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भूतनाथ - खण्ड 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8362
आईएसबीएन :978-1-61301-020-4

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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण

तेरहवाँ बयान


दारोगा का भूलभूलैया वाला मकान कैसा है इसका बहुत कुछ हाल हमारे पाठकों को मालूम हो चुका है। जमना, सरस्वती और इन्दुमति इस मकान में कैद रह चुकी हैं और भैयाराजा को भी वह इस मकान की सैर करा चुका है, अस्तु इस समय इस मकान का हाल और ज्यादा न लिख हम अपने पाठकों को साथ ले इसके एक बड़े कमरे में चलते हैं और छिपकर देखते हैं कि वहाँ क्या हो रहा है।

रात आधी से ज्यादे बीत चुकी है। मकान भर में चारों तरफ यद्यपि सन्नाटा छाया हुआ है, मगर इस कमरे में हम दो कैदियों को हथकड़ी और बेड़ी से मजबूर बैठे आपुस में धीरे-धीरे बातें करते देख रहे हैं। एक तरफ आले पर चिराग जल रहा है मगर उसकी मद्धिम रोशनी इस बड़े कमरे के लिए काफी नहीं है और इसी कारण इन दोनों की सूरत-शक्ल साफ मालूम नहीं पड़ती है। आइये नजदीक आकर इनकी बातें सुनें, शायद तब कुछ पता लग जाय कि ये कौन हैं।

एक : देखो बहिन, हठ भी कैसी बुरी चीज है। जो लोग बड़ों की बात को नहीं मानते वे अवश्य धोखा खाते हैं। (रोकर) ओफ, चाचाजी ने हम लोगों को कितनी मना किया परन्तु हमने एक न माना, अफसोस, अब कौन-सा मुँह लेकर हम लोग उनके सामने जायँगे? हाय, उन्हें क्या मालूम कि बेचारी जमना और सरस्वती हथकड़ी-बेड़ी से मजबूर किस कैदखाने में पड़ी अपने किये पर पछता रही हैं।

सरस्वती : तुम्हारा कहना ठीक है, मगर क्या वे हमारा पता लगाने का कोई बन्दोबस्त नहीं करेंगे? उन्हें इस बात का पता अवश्य ही लग गया होगा कि हम दोनों दुश्मन के कब्जे में फँस गई हैं।

जमना : सो हो सकता है मगर इस बात का पता उन्हें क्योंकर लगेगा कि हम लोग पुनः उसी दुष्ट दारोगा के कब्जे में पड़ गई हैं।

सरस्वती : मगर तुम ही यह कैसे कह सकती हो कि हमलोग दारोगा के कब्जे में हैं? अभी तक तो कोई हमें देखने तक भी नहीं आया है।

जमना : मुझे कुछ-कुछ शक होता है कि यह वही जगह है जिसमें उसने पहिली दफे बहिन इन्दुमति के साथ हम लोगों को बन्द किया था। (कमरे के एक तरफ की तीन बन्द खिड़कियों की तरफ इशारा करके) इन्हीं खिड़कियों की एक राह उस कम्बख्त ने हम लोगों को नीचे बगीचे में देखने के लिए कहा था जब अपने किसी साथी को जीजा जी की सूरत बनाकर।।

जमना अपनी बात पूरी नहीं कर पाई थी कि बाहर की तरफ से कुछ खटके की आवाज आई जिसे सुन वह रुक गई और उस तरफ गौर कर सरस्वती से बोली—

जमना : वह कैसी आवाज है। क्या कोई दरवाजा खोल रहा है?

सर० : निःसन्देह ऐसा ही है, कहीं हम लोगों का कोई साथी तो नहीं है!

जमना : कदाचित्, मगर मुझे तो दारोगा के होने का ही गुमान अधिक होता है।

सरस्वती : खैर कोई तो अवश्य होगा। देखें हमारी किस्मत अब क्या रंगत लाती है।

इतना कह दोनों औरतें उछलते हुए कलेजे से आने वाले की तरफ देखने लगीं थोड़ी ही देर में दो आदमी चेहरे पर नकाब डाले जलती हुई मोमबत्ती हाथ में लिए दरवाजा खोलकर कमरे के अन्दर आते हुए दिखाई पड़े। एक दफे तो इन नकाबपोशों को देखकर ये दोनों काँप उठीं मगर जब एक नकाबपोश ने अपने चेहरे से नकाब उठा जमना और सरस्वती की तरफ देखा और कहा, ‘‘क्या तुम लोग हमें पहिचानती हो?’’ तो दोनों मारे खुशी के फड़क उठीं और हाथ-पैर बँधा रहने के कारण सिर झुकाने के सिवा किसी दूसरे प्रकार से अदब न कर सकीं। हाँ, उनके चेहरे के उतार-चढ़ाव ने नकाबपोश पर जाहिर कर दिया कि इनके दिलों में उसकी कहाँ तक इज्जत है। यह इशारा देख वह नकाबपोश भी जो वास्तव में भैयाराजा थे बेचैन हो गए और उन्होंने कमर से एक औजार निकालकर जल्दी-जल्दी इन दोनों की हथकड़ी-बेड़ी खोल दी। हथकड़ी-बेड़ी से छुटकारा पाते ही दोनों औरतें भैयाराजा के पैरों पर गिर पड़ी जिन्होंने बड़े प्यार से उनका सर उठा कर ढाढ़स दिया और कहा, ‘‘अब घबराने की कोई बात नहीं है, हम लोग इसी समय तुम्हें यहाँ से निकालकर अपने साथ ले चलेंगे, हमारे साथ में यह दूसरा नकाबपोश भूतनाथ है।’’

जमना : क्या ये भी हमें छुड़ाने के लिए आए हैं?

भैया० : (मुस्कराकर) डरो मत, ये भी अब हम लोगों के ही साथी हैं और तुम्हें छुड़ाने के लिए ही आये हैं।

जमना यह सुन चुप हो रही और सर नीचा कर कुछ सोचने लगी। भैयाराजा ने यह देखकर कहा, ‘‘अच्छा तो अब देर मत करो उठो।’’

भैयाराजा और भूतनाथ पीछे की ओर मुड़े और जमना तथा सरस्वती उनके साथ चलने को तैयार हो गईं।

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