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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

चौदहवाँ बयान


अब हम फिर दारोगा की तरफ लौटते हैं और देखते हैं कि वह कहाँ है या क्या कर रहा है।

जैपाल, बिहारी और हरनामसिंह को साथ लिये दारोगा अपने खास मकान में ठीक उस समय पहुँचा जिस समय भूतनाथ और भैयाराजा अपनी कारीगरी से उस मकान के अन्दर गये थे बल्कि जमना और सरस्वती से बातें कर रहे थे। पहरेदार सिपाहियों को तो इस बात की कुछ भी खबर न थी कि दुश्मन मकान के अन्दर घुस आया है, वे तो मामूली तौर से दरवाजे पर पहरा दे रहे थे। दारोगा उनसे कुछ बात करने के बाद एक कमरे से दूसरे में और दूसरे से तीसरे में होता हुआ जब उस कमरे के पास वाली कोठरी में पहुँचा जिसमें जमना और सरस्वती कैद थीं तो वहाँ रोशनी देख यकायक घबरा उठा और बिहारीसिंह की तरफ देख कर बोला, ‘‘यह क्या मामला है! यहाँ रोशनी कैसी है? इनका मददगार आ पहुँचा क्या?’’

बिहारी : बेशक कुछ गड़बड़ी है, चलिये नजदीक से देखें।

जैपाल : ठहरो मैं आगे बढ़कर देखता हूँ।

इतना कह जैपाल आगे बढ़ा और दरवाजे से झाँककर अन्दर की तरफ देखने लगा।

एक ही नजर में जैपाल सभों को पहिचान गया और कुछ सोचकर पीछे मुड़ने ही को था कि दारोगा स्वयं उसके पास हो लिया और अन्दर की अवस्था देख जैपाल से बोला, ‘‘क्या मैं भैयाराजा को कैदियों के साथ देख रहा हूँ?’’

जैपाल : निःसन्देह ऐसा ही है, मगर भैयाराजा यहाँ कैसे आ गए?

दारोगा : (काँपकर) नहीं कह सकता। शायद बहुरानी की तलाश में इधर आ निकले हों। मगर इससे तो यह सन्देह हो सकता है कि बहुरानी इनके हाथ न लगी बल्कि उसे कोई और ही ले गया। जो हो इससे बढ़कर मौका फिर न मिलेगा, देखो मैं इस वक्त इनको कैसा छकाता हूँ।

इतना कह दारोगा ने बाँस का एक तमंचा (जो खास बाग से अपने साथ लाया था) निकाला और उसमें एक गोली डालकर हाथ में ले लिया, तब दूसरे जेब से कई गोलियाँ निकालकर एक-एक अपने साथियों को देने के बाद एक गोली अपने मुँह में रखी ली और तब उस कमरे में जहाँ भैयाराजा इत्यादि बैठे थे गोली चलाई।

तमंचे से निकली हुई गोली भैयाराजा के पास गिरकर बिना किसी तरह की आवाज किए फूट गई और उसमें से निकला हुआ जहरीला धुआँ कमरे में चारों तरफ फैल गया जिसके असर से शीघ्र ही भैयाराजा और जमना इत्यादि बेहोश होकर जमीन पर लेट गये।

कुछ देर बाद कमरे में फैला हुए धुआँ बाहर निकल गया तो जैपाल, बिहारी तथा हरनाम को साथ लिए हुए दारोगा कमरे में दाखिल हुआ और खुशी भरी हुई निगाह कैदियों पर डालता हुआ जैपाल से बोला, ‘‘अब मेरा कलेजा ठण्डा हुआ, आज मैं इन चारों को मारकर सदैव के लिए झगड़ा तय करूँगा।’’

जैपाल : बेशक यह आप इस खयाल से कहते होंगे कि जिसमें इनके छूट जाने या फिर संसार में प्रकट हो जाने का भय जाता रहे।

दारोगा : और क्या! यदि मैंने शुरू में ही ऐसा कर दिये होता तो आज इस दुनिया में मेरा कोई शत्रु नजर न आता।

जैपाल : ठीक है, परन्तु मेरी राय में पहिले इन सभों का चेहरा धोकर देखना चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि पुनः धोखा हो जाय और ये कोई और ही निकलें...

दारोगा : (बात काटकर) बेशक यह राय तुम्हारी बहुत ठीक है, मैं भी इसे पसन्द करता हूँ।

इतना कह दारोगा ने बिहारीसिंह की तरफ देखकर कुछ इशारा किया जो तुरत ही एक तरफ जाकर मिट्टी का घड़ा जल से भरा हुआ ले आया और पास बैठकर सभों का मुँह धोने लगा।

सबसे पहिले उसने जमना, सरस्वती का मुँह धोया और इसके बाद भैयाराजा तथा भूतनाथ की तरफ झुका।जब इस काम से छुट्टी पा चुका तो दारोगा से बोला, ‘‘ओफ यो तो कोई और ही औरतें हैं अर्थात् जमना और सरस्वती नहीं। हाँ भैयाराजा और भूतनाथ के असली होने में कोई सन्देह नहीं है। (१. पाठकों को याद होगा कि इस समय भी जमना, सरस्वती के चेहरे पर इन्द्रदेव की दी हुई तिलिस्मी झिल्ली चढ़ी हुई थी परन्तु भैयाराजा अपनी असली सूरत में थे।)

दारोगा : निःसन्देह ऐसा ही है। (जैपाल की तरफ देखकर) मगर तुम्हारे चेहरे का रंग क्यों उड़ जाता है और तुम घबड़ाये हुए क्यों जान पड़ते हो?

जैपाल : मेरी अकल हैरान है और कुछ समझ में नहीं आता कि यह क्या मामला है। ये दोनों तो वे ही औरतें हैं जिनके यहाँ मैं कैद था या जो प्रतिदिन मेरे पास आकर मुझे तरह-तरह की यातना दिया करती थीं। ओह, जालिम औरतें हैं। इनको देखकर तो मेरा कलेजा हिल जाता है।

दारोगा : परन्तु आश्चर्य है कि आज के पहिले मैंने इनको कभी नहीं देखा।

जैपाल : न-मालूम ये कम्बख्त हमें दुःख देने के लिये कहाँ से पैदा हो गईं। खैर वहाँ तो मैं इनकी कैद में था इस कारण कुछ जान न सका पर अब वह मौका आ गया है कि मैं इनका हाल दरियाफ्त कर सकूँ। यदि आज्ञा हो तो इनको होश में लाकर इनका भेद जानने का उद्योग करूँ?

दारोगा : हाँ-हाँ जरूर, मेरा दिल भी इनका हाल जानने के लिए व्याकुल हो रहा है, परन्तु जहाँ तक मेरा ख्याल है ये अपना ठीक-ठीक परिचय कदापि न देंगी।

जैपाल : हो सकता है परन्तु मैं किसी तरकीब से अवश्य मालूम कर लूँगा।

दारोगा : अच्छी बात है मगर इस काम में जल्दी करना चाहिये क्योंकि मैं कल रात-भर का जागा हुआ हूँ और इस समय नींद के मारे मेरी आँखें बन्द हुई जा रही हैं।

जैपाल : लेकिन यह काम जल्दी का नहीं है जल्दबाजी करने से सब बात बिगड़ जायगी।

यदि आप चाहें तो जाकर आराम करें और हरनाम तथा बिहारी को यहीं छोड़ते जायें, सुबह होते-होते तक मैं सब कुछ पता लगा ही लूँगा।

दारोगा : अच्छी बात है, मैं जाता हूँ, कुछ देर आराम कर सुबह फिर आऊँगा, तब तक यदि तुम इन दोनों औरतों का कुछ पता लगा सको तो लगाने की कोशिश करना और नहीं तो कल एक साथ ही इन चारों को खत्मकर बखेड़ा दूर किया जायगा।

इतना कह हरनाम और बिहारी को वहीं छोड़ दारोगा कमरे के बाहर की तरफ चला मगर फिर रुक कर बोला, ‘‘यदि कहो तो कुछ रोशनी का इन्तजाम करता जाऊँ? यहाँ केवल इस मोमबत्ती की ही रोशनी है जिसे शायद भैयाराजा या भूतनाथ ने जलाया होगा।’’

जैपाल : नहीं और किसी रोशनी की जरूरत नहीं, इसी मोमबत्ती से काम चल जायगा, यदि रोशनी की जरूरत पड़ेगी भी तो मैं स्वयं नीचे जाकर नौकरों से माँग लूँगा। यहाँ किसी नौकर का आना और भैयाराजा को इस हालत में देखना ठीक नहीं है।

दारोगा : हाँ, तुम्हारा कहना बहुत ठीक है, मेरे नौकरों को भैयाराजा को इस हालत में यहाँ न देखना चाहिए। मैं भी इस बात की ताकीद करता जाऊँगा कि कोई नौकर ऊपर न आये।

इतना कह दारोगा वहाँ से चला गया। जैपाल उसके जाने के थोड़ी देर तक चुपचाप तुछ सोचता रहा इसके बाद भूतनाथ के पास गया और उसके बटुए में कोई चीज खोजने लगा।

हरनाम ने यह देखकर पूछा, ‘‘क्यों, उसके बटुए में आप क्या खोज रहे हैं?’’

जैपाल : देख रहा हूँ कि शायद मेरे मतलब की कोई चीज निकल आवे।

भूतनाथ के बटुए की छानबीन करने में जैपाल ने बहुत अधिक समय लगा दिया और इस बीच में वह मोमबत्ती जो वहाँ जल रही थी लगभग समाप्ति पर आ गई। यह देख जैपाल ने भूतनाथ के बटुए में से एक दूसरी मोमबत्ती निकाली और उसे जलाकर पहली मोमबत्ती के पास जमीन पर खड़ा कर दिया।दब हरनामसिंह से कहा, ‘‘इसके बटुए में तो कोई काम की चीज निकलती दिखाई नहीं पड़ती, सिर्फ कुछ दवाएँ वगैरह हैं जो हम लोगों के किसी काम की नहीं। तुम्हारे पास अगर लखलखा हो तो मुझे दो मैं इन औरतों को होश में लाऊँ।’’

हरनामसिंह ने यह सुन अपने बटुए में से लखलखे की डिबिया निकाली और कहा, ‘‘लो यह लखलखे की डिबिया, मगर यह तो बताओ कि तुमने यह दूसरी मोमबत्ती भूतनाथ के बटुए में से निकाल कर क्यों बाल ली। ‘

‘पहिली मोमबत्ती समाप्त हो चुकी थी इसलिए मैंने दूसरी और बाल ली है।’’ कह कर जैपाल ने लखलखे की डिबिया हरनामसिंह से ली और जमना-सरस्वती के पास जा उन्हें होश में लाने की कोशिश करने लगा।

जैपाल की जलाई हुई मोमबत्ती की रोशनी पहिली से कुछ तेज थी और इसमें एक प्रकार की विचित्र सुगन्ध निकलकर कमरे को सुगन्धित कर रही थी। यह सुगन्ध व्यर्थ न थी बल्कि तेज बेहोशी का असर रखती थी। जैपाल कुछ देर तक तो जमना के पास बैठा उनको होश में लाने की कोशिश करता रहा मगर जब उसको यह विश्वास हो गया कि अब मोमबत्ती से निकली हुई गन्ध बिहारी और हरनाम के दिमाग में पूरी तरह असर कर गई होगी तो वहाँ से हटा और भैयाराजा के पास से तिलिस्मी खन्जर और उसके जोड़ की अंगूठी लेता हुआ बिहारीसिंह की तरफ देखकर कहने लगा, ‘‘देखो दारोगा साहब भी कैसे आदमी हैं जो अपने मालिक भैयाराजा पर इतनी सख्ती करते हैं। मुझसे तो यह काम कदापि न हो सकेगा और मैं चाहता हूँ कि भैयाराजा को होश में लाकर छोड़ दूँ, कहो तुम्हारी क्या राय है?’’

यह सुनते ही बिहारी और हरनाम जैपाल का मुँह ताकने लगे। उनको यह संदेह हो गया कि हो-न-हो यह कोई ऐयार है और मोमबत्ती से जो गंध निकल रही है शायद उसमें भी बेहोशी का असर है जिससे हम लोग जल्द ही बेकाम हो जायेंगे। मगर उनको कुछ ज्यादा सोचने-विचारने या सवाल करने का मौका न मिला, मोमबत्ती की खुशबू ने पूरी तरह असर कर लिया था इस कारण वे दोनों देखते-देखते बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े। जैपाल यह देखते ही उठा और उन दोनों के हाथ पांव अच्छी तरह बाँध देने के बाद भैयाराजा, भूतनाथ तथा जमना और सरस्वती को पुनः लखलखा सुँघाने लगा जिससे बात-की-बात में उन सभों की बेहोशी दूर हो गई और वे आश्चर्य तथा घबराहट की निगाह से चारों तरफ देखने लगे। जैपाल को सामने खड़ा देख भैयाराजा इत्यादि को बड़ा आश्चर्य हुआ और सभी सोचने लगे कि यह क्योंकर कैद से छूटा और इस जगह आ पहुंचा!

तरह-तरह की बातें सोचते-विचारते सभी अपने खयालों में ऐसा निमग्न हुए कि थोड़ी देर के लिए किसी को अपने तन-बदन की सुध न रही। उनकी। यह दशा देख जैपाल मुस्कुरा पड़ा जिससे भैयाराजा को क्रोध चढ़ आया और वे लाल आँखें कर जैपाल से बोले, ‘‘क्या यह सब कार्रवाई तेरी ही थी और तूने ही हम लोगों को बेहोश किया है?’’

जैपाल० : बेहोश तो किसी और ने किया था मैं उस बेहोशी को दूर करने वाला हूँ।

भैया० : अच्छा! तो तूने ऐसा क्यों किया

जैपाल० : केवल इसीलिए कि यहाँ से आप लोगों को निकाल कर जहाँ कहें पहुँचा दूँ।

भैया० : झूठ बिल्कुल झूठ, तेरा ऐसा खयाल कदापि नहीं हो सकता।

जैपाल० : जी निःसन्देह ऐसा ही है, मुझे आप लोगों की अवस्था पर दया आती है और मैं आप लोगों की मदद करना चाहता हूँ।

भैया० : चुप कम्बख्त। तू क्या मेरी मदद करेगा? पहले अपने बचाव की फिक्र तो कर ले।

जैपाल० : अच्छा, अब तो आप ऐंठने लगे। सच है, दुनिया ऐसी जगह नहीं है जहाँ किसी के साथ कुछ अहसान किया जाय।

भैया० : (आपे से बाहर होकर) बस-बस खबरदार जो एक अक्षर भी जुबान से निकाला, मालूम होता है कि तेरी मौत करीब है, ठहर मैं तेरी गुस्ताखी का मजा तुझे चखाता हूँ।

इतना कह भैयाराजा ने म्यान से तलवार निकाल ली और जैपाल पर वार करने के लिए आगे बढ़े।

भैयाराजा को आगे बढ़ता देख जैपाल ने फुर्ती के साथ अपनी जेब से एक रुमाल, जो किसी किस्म के अर्क से तर था, निकाला और उससे अपना मुँह पोछ डाला। भैयाराजा आगे बढ़ कर तलवार का वार किया ही चाहते थे कि उनकी नजर जैपाल के चेहरे पर जा पड़ी।न-मालूम उसके चेहरे में क्या फर्क आ गया था कि सूरत देखते ही भैयाराजा का हाथ रुक गया और वे चौंक कर यकायक रुक गए। उसी समय जमना और सरस्वती भी दौड़ कर जैपाल के पैरों पर गिर पड़ीं और भूतनाथ भी चमक कर बोला, ‘‘वाह इन्द्रदेवजी, आपने तो खूब धोखा दिया।’’

भैयाराजा भी अपनी कार्रवाई पर बहुत लज्जित हुए और जैपाल का हाथ पकड़ कर बोले, ‘‘इन्द्रदेवजी, आपने तो मुझे बड़ा ही धोखा दिया। पर आखिर आपने इस दिल्लगी में फायदा क्या सोचा था?’’

इन्द्र० : दारोगा के तमंचे से निकली हुई गोली जो आपके पास ही जमीन गिर कर फूट गई थी साधारण न थी बल्कि सैकड़ों को बेबस और बेहोश करने के लिए एक ही काफी थी। उसमें से निकला हुआ धुआँ जिसके कारण आप लोग बेहोश हो गए थे इतना जहरीला था कि लखलखा सुंघाने अथवा होश में लाने पर भी देर तक आप लोग इस योग्य न होते कि अपनी जगह से हिल सकें और मुझे इस मकान में देर तक रहना पसन्द नहीं, इसलिए मैंने यह ढंग किया जिसमें क्रोध आने तथा हाथ-पैर हिलाने से आप लोगों के बदन में फुर्ती आ जाय और आप लोग यहाँ से निकल कर जल्द बाहर हो सकें।

भूत० : तो क्या हम लोगों को दारोगा ने बोहेश किया था?

इन्द्र० : हाँ।

भूत० : तब वह हम लोगों को छोड़ कर चला क्यों गया।

इन्द्र० : वह अपनी तबीयत से नहीं गया बल्कि मैंने ही उसे उल्लू बना कर अलग किया है। आप जानते ही हैं कि वह जैपाल का कितना विश्वास करता है और मैं जैपाल की सूरत में था ही, यही कारण है कि वार खाली न गया और वह मेरे चकमे में आ गया।

भूत० : (बिहारी और हरनाम की तरफ देख) तो इनको भी आप ने बेहोश किया होगा?

इन्द्र० : और क्या!

जमना : क्या मैं भी कुछ पूछ सकती हूँ?

इन्द्र० : तुम जो कुछ पूछोगी मैं खूब जानता हूँ परन्तु समय बहुत कम है और हम लोगों को जहाँ तक जल्दी हो सके इस जगह से बाहर निकल जाना चाहिए। बाहर निकल चलने पर मैं तुम्हारी बातों का खुशी से जवाब दूँगा। (भूतनाथ की तरफ देख कर) तुम इस मकान में किस तरह आए हो, कमन्द लगा कर या...

भूत० : मैं और भैयाराजाजी कमन्द लगा कर यहाँ तक आए हैं मगर अब इस समय बाहर जाने में कठिनता होगी क्योंकि सुबह हो चली है इस समय कमन्द के जरिए उतरने में किसी-न-किसी की निगाह पड़ जाने का डर है।

इन्द्र० : नहीं-नहीं, अब कमन्द लगाने का मौका नहीं है, हम लोगों को सदर दरवाजे की राह ही निकलना होगा, बेहतर होगा अगर जमना-सरस्वती एक बार फिर बेहोश किया जाना पसन्द कर लें क्योंकि तब तुम और मैं बिहारी और हरनाम की सूरत बन कर बखूबी कैदियों की तरह निकाल ले जा सकेंगे।

भूत० : बेशक आपकी राय ठीक है, ऐसा करने में किसी तरह की कठिनता न होगी और हम लोग बेखटके बाहर निकल जायेंगे।

इन्द्र० : (जमना की तरफ देख कर) क्यों तुम्हारी क्या राय है?

जमना : आपकी राय बहुत अच्छी है पर मैं कुछ और ही सोचती हूँ। यदि दोनों ऐयारों (बिहारी और हरनाम की तरफ बता कर) को भी किसी तरह यहाँ से ले चलते तो बहुत उत्तम होता।

भूत० : तो क्या हर्ज है, मैं बिहारी और हरनाम को एक गठरी में बाँध कर उठा लूँगा और जमना—सरस्वती को आप उठा लें।

सरस्वती : दो-दो आदमियों को एक साथ गठ्ठर में ले जाने से पहरे वाले शायद शक करें।

भूत० : ऊंह, शक क्या करेंगे और शक करके ही क्या कर लेंगे? हम लोगों से बोलने की हिम्मत उनको न पड़ेगी। (इन्द्रदेव के तरफ देख कर) क्यों साहब, आप क्या समझते हैं?

इन्द्र० : उन सभों को सन्देह तो जरूर होगा मगर खैर क्या किया जाय, इसके सिवाय और कोई कार्रवाई करने का मौका भी तो नहीं है क्योंकि सवेरा हुआ ही चाहता है और थोड़ी ही देर में दुष्ट दारोगा आ पहुँचेगा। तुम फुर्ती से अपने को हरनामसिंह बना लो और मैं बिहारीसिंह बन जाता हूँ, भैयाराजा जैपाल बन जायेंगे।

थोड़ी ही देर में भूतनाथ हरनामसिंह की सूरत बन गया और इन्द्रदेव आप बिहारीसिंह बन कर भैयाराजा को जैपाल की सूरत बनाने लगे। जब इस काम से छुट्टी मिली तो इन्द्रदेव ने अपनी पोशाक जिसे पहन कर जैपाल बने थे, भैयाराजा को पहिना दी और आप बिहारीसिंह की पोशाक पहिन कर खड़े हो गए। भूतनाथ ने हरनामसिंह के कपड़े पहन लिए।

जमना और सरस्वती बेहोश करके एक कपड़े में बाँधी गईं और इन्द्रदेव ने उन दोनों को अपनी पीठ पर उठा लिया। भूतनाथ ने हरनामसिंह और बिहारी की गठरी बाँध पीठ पर लादा और जैपाल बने भैयाराजा को साथ लिए ये सब मकान के बाहर की तरफ चले।

दारोगा के पहरेदारों ने जैपाल और हरनामसिंह तथा बिहारीसिंह को इस तरह जाते देख कर भी यह समझ कर कि ये लोग शायद दारोगा साहब के हुक्म से कैदियों को कहीं लिए जा रहे हैं इन सभों को कुछ न कहा और ये लोग बेखटके दारोगा के मकान के बाहर हो गए।

सुबह की सफेदी आसमान पर फैल चुकी थी जब जमना और सरस्वती को लिए इन्द्रदेव, उनके पीछे भैयाराजा और सबसे पीछे बिहारीसिंह और हरनामसिंह को पीठ पर लादे भूतनाथ शहर से बाहर निकले और तेजी के साथ कदम बढ़ाते हुए मैदान की तरफ रवाना हुए।

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