मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 2 भूतनाथ - खण्ड 2देवकीनन्दन खत्री
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भूतनाथ - खण्ड 2 पुस्तक का ई-संस्करण
चौदहवाँ बयान
देखते-ही-देखते भैयाराजा और भूतनाथ को कई दुश्मनों ने आकर घेर लिया और उन पर वार करना शुरू किया। मगर वाह रे भूतनाथ! जिस तरफ तलवार घुमाता हुआ टूट पड़ता था उस तरफ दुश्मनों के दिल भी टूट जाते थे। यद्यपि भूतनाथ के बदन पर कई जख्म लगे परन्तु पाँच आदमियों को उसने बेकार कर जमीन पर सुला दिया। भैयाराजा की तो बात ही न्यारी थी, उनकी तिलिस्मी तलवार की बदौलत जो दुश्मन उनके सामने आया वही जख्मी और बेहोश होकर जमीन पर जा रहा और किसी को तनोबदन की खबर न रही, मगर भैयाराजा का भी बदन जख्मी होने से बचा न रहा।
अब पुनः उस मैदान में केवल भूतनाथ और भायाराजा दिखाई देने लगे। यद्यपि इस समय उन्होंने अपने दुश्मनों पर फतह पाई थी मगर इन दोनों का शरीर भी थकावट से चूर-चूर हो रहा था। एक तो सफर की हरारत दूसरे दुश्मनों से लड़ाई होने के कारण ये दोनों ऐसा थक गए कि अब तलवार क्या हाथ हिलाना कठिन-सा हो गया था, साथ ही इसके दिल में दुश्मनों की तरफ से बेफिक्री भी नहीं होती थी, यह सोचते थे कि शायद और दुश्मनों का सामना हो जाय तो मुश्किल होगी क्योंकि अब रात हो गई है जिसके कारण दुश्मनों का वार बचाना और कठिन हो जाएगा।
भैयाराजा और भूतनाथ दोनों आदमी एक पेड़ के नीचे बैठ गए और तरह-तरह की बातें सोचने लगे।
भैया० : भूतनाथ, मैं इस समय तुमसे पुनः एक सवाल किया चाहता हूँ।
भूत० : कहिए।
भैया० : तुम ठहरे दारोगा साहब के दोस्त, चाहे वह दोस्ती जाहिरदारी और खुदगर्जी ही के साथ क्यों न हो, मगर मैं हूँ दारोगा साहब का दुश्मन क्योंकि उसने मुझे मार डालने में किसी तरह की कसर नहीं उठा रक्खी थी और इस बात को तुम भी जानते हो क्योंकि उसके सहायक ही थे, या यों भी कह सकते हैं कि तुम्हारी ही मदद करते हुए दारोगा को मेरे साथ दुश्मनी करने की जरूरत आ पड़ी..।
भूत० : (बात काट कर) अब आप कृपा कर इन सब शर्मिन्दा करने वाली बातों को जाने दीजिए, मैंने जो कुछ किया वह आपसे छिपा नहीं है। मैं खुद कह चुका हूँ कि मुझ-सा पापी और पतित इस दुनिया में कोई दूसरा न होगा। भविष्य के लिए अपना रास्ता बदलने की कसम खाता हुआ आप से माफी माँग चुका हूँ और आपने मुझे माफी देकर अपना बना लिया है, अस्तु अब पुनः जब तक आप मुझे पाप करते हुए न देखें या सुनें तब तक आपको ऐसी बात..।
भैया० : (बात काटते हुए) नहीं-नहीं भूतनाथ, मेरे इस कहने का यह मतलब नहीं है कि तुम्हें उन सब बातों की याद दिला कर शर्मिन्दा करूँ, तुम मेरी बात तो पूरी तरह सुन लो! मैं कहता हूँ कि तुम अभी दारोगा से दोस्ती रक्खा चाहते हो और मैं उससे बदला लेने की फिक्र में हूँ, ऐसी अवस्था में अगर ऐसे समय दारोगा से मुलाकात हो जाय तो तुम उसके साथ कैसा सलूक करोगे? क्योंकि ताज्जुब नहीं कि यह कार्रवाई दारोगा की तरफ से की गई हो, ये सब उसी के आदमी हों, और यहां खुद उससे मुलाकात भी हो जाय, मेरा दिल घड़ी-घड़ी इन्हीं बातों की तरफ से ढुलकता है।
भूत० : जमना और सरस्वती के विषय में निःसन्देह दारोगा ने मेरी मदद की थी जिसके लिए मुझे उसका शुक्रगुजार होना चाहिये था मगर अब जबकि मैंने अपना रास्ता बदल दिया तो अपने पहिले के पाप कर्म में साथ रहने वाले पापी साथियों के साथ भाईचारे का बर्ताव नहीं कर सकता। यद्यपि किसी कारण से मैं उसके साथ जाहिरदारी का बर्ताव कर रहा हूँ सही, मगर अब तो मुझे उसकी भी जरूरत न रही क्योंकि अब न तो मुझे जमना, सरस्वती इत्यादि के साथ दुश्मनी करनी है और न उससे कुछ काम लेने की जरूरत ही जान पड़ती है, मैंने तो अब अपने को दयामय परमात्मा के भरोसे छोड़ दिया है और आपकी शरण में आ गया हूँ, जो कुछ होनी हो सो हो, मैं आपका ताबेदार हूँ, आप जो आज्ञा देंगे वही करूँगा।
भैया० : खैर तुम्हारी तरफ से दिलजमई तो हो ही चुकी थी अब पुनः हो गई मगर अफसोस यह है कि इन्द्रदेव ने हजार दुःखी होने पर भी अभी तक दारोगा के साथ कोई खोटा बर्ताव नहीं किया। मैं इन्द्रदेव के विरुद्ध कोई काम न करूँगा।
भूत० : बेशक ऐसा ही है, मुझे भी इन्द्रदेव का ख्याल है और साथ ही इसके दारोगा की जात से दयाराम का पता लगाना भी जरूरी है।
भैया० : (चौंक कर) वह देखो सामने से रोशनी कैसी आ रही है?
भूत० : कोई आदमी लालटेन लिए हुए इसी तरफ आ रहा है।
भैया० : क्या इसे अपना दुश्मन समझें?
भूत० : ऐसे मौके पर दोस्त की उम्मीद कब हो सकती है और अगर हो भी तो हमें अपनी तरफ से होशियार ही रहना चाहिए। उसका साथी कोई मालूम नहीं पड़ता, चलिए हम लोग आगे चलें।
यद्यपि ये दोनों आदमी बहुत सुस्त हो रहे थे तथापि हिम्मत करके उठ खड़े हुए और म्यान से तलवार निकाले हुए उस तरफ बढ़े जिधर वह आदमी लालटेन लिए आ रहा था। अँधेरा क्षण-क्षण में बढ़ता जाता था और इस आदमी के बदन की हरकत दिखाई नहीं पड़ती थी फिर भी वह तेजी के साथ कदम बढ़ाता हुआ बेखौफ इनके पास आ पहुँचा और बोला—
आदमी : भैयाराजाजी, दुश्मनों के घर में भी अक्सर दोस्त दिखाई दे जाया करते हैं, देखिए मेरे हाथ में सिवा लालटेन के और कोई हर्बा नहीं है, कहिए इस लालटेन का और मुझ ‘मेघराज’ का आप मुकाबला कर सकते हैं?
भैया० : (उत्साह से भरी हुई आवाज में) जब तक ‘मेघराज’ गरजेंगे नहीं तब तक मैं मुकाबिला करने के लिए तैयार हूँ। आओ मेरे प्यारे दोस्त, तुम खूब आये और अच्छे मौके पर आये, शायद इस जगह तुम कुछ मेरी मदद कर सको।
मेघ० : बेशक मैं आपकी मदद कर सकता हूँ, एक नहीं अगर आपके हजार दुश्मन भी यहाँ आ जायें तो मैं अकेला उनसे आपको बचा सकता हूँ।
इतना कह कर मेघराज ने अपना अंग झटकारा और उसके तमाम बदन से खौफनाक चिनगारियाँ निकलने लगीं जिसे देख कर भूतनाथ हैरान हो गया बल्कि डर कर कई कदम पीछे की तरफ हट गया। इसके बाद मेघराज ने सिर्फ भूतनाथ को दिखाने की नीयत से लालटेन ऊँची की जिससे उसके तमाम बदन की अवस्था साफ-साफ दिखाई देने लगी। भूतनाथ ने देखा कि वह बहुत ही बारीक सुनहरी तार से बना हुआ सुन्दर कवच पहिरे है और वह कवच ऐसी खूबी के साथ बना हुआ है कि हाथ-पैर और उंगलियाँ इत्यादि कुछ भी हिलाने से किसी तरह अंडस नहीं मालूम पड़ती। उसी ढंग के बनावट की एक टोपी भी उसके सर पर थी जिसके पिछली तरफ की झालर गरदन के नीचे तक लटक रही थी, जिससे उसकी गरदन पर भी कोई हर्बा काम नहीं कर सकता था। केवल इतना ही नहीं कि उसने इस कवच से अपने बदन को रक्षित कर रक्खा था, वह चाल-ढाल और रंग-ढंग से भी बहादुर मालूम होता था तथा बदन से कसरती और गठीला जान पड़ता था। मेघराज ने लालटेन नीचे करके पुनः भैयाराजा से कहा—
मेघ० : मैं इत्तिफाक से ही यहाँ आ पहुँचा हूँ, मुझे इस बात की कुछ भी खबर न थी कि आपके दुश्मन यहाँ आए हुए हैं और उन्होंने आपको फँसाने के लिए यहाँ कोई कार्रवाई कर रक्खी है अथवा आप यहाँ आकर दुश्मनों से घिर गये हैं। मुझे तो ईश्वर ने अकस्मात् ही यहाँ पहुँचा दिया। मैं उतरती समय पहाड़ के ऊपर से आप लोगों की लड़ाई देख रहा था और जल्द-से-जल्द आपके पास पहुँचने की कोशिश कर रहा था परन्तु रास्ता ऐसा खराब है कि हजार कोशिश करने पर भी समय पर आपके पास पहुँच न सका कि आपकी मदद करता, तथापि मैं जानता था कि आपके पास तिलिस्मी तलवार मौजूद है, सिर्फ इतने दुश्मन आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकते और इस सबसे मुझे ढाढ़स बँधी थी। मैं परसों से इन लोगों को यहाँ आते-जाते देख रहा हूँ मगर कुछ समझ में नहीं आता था, और इस समय भी मैं इन्हीं लोगों को देखने आ रहा था, आपको शायद यह बात मालूम न हुई होगी कि यह कार्रवाई आपके दारोगा साहब की है और यह सब आदमी भी उसी के हैं।
भैया० : (आश्चर्य से) हा! क्या यह सब आदमी दारोगा के हैं?
मेघ० : जी हाँ, ये सब उसी शैतान के आदमी हैं, बल्कि ताज्जुब नहीं कि वह खुद भी इन्हीं में कहीं बेहोश पड़ा हुआ हो। इस लालटेन से सभी की सूरत देखने पर मालूम होगा।
भैया० : तो देखना चाहिये वह यहाँ है या नहीं, तुम जानते ही हो कि जब तब मैं इन लोगों को होश में न लाऊँ तबतक सब स्वयं चैतन्य नहीं हो सकते।
मेघ० : हाँ, मैं इस बात को और आपकी तिलिस्मी तलवार की तासीर को खूब जानता हूँ!
भैया० : अच्छा कुछ यह भी बता सकते हो कि हमारे दुश्मनों में से कोई और भी है या बस इतने ही थे जो इस समय यहाँ जख्मी और बेहोश पड़े हुए हैं।
मेघ० : मैं बिना तहकीकात किए नहीं कह सकता, खैर चलिए अपने बेहोश दुश्मनों की सूरत देखिये, यहाँ अगर कोई होगा भी तो हमारा क्या कर लेगा ?
इतना कहकर लालटेन लिये हुए मेघराज आगे बढ़ा और उसके पीछे-पीछे भैयाराजा तथा भूतनाथ चलने लगे। भूतनाथ को मेघराज के विषय में बड़ा आश्चर्य था और यह जानने के लिए उसका दिल बहुत ही बेचैन हो रहा था कि यह मेघराज कौन है? इस बात को वह जरूर समझ गया था कि भैयाराजा उसे देखते ही पहिचान न सके इसलिए उसने बात के इशारे ही में अपना परिचय दिया और भैयाराजा ने भी इशारे ही में परिचय देकर अपने को प्रकट किया। इसमें तो कोई शक नहीं कि यह भैयाराजा का दोस्त है मगर कौन है सो मालूम नहीं होता।
लालटेन की रोशनी में भैयाराजा ने सभी दुश्मनों की सूरतें देखीं और उनमें से कइयों को पहिचाना भी। उन्हीं के बीच में दारोगा साहब भी पाये गये जो कि भैयाराजा की तिलिस्मी तलवार से जख्मी होकर बेहोश हो गये थे।
इस काम से निश्चिन्त होकर तीनों आदमी एक पत्थर की चट्टान पर बैठ कर बातचीत करने और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। उस समय भूतनाथ ने मौका पाकर मेघराज के विषय में भैयाराजा से पूछा कि ‘‘यह कौन हैं? यदि कोई हर्ज न हो तो आप मुझे इनका परिचय दीजिए’’। इसके जवाब में भैयाराजा ने भूतनाथ से कहा, ‘‘मैं लाचार हूँ कि इन (मेघराज) की इच्छा के विरुद्ध इनका परिचय तुम्हें नहीं दे सकता, ये अगर मुनासिब समझेंगे तो अपना परिचय खुद ही तुम्हें देंगे।’’
भैयाराजा का जवाब पाकर भूतनाथ चुप हो रहा और फिर उसे मेघराज के विषय में कुछ पूछने की हिम्मत न पड़ी।
भैया० : (मेघराज से) अब बेहोश दुश्मनों के बारे में आपकी क्या राय होती है? इनके साथ क्या सलूक करना चाहिए?
मेघ० : यह बात आपकी मर्जी पर है, जो आप मुनासिब समझें करें।
भैया० : मैं तो यही चाहता हूँ कि इन सभी को कहीं पर कैद कर दूँ मगर मेरे पास कोई जगह इस योग्य नहीं है।
मेघ० : ठीक है परन्तु यह भी आप जानते हैं कि अपने यहाँ भी मैं इन सभी को नहीं रख सकता अस्तु बेहतर होगा कि इन सभों को कुछ सजा देकर छोड़ दिया जाय, दारोगा के लिए भी इस समय यही मुनासिब होगा।
भैया०: आप ठीक कहते हैं। इन सभों की नाक-कान काट कर छोड़ दिया जाय और दारोगा कम्बख्त का सिर्फ दाहिना कान थोड़ा-सा काट कर उसे जमानिया सदर बाजार के चौमुहाने पर रख दिया जाय जिसमें वहाँ के सभी आदमी अपने राजा के वजीर को ऐसी हालत में देख कर खुश हों। (भूतनाथ की तरफ देख कर) मैं तो यही मुनासिब समझता हूँ, कहिए आपकी क्या राय है?
भूत० : सजा तो बहुत अच्छी तजवीज की गई है। जबकि आप इस दारोगा का सरे दरबार मुकाबला किया चाहते हैं तो अभी इसे कत्ल करने की जरूरत नहीं है। हुक्म दीजिए तो मैं शुरू करूँ?
भैया० : हाँ, अब देर करने की जरूरत नहीं है, इन सभों के कान-नाक काट कर दुरस्त करो। इनके हर्बे भी ले लेने चाहिये।’’
भैयाराजा का हुक्म पाते ही भूतनाथ ने कार्रवाई शुरू कर दी, तलवार से सभों के नाक-कान काट डाले और अन्त में दारोगा का भी थोड़ा-सा दाहिना कान काटने के बाद अपने ऐयारी के बटुए में से स्याही निकाल कर खूब अच्छी तरह उसका मुँह काला किया और रंग-रोगन भी लगा कर उसकी विचित्र सी सूरत बना दी, इसके बाद एक घोड़े पर उसे कस के कमन्द से अच्छी तरह बाँध दिया।
हम ऊपर लिख आये हैं कि इस मैदान में डाकुओं के कई घोड़े भी मौजूद थे, उन्हीं में से एक पर भूतनाथ ने दारोगा को कसा और भैयाराजा से कहा, ‘‘अब यहाँ से चलती समय इसको अपने साथ ले चलेगें और रात को मौका देख कर जमानिया के चौमुहाने पर छोड़ देंगे’’।
भैया० : ठीक है, (मेघराज से) यहाँ आने का रास्ता तो बहुत ही टेढ़ा और खराब है, ताज्जुब नहीं कि लौटती समय हम लोग रास्ता भूल जाये। क्या यहाँ के रास्ते को बन्द भी कर दिया जा सकता है?
मेघ० : जी नहीं यह तो एक खुली घाटी है, सिर्फ यहाँ आने का रास्ता पेचीदा और भयानक होने के कारण कोई इस जगह आता नहीं, हाँ इतना जरूर है कि यह घाटी किसी तिलिस्मी घाटी के साथ मिली हुई है और तिलिस्म से भी कुछ सम्बन्ध रखती है।शायद दारोगा को यहाँ का हाल मालूम है, आपको नहीं यद्यपि सरजमीन आप ही के राज्य में है।
भैया० : बेशक यहाँ का हाल मुझे कुछ मालूम नहीं।
मेघ० :मेरा इरादा था कि मैं आज भर के लिए आप लोगों को यहाँ रोक लेता जिससे आपकी थकावट रात-भर आराम करने से अच्छी तरह मिट जाती और कुछ भोजन भी कर लेते। मैं यहाँ बहुत जल्द आप लोगों के खाने-पीने का इन्तजाम कर सकता हूँ।
भैया० : अगर ऐसा हो सके तो क्या ही अच्छी बात है, मैं भी यही चाहता हूँ। कि कुछ भोजन और बेफिक्री के साथ आराम करने का इन्तजाम हो जाता और इसके पहिले मैं स्नान भी कर लेता, मगर खौफ यही है कि कहीं और भी दुश्मन लोग यहाँ न आ जायें।
मेघ० : अब दुश्मनों के यहाँ आने का आपको खयाल ही क्यों होता है। मेरी मौजूदगी में दो-चार सौ दुश्मन भी आपका कुछ बिगाड़ नहीं सकते और अगर यह समझिये कि और लोग आकर आपके इन दुश्मनों को छुड़ा कर ले जायेंगे तो इनके लिए भी जो कुछ आप किया चाहते थे कर चुके, अब चाहे ये सब खुद-ब-खुद चले जायें या इन्हें कोई इनका दोस्त यहाँ आकर ले जाय। काम केवल इतना बाकी है कि दारोगा को जमानिया बाजार के चौमुहाने पर पहुँचा देना, सो इस काम में यदि विघ्न भी पड़ जाय तो आपका कोई हर्ज नहीं है।
भैया० : (कुछ सोच कर) अच्छा फिर जैसा आप कहें किया जाय।
मेघ० : बस यही ठीक होगा कि आप दोनों आदमी मेरे डेरे पर चलें और दारोगा को जो घोड़े पर लाद दिया गया है उतार कर एक गुफा में, जो मैं आपको बताऊँगा रख दें, फिर जाती समय पुनः घोड़े पर लाद दिया जाएगा।
इतना कह कर भूतनाथ को साथ ले मेघराज ने दारोगा को घोड़े पर से उतारा और गुफा में जो वहाँ से थोड़ी दूर पर थी रख कर उसका मुँह पत्थर से ढाँक दिया। उसी समय किसी चीज की रोशनी उस मैदान में घूमती हुई दिखाई दी जिसे देखते ही मेघराज चैतन्य हो गया। अपनी लालटेन का खटका उसने दबाया साथ ही एक मोटा शीशा लालटेन के मुँह पर आ गया जिसके कारण रोशनी तेज हो गई और दूर तक जाने लगी। मेघराज भी अपनी लालटेन की रोशनी इस तरह पहाड़ पर दौड़ाने और घुमाने लगा मानों उस पहिली रोशनी का जवाब देता हो। पहिले की आई हुई रोशनी उस सरजमीन पर अजीब ढँग से घूमती थी और मेघराज अपनी लालटेन की रोशनी से उसका जवाब देता था। पास में खड़ा हुआ भूतनाथ बड़े आश्चर्य से इस तमाशे को देख रहा था।
भूतनाथ ने यह तो जरूर समझ लिया कि मेघराज रोशनी का जवाब रोशनी से दे रहा है। वह कोई मेघराज का साथी है जिसने यहाँ लालटेन की रोशनी पहुँचाई है, वह रोशनी के इशारे से बात करता है और मेघराज उसका जवाब देता है, परन्तु हजार अक्ल दौड़ाने पर भी भूतनाथ को इस बात का पता न लगा कि उन दोनों में रोशनी के इशारे से क्या बातें हो रही हैं या किस तरह के अक्षर बनाये जा रहे हैं।
आधे घण्टे से ज्यादे देर तक मेघराज इस काम में लगा रहा, इसके बाद वह रोशनी गायब हो गई और मेघराज ने भी लालटेन से रोशनी देना बन्द करके अपनी लालटेन का खटका दबा कर फिर पहिले की तरह दुरूस्त कर लिया।
मेघ० : (भैयाराजा से) अच्छा तो अब आप दोनों आदमी मेरे पीछे चलें, मैं आपको अपने मकान पर ले चलूँ।
भैया० : मैं चलने के लिए तैयार हूँ मगर यह तो बताओ कि इस लालटेन की रोशनी से तुम किस आदमी के साथ बातचीत कर रहे थे और क्या बात की।
मेघ० : अभी इसका जवाब न दूँगा, समय पर स्वयं मालूम हो जायगा।
भूत० : उस वक्त मालूम हो जायगा जबकि सुनने के लिए मैं आपके साथ न रहूँगा?
मेघ० : (भूतनाथ से) हाँ जी गदाधरसिंह, बेशक यही बात है। तुम्हारे सामने अपना भेद प्रकट करते डर मालूम होता है। भैयाराजा ने तुम पर भरोसा कर तुम्हें अपना लिया हो मगर अन्य आदमियों की इतनी हिम्मत कहाँ कि तुम पर भरोसा करें।
भूत० : निःसन्देह मैं अपने कर्मों की बदौलत ऐसा ही जवाब सुनने के योग्य हूँ।
मेघ० : आप खफा न हों, मेरा मतलब यह नहीं कि मैं अपनी बातों से आप को रंज पहुँचाऊँ। आजकल जमाने का ढंग ऐसा हो रहा है कि किसी को किसी पर भरोसा करने का साहस नहीं होता।
भूत० : है तो ऐसा ही, खैर चलिए आप अपना काम कीजिये।
‘‘मेरे पीछे-पीछे चले आइये’’ इतना कह कर मेघराज आगे बढ़ा और भैयाराजा तथा भूतनाथ उसके पीछे-पीछे रवाना हुए। तमाम मैदान खतम करने के बाद पहाड़ी के ऊपर चढ़ने की नौबत आई। रात का समय होने से यद्यपि चढ़ने में तकलीफ होती थी, मगर फिर भी लालटेन से सहारा पाते हुए ये दोनों आदमी बराबर चले गये और लगभग पौन-कोस रास्ता चलने के बाद एक गुफा के मुँह पर पहुँचे जिसमें आदमी खड़ा होकर बखूबी जा सकता था।
दोनों आदमियों को साथ लिए हुए मेघराज उस गुफा के अन्दर चला। रास्ता बहुत ही पेचीदा और घूम-घुमौआ था तथा चढ़ाई की तरह चला गया था। लगभग चौथाई कोस चले जाने के बाद ये तीनों आदमी बाहर मैदान में निकले और पुनः कुछ दूर चलने बाद दूसरी गुफा के अन्दर घुसे मगर उसमें ज्यादे दूर जाना न पड़ा, कुल दो-ढाई सौ कदम जाने के बाद एक बन्द दरवाजा मिला जिसे मेघराज ने किसी गुप्त रीति से खोला और अपने दोनों साथियों को अन्दर कर लेने के बाद पुनः दरवाजा बन्द कर दिया। ध्यान लगाये रहने पर भी भूतनाथ को दरवाजा खोलने और बन्द करने का ढंग मालूम न हो सका।
अब ये तीनों आदमी एक ऐसे कमरे में पहुँचे जिसकी लम्बाई बीस गज और चौड़ाई दस गज के करीब होगी। कमरे में सभी तरह का सामान, जिसकी जरूरत आदमी को रोज ही पड़ सकती है, मौजूद था। कमरे के एक तरफ सुन्दर फर्श बिछा हुआ था जिस पर दस-बारह आदमी बखूबी आराम कर सकते थे। सामने की तरफ तीन दरवाजे थे जिनमें से इस समय एक दरवाजा खुला हुआ था जिसकी राह मेघराज अपने दोनों साथियों को कमरे के बाहर ले गया।
अब ये तीनों आदमी एक छोटे-से बाग में पहुँचे जो जंगली गुलबूटों और क्यारियों के बदौलत बहुत ही भला मालूम पड़ता था। पूरब तरफ से उदय होकर चन्द्रदेव कुछ ऊँचे हो अपनी चाँदनी फैलाने लग गये थे जिससे उस बाग पर और भी जोबन चढ़ रहा था और दिखाई दे रहा था कि यह पहाड़ी बाग तीन तरफ से ऊँची-ऊँची पहाड़ियों से घिरा हुआ है।
उन पहाड़ियों पर कई सुन्दर-सुन्दर मकान और बँगले बने हुए थे जिनमें से चार या पाँच बंगलों के आगे तेज और चाँद का मुकाबला करने वाली सफेद रोशनी हो रही थी जिससे वहाँ की सरसब्ज जमीन पर दूर-दूर तक की चीजें बहुत साफ दिखाई दे रही थीं और इस बाग पर भी उनका अक्स बहुत अच्छी तरह पड़ रहा था। भूतनाथ ने देखा कि इस बाग में चार-पाँच आदमी भी मौजूद थे जो न-मालूम किस काम में व्यग्र और दौड़-धूप कर रहे हैं। बाग के बीचोबीच संगमरमर का सुन्दर चबूतरा था और उस पर तरह-तरह की कई कुर्सियाँ रक्खी हुई थीं। मेघराज उसी चबूतरे पर चला गया और लालटेन रख कर अपने दोनों साथियों को बैठने के लिए कहा।
इस बाग में आने से यद्यपि भूतनाथ और भैयाराजा की तबीयत बहुत प्रसन्न हुई मगर थकावट और भी ज्यादे हो गई थी इसीलिए दोनों आदमी आराम कुर्सियों पर बैठ गये और पैर फैला कर चाँदनी में चारों तरफ की कैफियत देखने लगे। इस समय भूतनाथ के पेट में कुछ अजीब तरह की खिचड़ी पक रही थी और मेघराज का असल हाल जानने के लिए वह बहुत ही बेचैन हो रहा था।
यहाँ पहुँच कर मेघराज ने जफील बुलाई जिसे सुन कर बात-की-बात में तीन आदमी वहां आ पहुँचे और इशारा पाकर हर तरह का सामान जुटाने लगे। भैयाराजा और भूतनाथ ने स्नान किया, तब सन्ध्योपासन से निवृत्त हो भोजन किया और फिर निश्चिन्त होकर बैठने के बाद आपस में बातचीत करने लगे। इस समय रात पहर-भर, से ज्यादे जा चुकी थी और चाँदनी भी अच्छी तरह फैल रही थी। सहसा एक आदमी जो हाथ में कोई चीज लिए हुए था इन लोगों के सामने लाया गया जिसे देख कर भूतनाथ चौंक पड़ा और घबड़ाहट तथा खौफ के साथ उसकी तरफ देखने लगा। इस आदमी के हाथ में यद्यपि हथकड़ी न थी मगर पैरों में बेड़ी पड़ी हुई थी।
मेघ० :(भूतनाथ से) कहो गदाधरसिंह इस आदमी को पहिचानते हो?
भूत० : (दुखित ढंग से) बेशक पहिचानता हूँ, इसका बाप राजसिंह मेरी जिन्दगी का शैतान था, उसी की बदौलत मेरे ऐशो-आराम में फर्क पड़ा तथा मेरे धर्म और ईमान में बट्टा लगा, मेरे दोस्त दयाराम से मेरी जुदाई हुई और आज तक मैं दुर्दशाग्रस्त तरह-तरह की तलकीफों को सहता हुआ मारा फिरता हूँ। इसका नाम ध्यानसिंह है। यदि आपकी आज्ञा हो तो इससे दो-चार बातें करूँ।
मेघ० : हाँ-हाँ, तुम इससे जो चाहे बात कर सकते हो।
भूत० : (ध्यानसिंह से) कहो तुमने तो मुझे विश्वास दिलाया था कि दयाराम जी अभी तक जीते हैं और जमानिया के कम्बख्त दारोगा के कब्जे में है।
ध्यान० : बेशक मैंने आपने ऐसा ही कहा था और अभी तक मैं अपनी राय पर कायम हूँ।।
भूत० : मगर तुम बिल्कुल झूठे और बेईमान हो। अच्छा हुआ कि तुम इस समय मुझे इस हालत में यहाँ दिखाई दिये। मैं तुमसे मिलने ही वाला था।
ध्यान० : आप जो कुछ समझें और कहें मैं अपनी बात का पूरा सबूत रखता हूँ। अगर मेरी मदद लेकर दयारामजी को खोजते तो जरूर दारोगा के यहाँ..।
भूत० : यह सब फिजूल की बातें हैं, मैं तुम पर किसी तरह भी भरोसा नहीं कर सकता। (मेघराज से) क्या इसे आपने गिरफ्तार किया है? इसके गिरफ्तार करने से दयारामजी का कुछ पता लगा या केवल सजा देने ही के लिए यह गिरफ्तार किया गया है।
मेघ० : इसका जवाब मैं कुछ भी नहीं दे सकता। यद्यपि मैं भैयाराजा की जुबानी सुन चुका हूँ कि तुमने प्रतिज्ञा की है कि भविष्य में अच्छी राह पर चलोगे और इन्होंने तुम पर भरोसा करके विश्वास भी कर लिया परन्तु हम लोगों का दिल भैयाराजा-सा नहीं है, हम लोग बिना जाँच किये किसी पर भरोसा नहीं करते।
मेघराज की बातों से यद्यपि भूतनाथ को क्रोध चढ़ आया मगर वह चुप हो रहा, कुछ भी न बोला। मेघराज ने भैयाराजा को वहाँ से उठाया और बाग की एक रविश पर ले जाकर एकान्त में खड़ा हो कुछ बातें की और इधर भूतनाथ भी तब तक ध्यानसिंह से कुछ बातें करता रहा। इन सभों में क्या-क्या बातें हुई इसके लिखने की यहाँ कोई जरूरत नहीं मालूम पड़ती। बातों से छुट्टी पाकर पुनः सब कोई उस चबूतरे पर इकट्ठा हो गए, ध्यानसिंह वहाँ से हटा दिया गया और तब भैयाराजा ने मेघराज से कहा, ‘‘गदाधरसिंह की जुबानी मैंने सुना है कि दारोगा अब मेरी स्त्री को मार डालने के फिक्र में है इसलिए मैं चाहता हूँ कि वहाँ जाकर उसकी रक्षा करूँ और बन पड़े तो उसे वहाँ से निकाल लाऊँ।’’
मेघ० : बेशक आपको दारोगा से उनकी रक्षा करनी चाहिए और महाराज के सामने ही दारोगा से यह भी पूछना चाहिए कि उसने आपके साथ ऐसा गन्दा सलूक क्यों किया? आपका छिप कर कार्रवाई करना मैं पसन्द नहीं करता।
भैया० : मेरे और दोस्तों की भी यही राय है अस्तु बेहोश दारोगा को जमानिया सदर बाजार के चौमुहाने पर पहुँचा देने के बाद मैं प्रकट हो जाऊँगा और देखूँगा कि भाई साहब के सामने ही मुझसे और दारोगा से क्योंकर निपटती है। अच्छा तो अब यहाँ से रवाना हो जाना चाहिए। अब हम लोगों की थकावट भी अच्छी तरह मिट गई और हम लोग बखूबी सफर करने लायक हो गए हैं।
मेघ० : मैं तो यही चाहता था कि रात-भर आप लोग यहाँ आराम करके प्रातः काल सफर करते।
भैया० : नहीं, अब मैं जहाँ तक शीघ्र जमानिया पहुँचूँ अच्छा है, तुम मुझे पुनः उसी जगह पहुँचा दो जहाँ से लाये थे। इन लोगों ने बेहोश दारोगा को गुफा के बाहर निकाला और मिलजुल कर घोड़े पर लादने के बाद बागडोर से अच्छी तरह कस दिया, बाकी बेहोश और जख्मी दुश्मनों को उसी जगह छोड़ दारोगा को लिए हुए भूतनाथ और भैयाराजा वहाँ से रवाना हुए। मेघराज भी तब तक भैयाराजा के साथ गया जब तक कि वे लोग पेचीदे रास्ते को तै करके सीधे पर न जा पहुँचे।
मेघराज के विषय में भूतनाथ को बड़ा ही आश्चर्य और खुटका हो गया था। यद्यपि भूतनाथ ने देखा था कि वह अपना चेहरा नकाब से ढाँके हुए नहीं है तथापि यह निश्चय हो गया था कि उसकी सूरत जरूर बदली हुई है, मेघराज को पहिचानने के लिए उसने उद्योग तो किया था मगर सफल-मनोरथ न हुआ। अब भी उसे यह आशा जरूर थी कि सफर करते हुए भैयाराजा से मेघराज का भेद पूछेंगे और मुझे वे जरूर बता देंगे। मगर ऐसा न हुआ अर्थात भैयाराजा ने उसे दिलासा दे दिया मगर मेघराज का असल भेद नहीं बताया, इस बात की मजबूरी दिखाई कि ‘मेघराज ने अपना भेद छिपाने के लिए मुझसे कसम खिला ली है’।
।। पाँचवाँ भाग समाप्त ।।
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