मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 3 भूतनाथ - खण्ड 3देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड 3 पुस्तक का ई-संस्करण
पन्द्रहवाँ बयान
शहर के बाहर बहुत दूर निकल जाने बाद सुस्ताने और जमना तथा सरस्वती को होश में लाने की नीयत से इन्द्रदेव ठहर गए। उन दोनों की गठरी जमीन पर उतारकर रखने के बाद भैयाराजा की तरफ घूम कर वे बोले, ‘‘यहाँ जरा ठहर कर इन दोनों को होश में ले आना चाहिए।’’ जिसके जवाब में भैयाराजा ने कहा ‘‘अच्छी बात है।’’
इतने ही में इन्द्रदेव का ख्याल भूतनाथ की तरफ गया और उसे अपने साथ न देख कर उन्होंने आश्चर्य के साथ भैयाराजा से पूछा, ‘‘भूतनाथ नहीं है, क्या कहीं चला गया?’’
भैयाराजा ने ‘‘साथ ही तो था’’ कह कर पीछे की तरफ देखा मगर वहाँ भूतनाथ पर कहीं निगाह न पड़ी। यह देख उन्होंने ताज्जुब से कहा, ‘‘रास्ते में साथ आता-आता कहाँ चला गया। हम लोगों से कुछ कह कर भी नहीं गया, कहीं उसका मिजाज तो नहीं बदला!’
इन्द्रदेव ने इस बात का कुछ जवाब नहीं दिया और चुपचाप बैठ कर जमना और सरस्वती को होश में लाने का उद्योग करने लगे। थोड़ी ही देर में वे दोनों भी चैतन्य होकर उठ बैठीं और चारों तरफ देख कर बोलीं, ‘‘भूतनाथ नजर नहीं आता, कहाँ चला गया?’’
इन्द्र० : उसका कहीं पता नहीं, ना-मालूम आते-आते रास्ते ही में कहाँ गायब हो गया।
जमना : किसी दुश्मन के फेर में तो नहीं पड़ गया!
इन्द्र० : नहीं, दुश्मन के फेर में तो न पड़ा होगा क्योंकि वह एक ही धूर्त और चौकन्ना आदमी है, कोई दूसरी ही बात मालूम होती है।
भैया० : शायद फिर हम लोगों के विरुद्ध हो गया हो और...
जमना : मैं भी यही समझती हूँ, ऐसा पाजी और झूठा है कि उसके कहे पर किसी को बिल्कुल विश्वास नहीं करना चाहिए, (इन्द्रदेव की तरफ देख कर) मगर न मालूम आप क्यों उसके ऊपर इतना विश्वास और भरोसा करते हैं।
इन्द्र० : मैं उसके ऊपर विश्वास या भरोसा तो नहीं करता, हाँ उसे बिल्कुल नष्ट या गया-गुजरा भी नहीं समझता हूँ। मेरा यही विश्वास है कि यदि चेष्टा की जाय और उसके मन में मैं बैठा दिया जाय कि बुरे कर्मों का फल बुरा और भले कर्मों का भला होता है तो वह जरूर सुधर जायेगा।
सरस्वती : मगर मैं समझती हूँ कि लाख कोशिश करने और समझाने पर भी उसका स्वभाव कभी न बदलेगा और न वह अपनी दुष्टता ही छोड़ेगा। हम लोगों के साथ देखिए कैसी-कैसी प्रतिज्ञाएँ, कैसे-कैसे वादे उसने किए पर अन्त में सब बातों में खोटा ही निकलता गया, और तो जाने दीजिए इन्हीं भैयाराजा के साथ उसने कैसा...
भैयाराजा : खैर जो कुछ हो और मेरे साथ उसने अभी तक चाहे जैसे-जैसे वादे और जिस प्रकार की दुष्टता की हो पर इस समय तो उसके अहसान का बहुत बड़ा बोझ मेरी गर्दन पर है। इस समय अपनी स्त्री को जो मैंने पाया है सो केवल उसी की मदद से। अगर वह धूर्तता और चालाकी से इस बात का पता न लगाए होता कि दारोगा ने अपने कैदियों को अजायबघर में ले जाकर बन्द किया है तो मैं कदापि अपनी स्त्री को पा न सकता।
जमना : कैदियों के अजायबघर में भेजने का हाल तो हम लोगों को पहले से मालूम था और जैपाल से इसकी पुष्टि भी हो गई थी, हाँ वहाँ की ताली के विषय में बेशक उसका अहसान मानना पड़ेगा।
भैया० : केवल मैं ही क्यों उसी की सहायता से प्रभाकरसिंह अपने माता-पिता को पा सके हैं तथा दयाराम का पता लगने का भी एक प्रकार से उसी को कारण समझना पड़ेगा।
सरस्वती : उसने हम लोगों के साथ कैसा बुरा बर्ताव किया यह जानते हुए आप ऐसा कहते हैं तो मुझे ताज्जुब होता है। यही दुष्ट उनके (दयाराम के) इतना कष्ट भोगने का कारण है अपनी समझ में यह उनकी जान ही ले चुका था, फिर भी आप कहते हैं कि ‘उनके पता लगने का कारण भी उसी को समझना चाहिए’ आश्चर्य है! आपकी जुबानी ऐसा सुन के मुझे…
सरस्वती ने अपनी बात समाप्त नहीं की थी कि यकायक सभों की निगाह भूतनाथ पर पड़ी जो सामने से चला आ रहा था। सब लोग आश्चर्य और प्रसन्नता के साथ उसकी तरफ देखने लगे। बात-की-बात में वह नजदीक आ पहुँचा और इन्द्रदेव से बोला, ‘‘मुझे रास्ते में से यकायक गायब हो जाते देख कर आप लोग ताज्जुब करते होंगे!’’
इन्द्र० : बेशक हम लोग इस बात पर आश्चर्य कर रहे थे कि तुम रास्ते में से कहाँ गायब हो गए।
भूत० : मुझे एक आवश्यक काम के कारण आप लोगों से अलग होना पड़ा, (कुछ रुककर इन्द्रदेव से) यदि आप जरा-सा मेरे साथ इधर आ जाते तो बहुत उत्तम होता।
इतना कह भूतनाथ वहाँ से कुछ दूर हट गया और एक पेड़ के पास जा खड़ा हुआ। यह देख इन्द्रदेव अपनी जगह से उठे तथा भैयाराजा इत्यादि को उसी जगह बैठे रहने के लिए इशारा कर भूतनाथ के पास जा कर बोले, ‘‘कहो क्या बात है!’’
भूतनाथ ने एक दफे अच्छी तरह अपने चारों तरफ देखा तब धीमी आवाज में कहा, ‘‘रास्ते में अपने एक शागिर्द की जुबानी मुझे मालूम हुआ कि मेरे मालिक रणधीरसिंह जी को मेरी जरूरत आ पड़ी है और उन्होंने मुझे तुरन्त बुलाने के लिए आदमी भेजा है। मुझे इस बात का पता भी लगा है कि इधर बहुत दिनों तक उनसे न मिलने और दूसरे-दूसरे कामों में फँसे रहने के कारण वे मुझसे कुछ नाराज-से हो गए हैं, अस्तु मैं इधर से सब कामों की फिक्र छोड़ सीधे अपने मालिक के पास जाना चाहता हूँ। हरनाम और बिहारी को अपने शागिर्दों के हवाले कर दिया, वे उन्हें आपके मकान पर पहुँचा देंगे। आपसे अब मेरी इतनी प्रार्थना है कि जो कुछ गलतियाँ, दुष्कर्म और भूलें मुझसे हो गई हैं उनको क्षमा करें और मेरे पिछले काम को भूलकर भैयाराजा से भी मुझे माफी दिलाने का उद्योग करें।
इन्द्र० : तो क्या अब तुम उनसे न मिलोगे?
भूत० : नहीं, मुझे जरा भी फुरसत नहीं है, यदि इस बात का खयाल न होता कि यकायक गायब हो जाने पर आप लोग मेरे ऊपर सन्देह करने लगेंगे तो मैं यहाँ आता भी नहीं, केवल इसी खयाल से और आपको सूचना दे देने की नीयत से ही आया हूँ।
इन्द्र० : तो अब मुझसे कब मिलोगे?
भूत० : कुछ ठीक नहीं कि मुझे कब फुरसत मिलेगी। जमानिया में बहुत जल्द बड़ा भारी उपद्रव मचने वाला है, जिसकी खबर रणधीरसिंह जी को शायद लग गई है और मालूम होता है तभी मेरी तलबी हुई है।
इन्द्र० : जमानिया में कैसा उपद्रव मचने वाला है? मुझे तो खबर नहीं!
भूत० : ठीक-ठीक खबर तो मुझे भी नहीं है, हाँ इतना पता लगा है कि उन सबकी जड़ में यही दुष्ट दारोगा है। पुराने सब कैदियों के छूट जाने तथा भैयाराजा इत्यादि के हाथ में आकर भी निकल जाने से वह एकदम पागल हो गया है और कोई भयानक कृत्य कर डालना चाहता है। खैर जो कुछ भी हो, सब सामने ही आ जायगा।
इतना कह भूतनाथ इन्द्रदेव वहाँ से बिदा हुआ, मगर थोड़ी दूर जाने के बाद फिर लौटा और पास आकर बोला, ‘‘जहां तक हो इस बात का ध्यान रखिएगा कि भैयाराजाजी अब जमानिया न जायँ, वहाँ उनके लिए कुशल नहीं है।’’
इतना कह बिना उत्तर की राह देखे भूतनाथ इन्द्रदेव के सामने से हट गया और तेजी के साथ एक तरफ को जाता हुआ देखते-देखते उनकी आँखों की ओट हो गया।
इन्द्रदेव को भूतनाथ की इन बातों से बड़ा आश्चर्य हुआ और वे भूतनाथ के इस विचित्र ढंग से माफी और बिदा माँगने पर ताज्जुब करते हुए भैयाराजा इत्यादि के पास लौट आए। जमना के पूछने पर उन्होंने भूतनाथ से जो कुछ बातें हुई थीं पूरी कह सुनाईं और तब कहा, ‘‘कुछ समझ में नहीं आता कि क्या मामला है और भूतनाथ इस तरह पर यहाँ से हटकर अपने मालिक के पास क्यों चले जाना चाहता है!’’
भैया० : मुझे जमानिया जाने से क्यों रोकता है इसका भी कोई कारण नहीं मालूम होता
सर० : मैं तो समझती हूँ कि उसे दारोगा की किसी नई चाल का पता लगा है।
इन्द्रदेव : उसके सच्चे होने में तो कोई सन्देह नहीं मालूम होता और उसने जिस ढंग से सब बातें कही हैं उनसे यह भी नहीं मालूम होता कि वह झूठ कहता है। जरूर कोई ऐसी ही आवश्यकता होगी या फिर कोई आश्चर्यजनक घटना हुई या होने वाली है जिसके कारण उसके सिर पर यकायक इतनी स्वामिभक्ति सवार हो गई है।
भैया० : खैर इन बातों को अब इस समय जाने दीजिए, चलिए पहिले अपने ठिकाने पहुँचे तो फिर सब बातें होती रहेंगी। मेरा जी अपनी स्त्री तथा प्रभाकरसिंह के माता-पिता को देखने के लिए व्याकुल हो रहा है, उन्हें आपने कहाँ छोड़ा है?
इन्द्र : मैं उन्हें अपने स्थान से थोड़ी ही दूर पर की एक पहाड़ी के पास छोड़ कर जमना और सरस्वती को छुड़ाने निकला था। जहाँ तक मैं समझता हूँ अभी तक वे सब वहीं होंगे। अच्छा अब देर करने से कोई फायदा नहीं, उठना चाहिए।
इतना कह कर इन्द्रदेव उठ खड़े हुए और साथ ही भैयाराजा, जमना और सरस्वती भी उठ खड़ी हुईं।
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