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दो भद्र पुरुष

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :270
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7642
आईएसबीएन :9781613010624

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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...


‘‘माँ, उन्होंने पिताजी पर झूठा लांछन लगाया है।’’

‘‘यह तुम किस प्रकार कह सकती हो? इसके झूठ-सत्य के विषय में तो तुम्हारे पिताजी ही जान सकते हैं।’’

इस समय लक्ष्मी आ गई। उसका मुख क्रोध से लाल हो रहा था और भृकुटि चढ़ी हुई थी। वह आकर बोली, ‘‘सुमित्रा, तुम्हारे विषय में तो हमारी पहले की सम्मति अच्छी नहीं है। तुमने कस्तूरी को पथ-भ्रष्ट किया है और वह अपने कृत्य पर लज्जित है। अब तुम अपने फूफा पर लांछन लगा रही हो।

‘‘मैं सोचती हूँ कि हमने तुम्हें और तुम्हारे पिता को घर में जगह देकर भारी भूल की थी।’’

‘‘बूआजी, वह भूल तो हो गई। अब आप क्या मेरे कहे का प्रमाण चाहती हैं?’’

‘‘हाँ, मैंने तुम्हारे फूफाजी को सब बता दिया है। उनका कहना है कि यह सब झूठ है।’’

सुमित्रा ने अपने पर्स में से एक पत्र निकाल कर अपनी बूआ के सम्मुख रख दिया और बोली, ‘‘इसे पढ़ लीजिए।’’

लक्ष्मी ने पत्र पर पता देखा। वह गजराज की कोठी का ही था। लिफाफे पर मोहर शहर के डाकखाने की थी। पता उर्दू में लिखा था। पत्र भी उर्दू में ही लिखा था। लक्ष्मी ने पत्र पढ़ा। उसमें लिखा था–

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