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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

उन्नीसवाँ बयान


रात आधी से ज्यादा जा चकी है। अपने खास मकान के ऊपर वाली मंजिल के एक कमरे में गद्दी के ऊपर दारोगा साहब बैठे हुए हैं। सामने एक छोटी-सी चौकी पर मोमी शमादान रक्खा हुआ है जिसकी रोशनी इस बड़े कमरे को पूरी तरह से उजेला नहीं कर सकती है क्योंकि सिवाय इस शमादान के कमरे में और कोई रोशनी नहीं, हाँ, बाहर की तरफ दालान में जरूर काफी रोशनी है और वहाँ की सब चीजें साफ दिखाई दे रही हैं।

दारोगा साहब के बगल ही में, मगर कुछ हट कर बैठा हुआ जैपाल बेचैनी के साथ दारोगा की तरफ देख रहा है जो सिर झुकाए कुछ सोचता हुआ चुपचाप बैठा है।

बहुत देर के बाद दारोगा ने सिर उठाया और जैपाल की तरफ देख कर कहा, ‘‘खैर कोई हर्ज की बात नहीं है, अब तुम छूट कर आ गए हो, मैं धीरे-धीरे सभी मामले फिर से ठीक कर लूँगा मगर अफसोस यही है कि वह दुष्ट ऐयार जाती समय जमना और सरस्वती के साथ-साथ हरनाम और बिहारी को भी लेता गया है।’

जैपाल : बेशक, और यह बहुत अफसोस की बात है, क्योंकि महाराज को जब इन ऐयारों के गायब होने का पता लगेगा तो वे जरूर घबड़ाएँगे।

दारोगा : अवश्य घबड़ाएँगे, बल्कि मुझ पर भी कुछ शक करें तो ताज्जुब नहीं! (रुक कर) सच तो यह है कि मैं अब देखता हूँ कि उनका विश्वास मुझ पर से धीरे-धीरे उठ रहा है और मुझ पर उतना भरोसा नहीं करते जितना पहिले करते थे।

जैपाल : कहीं उन्हें आपकी किसी कार्रवाई का पता...

दारोगा : जरूर कुछ ऐसी ही बात है, अभी तक उन्होंने मुझसे कुछ साफ-साफ तो नहीं कहा है मगर मुझे शक है कि (जैपाल की तरफ झुक कर धीरे से) महारानी के विषय में उन्हें मुझ पर किसी तरह का सन्देह हो गया है।

जैपाल : यदि ऐसी है तो जरूर आपके ऊपर बहुत बड़ी खराबी आ सकती है। आपने उस सन्देह को दूर करने की कोई चेष्टा नहीं की?

दारोगा : उन्होंने इस विषय में कभी मुझसे साफ-साफ बातें तो की नहीं जो मैं उनका शक दूर करने की कोशिश करता! हाँ बातों में जब कभी जिक्र आता है तो वे अकसर यही कहते हैं कि न-जाने महारानी अपनी मौत से मरीं कि किसी दुश्मन ने उन्हें कुछ खिला-पिला दिया।

जैपाल : तो क्या महारानी के बारे में अभी तक जिक्र हुआ करता है?

दारोगा :हाँ, बल्कि आज ही यह बात उठी थी और महाराज मेरी तरफ देख कर बोले उठे, ‘‘महारानी की मौत बड़ी अचानक में हुई! किसी तरह की कोई बीमारी का कोई आसार नजर नहीं आया और उनकी हालत इतनी खराब हो गई कि किसी तरह के दवा-इलाज तक का समय नहीं मिला।’’ मैं तो यह सुनते ही काँप उठा मगर किसी तरह बात काट कर दूसरा जिक्र छेड़ उस बात को दबा दिया।

जैपाल : महाराज को इस तरह का सन्देह हो जाना आपके लिए ठीक नहीं है।

दारोगा : बेशक! और (धीरे-से) इसी सबब से तो मैं यह चाहता हूँ कि अब महाराज भी इस दुनिया से उठा दिए जायँ, क्योंकि केवल एक यही बात नहीं—गोपालसिंह की शादी के विषय में भी मैंने देख लिया है कि अब वे कभी मेरी बात नहीं मानेंगे और बलभद्रसिंह की लड़की लक्ष्मीदेवी को ही अपनी पतोहू बनावेंगे।

जैपाल : (कुछ सोच कर) मगर महाराज का उठ जाना तो...

दारोगा : क्यों इसमें डर की क्या बात है? किसी को पता थोड़ी ही लगेगा कि महाराज की जान हम लोगों के कारण गई है, और फिर मैं अपने को भी इस काम में शामिल कर लूँगा और सब मेम्बरों की इच्छा से ही काम किया जायगा।

जैपाल : (चौंक कर) तो क्या आप अपना इरादा कमेटी पर प्रकट कर देंगे? मगर ऐसा तो न होना चाहिए, क्योंकि आपके कई भेद ऐसे हैं जिनका किसी दूसरे के कान तक पहुँचना—चाहे वह कमेटी का मेम्बर ही क्यों न हो, आपके हक में अच्छा न होगा।

दारोगा : नहीं-नहीं, मैं ऐसा बेवकूफ नहीं हूँ कि अपनी गुप्त बात दूसरे पर प्रकट कर दूँ। देखो यही महारानी वाला हाल—कमेटी के किसी मेम्बर को इस बात का स्वप्न में भी गुमान न हुआ कि यह काम मेरा है, मैंने अलग ही अलग कार्रवाई कर डाली। इसी तरह महाराज के विषय में भी मैं असल कारण किसी से थोड़े ही कहूँगा। कमेटी पर यही प्रकट करूँगा कि आजकल महाराज की बुद्धि भ्रष्ट हो गई, अच्छी तरह राज्य का काम नहीं देखते और न्याय भी ठीक नहीं करते...

जैपाल : मगर ऐसा है तो नहीं।

दारोगा : (हँस कर) अगर नहीं है तो हो जायगा! कम-से-कम अदालती मामलों में वह मेरी राय जरूर पूछते हैं। किसको क्या सजा देनी चाहिए या किस के साथ कब कैसी कार्रवाई होनी चाहिए, इन सब बातों में बिना मेरी राय लिए वे कुछ नहीं करते। फिर मुश्किल क्या है! दो-चार काम उनके हाथ में ऐसे करा दूँगा कि जिससे झख मारकर कमेटी वालों को मेरी बात माननी पड़ेगी। उस वक्त मैं कह-सुन कर महाराज के उठा देने और गोपालसिंह को राज्य दिलाने का हुक्म ले लूँगा और इस तरह पूरी कमेटी मेरे साथ...

जैपाल : मगर ऐसा करने से आपको फायदा क्या होगा? क्या तब गोपालसिंह खुद लक्ष्मीदेवी के साथ शादी न करेंगे? क्या वे आपके समझाने से किसी दूसरी औरत के साथ शादी करना मंजूर कर लेंगे?

दारोगा : अगर समझाने से नहीं मानेंगे तो कोई दूसरी तरकीब की जायगी, मैं बिना मुन्दर की शादी उनके साथ कराए छोड़ने वाला नहीं।

जैपाल : मगर मेरा तो फिर भी वही सवाल है कि इन बातों का नतीजा क्या निकलेगा? अगर आपकी ये बातें किसी पर प्रकट न भी हुईं और गुप्त ही रह गईं तो भी आपके लिए लक्ष्मीदेवी और मुन्दर दोनों ही बराबर हैं, चाहे लक्ष्मीदेवी के साथ गोपालसिंह की शादी हो चाहे मुन्दर के साथ।

दारोगा : हेलासिंह हमारा दोस्त है।

जैपाल : बलभद्रसिंह के साथ भी तो आप दोस्ती का दम भरते हैं!

दारोगा : हाँ मगर वह दोस्ती जैसी है इसे तुम बखूबी जानते हो खैर इन बातों से कोई मतलब नहीं, लक्ष्मीदेवी की जगह मुन्दर का मायारानी बनाना मेरे हक में अच्छा ही होगा। यह मैं अच्छी तरह से सोच चुका हूँ और अब अपने निश्चय को नहीं बदलूंगा।

दारोगा बड़ा ही धूर्त और काँइयाँ आदमी था। मुन्दर को राजरानी बनाने में उसके लिए कई तरह के फायदे थे जिनको वह अच्छी तरह जानता और समझता था, मगर इस बात को वह जाहिर नहीं करना चाहता था, यहाँ तक कि अपने दिली दोस्त जैपाल को भी वह इस भेद में पूरी तौर पर शामिल नहीं किया चाहता था, जैपाल भी इस बात को समझ गया और यह सोच कर कि किसी दूसरे समय इस बात का पता लगाऊँगा, इस समय बात को टाल कर बोला, ‘‘मगर आप मुन्दर की शादी गोपालसिंह के साथ करा क्योंकर सकेंगे? क्या वह उसे पहिचानेंगे नहीं?’’

दारोगा : जहाँ तक मुझे पता लगा है, गोपालसिंह ने अभी तक न तो मुन्दर को ही कभी देखा है और न लक्ष्मीदेवी पर ही उनकी निगाह पड़ी है। ऐसी हालत में लक्ष्मीदेवी की जगह मुन्दर का ब्याह गोपालसिंह के साथ करा देने में किसी तरह की कठिनाई न होगी। अब तुम एक काम करो, हेलासिंह के साथ इस विषय में बातचीत पुनः शुरू करो और सब बातें इस तौर पर कर डालो जिसमें बाद में किसी तरह का झंझट न रह जाय। तुमसे और उससे इस विषय में पहिले भी कुछ बातें हो चुकी हैं, अस्तु मेरी बनिस्बत तुम ही इस काम को ठीक तौर पर कर सकोगे...

इतने में दारोगा को बाहर से किसी तरह की आहट मालूम पड़ी जिससे वह रुक गया और उसी तरफ देखने लगा। हम ऊपर लिख आये हैं कि इस समय बाहर दालान में काफी रोशनी हो रही थी जिसके सबब से वहाँ की सब चीजें साफ दिखाई पड़ रही थीं।उसी रोशनी में दारोगा को एक छाया-सी दीवार पर पड़ती दिखाई दी जिसे देखते ही कोई आदमी होने का गुमान कर वह अपनी जगह से उठा और दरवाजे के पास गया मगर वहाँ कोई दिखाई न पड़ा। इधर-उधर के कमरों और कोठरियों में खोजा पर जब किसी को न पाया तो अपना शक समझ कर वह ठिकाने लौट आया और पुनः जैपाल की बातें करने लगा।

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