यों कर रक्खा है।

कुछ दिन बाद चन्द्रकान्ता के सबब से उसमें और बीरेन्द्रसिंह में खटपट शुरू हो गई तो उसने हम दोनों को दारोगा के यहाँ भेजवा दिया और तब से हमलोग बराबर उस दुष्ट की कैद में पड़े रहे।

भैयाराजा : आपको कैद रखने में जरूर दारोगा का भी कुछ स्वार्थ होगा।

दिवा० : हाँ कुछ-न-कुछ तो जरूर था, न होता तो वह कम्बख्त मुझे शिवदत्त के यहाँ से लाता ही नहीं क्योंकि ऐसे लोग दोस्ती का हक अदा करने के लिए अपने ऊपर आफत लगाना या कोई खतरनाक काम करना पसन्द नहीं करते। इस तरह के लोगों में स्वार्थ की मात्रा इतनी अधिक होती है कि उसके लिए वे लोग अपने बड़े-से-बड़े दोस्त या रिश्तेदार के साथ भी कपट करने में आनाकानी नहीं करते।मैं नहीं कह सकता कि मुझे और मेरी स्त्री को दारोगा के पास भेजते समय शिवदत्त ने उसे क्या बातें समझाईं थीं तथापि इतना कह सकता हूँ कि तरह-तरह के दुःख और कष्ट देने तथा धमकी दिखाने पर भी दारोगा ने मेरी जान लेने का प्रयत्न या ऐसा करने का डर भी कभी नहीं दिखाया, हाँ, उसने दो-एक बार मुझसे एक पत्र लिखाने की चेष्टा जरूर की पर उस चीठी का मजमून भी कुछ ऐसा आवश्यक या अनूठा न था कि जिससे मैं यह समझता कि केवल उस चीठी के न लिखने के कारण मेरी जान बची जा रही है, यही सोचता कि केवल उस चीठी को लिखाने के लिए दारोगा ने मुझे कैद कर रक्खा है।

दयाराम : उस चीठी का मजमून क्या था?

दिवा० : वह चीठी कुछ आपके गदाधरसिंह के सम्बन्ध में थी, ठीक-ठीक शब्द तो मुझे याद नहीं हैं हाँ, इतना स्मरण है कि आशय उसका यह था कि दयाराम का पता लगाने की गदाधरसिंह ने हद्द से ज्यादा कोशिश की मगर अफसोस कि जीता-जागता उन्हें छुड़ा न सका और राजसिंह के हाथ से दयाराम की जान गई। उनकी मृत्यु में भूतनाथ का कोई कसूर न था, या अगर कुछ है तो केवल इतना ही कि उनकी जान के बदले में वह केवल राजसिंह की जान ही लेकर रह गया और पूरी तरह से उनकी मृत्यु का बदला ले न सका जिसका उसे बड़ा दुःख है, मैं इस बात को पूरी तरह से जाँच और समझ कर लिखता हूँ।(इन्द्रदेव की तरफ देखकर) इस समय ईश्वर की दया से मैं दयाराम को जीता-जागता देख रहा हूँ पर कैद की अवस्था में जब तक मैं रहा तब तक इन्हें मरा हुआ ही समझता रहा और इसी बात का विश्वास रणधीरसिंह जी तथा मेरे और दोस्तों ने भी मुझे दिलाया था।

इन्द्र० : आपको क्या हम सभी लोगों को इनकी मृत्यु का विश्वास हो गया था, अभी थोड़े ही दिन हुए कि इनके जीते रहने का पता एक विचित्र ढंग से मुझे लगा और मैंने इन्हें कैद से छुड़ाया।

दिवा० : आपको इनके जीते रहने का पता कैसे लगा?

इन्द्र० : जमना और सरस्वती ने राजसिंह के कुल को अपने हाथ से तहस-नहस करने का विचार कर लिया था जिसके कारण उन्हें इतने दुःख भोगने पड़े थे, राजसिंह तो गदाधरसिंह के हाथ से ही मारा जा चुका था पर उसके लड़के ध्यानसिंह को इस बात का पता लग गया और वह अपनी जान बचाने की फिक्र में लगा, उसे भूतनाथ और जमना-सरस्वती की दुश्मनी का हाल किसी तरह मालूम हो गया और अपनी मदद के लिए उसने भूतनाथ को अपना मित्र बनाने का निश्चय किया और इसका जरिया दयाराम को बनाया।

एक नक्शा तथा एक पत्र भूतनाथ के नाम लिखकर उसने यह दरसाया कि गदाधरसिंह ने दयाराम के मारने में धोखा खाया और जिसको उसने दयाराम समझा था वह वास्तव में राजसिंह का भतीजा था, असल दयाराम अभी तक दारोगा के कब्जे में है। यह चीठी और नक्शा ध्यानसिंह ने अपने आदमी के हाथ भूतनाथ के पास भेजा मगर उस आदमी को बीच ही में मारकर निरंजनी ने वह दोनों चीजें अपने कब्जे में कर लों।

दिवा० : निरंजनी कौन

इन्द्र० : रणधीरसिंह के यहाँ महल में छन्नो नामी एक औरत थी, शायद आप उसे जानते हों।

दिवा० : मुझे कुछ स्मरण नहीं आ रहा है।

इन्द्र० : उसी की दूर के रिश्ते में निरंजनी मौसेरी बहिन है। निरंजनी चाल-चलन की बहुत ही खराब और बदकार औरत है और आजकल मनोरमा के नाम से मशहूर हो रही है।

पर जमानिया के दारोगा साहब का उस पर बड़ा प्रेम और विश्वास है और वे प्रायः अपने गुप्त भेदों में उसकी राय और मदद लिया करते हैं। इधर जब जमना-सरस्वती के विरुद्ध गदाधरसिंह ने दारोगा से सहायता की प्रार्थना की तो निरंजनी से इस काम में मदद ली और उसे जमना-सरस्वती का पता लगाने को कहा। निरंजनी ने इस काम के लिए छन्नों को अपने साथ मिलाना उचित समझा क्योंकि वह बहुत दिनों तक जमना-सरस्वती के साथ रह चुकी थी और उनके भेदों को बखूबी जानती थी। वह छन्नों से मिली और तरह-तरह की बातें बनाकर उसे अपने ढब पर कर लिया। यद्यपि छन्नों को निरंजनी का साथ नापसन्द था पर जमना-सरस्वती के हित के खयाल से वह उसकी मदद पर तैयार हुई। निरंजनी ने कोशिश करके ध्यानसिंह का पता लगाया और उसने उस आदमी को गिरफ्तार किया जिसके हाथ ध्यानसिंह ने वह नक्शा और चीठी गदाधरसिंह को भेजी थी। मगर उस चीठी और नक्शे को पाकर निरंजनी की नीयत बदल गई और उसने दयाराम को दारोगा की कैद से छुड़ा कर स्वयम् उनके साथ जमना या सरस्वती बनकर रहने का इरादा किया क्योंकि दारोगा ने दयाराम के जीते रहने का हाल उससे (निरंजनी से) नहीं कहा था जिससे वह शायद कुछ चिढ़-सी गई थी।

छन्नों ने निरंजनी की मदद के लिए दो ऐयार ठीक किए जिनका नाम मायासिंह और गोविन्द था। मेरा शागिर्द मनोरमा के साथ बहुत पहिले से उसी के साथी की सूरत बनकर लगा हुआ था जिसने मुझे इन बातों की खबर दी और मैंने मायासिंह और गोविन्द को गिरफ्तार करके उनके बदले में अपने दोनों ऐयारों को उन्हीं की सूरत में छन्नों और निरंजनी के साथ रहने का हुक्म दिया।

छन्नो को जब मालूम हुआ कि निरंजनी की नीयत बदल गई है और वह स्वयम् जमना या सरस्वती बनकर दयाराम के साथ रहना चाहती है तो उसको वह बात बुरी मालूम हुई और उसने निरंजनी का साथ छोड़ मायासिंह और गोविन्द की मदद से स्वयम् दयाराम को छुड़ाना चाहा।मुझे भी अपने ऐयारों की सहायता से इन सब बातों का कुछ बता लग चुका था अस्तु मैंने उसी दिन से दयाराम का छुड़ाने का उद्योग आरम्भ किया और ईश्वर की दया से अपने काम में कृतकार्य भी हुआ।

इतना कहकर इन्द्रदेव ने दयाराम को छुड़ाने के सम्बन्ध में जो-जो कार्रवाई की थी और जिन्हें हमारे पाठक पाँचवें भाग तथा सातवें बयान में पढ़ चुके हैं मुख्तसर तौर पर कह सुनाई और अन्त में कहा, ‘‘आज ही मेरे कुछ ऐयारों ने अपने उन दोनों साथियों को जो गोविन्द और मायासिंह बने थे भूतनाथ की कैद से छुट्टी दिलाई है अस्तु असली गोविन्द और मायासिंह को मैंने छोड़ दिया है, देखें अब उनमें और निरंजनी में कैसी निपटती है।’’

दिवा० : छन्नो अब कहाँ है?

इन्द्र० : वह अब जमना और सरस्वती के साथ ही रहती है, निरंजनी का साथ उसने छोड़ दिया है। राजसिंह का लड़का हमारे कब्जे में है और उसकी लड़की ज्वाला भी जिसे निरंजनी ने गिरफ्तार किया था और जिसे मैं उसकी कैद से छुड़ा लाया था यहीं है।

इसके बाद दिवाकरसिंह की आज्ञा से प्रभाकरसिंह ने अपना सब हाल शिवदत्त से अलग होने से लेकर इस समय तक बयान किया और नकली मालती वाला वह हाल भी कह सुनाया जिसे चौथे भाग के बारहवें बयान में हम लिख आये हैं। कुछ देर तक और इधर-उधर की बातें होती रहीं और तब इन्द्रदेव के कथनानुसार सब कोई पहाड़ी पर वाले उस बंगले की तरफ चले जहां जमना, सरस्वती इंदुमति, बहुरानी तथा नन्दरानी इत्यादि इस समय थीं और जहाँ इन्द्रदेव के हुक्म से उन सब के अलग-अलग रहने तथा आराम करने का बहुत ही अच्छा इन्तजाम किया गया था।

।। सातवाँ भाग समाप्त ।।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book