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दो भद्र पुरुष

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :270
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7642
आईएसबीएन :9781613010624

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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...


सुमित्रा और मोहिनी उसकी उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रही थीं। मोटर कोठी में आई तो दोनों अपने-अपने कमरे से बाहर निकल आईं। चरणदास उनका चिन्ताग्रस्त मुख देख पूछने लगा, ‘‘क्या बात है? मेरी ओर इस प्रकार क्यों देख रही हो?’’

‘‘आप अभी तक कहाँ थे? हमारा मन डर रहा था।’’

‘‘यही न कि मैं आत्महत्या करने गया हूँ? तुम दोनों पागल हो। जब मैं पैंतीस रुपये मासिक का स्कूल मास्टर था, तब मैंने आत्महत्या नहीं की, अब तो लखपति हूँ।’’

‘‘पर यह हुआ क्यों? क्या किया था आपने?’’

‘‘बताऊँगा। चलो, भीतर चलो।’’

जब सब ड्राइंग-रूम में जाकर बैठे तो चरणदास ने जेब से वह टाइप की हुई चिट्ठी निकाल सुमित्रा से पूछा, ‘‘यह किसने भिजवाई है?’’

‘‘सुमित्रा ने चिट्ठी पढ़ी तो कहा, ‘‘फूफाजी ने भिजवाई होगी। माँ ने फोन किया था और अपने मन का संशय बताया था। तब उन्होंने कहा था कि वे जानते हैं कि आप कहाँ हैं। यदि हम चाहें तो वे आपको बुला सकते हैं। फिर उन्होंने कहा था कि वे आशा करते हैं कि आप एक घण्टे में आ जायेंगे।’’

‘‘अच्छा! तो यह बात है?’’ चरणदास को स्मरण था कि गजराज को शरीफन के विषय में उसने ही बताया था। वह समझ गया कि गजराज किसी-न-किसी भाँति मकान जान गया है और उसने यह पत्र भेजा है। अब उसने अपनी पत्नी तथा लड़की को सांत्वना देने के लिए वृत्तान्त को कुछ बिगाड़कर, कुछ छिपाकर बताना आरम्भ किया, ‘‘कई दिन से जीजाजी कस्तूरी के लिए परेशान थे। उन्होंने उसे काम दिलवाने के लिए मुझसे अपने पद से त्याग-पत्र माँग लिया है।

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