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दो भद्र पुरुष

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :270
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7642
आईएसबीएन :9781613010624

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दो भद्र पुरुषों के जीवन पर आधारित उपन्यास...

तृतीय परिच्छेद

: १ :

गजराज ने शरीफन को नोटिस दे दिया। उसने कहा, ‘‘मैं तुमको तब सहायता दे सकता हूँ जब तुम मेरे मुकर्रिर मकान में रहो और वहाँ पर किसी अन्य व्यक्ति से सम्बन्ध न रखो।’’

‘‘मैं तो आपकी मंजूरशुदा जगह पर ही रहती हूँ। मेरा किसी अन्य से सम्बन्ध भी नहीं है।’’

‘‘देखा शरीफन, मैंने तुम्हें बहुत रुपया दिया है। उसके बदले में तुमने मेरा जी बहलाया है। मगर अब तुम बच्चे की माँ हो गई हो। मुझे इस बच्चे का बाप बनना होगा। मैं इसका असली बाप हूँ अथवा नहीं, यह न जानता हुआ भी इसका बाप माना जाऊँगा। इसलिए अब दिल बहलाने की बात नहीं रही। अब तो यह घर-गृहस्थी की बात हो गई है। बताओ, बिलकुल मेरी बनकर रह सकती हो अथवा नहीं?’’

‘‘मैं तो यह पूछ रही हूँ कि कब मैं आपके अलावा किसी और की बनी हूँ?’’

‘‘तो बताऊँ?’’ मगर बताऊँगा तो फिर दोबारा यहाँ नहीं आऊँगा।’’

एक क्षण तक शरीफन ने गजराज की आँखों में देखा। गजराज मुस्करा रहा था। उसकी समझ में यही आया कि वह कुछ जानता नहीं। सन्देह तो अवश्य करता है, उस सन्देह की तसदीक चाहता है। थोड़ा साहस से काम लेगी तो यह सन्देह दूर हो जाएगा। तब वह फिर उसी प्रकार रह सकेगी, जैसे अब तक रहती आई है। एक बात तो निश्चित थी कि वह चरणदास के घर जाकर भी नहीं रह सकती थी। इतना विचार कर उसने कहा, ‘‘आपका यह शक तो बे-बुनियाद है।’’

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