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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

बीसवाँ बयान


भूतनाथ को यकायक वहाँ आ पहुँचते देख कर एक बार मनोरमा घबराई मगर उसने तुरन्त अपने को सम्हाला और इस्तकबाल के तौर पर कुछ दूर आगे बढ़कर मुस्कराती हुई बोली, ‘‘आज किधर से सूरज निकल पड़ा, कहीं रास्ता तो नहीं भूल गए!’’

भूतनाथ हँसा और तब उन दोनों ऐयारों, मायासिंह तथा गोविन्द की तरफ देखकर बोला, ‘‘ये लोग कौन हैं?’’

मनोरमा ने हाथ के इशारे से प्रताप तथा गोविन्द और मायासिंह को एक तरफ हट जाने के लिए कहा और मुस्कराती हुई भूतनाथ का हाथ पकड़े अपनी जगह पर ले जाकर बैठाने के बाद बोली, ‘‘क्या आप इन दोनों को नहीं पहिचानते? आप ही ने तो इन्हें कैद किया था?’’

भूत० : (आश्चर्य का मुँह बनाकर गोविन्द तथा मायासिंह की तरफ देखते हुए) मैंने इन्हें कैद किया आज के पहिले मैंने इन्हें कभी देखा तक नहीं! (मनोरमा से) अच्छा तुम खड़ी क्यों हो, बैठ तो जाओ।

मनोरमा नजाकत से मचलती हुई भूतनाथ से कुछ हट कर बैठ गई और तब बोली, ‘‘यह तो आप आश्चर्य की बात सुनाते हैं। क्या आपने इन्हें अपनी लामाघाटी में नहीं कैद किया था!’’

भूत० : लामाघाटी में! कौन लामाघाटी?

मनो० : कौन लामाघाटी? क्या लामाघाटी भी कोई दस-बीस हैं! वही स्थान जहाँ आप रहते हैं।

भूत० : मैंने बहुत दिनों से वह स्थान छोड़ दिया और कभी वहाँ आता-जाता तक नहीं, क्योंकि वहाँ अब मेरे एक दुश्मन का कब्जा हो गया है।

मनो० : (आश्चर्य से) ऐसा! यह कब? मुझे बिल्कुल नहीं मालूम, तो क्या आप लामाघाटी में अब नहीं रहते?

भूत० : नहीं।

मनो० : तो अब वहाँ कौन रहता है?

भूत० : हमारा दुश्मन दलीपशाह।

मनो० : दलीपशाह उस जगह रहता है! यह तो आपने बड़े आश्चर्य की बात सुनाई!!

इतना कह मनोरमा थोड़ी देर के लिए चुप हो गई और सर नीचा करके कुछ सोचने लगी। थोड़ी देर के बाद उसने सिर उठाया और भूतनाथ की तरफ झुक कर धीरे से कहा, ‘‘अच्छा पहिले इन सभों को ठिकाने पहुँचा दूँ तो आप से खुलासा बातें करूँ।’’

भूतनाथ के ‘जैसी तुम्हारी इच्छा’ कहने पर मनोरमा उठी और गोविन्द तथा मायासिंह को साथ ले कमरे के बाहर निकल गई। अब उस कमरे में भूतनाथ और प्रताप रह गए।

भूतनाथ कुछ देर तक तो कमरे में इधर-उधर नजर दौड़ता रहा इसके बाद प्रताप की तरफ देखकर बोला, ‘‘क्यों जी प्रताप, अच्छे तो हो?’’

प्रताप ने हल्की सी मुस्कराहट के साथ जवाब दिया, ‘‘जी हाँ, आपकी दया से, ’’भूतनाथ ने फिर पूछा, ‘‘तुम्हें मालूम है कि ये दोनों आदमी जो यहाँ मौजूद थे कौन हैं? देखने में तो ऐयार जान पड़ते थे!’’

प्रताप : जी मैं कुछ ठीक-ठीक नहीं कह सकता।

भूतनाथ कुछ देर तक चुप रहा और इसके बाद यकायक बोल उठा, ‘‘अच्छा निरंजनी किस औरत का नाम है तुम कुछ कह सकते हो!’’

प्रताप यह सुन घबराया और सोचने लगा कि इस सवाल का क्या जवाब दे, क्योंकि हमारे पाठक तो जानते ही हैं कि निरंजनी इसी मनोरमा का ही एक बनावटी नाम है, परन्तु यह भेद भूतनाथ पर खोलना चाहिए या नहीं, इसी सोच में वह पड़ गया। मगर उसी समय मनोरमा वहाँ आ पहुँची और भूतनाथ की इच्छानुसार उसके पास बैठ गई।

मनोरमा : तो क्या सचमुच आप उन्हें नहीं जानते?

भूत० : नहीं, वे दोनों कौन हैं?

मनोरमा : दोनों ऐयार हैं, किसी छन्नो नामी औरत के काम में लगे रहते थे पर अब उसका साथ छोड़ मेरा काम करने पर तैयार हो गए हैं। बीच में उन्हें किसी ऐयार ने गिरफ्तार करके लामाघाटी में कैद कर दिया था पर आज ही छूटकर वे निकले हैं।

भूत० : क्या तुमने उन्हें छुड़ाया है?

मनोरमा : नहीं वे छूटे तो अपनी ही कारीगरी से, हाँ छूटकर सीधे यहाँ मेरे ही पास आए हैं। उन्हें तो यही विश्वास था कि तुमने ही उनको कैद किया था पर अब तुम्हारे कहने से जाहिर होता है कि किसी दूसरे का वह काम था।

भूत० : जरूर वह काम दलीपशाह का होगा! (कुछ सोचकर) अच्छा यह छन्नो कौन है?

मनोरमा : एक औरत जिसे शायद तुम नहीं जानते।

भूत : और निरंजनी?

मनोरमा यह सवाल सुनते ही चौंकी और गौर के साथ भूतनाथ की सूरत देखकर बोली, ‘‘मैं बिल्कुल नहीं जानती कि निरंजनी कौन है, तुमने इस नाम को कब और कहाँ सुना?’’

भूतनाथ ने इस बात का कुछ जवाब नहीं दिया और पूछा, ‘‘नागर कहाँ है?’’

मनोरमा : मैं कह नहीं सकती, शायद जमानिया में है।

भूत० : आजकल वह जमानिया में ज्यादा रहने लगी है, काशी रहना तो उसने एकदम छोड़ दिया।

मनोरमा : जब आपने उसे छोड़ दिया तो लाचार उसने भी काशी छोड़ दी।

भूत० : इसका क्या मतलब!

मनोरमा : अब आप ही इसका मतलब समझिए।

भूत० : सो क्या?

मनोरमा : वह एक दिन मुझसे आपके विषय में कहती थी कि ‘अब वे मुझे नहीं चाहते और न मुझ पर भरोसा ही करते हैं।’

भूत० : यह बात तो नहीं है, मैं अब भी उसे प्यार की नजर से देखता हूँ और उस पर उतना ही विश्वास करता हूँ जितना पहिले करता था।

मनोरमा : मैं नहीं कह सकती कि तब वह ऐसा क्यों सोचने लगी!

भूत० : अभी थोड़े ही दिन हुए मैं उससे वहाँ जमानिया में मिला था पर उसने इस किस्म की कोई शिकायत मुझसे नहीं की।

मनोरमा : अब यह तो वही जाने, शिकायत करे या न करे, हाँ मुझसे उसने जो कहा सो मैंने तुमसे कहा दिया। (कुछ ठहर कर) शायद उसके जमानिया में ज्यादा रहने का कारण दारोगा साहब हों!

भूत० : (कुछ सोचता हुआ) हाँ हो सकता है, आजकल उनकी उस पर बहुत कृपा रहती है। (हँस कर) और उनकी कृपा किस पर नहीं रहती, तुम भी तो उनकी कृपापात्र हो।

मनोरमा ने एक विचित्र ढंग की निगाह भूतनाथ पर डाली और तब प्रताप की तरफ देखा जो थोड़ी दूर पर बैठा हुआ था। प्रताप उसका मतलब समझ कर उठा और कमरे के बाहर चला गया। अब ये दोनों उस कमरे में अकेले रह गए।

भूतनाथ कुछ देर तक किसी सोच में डूबा रहा। मनोरमा यह देख खसक कर उसके पास आ गई और अपने मुलायम हाथों से उसका पंजा पकड़कर बोली, ‘‘आज तुम किसी तरद्दुद में मालूम होते हो!’’

भूत० : हाँ, आज मैं एक बड़े तरद्दुद में पड़ गया हूँ, पर पहिले तुम यह बताओ कि नागर से तुमसे आखिरी मुलाकात कब हुई थी?

मनो० अभी तो कल ही मैं उससे मिली हूँ।

भूत० : क्या आजकल यहीं है?

मनो० : नहीं, मैं जमानिया गई थी, वहीं उससे मुलाकात हुई थी।

भूत० : (चौंक कर) तो क्या तुम आज ही जमानिया से लौटी हो

मनो० : हाँ।

भूत० : तुम्हें लौटे कितनी देर हुई?

मनो० : अभी थोड़ी ही देर हुई कि मैं जमानिया से लौटी आ रही हूँ!

भूत० : (आश्चर्य से) अभी लौटी आ रही हो! हाँ ठीक है, मैंने रास्ते में तुम्हें देखा भी था, मर्दानी पोशाक में थीं। यह दोनों आदमी जिन्हें मैं अभी देख चुका हूँ तुम्हारे साथ थे।

मनो० : तुमने मुझे कहाँ देखा?

भूत० : रास्ते में देखा था—खैर अच्छा तो तुम दारोगा साहब से भी मिली होगी?

मनो० : जरूर मगर दो-एक दिन के अन्दर मैंने उन्हें नहीं देखा क्योंकि मैं जमानिया अपने निजी काम से गई और लौटती समय पुनः दारोगा साहब से मिल न सकी।

भूत० : (गौर से मनोरमा का मुँह देख कर और कुछ मुस्कुरा कर) अच्छा तुम इन दोनों ऐयारों का कुछ हाल बताओ जो यहाँ बैठे हुए थे और जिनके बारे में तुम कहती हो कि छन्नों नामी किसी औरत का काम करते हैं।

मनो० : इनका पूरा-पूरा हाल मुझे अभी तक मालूम नहीं हुआ, धीरे-धीरे कोशिश करके सब पता लगाऊँगी, ऐयार लोग जल्दी अपना भेद किसी को बताते थोड़े ही हैं!

भूत० : तो फिर तुम्हारा और इनका साथ कैसे हुए? जब ये तुमको और तुम इनको जानती ही नहीं तो ये छन्नों को छोड़ तुम्हारे पास कैसे और क्यों आए?

मनो० : सो मैं नहीं कह सकती कि ये मेरे पास क्यों आए, कदाचित् मुझे जानते हों। मेरी इनसे रास्ते ही में मुलाकात हुई जब जमानिया से लौट रही थी।

भूत० : अच्छा अगर तुम कहो तो खुद उन दोनों से बातचीत करूँ और पता लगाऊँ कि वे कौन हैं और छन्नो किसका नाम है।

मनो० : तुम खुशी से उनसे बातें कर सकते हो मगर मैं समझती हूँ कि तुम्हारी बनिस्बत अगर मैं उनसे बातें करूँगी तो ज्यादा कामयाब हूँगी क्योंकि तुमको तो वे अपना शत्रु समझते हैं और जानते हैं कि तुमने ही उन्हें लामाघाटी में कैद किया था, ऐसी हालत में कदाचित् तुमको सही हाल बताने में वे कुछ आगा-पीछा करें। जब मैं स्वयम् उनसे बातें करूँगी तब ठीक-ठीक मालूम हो जाएगा कि वे कौन हैं, इस समय तो मैंने दम-दिलासा देकर बिदा कर दिया है।

भूत० : खैर तुम्हीं उनसे बातें करना पर मुझे बताना अवश्य कि क्या मामला है।

मनो० : जरूर।

भूत० : और इस बात का भी पता लगाना कि निरंजनी किस औरत का नाम है।

मनो० : बहुत अच्छा, इसकी भी कोशिश करूँगी, मगर तुमने यह नाम कहाँ और कैसा सुना!

भूत० : सो मैं इस समय तुम्हें न बताऊँगा किसी दूसरे समय पूछ लेना।

मनो० : जैसी मर्जी।

इसके बाद भूतनाथ और मनोरमा में धीरे-धीरे कुछ बातें होने लगीं जिसे इस जगह बयान करने की कोई जरूरत नहीं जान पड़ती।

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