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भूतनाथ - खण्ड 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8361
आईएसबीएन :978-1-61301-019-8

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भूतनाथ - खण्ड 2 पुस्तक का ई-संस्करण

तेरहवाँ बयान


अब हम थोड़ा हाल जमानिया का लिखना चाहते हैं क्योंकि वहाँ राजाभैया की स्त्री बेचारी बड़े ही धर्म-संकट में पड़ी हुई है। यद्यपि लोग उसे सदैव ही साध्वी सती और सुशील समझते रहे हैं परन्तु जब से भैयाराजा ने गायब होकर अपना ढंग बदला है और छिप-छिप कर कई दफे अपनी स्त्री के पास आये हैं तब से उसकी प्रतिष्ठा हीन हो रही है। सभों की निगाह में वह खटकने लग गई है और घर के सभी कोई उस पर व्याभिचार का दोष दबी जुबान से लगाने लग गये हैं। प्रायः सभों ही का यह खयाल हो रहा है कि इसके पास महल में छिप कर आनेवाला कोई इसका धर्म-विरुद्ध दोस्त है। यह बेचारी पति की आज्ञानुसार इस भेद को छिपा तो रही है परन्तु अपने ऊपर कलंक लगते देख उसका चित्त बड़ा ही दुःखी हो रहा है। जिन बड़े लोगों की निगाह में वह हमेशा ही सीता-सावित्री-सी बनी रहती थी आज वे ही लोग उन पर बदनामी का धब्बा लगाने लग गये हैं। यह सब उससे सहन नहीं होता परन्तु क्या करे मजबूर है, उसके पति की आज्ञा ही नहीं है कि वह इस भेद को खोल दे और अपनी चादर पर से कलंक का धब्बा मिटावे। कम्बख्त दारोगा को भी उसे सताने का यह अच्छा मौका मिल गया है। वह बराबर महाराज को समझा-बुझा कर उसकी तरफ से उनका दिल मैला करता रहता और उस बेचारी को बदकार साबित करता जाता है। अभी तक वह बेचारी सब कुछ सहती रही और पति की आज्ञा के विरुद्ध उसने काम नहीं किया परन्तु अब उसे सहा नहीं जाता और सहते नहीं बन पड़ता। इधर बहुत दिनों से उसके पास भैयाराजा भी नहीं आये जो वह अपने दिल का हाल कहती या यही समझती कि तुम्हारी यह चाल ठीक नहीं बन पड़ती और इससे लोगों की निगाह में तुम बेइज्जत हुआ चाहते हो। उसके पास एक-दो बहुत नेक बुद्धिमान और नमक हलाल लौंडियें हैं जिनकी जुबानी उसे सब तरफ का हाल मिला करता है और वह जान रही है कि मेरी बेइज्जती दिनोंदिन बढ़ती चली जाती है, ताज्जुब नहीं कि किसी दिन महाराज मुझे खुल्लमखुल्ला दोषी कह कर मार डालने की आज्ञा दे दें। साथ ही इसके अब उसे अपने पति की भी विशेष चिन्ता पड़ गई है क्योंकि बहुत दिनों से वे उसके पास नहीं आये हैं और न उनकी खबर ही मिली है। क्या करे, कहाँ जाये, किससे अपने दिल का हाल कहे और किस तरह अपने माथे से कलंक का टीका मिटाए, वह प्रायः इसी तरह की चिन्ता में डूबी रहती है। इस समय भी हम उसे ऐसी ही अवस्था में देख रहे हैं। दोपहर का समय है, घर के सरदार लोग औरत-मर्द सभी कोई खा पीकर अपने-अपने कमरे में आराम कर रहे हैं परन्तु वह बेचारी अपनी मलीन चारपाई पर बैठी हुई तलहत्थी पर बाल रक्खे इन्हीं सब चिन्ताओं में निमग्न है, तनोबदन की कुछ भी खबर नहीं है, कुछ भी नहीं मालूम कि मेरे पास कौन खड़ा है और क्या कह रहा है, परन्तु इसकी यह लौंडी कुछ देर से उसके पास खड़ी है और कुछ कहने की इच्छा से उसे दो-तीन बार सम्बोधन कर चुकी है। कुछ देर बाद उसने आप-ही-आप एक लम्बी साँस लेकर सर उठाया और दरवाजे की तरफ देखने की इच्छा की। उस समय उसकी निगाह लौंडी पर पड़ी और उसने ताज्जुब के साथ उससे पूछा, ‘‘बेला, तू कबसे यहाँ खड़ी है?’’

बेला : मैं तो बड़ी देर से यहाँ खड़ी हूँ बल्कि तीन दफे आपको बुला भी चुकी हूँ।

भैयाराजा की स्त्री : हैं, तीन दफे मुझे बुला चुकी है!

बेला : जी हाँ!

भैयाराजा की स्त्री : क्या कुछ नई खबर लाई है?

बेला :जी हाँ, मैं आपके लिए कुछ खुशखबरी लाई हूँ!

इतना कह कर बेला ने उसके हाथ में एक चीठी दे दी। यह चीठी भैयाराजा के हाथ की लिखी हुई थी जिसकी लिखावट को उनकी स्त्री अच्छी तरह पहिचानती थी चीठी देखते ही उसका कलेजा धड़कने लगा और उसने बड़ी उत्कंठा से उस चीठी को पढ़ना आरम्भ किया यह लिखा हुआ था :—

‘‘प्राणवल्लभे,

मुझे इस बात का बड़ा ही दुःख है कि इधर बहुत दिन बीत जाने पर भी तुमसे मिल न सका, तथापि आशा है कि तीन-चार दिन में किसी-न-किसी तरह तुमसे मुलाकात करूँगा। दारोगा ने मेरे साथ जैसा बर्ताव किया है उसे मैं कदापि भूल नहीं सकता। ईश्वर ही ने मेरी जान बचाई। मेरा इस तरह गायब होना मेरे दोस्तों को बुरा मालूम होता है, वे कहते हैं कि तुम्हारा ढंग बिल्कुल ही अनुचित है और तुम्हारी भी यही राय है, परन्तु मैं देखना चाहता हूँ कि मेरे भाई साहब मेरे लिए क्या करते हैं और उनके दिल में मेरी कितनी मुहब्बत है? पर अभी तक तो मैंने कुछ भी नहीं देखा और तबीयत को कुछ भी चैन नहीं मिला, अब भविष्य में देखा जाय कि क्या होता है। इधर मैं कई तरह की विचित्र घटनाओं का शिकार हो रहा हूँ, तथापि कुशलतापूर्वक हूँ, तुम किसी तरह की चिन्ता मत करना और कोई ऐसा बन्दोबस्त करना जिससे महाराज का और तुम सभों का डेरा खासबाग में पड़ जाये। वहाँ ही मुलाकात कर सकूँगा।

तुम्हारा--शंकर

इस चीठी को पढ़ कर भैयाराजा की स्त्री बहुत प्रसन्न हुई। उसके चित्त से एक बोझ–सा उतर गया और वह सोचने लगी कि अब मैं हर तरह से अपनी बदनामी को बचा सकूँगी, अब मुझे कलंकित करने वाला कोई भी न रहेगा। अगर हर तरह से मजबूर हो जाऊँगी तो दुश्मनों का वार बचाने के लिए इस चीठी को ढाल बनाऊँगी अन्त में उसने बेला से पूछा यह चीठी तुम्हें किसने दी? जिसके जवाब में बेला ने कहा कि जिस आदमी ने यह चीठी तुम्हारे पास पहुँचाने के लिए मुझे दी उसे मैं नहीं पहचानती। जब मैं तुम्हारी पूजा के लिए चन्दन खरीदने बाजार गई थी तब वह आदमी मिला था। इस चीठी को हिफाजत से तुम्हारे पास पहुँचाने की ताकीद करके वह न-मालूम कहाँ चला गया।

भैयाराजा की स्त्री की लौंडियों में यह बेला लौंडी बहुत ही विश्वासपात्र थी साथ ही इसके यह बुद्धिमान और चालाक भी ऐसी थी कि राजा के महल में कोई लौंडी न थी जो किसी बात में इसका मुकाबला कर सकती। इसके अतिरिक्त इसमें बहुत अनूठा गुण यह था कि यह छोटे-बड़े सभों ही को खुश रखती और जरूरत पड़ने पर सभों ही का थोड़ा-बहुत काम कर दिया करती। यही कारण था कि बेला का काम भी बहुत जल्द निकल जाया करता और समय पड़ने पर सभी कोई इसकी मदद के लिए तैयार हो जाते।

बेला यद्यपि मजदूरनी थी मगर उसका दिल अमीराना था। खान-पान, पहिरना सभी बातों में उसकी सफाई बढ़ी-चढ़ी थी और यद्यपि उसे रुपये-पैसे की आमदनी बहुत ज्यादे थी मगर वह बटोरना या जमा करना नहीं जानती थी। जो कुछ उसके हाथ में आता सभी खर्च कर देती और इस सबब से वहाँ के सभी आदमी कुछ-न-कुछ उसके अहसान से दबे रहते थे।

यह सब कुछ था मगर वह अपने मालिक-मालकिन की बहुत ही खैरख्वाह थी और उनके साथ मुहब्बत रखती थी तथा वे दोनों भी उसे दिलोजान से चाहते थे। भैयाराजा के छिप कर इस महल में आने-जाने का हाल बेला अच्छी तरह जानती थी परन्तु इस भेद को वह भी उसी तरह छिपाये हुए थी जैसाकि उसकी मालकिन अर्थात् भैयाराजा की स्त्री। जबकि भैयाराजा का भेद बेला को मालूम था तब समझ रखिए कि दारोगा की शैतानी का हाल या जो कुछ दारोगा ने भैयाराजा के साथ सलूक किया था वह भी बेला जरूर जानती थी।

बेला की उम्र यद्यपि चालीस वर्ष के ऊपर होगी परन्तु वह काम-काज और दौड़-धूप में बड़ी मेहनती थी। आलस्य तो उसके हिस्से में था ही नहीं। बेला ने पुनः भैयाराजा की स्त्री से कहा, ‘‘रानी, मैं और लोगों की तरह तुम्हें केवल दिलासा देना और समझाना-बुझाना पसन्द नहीं करती बल्कि होशियार कर देने के लिए और तुम्हें हमेशा चौकन्ना रहने के लिए बराबर ताकीद करते रहना पसन्द करती हूँ। यद्यपि भैयाराजा की इस चीठी का आ जाना तुम्हारे लिए बहुत ही अच्छा सगुन है और यह तुम्हारे लिए बहुत ही अच्छा मामला हो सकता है परन्तु फिर भी मैं कहती हूँ कि आजकल का जमाना तुम्हारे लिए अच्छा नहीं है। भैयाराजा जी न मालूम क्या समझ कर अभी तक छिपे हुए हैं और यहाँ आकर खुले मैदान कार्रवाई करना पसन्द नहीं करते, पर जहाँ तक मैं देखती और समझती हूँ उनके ऐसा करने से कम्बख्त दारोगा का जोर बढ़ता जाता है। ताज्जुब नहीं कि एक दिन भैयाराजा जी का सामना हो जाने पर वह उन्हीं को झूठा बनावे। मैंने यह भी सुना है कि वह आजकल में तुम्हें मरवा डालने की धुन में लगा हुआ है और बदनाम करने की कार्रवाई तो रोज ही किया करता है।’’

भैया० की स्त्री : बेला, तेरा कहना बहुत ठीक है। उनकी कार्रवाई से मैं अच्छी तरह बदनाम हो गई हूँ, दारोगा तो हम लोगों का दुश्मन ही है, उसका कहना ही क्या परन्तु अब मैं इस भेद को खोल देना ही पसन्द करती हूँ यद्यपि उन्होंने चीठी में भी ऐसा करने की इजाजत नहीं दी है।

बेला : आखिर इसमें उन्होंने लिखा क्या है?

भैया० की स्त्री : (चीठी बेला के हाथ में देकर) ले इसे तू खुद पढ़ ले!

बेला : (चीठी पढ़ के) चाहे जो हो मगर मैं उनके इस विचार की पक्षपाती नहीं हूँ। लो इसे रक्खो बेशक, इस चीठी से तुम्हें बहुत सहायता मिलेगी। अब तो मैं इस भेद को खोल देना ही पसन्द करती हूं। आज-कल में रानी साहेबा जरूर तुमसे इस विषय में बातचीत करेंगी, मुझे ऐसा अन्दाजा मिल चुका है।

भैया० की स्त्री : खैर अगर वे इस विषय में मुझसे बातचीत करेंगी तो मैं जो कुछ कहना है साफ-साफ कह दूँगी। अच्छा तो यह बता कि इस चीठी का जवाब लिख कर मैं उनके पास भेज सकती हूँ?

बेला : मैं भी यही चाहती थी कि उन्हें एक चीठी लिख कर यहाँ के हाल-चाल की खबर कर दी जाये मगर लाचार हूँ कि इस चीठी को लाने वाले ने जवाब का इन्तजार नहीं किया और न कुछ जबानी ही कहा-सुना, बस चीठी हाथ में देकर चलता बना। अब अगर जवाब जाय तो कहाँ और किसके हाथ जाये? उनका कुछ पता-ठिकाना भी तो मालूम नहीं है।

भैया० की स्त्री : फिर क्या किया जाये? (बाहर की तरफ देखती हुई चौंक कर) ले देख भाभी (रानी साहिबा) तो स्वयं यहाँ आ रही हैं। आज वे बहुत जल्द सोकर उठ बैठी हैं।

बेला : मालूम होता है वे इस समय इस विषय में तुमसे बातचीत किया चाहती हैं, भरसक तो तुम तीन-चार दिन के लिए और बचा लो अर्थात भेद खोलने से रुकी रहो, इस चीठी मे उन्होंने तीन-चार दिन में तुमसे मिलने के लिए लिखा है, इसके बाद जैसा होगा देखा जायगा। अच्छा मैं बाहर जाती हूँ।

इतना कह कर बेला कमरे से बाहर निकल गई और रानी साहिबा कमरे के अन्दर दाखिल हुईं। भैयाराजा की स्त्री को रानी साहिबा बहुरानी के नाम से सम्बोधन करती थीं इस लिए अब हम भी उसे बहुरानी के नाम से पुकारेंगे।

रानी साहिबा को देखते ही बहुरानी उठ खड़ी हुईं और प्रणाम करने के बाद उन्हें अपने पलंग पर बैठा के स्वयं नीचे बैठने लगीं मगर रानी साहिबा ने उसे ऐसा करने न दिया, प्यार से उसका हाथ पकड़ कर अपने पास बैठा लिया और इस तरह उन दोनों में बातचीत होने लगी।

इस जगह हम इतना कह देना जरूरी समझते हैं कि इन दिनों महल में प्रायः सभी आदमी बहुरानी पर दोषारोपण करते थे परन्तु रानीसाहिबा उसे बहुत चाहती और प्यार करती थीं तथा उनका दिल बहुरानी को कलंकित करने का साहस नहीं करता था।

रानी : बहुरानी, तुम जानती हो कि मैं तुम्हें कितना चाहती और प्यार करती हूँ, और यह भी तुमसे छिपा हुआ न होगा कि आजकल तुम्हारे विषय में लोगों का खयाल कैसा हो रहा है, क्योंकि कई दफे किसी आदमी को कमन्द के सहारे तुम्हारे कमरे में आते-जाते कई लोगों ने देखा।

बहु० : मैं जानती हूँ कि महल में मुझे मानने और प्यार करने वाला अगर कोई है तो सिवाय आपके दूसरा नहीं। साथ ही इसके लोगों का दिल भी जिस तरह मेरी तरफ से फिर रहा है उसे भी खूब समझती हूँ। यदि आपकी कृपा मेरे ऊपर न होती तो न मालूम अब तक लोग मुझे किस दर्जे को पहुँचा चुके होते। यद्यपि इस विषय में आपने अभी तक मुझसे कुछ नहीं पूछा है तथापि मैं शपथपूर्वक सच-सच आपसे कहती हूँ कि मैं व्याभिचारिणी नहीं हूँ, पापिनी नहीं हूँ। और मुझ पर बदचलनी का धब्बा नहीं लग सकता। यद्यपि यह सच है कि मेरे पास एक आदमी कई दफे आ चुका है परन्तु वह आदमी ऐसा नहीं है कि मेरे पास आने लायक न हो अथवा उसके आने से मैं किसी तरह बदनाम हो सकूँ। वह भेद अब बहुत दिनों तक छिपा न रहेगा, पाँच-चार दिन के अन्दर ही आप-से-आप खुल जायगा और तब आपको मालूम होगा कि मैं कहाँ तक सच्ची हूँ।

रानी : (आश्चर्य के साथ) क्या तुम्हारे पास आने वाला कोई ऐसा आदमी है जिसे मैं जानती हूँ?

बहु० : बेशक आप जानती हैं उसे लड़के समान मानती तथा प्यार करती हैं, चार-पाँच दिन के अन्दर ही आप पर यह भेद खुल जायगा।

रानी : ओफ, तुम्हारे इस कहने से मेरी उत्कंठा और भी बढ़ गई! चार-पाँच दिन तक सब्र करना मेरे लिए बड़ा ही कठिन है खास करके ऐसी अवस्था में जबकि वह भेद तुम्हें मालूम है और तुम हर तरह से मेरी दिलजमयी कर सकती हो। अगर तुम मुझ पर भरोसा रखती हो और मेरी तरह तुम भी मुझे प्यार करती हो तो मुझसे तुम्हें छिपाने की जरूरत नहीं है। इस बात का मैं तुमसे वादा करती हूँ कि तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध मैं यह भेद किसी पर प्रकट न करूँगी, जब तक तुम न कहोगी इसे दिल की तह में छिपाये रहूँगी, लो अब तुम यह बता दो कि यह मामला क्या है।

बहु० : (कुछ सोच कर) लाचार हूँ कि आपकी आज्ञा के विरुद्ध मैं जिद नहीं कर सकती परन्तु चाहती यही थी कि अपने पति की आज्ञा का पालन करूं और स्वयं इस भेद को अपने मुँह से न खोलूँ।

रानी : (आश्चर्य से) तो क्या यहाँ तुम्हारे पास आने वाले भैयाराजा ही हैं?

बहु०: जी हाँ। अब इस भेद का छिपाना मैं आप ही के सुपुर्द करती हूँ, यद्यपि मैं स्वयं इसके विरुद्ध हूँ और नहीं समझ सकती कि ऐसा करने में उन्होंने क्या फायदा समझ रक्खा है, अगर कुछ फायदा है तो यही कि व्यर्थ मैं बदनाम होती हूँ।

रानी : बेशक उन्होंने यह काम अच्छा नहीं किया। तुम देखती हो कि उनके गम में उनके भाई की क्या दशा हो रही है! चन्द ही दिनों में कैसे दुबले हो गए हैं! भला यह भी कुछ तुम्हें मालूम है कि उनके गायब होने का कारण क्या है?

बहु० : हाँ मालूम है। दारोगासाहब उनका जीते रहना पसन्द नहीं करते और उन्हें मार डालने कि फिक्र में लगे थे। एक दिन मौका पाकर दारोगा ने उन्हें अपने खयाल से मार कर जमीन के अन्दर अपने मकान में दफना दिया मगर उनके किसी दोस्त ने उन्हें वहाँ से निकाल कर उनके बदले में दूसरा आदमी वहाँ गाढ़ दिया। ईश्वर की मर्जी थी कि उनकी जान बच गई। दारोगा को इस बात की कुछ भी खबर नहीं, क्योंकि शायद ही उसने वह लाश निकाल कर देखी हो या उसे कुछ सन्देह हुआ हो। यही सबब है कि वे भूत बन कर एक दफे भाईजी (राजा साहब) को दिखाई दिये थे और राजा साहब को उन्होंने लिख कर बता भी दिया था कि ‘मुझे दारोगा ने मार डाला है’।

रानी : (आश्चर्य और क्रोध से) जो कुछ तुम कहती हो बेशक सच होगा, मैं उस कम्बख्त दारोगा की बदमाशी को खूब जानती हूँ। मगर बड़े ही दुःख की बात है कि राजा साहब को उसने वश में कर रक्खा है और वे उसे पूरा योगी और महात्मा ही समझे बैठे हैं। सबूत देने पर भी वे दारोगा को बुरा न समझेंगे और बिना सबूत के दारोगा के विषय में किसी की जुबान हिलाने की ताकत ही कहाँ है। लेकिन अब जो यह सब हाल अगर राजा साहब से कह दूँ तो वे मुझे और तुझे कदापि सच्चा न समझेंगे इसलिए इस भेद को अभी छिपाये रखना उचित है। खैर देखूँगी कि कम्बख्त दारोगा कहाँ तक साधू और महात्मा बनता है, दस-पाँच दिन के बाद मौका देख कर मैं गोपाल (कुँअर गोपालसिंह) से बातचीत करूँगी, वह बेचारा भी अपने बाप की बदौलत धोखे में पड़ा हुआ है। अच्छा यह तो बता कि आजकल भैयाराजा कहाँ हैं और किस फिक्र में हैं! क्या इन दिनों यहाँ आए थे?

बहु० : नहीं, वे तो उस दिन के बाद फिर कभी नहीं आए जिस दिन उनके आने के कारण पिछले नजरबाग में कोलाहल मचा हुआ था। वह भी दारोगा ही का काम था! हाँ आज उनकी एक चीठी आई।

रानी : क्या वह चीठी मैं देख सकती हूँ?

बहु० : हाँ-हाँ देखें, (चीठी देकर) आपसे भला मैं क्यों छिपाने लगी?

रानी : (चीठी पढ़ कर) खैर, इस चीठी को पढ़ कर मुझे यह तो ढाढ़स हुई कि बेचारे भैयाराजा अभी तक कुशलपूर्वक हैं, नहीं तो उनके विषय में कैसे-कैसे बुरे गुमान पैदा होते थे! बहुरानी, तू बेशक सच्ची साध्वी है, मुझसे कसूर हुआ कि मैंने तुझ पर शक किया। पहिले-पहिल जब मुझे इस बात की खबर लगी कि तेरे पास कोई आदमी छिप कर आता है तो मारे गुस्से के मैं जल-भुन कर कबाब हो गई, बिना कुछ सोचे-विचारे महाराजा को भी इस बात की खबर कर दी और उस समय तो मेरे रंज का कोई हद न रहा जब जाँच करने पर यह बात सच निकली, राजा साहब को भी इस बात का बड़ा ही दुःख हुआ, मगर अब मैं अपनी भूल पर पछताती हूँ। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मैं तुमसे मुहब्बत रखती हूँ और यह भी सबब है कि अपनी भूल साफ-साफ बता देती हूँ, छिपाने और बात बनाने की कोई जरूरत नहीं समझती। मगर अब मुझे इस बात की फिक्र पड़ गई कि महाराज का आईना रूपी दिल किस तरह साफ किया जाय जो कि तेरी तरफ से गंदला हो गया है और कम्बख्त दारोगा दिनों दिन उसकी गंदगी और भी बढ़ा रहा है। इस भेद को खोल कर दारोगा पर जुर्म लगाना भी इस समय उचित नहीं जान पड़ता, कदाचित् वादे के मुताबिक भैयाराजा यहाँ न आये तो हम लोग मुफ्त में झूठे और बेईमान ठहराये जायेंगे और दारोगा को इस बात का और भी मौका लग जायगा कि हमारे सीधे-सादे महाराज को हम लोगों की तरफ से भी रंजीदा कर दे।

बहु० : आपका विचार बहुत ठीक है, पर मैं क्या कहूँ मेरी तो कुछ अक्ल ही काम नहीं करती। जो कुछ ठीक-ठीक बात थी वह मैंने आपसे साफ-साफ कह दी, अब जो आप मुनासिब समझें करें।

रानी : अच्छा यह चीठी किसके हाथ आई है? इसका जवाब तूने दिया है या नहीं?

बहु० : बेला मेरे लिए चन्दन खरीदने बाजार गई थी, वहाँ ही एक आदमी ने उसे यह चीठी देकर मेरे पास पहुँचाने की ताकीद की और बिना कुछ जवाब पाये जल्दी के साथ वहाँ से चला गया। मैं नहीं समझ सकती कि इसका जवाब उन्हें क्योंकर दिया जाय। खैर आप कोई ऐसा बन्दोबस्त कर दें जिसमें हम लोगों का और महाराज का डेरा कुछ दिन के लिए खासबाग में चला जाय फिर जो कुछ होगा देखा जाएगा। (१. खासबाग का खुलासा हाल चन्द्रकान्ता सन्तति में लिखा जा चुका है, यह वही बाग है जिसमें मायारानी रहा करती थीं।)

रानी : यह कौन बड़ी बात है, आज ही मैं इसका बन्दोबस्त करती हूँ और आशा है कि कल हमलोग खासबाग ही में दिखाई देंगे। वहाँ अगर भैयाराजा से मुलाकात होगी तो उन्हें समझाना चाहिए कि ‘दारोगा से बदला लेने के लिए तुम्हारा ढंग समयानुकूल नहीं है। तुम तो घर के सरदार ठहरे, तुम्हें तो खुल्लमखुल्ला दारोगा का मुकाबला करना चाहिए।’

बहु० : अबकी दफे अगर वहाँ उनसे मुलाकात हुई तो मैं जरूर आपका सामना कराऊँगी, आप उन्हीं की जुबानी सुनेंगी कि दारोगा ने उनके साथ कैसा बर्ताव किया था।

रानी : मैं बहुत खुश होऊँगी अगर तुम मुझे उनसे मिलवाओगी, कम्बख्त दारोगा को मैं अच्छी तरह पहिचान गई हूँ।

जब तक इस कम्बख्त को सजा न दी जायगी मेरे जी को चैन न पड़ेगा। आज दामोदरसिंह ने अपनी स्त्री को मेरे पास भेजा था और बहुत ही गुप्त रखने की ताकीद करते हुए यह कहला भेजा है कि —‘दारोगा से होशियार रहना, वह तुमको और बहुरानी को मार डालने की फिक्र में है और चाहता है कि बलभद्रसिंह की लड़की से गोपालसिंह की शादी न होने पावे’।

बहु० : मुझे भी उड़ती हुई यह खबर लगी है।

रानी : खैर जो कुछ होगा देखा जाएगा, जितने दिन की जिन्दगी विधाता ने हम लोगों को दे रक्खी है उतने दिन तो कोई मारने वाला नहीं है और इसके अलावे जो कोई जैसा करेगा वैसा फल पावेगा।

बहु० :ईश्वर हमारा सहायक है, आप किसी तरह की चिन्ता न करें। आप खासबाग में चलने की फिक्र करें फिर जैसा होगा देखा जायगा।

रानी : कल हम लोग जरूर खासबाग में चले जायेंगे। कुछ सामान वगैरह लादने की जरूरत तो नहीं है कि तरद्दुद करना पड़ेगा, जिस तरह यहाँ सब दुरस्त है उसी तरह वहाँ भी किसी चीज की कमी नहीं है।

इसके बाद थोड़ी देर तक और भी इन दोनों में बातें होती रहीं तब अन्त में रानी साहिबा बहुरानी को समझा-बुझा कर वहाँ से चली गईं।

रानी साहिबा के इच्छानुसार महाराज ने भी खासबाग में जाना स्वीकार किया और दूसरे दिन प्रातःकाल खासबाग ही में महाराज का दरबार हुआ। बहुरानी और रानी साहिबा भी खासबाग में अपने-अपने ठिकाने जा बिराजीं जहाँ वे सब प्रायः रहा करती थीं। उस दिन तो कुछ नहीं मगर दूसरे दिन सूर्य उदय होते ही रानी साहिबा और बहुरानी को यह खबर लगी कि आज चौकबाजार में दारोगा साहब ठीक चौमुहानी पर बेहोश पाये गए। एक कान कटा और मुँह में कालिख लगी हुई तथा गले में पुराने जूतों का हार पड़ा हुआ था। होश में आने के बाद उसी सूरत में महाराज के पास चले आ रहे हैं।

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