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भूतनाथ - खण्ड 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8361
आईएसबीएन :978-1-61301-019-8

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भूतनाथ - खण्ड 2 पुस्तक का ई-संस्करण

आठवाँ बयान


आधी रात का समय है और चारों तरफ अँधकार छाया हुआ है शहर के गली-कूचों में अच्छी तरह सन्नाटा हो रहा है और सिवाय पहरा देने वालों के और किसी आने-जाने वाले की सूरत दिखाई नहीं पड़ती। निश्चय है कि मकानों के अन्दर रहने वाले भी गहरी नींद में पड़े हुए खुर्राटा भर रहे होंगे, मगर तिलिस्मी दारोगा की आँखों में नींद नहीं है। वह अपने खास कमरे में एक गावतकिये के सहारे बैठा हुआ तरह-तरह की चिन्ता कर रहा है, सामने एक मोमी शमादान जल रहा है और लिखे तथा शादे बहुत-से कागज फैल रहे हैं, कभी-कभी वह उठाकर किसी कागज को देख लेता है और जमीन पर रख तकिये के सहारे लुढ़क जाता है। इसी समय दरबान ने आकर इत्तिला दी कि ‘गदाधरसिंह आये हैं और आपसे मिला चाहते हैं’।

‘‘उन्हें मेरे पास ले आओ’’ कह कर दारोगा चैतन्य हो के बैठ गया, फैले हुए कागजों में से कई कागज उठा कर उसने गद्दी के नीचे दबा दिये और भूतनाथ के आने का इन्तजार करने लगा।

थोड़ी देर में भूतनाथ भी आ पहुँचा जिसे देखते ही दारोगा साहब उठ खड़े हुए, साहब-सलामत के बाद बड़ी खातिर से भूतनाथ को अपने पास बिठाया और बातचीत करने लगे।

भूत० : आपने मुझे ‘बसन्त बाग’ में बुलाया था मगर बुखार आ जाने के कारण मैं समय पर न आ सका, क्षमा कीजियेगा। कहिये क्या काम था?

दारोगा : (आश्चर्य से) मैंने तो आपको बसन्त बाग में नहीं बुलाया था!

भूत० : तो क्या जैपाल ने अपनी तरफ से यह बात कही थी?

दारोगा : जैपाल ने! मगर जैपाल आपके पास क्यों गया?

भूत० : (मुस्कुराता हुआ) वही बेहोशी की दवा से भरी हुई अनूठी डिबिया सुंघाने के लिये! मगर यह आपको भला क्या सूझी? वह डिबिया किस मतलब से आपने भेजी थी?

दारोगा : (आश्चर्य से) आप क्या कह रहे हैं सो कुछ भी मेरी समझ में नहीं आता! न मैंने जैपाल को आपके पास भेजा था और न कोई डिबिया ही भेजी। यह कब की बात है?

भूत० :यह अभी परसों ही का जिक्र मैं कर रहा हूँ जब यहाँ से जमना, सरस्वती और इन्दुमति को ले गया था।

दारोगा : नहीं कदापि नहीं!

भूत० : (घबराहट के साथ) तब मालूम होता है किसी ऐयार ने मुझे धोखे में डाला या खुद जैपाल ने मुझसे छेड़खानी आरम्भ की है।

दारोगा : पहिले आप अपना खुलासा हाल बयान कर जाइये तब मैं कुछ सोचूँ और राय दूँ।

दारोगा की बात सुन भूतनाथ ने वह कुल हाल बयान कर दिया जो कि हम ऊपर लिख आये हैं अर्थात् जमना, सरस्वती और इन्दुमति को मारते समय यकायक जैपाल का जा पहुँचना और भूतनाथ को खून करने से रोक दारोगा की तरफ से संदेशा और बेहोशी की डिबिया देना जिसे सूँघ कर भूतनाथ का बेहोश हो जाना और होश में आने के बाद जमना, सरस्वती और इन्दुमति को मार कर गडहे में दबा देना और फिर यकायक कई सवार आते हुए दिखाई देने के कारण खुद भाग जाना और जैपाल को भी भगा देना इत्यादि जिसे सुनकर दारोगा घबड़ा गया और काँपती हुई आवाज में भूतनाथ से बोला, ‘‘यह बड़ा गजब हुआ। किसी गहरे ऐयार ने तुम्हें धोखा दिया और ताज्जुब नहीं कि जमना, सरस्वती और इन्दुमति का भेद भी उसने मालूम कर लिया हो! (ऊँची सांस लेकर) हाय, मैं बड़ी मुसीबत में फँस गया हूँ! भूतनाश, बेशक तुम्हारी बदौलत मैं मुसीबत का शिकार हुआ चाहता हूँ। यहाँ जो कुछ दुर्घटना हो गई है वह तुम्हारी घटना से भी बढ़ कर भयानक है! मालूम होता है कि हम और तुम दोनों ही किसी मुसीबत में फँसा चाहते हैं और निःसन्देह वह सब तुम्हारी ही बदौलत है!

दारोगा यह कहना कि ‘यह सब तुम्हारी ही बदौलत है’ भूतनाथ को बहुत ही बुरा मालूम हुआ मगर अभी बिगड़ने का मौका न देख कर व तरह दे गया और बोला, ‘भला कहिए तो सही, यहाँ क्या मामला हुआ?’’

दारोगा : जब तुम जमना, सरस्वती और इन्दुमति को ले गये तो मैंने भैयाराजा को मार डालना तय किया परन्तु जब मैंने उन्हें उस मकान में ढूँढ़ा तो एक ठिकाने मुर्दा पाया। उन्होंने अपने हाथ से कलेजे में छुरी मार कर जान दे दी थी। खैर मैं उन्हें उठा कर वहाँ से ले गया और एक ठिकाने जमीन के अन्दर गाड़ कर निश्चिन्त हो गया। उसके बाद रात को मैंने भूत की सूरत में देखा और उसी रात हमारे महाराज को भी वे दिखाई दिये।

भूत० : अरे यह तो आश्चर्य की बात आप कह रहे हैं!

दारोगा : हाँ मैं खुलासा कहता हूँ सुनो।

इतना कह कर दारोगा ने जो कुछ रात के समय खुद देखा था और महाराज ने उन्हें बुला कर जो कुछ कहा था वह सब पूरा-पूरा बयान किया जिसे बड़े आश्चर्य के साथ भूतनाथ ने सुना और अन्त में कहा।

भूत० : दारोगा साहब, कम-से-कम मुझे तो इस बात का विश्वास नहीं होता कि भैया राजा ने भूत होकर आप दोनों के साथ यह दिल्लगी की है।

दारोगा : तो क्या मैं झूठ कह रहा हूँ?

भूत० : यह तो मैं नहीं कह सकता कि आप झूठ कह रहे हैं मगर..।

दारोगा : मगर क्या?

भूत० : अच्छा आप पहिले यह बताइये कि आपने भैयाराजा को कहाँ गाड़ा था?

दारोगा : सो तो मैं नहीं बता सकता, क्योंकि यह बड़ा ही नाजुक मामला है।

भूत० : ऐसा, मगर इससे तो मालूम होता है कि आप मुझसे कपट रखते हैं।

दारोगा : नहीं-नहीं, सो बात नहीं है, सिर्फ इतना ही है कि ऐसे नाजुक मामले को मैं किसी दूसरे पर प्रकट नहीं किया चाहता।

भूत० : ठीक ही है, खैर जब मुझे गैर की पदवी मिली तो मुझे भी आपसे हर वक्त चौकन्ना ही रहना चाहिये। अच्छा तो अब आप जैपाल को बुलवाइये ताकि मैं अपने विषय में आपके सामने ही उससे बातचीत करूँ।

इसी समय आहट देता हुआ दरबान हाजिर हुआ और बोला, ‘‘जैपालसिंहजी आये हैं और हाजिर हुआ चाहते हैं।’’

दारोगा : लो जैपाल भी आ ही गया। अच्छा उसे जल्दी आने दो।

बात–की-बात में जैपाल आ पहुँचा और दारोगा तथा भूतनाथ को सलाम कर बैठ गया।

भूत० : (जैपाल से) कहो मिजाज तो अच्छा है?

जैपाल : ईश्वर की कृपा से अच्छा है।

भूत० : उस दिन तो मुझे अच्छा धोखा दिया, डिबिया सुँघा कर सब चौपट ही कर चुके थे।

जैपाल : (आश्चर्य से) कैसी डिबिया!

भूत० : वही जो दारोगा साहब की तरफ से तुम मेरे पास ले गये थे, जिसे सूँघ कर हम दोनों बेहोश हो गये।

जैपाल : मेरी समझ में नहीं आता कि आप क्या कह रहे हैं! मैं कोई डिबिया ले के आपके पास नहीं गया! (दारोगा की तरफ देख कर) ये क्या कह रहे हैं आपने कुछ समझा?

दारोगा : मैं सब-कुछ सुन चुका हूँ इनको किसी ऐयार ने उल्लू बनाया है और उसकी जलन ये हम लोगों पर निकालना चाहते हैं।

इतना कहकर दारोगा ने सब हाल बयान किया जो भूतनाथ ने जयपाल के विषय में उससे बयान किया था। जैपाल को सुन कर बड़ा ही दुःख हुआ और झुँझला कर कहा, ‘‘उस कम्बख्त ऐयार को मेरी ही सूरत बन कर गदाधरसिंह को धोखा देना था! फिर जहाँ तक मैं समझता हूँ उसने इतना ही नहीं किया होगा कि गदाधरसिंह को सिर्फ बेहोश करके चला जाए, बल्कि उसने और भी कोई गहरी कार्रवाई जरूर की होगी।’’

भूत० : अब तो मुझे भी ऐसा ही खयाल होता है।

इसके बाद बहुत देर तक उन तीनों में बातचीत होती रही और अन्त में दारोगासाहिब ने चोबदार को हुक्म दिया कि अस्तबल में से तीन घोड़े तैयार करा कर बहुत जल्द मँगावे थोड़ी ही देर में घोड़े भी आ गए और दारोगा साहब, जैपाल तथा भूतनाथ उन घोड़ों पर सवार होकर उत्तर की तरफ रवाना हुए। उस समय रात अनुमान घण्टे भर के बाकी रह गई थी।

शहर से बाहर निकल जाने के बाद तीनों ने अपने-अपने घोड़ों की चाल बढ़ाई और तेजी के साथ जंगल की तरफ जाने लगे, यहाँ तक कि सवेरा होते-होते तीनों आदमी वहां जा पहुँचे जहाँ भूतनाथ ने जमना, सरस्वती और इन्दुमति का खून किया था या जहाँ पर नकली जैपाल भूतनाथ से जाकर मिला था।

तीनों आदमी घोड़े से नीचे उतर पड़े और अपने-अपने घोड़े लम्बी बागडोरों के सहारे पेड़ों के साथ बाँध कर चरने के लिये छोड़ दिये। इसके बाद भूतनाथ दारोगा और जैपाल को साथ लिए हुए उस जगह पहुँचा जहाँ उसने जमना, सरस्वती और इन्दुमति की लाश गड्हे के अन्दर डाल कर मिट्टी और कतवार से ढाँक दी थी।

तीनों ने मेहनत कर मिट्टी हटाई और उसके अन्दर से उन तीनों लाशों को निकाल कर बाहर किया। यद्यपि वे लाशें अभी तक सड़ी न थीं तथापि फूल गई थीं और उनमें बू पैदा हो गई थी। उन तीनों लाशों के सर भी जो उन्हीं के साथ गाड़ दिए गये थे और अब लाशों के साथ बाहर निकल गये थे अपनी असली हालत में न थे अर्थात् चेहरे पर रंग-रोगन जो ऐयारी के ढंग पर चढ़ाया हुआ था जगह-जगह से बिगड़ कर नीचे से असली रंग झलक मार रहा था जिसे देखते ही भूतनाथ चौंका और उसके मुँह से बेतहाशा ये शब्द निकल पड़े, ‘‘हाय, क्या गजब हो गया!!’’

तीनों घोड़ों के तोशेदान में पानी की बोतल भरी हुई मौजूद थी जिसे भूतनाथ ने निकाला और उससे तीनों मुर्दों के चेहरे साफ करने के बाद एक लम्बी साँस के साथ दारोगा की तरफ देख कर कहा, ‘‘ये ही जमना, सरस्वती और इन्दुमति तुमने मेरे हवाले की थीं?’’

दारोगा : (घबराहट और आश्चर्य के साथ) मैं खुद ताज्जुब कर रहा हूं कि यह क्या मामला है! मैंने जो कुछ किया उसमें तो बराबर तुम भी शरीक ही थे।

भूत० : हाय-हाय, मेरे इन होनहार नौजवान शागिर्दों को तुम्हें मेरे ही हाथ से मरवाना था!

दारोगा : इसमें मेरा क्या कसूर है? मुझे तुम क्यों बदनाम करते हो?

भूत० :तुम्हारा नहीं तो और किसका कसूर है? तुम्हीं ने तो जमना, सरस्वती और इन्दुमति को मेरे हवाले किया!!

दारोगा : अगर इस बारे में मैंने धोखा खाया तो तुमने क्यों नहीं पहिचान लिया कि वे वास्तव में जमना, सरस्वती और इन्दुमति नहीं हैं बल्कि तुम्हारे ही शागिर्द हैं। इसके अतिरिक्त इस बात को सोचो कि तुम्हारे शागिर्दों को जमना, सरस्वती, और इन्दुमति बनने की क्या जरूरत थी? और अगर उन्होंने ऐसा किया भी था तो तुम पर यह भेद क्यों नहीं खोल दिया? या जिस समय तुम इनका सर काटने लगे थे उस समय ही तुमको क्यों नहीं कह दिया कि हम लोगों को मत मारो हम तुम्हारे शागिर्द हैं।

भूत० : मेरी समझ में नहीं आता कि उन लोगों ने ऐसा क्यों नहीं किया, मगर सम्भव है कि इसमें भी कुछ तुम्हारी ही कारीगरी हो!!

दारोगा : बड़े अफसोस की बात है कि तुम इतने बड़े होशियार ऐयार होकर ऐसी बात जुबान से निकालते हो!

भूत० : (अपना माथा पीटकर) हाय मैं क्या कहूँ और क्या करूं! मैं तो बर्बाद हो गया! इन बेचारे नौजवान शागिर्दों का मुझे बड़ा ही भरोसा था। अच्छा खैर तुमने नहीं तो इस मामले में इस (उँगली से इशारा करके) जैपाल ने जरूर कोई कार्रवाई की है।

जैपाल० : ठीक है, तुम्हें अपनी बेवकूफी की झुँझलाहट निकालने के लिए मैं तो मौजूद ही हूँ!

भूतनाथ ने जैपाल की बात का कुछ भी जवाब न दिया और उन लाशों के पास बैठ सर पर हाथ रख के कुछ सोचने लगा। इस समय उसकी आँखों से आँसू की बूँदें टपाटप गिर रही थीं।

बहुत देर तक सोचने और गौर करने के बाद भूतनाथ ने सर उठाया और रूमाल से आँखें पोंछने के बाद दारोगा की तरफ देख कर कहा, ‘‘हाँ, कुछ-कुछ बात समझ में आती है।’’

दारोगा : (उत्कंठा के साथ) सो क्या? जरा मैं भी सुनूं!

भूत० : सो अभी मैं कुछ भी न कहूँगा।

दारोगा : तब कब कहोगे?

भूत० : जब मैं भैयाराजा की लाश की जाँच करके देख लूंगा कि उसमें भी तो धोखा नहीं है।

भूतनाथ की बात ने दारोगा के दिल और दिमाग में खलबली पैदा कर दी और वह सोचने लगा कि ईश्वर न करे अगर उस लाश में भी कहीं इसी तरह का धोखा निकला तो बड़ा ही अन्धेर हो जायेगा।

भूतनाथ ने दारोगा के चेहरे का रंग उड़ा हुआ और उसे कुछ सोचते हुए देख कर फिर कहा, ‘‘दारोगा साहब, आश्चर्य नहीं कि राजाभैया की लाश में भी इसी तरह कोई धोखा हो, और अगर वास्तव में ऐसा ही निकला तब मैं आपको बताऊँगा कि इस समय क्या सोचता था और क्या निश्चय किया। अब मैं अपने दिल पर पत्थर रख कर इन लाशों को गाड़ देता हूँ पर फिर देख लूँगा, जिसने मेरे साथ ऐसी चालाकी की है उसे मैं छठी का दूध न याद दिला दूँ तो मेरा नाम गदाधरसिंह नहीं!!’’

इतना कहकर भूतनाथ ने दारोगा और जैपाल की मदद लेकर उन लाशों को पुनः उसी गडहे में दबा दिया और ऊपर से अच्छी तरह मिट्टी वगैरह डाल कर दारोगा से कहा, ‘‘अब चलिये मैं भी आपके साथ आपके घर चलता हूँ जहाँ मुझे आप भैयाराजा की लाश दिखाइये।’’

दारोगा : घर चलने में तो कोई हर्ज नहीं, आप उसे भी अपना ही घर समझ कर खुशी से चल सकते हैं। मगर मैं फिर कहता हूँ कि आपको उस जगह नहीं ले जा सकता जहाँ भैयाराजा को गाड़ा है।

भूत० : जैपाल को आप उस जगह ले जा सकते हैं?

दारोगा : हाँ, क्योंकि जैपाल को मैं अपने गुप्त कार्यों में बराबर साथ रखता हूँ। मगर आप इसके लिए तरद्दुद न कीजिए, बेहतर होगा कि आप आज का दिन किसी दूसरे काम में बिताइये और कल मेरे पास आइये, इसी बीच मैं भैया राजा की लाश को अच्छी तरह देख और जाँच लूँगा।

दारोगा की बात से भूतनाथ बहुत ही चिढ़ गया मगर उसने अपने दिल का भाव प्रकट न किया, फिर भी उसमें और दारोगा में जो दोस्ती थी आज एक मामूली पेंच पड़ जाने के कारण जाती रही और दोनों ही के दिल में एक तरह की गाँठ पड़ गई।

भूतनाथ ने मान लिया कि इस धोखेबाजी के मामले में दारोगा जरूर शरीक है या यह बिलकुल दारोगा का काम है, और इसी तरह दारोगा समझने लगा कि भूतनाथ हमसे चालबाजी खेल कर अपना कोई काम निकाला चाहता है या ताज्जुब नहीं कि इसी कारण मेरे साथ दुश्मनी का बर्ताव करके मेरा भेद खोल दे। खैर वह सब जो कुछ भी हो इस समय तो भूतनाथ ने अपने दिली जोश को दबा कर दारोगा की बात मान ली और पैदल ही उत्तर की ओर रवाना हो गया। दारोगा और जैपाल भी घोड़े पर सवार होकर शहर की तरफ चले और खाली घोड़े की लगाम थामे हुए जैपाल उसे अपने घोड़े के साथ ले चला।

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