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दो भद्र पुरुष

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :270
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7642
आईएसबीएन :9781613010624

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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...


‘‘उस समय तुम्हारे पिताजी के मस्तिष्क में क्या योजना थी, यह तो मैं नहीं जानता, परन्तु मेरे पिताजी ने मुझको एक योजना बताकर कहा था–सोमनाथ के परिवार की सदा सहायता करना।’’

‘‘मैं समझता हूँ कि यदि तुम्हारे पिताजी उस समय मान जाते तो आज तुम मेरे बराबर नहीं तो दिल्ली के धनवान व्यक्तियों में से एक अवश्य होते। तुम को कुछ व्यय नहीं करना पड़ता। तुम ऐसा ढंग समझ जाते, जिससे तुम जैसे और इस वकील-जैसे तुम्हारी नौकरी करने के लिए आते।’’

चरणदास ने कहा, ‘‘मैं अभी एक पुस्तक पढ़ रहा था, जिसमें लिखा था कि परिश्रम कुछ अधिक लाभ नहीं दे सकता। यह पूँजी ही है जिसमें लाखों कमाए जा सकते हैं। पूँजी तो किसी की अपनी नहीं होती इस कारण पूँजी से जो कुछ उत्पन्न होता है, वह हराम की कमाई है।’’

‘‘वह पुस्तक किसी मूर्ख की लिखी प्रतीत होती है। इसमें दो भ्रान्तियाँ हैं। एक तो यह कि केवल परिश्रम से ही कुछ अधिक लाभ नहीं हो सकता। ऐसा प्रतीत होता है कि वह बुद्धि के परिश्रम को नगण्य मान बैठा है। बुद्धि भी तो एक प्रकार की मशीन है, जैसे तुम्हारी साइकल और किसी अन्य का हवाई जहाज। जैसे ये वस्तुएँ तुम्हारी टाँगों के परिश्रम को कई गुना अधिक कर देती हैं, वैसे ही बुद्धि भी कर सकती है और बुद्धि अपनी वस्तु है।

‘‘दूसरी भ्रान्ति इस कथन में यह है कि पूँजी किसी की अपनी नहीं हो सकती। अच्छा मैं तुमसे पूछता हूँ कि तुम पचास रुपये मासिक कमाते थे, कितना व्यय करते थे उसमें से?’’

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