ई-पुस्तकें >> दो भद्र पुरुष दो भद्र पुरुषगुरुदत्त
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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...
‘‘लगभग चालीस रुपये।’’
‘‘और उस बचे दस रुपये का क्या करते थे?’’
‘‘मुझे दिल्ली आये दस मास हो गए हैं। मेरे पास लगभग पचास रुपये बचे तो उनसे मैंने होमियोपैथी की पुस्तकें और औषधियाँ खरीद ली हैं।’’
‘‘बहुत सुन्दर। अब यह बताओ कि होमियोपैथी पढ़कर तुम इससे आय करने का विचार रखते हो न?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘तो क्या इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि पचास रुपये, जो तुम्हारे अपने परिश्रम से पैदा हुए थे और तुम्हारे हैं, वे अब पूँजी बन गये हैं? क्या अब भी तुम कहोगे कि पूँजी किसी की अपनी नहीं होती?’’
चरणदास की समझ में बात आ गई तो उसने उस पुस्तक को, जिसमें पूँजी और परिश्रम की यह मीमांस पढ़ी थी, रद्दी की टोकरी में फेंक दिया। वह मन में विचार करता था कि कितनी भ्रममूलक यह बात थी! इसी पुस्तक को पढ़कर ही वह बी० ए० और बी० टी० की परीक्षा देने के लिए उद्यत हुआ था। वह समझता था कि यदि उसके पास पूँजी बढ़ने की आशा नहीं तो क्यों न वह परीक्षाएँ पास कर अपनी आय बढ़ाने का यत्न करे?
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