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भूतनाथ - खण्ड 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8361
आईएसबीएन :978-1-61301-019-8

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भूतनाथ - खण्ड 2 पुस्तक का ई-संस्करण

सातवाँ बयान


जमानिया राजमहल में भी शंकरसिंह के गायब होने से बड़ा ही कोलाहल मच गया था। उन्हें लड़के-लड़कियाँ, औरत-मर्द सभी कोई मुहब्बत की निगाह से देखते थे और इसीलिए औरतों को भी उनके गायब होने का बड़ा ही दुःख था परन्तु उनकी स्त्री के चेहरे पर विशेष दुःख की कोई निशानी नहीं पाई जाती थी और इसका औरतों को बड़ा ही आश्चर्य था। यह नहीं कहा जा सकता कि शंकरसिंह की स्त्री रोती या कलपती न थी। नहीं, उनका रोना-धोना और बावेला मचाना बहुत बढ़ा-चढ़ा था, मगर लोगों का ख्याल यही था कि यह सब बनावटी है क्योंकि जब कोई औरत कभी धोखे या एकान्त में उन्हें देख लेती तब उनके चेहरे पर कोई गम की निशानी नहीं पाती थी बल्कि कई दफे तो लोगों ने उन्हें एकान्त में मुस्कराते हुए देखा था, इसीलिए औरतें खयाल करती थीं कि शंकरसिंह के गायब होने का उनको कोई दुःख नहीं है, परन्तु ऐसा क्यों है इसके विषय में निश्चय रूप से कोई भी कुछ नहीं कह सकती थी। हाँ ताक-झाँक में सभी कोई लगे रहते थे और सभी औरतों की निगाह में वे चढ़ गई थीं।

राजा गिरधरसिंह की एक विधवा साली थी, यद्यपि बहुत नेक थी और सनातन धर्म के ऊपर उसका विश्वास था तथा दिन-रात का बहुत बड़ा हिस्सा उसका पूजा पाठ में बीतता भी था परन्तु उसमें एक दोष बहुत बड़ा था अर्थात् वह लोगों का ऐब ढूँढ़ने में बड़ी ही निपुण थी और छोटी-सी बात को झूठ-सच के सहारे बड़ी खूबी के साथ बढ़ा कर बयान करती थी। नाम उसका द्रौपदी था।

एक दिन आधी रात के समय राजा गिरधरसिंह की स्त्री अकेली अपने कमरे में पलंग पर लेटी हुई तरह- तरह की बातें सोच रही थी, चिन्ता के कारण निद्रादेवी ने उनका साथ छोड़ दिया और इसीलिये वे करवटें बदल-बदल कर समय बिता रही थीं। कमरे के अन्दर एक बहुत बड़ा फर्राशी पंखा चल रहा था जिसकी डोरी कमरे के बाहर बैठी हुई एक लौंडी के हाथ में थी।

करवटें बदलते-बदलते एक दफे राजरानी की निगाह दरवाजे पर जा पड़ी, देखा कि बीबी द्रौपदी खड़ी एकटक उनकी तरफ देख रही हैं। हाथ के इशारे से उन्होंने बीबी द्रौपदी को कमरे में आने की इजाजत दी और जब वे उनके पास आई तब पूछा, ‘‘क्या है जो तुम इस समय यहाँ ताक-झाँक लगा रही हो?’’

द्रौपदी : कुछ नहीं यों ही, मैं इस तरफ चली आई तो कमरे का दरवाजा खुला देख कर ठहर गई।

रानी : फिर भी कोई-न-कोई बात जरूर है, आओ मेरे पास बैठ जाओ।

द्रौपदी : (रानी साहेबा के पास बैठ कर) अभी तक आपको नींद नहीं आई, क्या बात है?

रानी : मुझे तो तरह-तरह की चिन्ताओं ने दबा रखा है, अस्तु नींद न आये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं, परन्तु तुम अभी तक जाग और इधर-उधर घूम रही हो यह बेशक आश्चर्य की बात है।

द्रौपदी : क्या आपकी चिन्ता से मुझे चिन्ता नहीं है? क्या मैं आपके सुख-दुख की साथी नहीं हूँ?

रानी : क्यों नहीं, क्यों नहीं, जरूर हो।

द्रौपदी : तो बस फिर समझ लीजिये कि जिस चिन्ता के कारण आप अभी तक जाग रही हैं उसी चिन्ता ने मेरी नींद भी उड़ा दी है। हाँ भेद इतना है कि आप चुपचाप पड़ी सोचा करती हैं और मैं इधर-उधर घूम-फिर कर समय बिताती हूँ और इससे बहुत-सा काम भी चल जाता है, कई छिपे हुए भेद भी खुल जाते हैं।

रानी : (आश्चर्य से) क्या आज भी कोई भेद की बात तुम्हें मालूम हुई?

द्रौपदी : हाँ, आज एक अनूठी बात जरूर मेरे देखने में आई।

रानी : वह क्या?

द्रौपदी : नींद न आने के कारण मैं चारपाई पर न ठहर सकी और उठ कर इधर-उधर घूमने लगी, अकस्मात् छोटी भाभी (भैयाराजा की स्त्री) के कमरे की तरफ जा निकली। देखा तो दरवाजा बन्द था जिससे मुझको बड़ा आश्चर्य हुआ। कान लगा कर इस बात की आहट लेने लगी कि देखें वे सोती हैं या जागती मगर कमरे के अन्दर किसी मर्द की आवाज सुन कर चौंक पड़ी, मुझे बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि उनके एकान्त के कमरे में इस आधी रात के समय कौन मर्द आया और किस राह से आया!

रानी : (बात काट कर) मर्द की आवाज!

द्रौपदी : जी हाँ, मर्द की आवाज, पहिले तो मुझे बड़ा ही आश्चर्य हुआ मगर जब अच्छी तरह ध्यान देकर सुना तो शक जाता रहा क्योंकि उसे छोटी भाभी से बातें करते हुए मैंने सुना।

रानी : और वे बातें क्या थीं?

द्रौपदी : सो तो मैं साफ-साफ न समझ सकी, हाँ कई छोटे-छोटे शब्द सुनने में आए और वे ये थे—‘‘देखो मेरा भेद किसी पर खुलने न पावे’’, ‘‘तुम किसी तरह की चिन्ता न करना, मैं तुम्हारे पास बराबर आया-जाया करूँगा—’’ इत्यादि कई बातें मेरी समझ में आईं। जब मैंने उस मर्द को यह कहते सुना कि ‘कल मैं फिर इसी समय आऊँगा, तुम खिड़की खुली रखना’ तब मुझे विश्वास हो या कि जरूर वह कमन्द लगा कर खिड़की की राह से आया है।

फिर मेरे जी में आया कि किसी तरह इस मर्द को देखना चाहिये। यह सोचते ही मैं वहाँ से चल पड़ी और घूमती हुई भण्डार के पीछे वाले उस कमरे के पास चली गई जिसमें ठाकुरजी के जन्माष्टमी का सामान रहता है। वहाँ बारामदे में खड़े होकर देखें तो छोटी भाभी की खिड़की साफ-साफ दिखाई देती है।

रानी : हाँ, वहाँ से बखूबी दिखाई देती है, अच्छा तब क्या हुआ?

द्रौपदी : थोड़ी देर बाद मैंने एक आदमी को उस खिड़की की राह कमन्द लगा कर नीचे उतरे देखा। नीचे की ओर दो आदमी उसके साथी खड़े थे उन्हें लेकर वह बाग में घुस गया, फिर न-मालूम कहाँ गया और क्या हुआ। उसके बाद मैं घूमती फिरती तुम्हारे पास चली आई।

बीबी द्रौपदी की अनहोनी बातें सुन रानी साहेबा उठ कर बैठ गईं और आश्चर्य के साथ द्रौपदी का मुँह देखने लगीं। कुछ देर के बाद वे फिर बोलीं—

रानी : यह तुम सच कह रही हो या किसी स्वप्न की बातें मुझे सुनाती हो? भला भैयाराजा की स्त्री और किसी गैर आदमी से बातें करे, सो भी अकेले कमरे में और दरवाजा बन्द करके! बेशक वह कोई गैर आदमी था तभी तो कमन्द लगा कर चोरी से आया और गया।

द्रौपदी : (रानी का पैर छू कर) मैं तुम्हारी शपथ खाकर कहती हूँ कि मैंने एक शब्द भी तुमसे झूठ नहीं कहा।

रानी : अच्छा तो मैं महाराज से इसका जिक्र करूँ? मुझे झूठा तो नहीं बनना पड़ेगा?

द्रौपदी : अगर वह मर्द जो कह गया है कि कल मैं इसी समय फिर आऊँगा अपने कोल का सच्चा निकला तो तुमको कदापि झूठा न बनना पड़ेगा।

रानी : इसका क्या मतलब?

द्रौपदी : यही कि अगर कल वह न आया तो आज जो कुछ मैंने सुना है उसकी सच्चाई के लिए मैं किसकी गवाही दे सकूँगी!

रानी : (कुछ सोच कर) खैर देखा जायगा, तुम बाहर से किसी लौंडी को तो बुलाओ।

सुनते ही द्रौपदी बाहर चली गई और एक लौंडी को बुला लाई, रानी साहेबा ने उसे आज्ञा दी कि तू महाराज के पास जाकर मेरी तरफ से निवेदन कर कि मैं इसी समय महाराज का दर्शन किया चाहती हूँ। अगर वे निद्रा में हो तो किसी अच्छे ढंग से उन्हें जगा दीजियो’।

‘जो आज्ञा’ कह कर लौंडी वहाँ से चली गई और उसके बाद रानी साहेबा की आज्ञानुसार द्रौपदी भी अपने कमरे में चली गई।

थोड़ी देर बाद महाराज महल में आये और दो घण्टे तक रानी साहेबा के पास बैठे, इस बीच क्या बातें हुई सो कोई नहीं जानता हाँ दूसरे दिन इस बात की तैयारी जरूर हुई कि भैयाराजा की स्त्री के पास जो आदमी आने वाला है उसकी बातें सुननी चाहिए और उसे गिरफ्तार भी करना चाहिये।

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